संध्या रायचौधरी

इंटरनेशनल टेलीकम्यूनिकेशंस यूनियन (आईटीयू) के आंकड़ों के अनुसार भारत और चीन में मोबाइल फोन की संख्या इंसानी आबादी को पीछे छोड़ चुकी है। सिर्फ इन दो देशों में मोबाइल फोन का आंकड़ा 7 अरब पार कर चुका है। चीन की तरह भारत में भी सस्ते से सस्ता फोन उपलब्ध है। लेकिन गंभीर और खतरनाक बात यह है कि इससे इलेक्ट्रॉनिक क्रांति में खतरे ही खतरे उत्पन्न हो जाएंगे जो इस धरती की हर चीज़ को नुकसान पहुंचाएंगे।
फिलहाल भारत में एक अरब से ज़्यादा मोबाइल ग्राहक हैं। मोबाइल सेवाएं शु डिग्री होने के 20 साल बाद भारत ने यह आंकड़ा इसी साल जनवरी में पार किया है। दुनिया में फिलहाल चीन और भारत ही दो ऐसे देश हैं, जहां एक अरब से ज़्यादा लोग मोबाइल फोन से जुड़े हैं। देश में मोबाइल फोन इंडस्ट्री को अपने पहले 10 लाख ग्राहक जुटाने में करीब 5 साल लग गए थे, पर अब भारत-चीन जैसे आबादी बहुल देशों की बदौलत पूरी दुनिया में मोबाइल फोन की संख्या इंसानी आबादी के आंकड़े यानी 7 अरब को भी पीछे छोड़ चुकी है। ये आंकड़े बताते हैं कि अब गरीब देशों के नागरिक भी ज़िन्दगी में बेहद ज़रूरी बन गई संचार सेवाओं का लाभ उठाने की स्थिति में हैं, वहीं यह इलेक्ट्रॉनिक क्रांति दुनिया को एक ऐसे खतरे की तरफ ले जा रही है जिस पर अभी ज़्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यह खतरा है इलेक्ट्रॉनिक कचरे यानी ई-वेस्ट का।

सालाना 8 लाख टन कचरा
आईटीयू के मुताबिक भारत, रूस, ब्राज़ील समेत करीब 10 देश ऐसे हैं जहां मानव आबादी के मुकाबले मोबाइल फोनों की संख्या ज़्यादा है। रूस में 25 करोड़ से ज़्यादा मोबाइल हैं जो वहां की आबादी से 1.8 गुना ज़्यादा हैं। ब्राज़ील में 24 करोड़ मोबाइल हैं, जो आबादी से 1.2 गुना ज़्यादा हैं। इसी तरह मोबाइल फोनधारकों के मामले में अमेरिका और रूस को पीछे छोड़ चुके भारत में भी स्थिति यह बन गई है कि यहां करीब आधी आबादी के पास मोबाइल फोन हैं। भारत की विशाल आबादी और फिर बाज़ार में सस्ते से सस्ते मोबाइल हैंडसेट उपलब्ध होने की सूचनाओं के आधार पर इस दावे में कोई संदेह भी नहीं लगता। पर यह तरक्की हमें इतिहास के एक ऐसे मोड़ पर ले आई है, जहां हमें पक्के तौर पर मालूम नहीं है कि आगे कितना खतरा है। हालांकि इस बारे में थोड़े-बहुत आकलन-अनुमान अवश्य हैं जिनसे समस्या का आभास होता है।
जैसे वर्ष 2013 में इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्निकल एजूकेशन एंड रिसर्च (आईटीईआर) द्वारा इलेक्ट्रॉनिक कचरे (ई-वेस्ट) का प्रबंधन और साज-संभाल विषय पर आयोजित सेमीनार में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के विज्ञानियों ने एक आकलन करके बताया था कि भारत हर साल 8 लाख टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा कर रहा है। इस कचरे में देश के 65 शहरों का योगदान है पर सबसे ज़्यादा ई-वेस्ट देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई में पैदा हो रहा है। हम अभी यह कहकर संतोष जता सकते हैं कि हमारा पड़ोसी मुल्क चीन इस मामले में हमसे मीलों आगे है।

पश्चिमी देश का कबाड़
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन दुनिया का सबसे बड़ा ई-वेस्ट डंपिंग ग्राउंड है। उल्लेखनीय यह है कि जो टीवी, फ्रिज, एयर कंडीशनर, मोबाइल फोन, कंप्यूटर आदि चीन में बनाकर पूरी दुनिया में सप्लाई किए जाते हैं, कुछ वर्षों बाद चलन से बाहर हो जाने और कबाड़ में तब्दील हो जाने के बाद वे सारे उपकरण चीन या भारत लौट आते हैं। निसंदेह अभी पूरी दुनिया का ध्यान विकास की ओर है। विज्ञान की तरक्की ने हमें जो साधन और सुविधाएं मुहैया कराई हैं, उनसे हमारा जीवन पहले के मुकाबले आसान भी हुआ है। कंप्यूटर और मोबाइल फोन जैसी चीज़ों ने हमारा कामकाज काफी सुविधाजनक बना दिया है। इसकी लिस्ट काफी लंबी है और फैक्स मशीन, फोटो कॉपी, डिजिटल कैमरे, लैपटॉप, पिं्रटर, इलेक्ट्रॉनिक खिलौने व उपकरण, एयर कंडीशनर, माइक्रोवेव कुकर, थर्मामीटर आदि चीज़ों ने हमें चारों तरफ से घेर लिया है। दुविधा यह है कि आधुनिक विज्ञान की देन पर सवार हमारा समाज जब इन उपकरणों के पुराने या बेकार होने पर उनसे पीछा छुड़ाने की कोशिश करेगा, तो ई-वेस्ट की विकराल समस्या से कैसे निपटा जाएगा।

यह चिंता भारत-चीन जैसे तीसरी दुनिया के मुल्कों के लिए ज़्यादा बड़ी है क्योंकि कबाड़ में बदलती ये चीज़ें ब्रिटेन-अमेरिका जैसे विकसित देशों की सेहत पर कोई असर नहीं डाल रही है। इसकी एक वजह यह है कि तकरीबन सभी विकसित देशों ने ई-कचरे से निपटने के प्रबंध पहले ही कर लिए हैं। और दूसरी, कि वे ऐसा कबाड़ हमारे जैसे गरीब मुल्कों की तरफ ठेल रहे हैं। ज़ाहिर है हमारे लिए चुनौती दोहरी है। पहले तो हमें देश के भीतर ही पैदा होने वाली समस्या से जूझना है और फिर विदेशी ई-वेस्ट के उस सतत प्रवाह से निपटना है, जिसे लेकर कोई ज़्यादा बेचैनी भारत और चीन समेत दूसरे कई गरीब-विकासशील देशों में नहीं दिखाई देती। हमारी चिंताओं को असल में इससे मिलने वाली पूंजी ने ढांप रखा है। विकसित देशों से मिलने वाले चंद डॉलरों के बदले हम यह मुसीबत खुद ही अपने यहां बुला रहे हैं। दूसरी तरफ मोबाइल फोन और इसी तरह अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामानों की बढ़ती फेहरिस्त हमें इनसे जुड़े खतरों की तरफ धकेल रही है। ई-कबाड़ पर्यावरण और मानव सेहत की बलि भी ले सकता है। मोबाइल फोन की ही बात करें तो कबाड़ में फेंके गए इन फोनों में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक और विकिरण पैदा करने वाले कलपुर्जे सैकड़ों साल तक ज़मीन में स्वाभाविक रूप से घुलकर नष्ट नहीं होते। सिर्फ एक मोबाइल फोन की बैटरी अपने बूते 6 लाख लीटर पानी दूषित कर सकती है। इसके अलावा एक पर्सनल कंप्यूटर में सीसा, फॉस्फोरस, कैडमियम व मरकरी जैसे घातक तत्व होते हैं, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं और विषैले प्रभाव उत्पन्न करते हैं। कंप्यूटर स्क्रीन के रूप में इस्तेमाल होने वाली कैथोड किरण पिक्चर ट्यूब जिस मात्रा में सीसा (लेड) पर्यावरण में छोड़ती है, वह भी काफी नुकसानदेह होता है।

ई-कबाड़ पर कानून
समस्या इस वजह से भी ज़्यादा विनाशकारी है क्योंकि हम सिर्फ अपने ही देश के ई-कबाड़ से काम की चीज़ें निकालने की आत्मघाती कोशिश नहीं करते बल्कि विदेशों से भी ऐसा खतरनाक कचरा आयात करते हैं। ग्रीनपीस ने अपनी रिपोर्ट ‘टॉक्सिक ट्रैश: रीसाइक्लिंग इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट्स इन चाइना एंड इंडिया’ में साफ किया है कि जिस ई-कबाड़ की रिसाइक्लिंग पर युरोप में 20 डॉलर का खर्च आता है, वही काम भारत-चीन जैसे मुल्कों में महज़ चार डॉलर में हो जाता है। वैसे तो हमारे देश में ई-कबाड़ पर रोक लगाने वाले कानून हैं। खतरनाक कचरा प्रबंधन और निगरानी नियम 1989 की धारा 11 (1) के तहत ऐसे कबाड़ की खुले में रिसाइक्लिंग और इसके आयात पर रोक है, लेकिन नियम-कायदों की अनदेखी का आलम यह है कि अकेले दिल्ली की सीलमपुर, जाफराबाद, मायापुरी, बुराड़ी आदि बस्तियों में संपूर्ण देश में आने वाले ई-कचरे का 40 फीसदी हिस्सा रिसाइकिल किया जाता है। हमारी तरक्की ही हमारे खिलाफ न हो जाए और हमारा देश दुनिया के ई-कचरे के डंपिंग ग्राउंड में तबदील होकर न रह जाए इस बाबत सरकार और जनता, दोनों स्तरों पर जागृति की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)