सी.एन. सुब्रहाण्यगम

आम तौर पर गलती करने का बुरा और अवांछनीय माना जाता है और यह उम्मीद की जाती है कि इन्सान किसी भी प्रकार की गलती न करे। बच्चे सीखने के दौरान गलती करते हैं तो शिक्षक परेशान हो जाते हैं, और जवाब में बच्चों को परेशान करने लगते हैं; ‘गोबर खाके आया है क्या – इतना भी समझ में नहीं आता है?’ कई शिक्षक ऐसे भी हैं जो मानते है कि गलतियों से बच्चे सीख सकते हैं और गलती करने पर बच्चे  को समझाने का प्रयास करते हैं। कई शिक्षाशास्त्रीं यह भी मानते हैं सीखने की प्रक्रिया में गलतियां होंगी ही और सिखाने में उनका उपयोग किया जा सकता है। हाल में मैं एक प प्रसिद्ध सूफी ग्रंथ का फारसी से अनुवाद पढ़ रहा था तो इस सिलसिले में एक विचित्र बात पढ़ने को मिली – यह कि बार-बार गलती करके सीखना गलती न करने से बेहतर है। सोचा कि इस प्रसंग के बारे में कुछ लिखूं। देहली के ‘हजरत नि़ज़ामुद्दीन औलिया’ भारत के सूफी संतों मं अग्रणी माने जाते हैं। कवि और संगीतकार अमीर खुसरो और इतिहासकार जिया बरनी और देहली के तमाम सुल्तानों व राजनैतिज्ञों की गिनती उनके मुरीदों (शिष्यों) में की जाती थी। उनके एक मुरीद थे अमरी हसन। वे जब भी शेख साहब के खानकाह में जाते थे वहां जो भी बातचीत होती थी सका ब्‍यौरा घर आकर लिख लेते थे। यह 1322 तक चला। न विवरणों के संकलन को उन्हो ने ‘फावईदुल फुआद’ नाम दिया। यह ग्रथ न केवल सूफी संप्रदाय के अध्ययन के लिए महत्वसपूर्ण है बल्कि तत्काकलीन इतिहास का एक प्रमुख स्रोत भी है। कहा जाता है कि अमीर खुसरो ने अमीर हसन को, उनकी इस कृति के बदले में अपनी तमाम पुस्तक के उनके नाम करने की पेशकश की थी।

‘फवाईदुल फुआद’ में सन 1319 की एक मजलिस (बैठक) का विवरण है जिसमें गलतियों की चर्चा है। सूफी संप्रदाय के अनुसार दो तरह के लोग होते हैं, एक जिन्होंने कभी गलती नहीं की और दूसरे वे लोग जिन्‍होंने गलती करके अपने आप को सुधारा है। सवाल यह था कि इन दोनों में से बेहतर कौन है, वह  जिसने कभी गलती नहीं की या वह जो गलती करके सुधरा है। ख्वांजा निज़ामुद्दीन ने कहा कि इस विषय में संप्रदाय में भी मतभेद है। उनका खुद का क्या मत था यह तो उन्होंने स्पष्ट़ नहीं बताया लेकि‍न उन्होंने एक कहानी बताई जो इस प्रकार थी। आगे अमीर हसन के शब्दों में पढ़ें:

‘’फिर ख्वाजा जी ने एक किस्सा सुनाया जिससे यह अंदाज़ लगाया जा सकता था कि इन दो मतों में से कौन-सा सही हो सकता है। उन्होंने कहा, ‘एक बार स विषय पर दो लोगों के बीच एक चर्चा छिड़ गई थी। ... बहस चलती रही मगर कोई निष्कर्ष नहीं निकल पाया। फिर दोनों उस दौर के मसीहा के पास गए और उनसे अपना फैसला देने को कहा। मसीहा ने कहा कि वे इस विषय में कुछ नहीं कह पाएंगे जब तक कि उन्हें कोई दैवी प्रेरणा न मिले। इस बीच उन्हें  दैवी आदेश मिला कि ये दोनों व्यक्ति रात को एक ही जगह ठहरें और सुबह घर से बाहर निकलने पर जिस किसी से भी पहले मिलें उससे इसी सवाल को पूछें।

दोनों ने इस आदेश का पालन करते हुए रात एक ही घर में गुज़ारी और सुबह होते ही बाहर निकले और जो आदमी उन्हें दिखा उससे जाकर बोले कि क्या वह उनकी एक समस्या का निदान करेगा। उसने समस्‍या पूछी। उन्होंने कहा कि वे उससे जानना चाहते थे कि इन दो में से कौन बेहतर है – वह जिसने कोई गुनाह या गलती की हो और अपनी गलती समझकर निश्चय किया हो कि भविष्य  में ऐसा करेगा। जवाब में उस आदमी ने कहा, ‘ओ ख्वाजा मैं ठहरा एक अनपढ़ जुलाहा। मैं कैसे आपके इस विवाद को सुलझा सकता हूं। बहरहाल, मैं यही जानता हूं कि मैं जब कपड़ा बुनता हूं और कोई धागा बार-बार टूटता रहता है तो मैं बार-बार उसे जोड़कर गठान बांध देता हूं। ऐसा धागा उस धागे से ज़्यादा मज़बूत होता है जो एक बार भी नहीं टूटा हो। ‘दोनों फिर उस मसीहा के पास गए और पूरी बात बताई। मसीहा ने उनसे कहा कि यही उस प्रश्न का सही उत्तर है।‘’

यह किस्सा कई मायनों में महत्व रखता है। एक तो यह है कि इस विवाद का निदान किसी धार्मिक या आध्यात्मिक तर्क के आधार पर नहीं किया गया- बल्कि एक अनपढ़ जुलाहे के तजुर्बे के आधार पर हुआ। दूसरा यह कि जुलाहे ने यह सिद्ध किया कि जो कोई ज्‍़यादा गलति‍यां करके सीखा और सुधरा हो वह ज़्यादा परिपक्व और बेहतर होगा।

अगर हम थोड़ा विचार करें तो जुलाहे की बात की गहराई समझ मे आएगी। धागा भले ही कहीं से टूटा नहीं है। लेकिन धागे के कई हिस्से ऐसे होंगे जो कमजोर रहेंगे ओर दबाव पड़ने पर टूट सकते हैं। अगर कपड़ा बुनते वक्त ही ये कमज़ोर कडि़यां पहचान में आ जाएं तो गांठ लगाकर सुधारी जा सकती हैं ताकि जो हिस्से कमजोर थे वे मज़बूत हो जाएं। फिर उनके टूटने का डर कम हो जाता है।

सामान्य दर्शक को भले ही सपाट धागा अच्छा लगे लेकिन एक जुलाहा ही समझ सकता है कि एक सपाट लंबे धागे से गठानयुक्त धागा ज़्यादा मज़बूत होता है। धागा जब बार-बार टूटता है उसे ज़रूर पेरशानी होती होगी लेकिन नहीं तो कपड़ा मज़बूत कैसे बने।

किसी भी चीज़ को सीखते हुए हम इसी बात पर ध्या न देते हैं कि वह क्या है; वह क्या नहीं है इस बात पर कम ही ध्यान दिया जाता है। लेकिन किसी भी चीज़ को बखूबी समझने के लिए यह समझना भी ज़रूरी है कि वह क्या नहीं है। इस तरह की समझ को बनाने में गलतियां बहुत मदद करत हैं। उदाहरण के लिए जोड़ की क्रिया सीखते वक्त बच्चे म कई गलतियां करते हैं: जैसे तिरछे जोड़ना, बाएं से जोड़ना, हासिल नहीं लेना, कम ज़्यादा जोड़ना, आदि-आदि।

संख्याओं को जोड़ते वक्त इस तरह की बातों से बचना ज़रूरी है। लेकिन इस बात को बच्चे कैसे समझें? ज़रूरी है कि शिक्षक इन गलतियों को पहचान कर बच्चों के साथ इन पर चर्चा करे उन्हें समझाए। तभी तो गांठ बनेगी- मज़बूत।


सी.एन. सुब्रहाण्यम: एकलव्य के सामाजिक अध्ययन शिक्षण कार्यक्रम से जुड़े हैं, होशंगाबाद सेंटर में कार्यरत।