किशोर पंवार

संदर्भ के पिछले अंकों में जीव जगत में श्वसन के तरीकों को लेकर बातचीत चल रही है। इसी कड़ी का एक लेख ‘पेड़ पौधों में श्वसन' 17वें अंक में प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत लेख उसी लेख की कुछ बातों पर टिप्पणी से शुरू होता है। साथ ही इसमें पेड़-पौधों के श्वसन के बारे में कुछ और जानकारी जोड़ी गई है।

संदर्भ का अंक-17 पढ़ा। पेड़-पौधों में श्वसन, सिरफिरे समुद्री केकड़े और ऊर्ध्वपातन विशेष रूप से पसन्द आए। पेड़-पौधों में श्वसन लेख में एक बहुत ही जरूरी मुद्दे को उठाया गया है। आमतौर पर पुस्तकों में ‘जन्तुओं में श्वसन' पर तो ढेर सारी जानकारी मिल जाती है, परन्तु पौधों में श्वसन पर आवश्यक एवं सही जानकारी का अभाव है। पुस्तकों में इस विषय पर आधी-अधूरी या गोलमाल जानकारी ही मिलती है। अतः इस दिशा में संदर्भ का यह प्रयास सराहनीय है। उम्मीद है इससे कुछ धुंध छंटेगी, कुछ भ्रम दूर होंगे।

परन्तु अभी भी कुछ ऐसा है जिसे स्पष्ट करना ज़रूरी है। लेख में कुछ विरोधाभासी एवं भ्रमोत्पादक स्टेटमेंट भी हैं जिनकी ओर मैं आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा। मसलन पौधों का श्वसन तंत्र के अंतर्गत स्पष्ट रूप से बताया गया है कि पूरे पेड़ में रिक्त स्थान होते हैं जो आपस में एक दूसरे से जुड़े रहते हैं। हवा इनमें पत्तियों और तने के छिद्रों से होकर प्रवेश करती है। इस तरह हवा प्रत्येक ऊतक के पास मौजूद होती हैजाहिर है जड़ों में भी ऐसे रिक्त स्थान होते होंगे जहां हवा भरी रहती होगी। तो फिर जड़ों के बारे में चुप्पी कैसी।

स्टोमेटा - बहुपयोगी रन्ध्र
'पत्तियों से' नाम के उपशीर्षक के अंतर्गत लिखा हैः ‘ऊतकों की बिनाई इतनी ढीली होती है कि उनके बीच काफी खाली जगह मौजूद होती है। इस खाली जगह में श्वसन रन्ध्र मौजूद होते हैं।'उल्लेखनीय है कि इन खाली जगहों के ऊपरी हिस्से (Epidermis) पर रन्ध्र मौजूद होते हैं न कि खाली जगह में, जैसा कि लिखा गया है।

इसी तरह स्टोमेटा को विशिष्ट रूप से श्वसन रन्ध्र' कहना उचित नहीं है। क्योंकि इनका काम केवल श्वसन करना नहीं होता। वास्तव में इनसे गैसों का आदान-प्रदान विसरण द्वारा होता रहता है। ये तो केवल ऐसे नियंत्रित रास्ते हैं जिनसे हवा अन्दर बाहर आती जाती रहती है, जिसमें ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन व जलवाष्प होती है।

यह अलग बात है कि इस हवा में उपस्थित ऑक्सीजन श्वसन के काम आती है और कार्बन डाइऑक्साइड भोजन निर्माण में। दिन के समय वाष्पोत्सर्जन की क्रिया में इन्हीं रन्ध्रों से जलवाष्प बाहर निकलती हैअतः स्टोमेटा को केवल 'श्वसन रन्ध्र' कहना तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता। ये तो बहुउपयोगी रन्ध्र हैं।

कहां कहां है लेन्टिसेल
हरे तने में स्टोमेटा और लेन्टिसेल दोनों पाए जाते हैं, जो श्वसन और भोजन निर्माण तथा अन्य व्यर्थ पदार्थों के आवाजाही के मार्ग होते हैं। चूंकि तने काफी मोटे होते हैं और उनकी सतह का क्षेत्रफल कम, अतः केवल स्टोमेटा से काम नहीं चलता। ऐसे में रन्ध्र और वातरन्ध्र (Lenticels) दोनों संयुक्त रूप से इस काम को अन्जाम देते हैं।

बोतल में लगाने वाला कॉर्कः इसमें दिख रहे काले काले धब्बे लेन्टिसेल हैं। मूल आकार से तीन गुना बड़ा चित्र।

इस पेड़ के तने पर दिख रही आड़ी उभरी हुई रेखाएं लेन्टिसेल हैं। गुलमोहर के तनों पर भी लेन्टिसेल साफ-साफ देखे जा सकते हैं।

एक बात और, लेख में लेन्टिसेल की फोटो और काट का चित्र तो दिया है परन्तु इसके साथ ही अगर ये भी बता दिया जाता कि अपने आस-पास मिलने वाले पेड़ों में लेन्टिसेल देखे जा सकते हैं तो बेहतर होता। मसलन आलू की सतह पर, बोतल में लगाने वाले कॉर्क में, तथा सुबबूले और गुलमोहर की शाखाओं एवं तनों पर जो आड़ी भूरे रंग की खुरदुरी धारियां नज़र आती हैं वे लेन्टिसेल ही हैं। इनके तनों पर लाखों की संख्या में लेन्टिसेल देखकर तने के श्वसन में इनकी भूमिका का अन्दाज़ लगाना बहुत आसान है।

तीसरी बात, स्टोमेटा के वितरण को लेकर है। लेख में लिखा है 'ये स्टोमेटा पत्तियों के झुके हुए हिस्से या फिर आमतौर पर नीचे की तरफ होते हैं। यहां झुके हुए हिस्से से लेखक का क्या आशय है स्पष्ट नहीं है। साथ ही ‘आमतौर पर नीचे की तरफ होते हैं। में भी सुधार की गुंजाइश है। यह बात आंशिक रूप से ही ठीक है। क्योंकि पौधों के एक बड़े समूह - ‘एक बीज पत्री' पौधों जैसे घास, बांस और गेहूं आदि की पत्तियों की दोनों सतहों पर समान संख्या में स्टोमेटा पाए जाते हैं।

जड़ों में भी लेन्टिसेल
‘जड़ों में नाम के उपशीर्षक में लिखा है 'दरअसल पत्तियों और तने के समान जड़ों में हवा के आवागमन के लिए कोई विशेष किस्म की रचनाएं नहीं हैं। ये सीधे ज़मीन में मौजूद पानी से ऑक्सीजन सोख लेती हैं। इस संदर्भ में ये स्पष्ट करना जरूरी है कि जड़ों में भी तनों के समान लेन्टिसेल पाए जाते हैं। ऐसे तनों और जड़ों में जिनमें पेरीडर्म* बनती है, आवश्यक हवा का आदान-प्रदान लेन्टिसेल द्वारा होता है। लेन्टिसेल के नीचे अनगिनित अन्तरा-कोशीय खाली स्थान (Inter cellular spaces) होते हैं, जो लेन्टिसेल के ज़रिए बाहरी वातावरण से संपर्क में होते हैं। इसके अलावा फैलोजन में भी अन्तरा-कोशीय अवकाश मिलते हैंजैसे-जैसे तने और जड़ें पुरानी और मोटी होती जाती हैं नए लेन्टिसेल विकसित होते रहते हैं। पूरे पौधे के अन्तरा-कोशीय स्थानों में हवा भरी रहती है। हवा से भरे ये स्थान आपस में एक दूसरे से जुड़े रहते हैं जिससे पूरे पेड़ में एक 'रिक्त अवकाश तंत्र' (Air Space System) बन जाता है जो पत्तियों, तनों और जड़ों में स्टोमेटा और लेन्टिसेल द्वारा बाहर की ओर खुलता है। इस तरह विसरण के द्वारा अंदर आने वाली हवा पौधे के आंतरिक भागों से सीधे संपर्क में आती जाती रहती है। इसके अतिरिक्त निम्न बातों पर भी गौर करना उचित होगा।

पुराने तनों में हवा लेन्टिसेल द्वारा प्रवेश करती है तथा अन्तरा-कोशीय अवकाशों से होकर तने तथा जड़ में पहुंचती है।

जड़ का मुख्य भाग कॉर्टेक्स* का बना होता है जिसमें ढेर सारे रिक्त कोशीय अवकाश होते हैं जो जड़ों की आन्तरिक कोशिकाओं के लिए जरूरी होते हैं।

हवाई जड़ें
ऐसे पेड़-पौधे जो दलदली क्षेत्रों में उगते हैं -- जैसे एविसीनिया आदि में हवाई श्वसन जड़े बनती है जिन पर साफ तौर से स्टोमेटा तथा लेन्टिसेल पाए जाते हैं।

अन्तरा-कोशीय अवकाशों में स्थित हवा को पानी या द्रव में विसरित होकर ज्यादा लंबी दूरी तय नहीं करनी पड़ती। हवा में पानी की तुलना में ऑक्सीजन तीन लाख गुना ज्यादा तेज़ी से गमन करती है। और पौधों को आंतरिक स्थान तंत्र अन्दर तक के ऊतकों के लिए सीधे हवा की व्यवस्था दर्शाता है।

उल्लेखनीय है कि यदि ऑक्सीजन को द्रव से होकर विसरित होना पड़े।


*पेरिडर्मः पुराने तनों और जड़ों की बाहरी छाल। फैलोजन इसी का हिस्सा होता है।


दलदली क्षेत्रों में उगने वाले पौधों में जड़ों की कुछ शाखाएं जमीन के बाहर निकल आती हैं। इनका मुख्य काम श्वसन ही होता है। 1. जमीन से बाहर निकली जड़ों को रेखाचित्र; 2. जमीन के भीतर इन जड़ों की स्थिति। (दुसरा चित्र एवीसीनिया का है)।

तो यह पौधों में ज्यादा-से-ज्यादा एक मिली मीटर तक प्रवेश कर सकती है। अगर जड़ों की कोशिकाओं को श्वसन पूर्णतः द्रव से विसरित होकर पहुंची ऑक्सीजन पर आधारित हो तो ज्यादा मोटी जड़ों को ऑक्सीजन नहीं मिलेगी और वे दम तोड़ देंगी।

प्रयोगों से पता चला है कि यदि पौधों का रिक्त स्थान तंत्र' अवरुद्ध हो जाए तो वे जल्दी मर जाते हैं। सा अक्सर जलाक्रान्त मिट्टी में होता

है। यह भी देखा गया है कि जब मिट्टी में हवा की मात्रा कम होती है तो पौधों में बड़े-बड़े आन्तरिक अवकाश बनते हैं। ऐसी स्थिति में जड़ों में श्वसन को मदद करने के लिए ऊपर के रिक्त अवकाशों से होकर हवा नीचे की ओर बहती है। ऐसी मक्का में देखा गया है। चावल की जड़ों में भी ऑक्सीजन की सप्लाई तनों से जड़ों की ओर हवा के बहाव से होती है।


*मीज़ोफाइट्सः ऐसे पेड़-पौधे जो नमी और तापमान की औसत परिस्थितियों में पनपते हैं। यानी कि जहां न तो ताप अधिक होता है न ही नमीजमीन भी न तो जलाक्रान्त होती है और न ही उसमें लवण अधिक होते हैं।


हालांकि मीज़ोफाइट्स' (समोद भिद) में जड़ों के श्वसन को लेकर विशेष जानकारी नहीं मिलती परन्तु जलीय और दलदली पौधों के बारे में जानकारी है। मसलन चावल में ऑक्सीजन की पर्याप्त उपलब्धता के लिए ऊपरी गांठों से भी जड़े निकलने लगती हैं। और कमल के पौधे में पत्तियों से जड़ों के कन्दों तक ऑक्सीजन पहुंचाने की सुन्दर व्यवस्था होती है। पत्तियों के डंठल में उपस्थित बड़े-बड़े ‘वायु कोष्ठ' इसके लिए पड़ाव का काम करते हैं। इनके ज़रिए कन्दों को लगातार ऑक्सीजन मिलती रहती है।

श्वसन के संदर्भ में जड़ और पत्तियों की स्थितियां बिलकुल भिन्न हैं। एक ओर पत्तियां और तना जहां हमेशा हवा से घिरे रहते हैं, वहीं जड़ कभी पानी में डूबी रहती है तो कभी उसके चारों ओर हवा ज़्यादा होती है, पानी कम। पर्याप्त बारिश या सिंचाई होने पर जड़ों के आसपास पानी की अधिकता होती है और हवा की कमी। तो पानी की कमी की स्थिति में ठीक इससे उल्टा होता है, यानी हवा ज़्यादा तो पानी कम।

लगातार चलती प्रक्रिया

बॉक्स में दी गई जानकारी से स्थिति स्पष्ट नहीं होती। पूरा पढ़ने के बाद कुछ खास हाथ नहीं आता। पहली बात तो यह कि “गैसीय आदान-प्रदान की दो क्रियाएं लगातार चलती रहती हैं''गलत है। दोनों क्रियाएं केवल दिन में चलती हैं लगातार, रात में नहीं।

दूसरा, पूरा बॉक्स पढ़कर भी यह पता नहीं चलता कि कौन-सी गैस पौधे से कब बाहर निकलती है। जबकि यह साफ है कि दिन में सूर्य के प्रकाश में पत्तियों से केवल ऑक्सीजन ही बाहर निकलती है क्योंकि प्रकाश संश्लेषण की दर श्वसन से 5 से 10 गुना ज्यादा होती है। अतः पत्तियों में श्वसन से बनी कार्बन डाइऑक्साइड भी प्रकाश संश्लेषण में काम आ जाती है और हवा की कार्बन डाइऑक्साइड स्टोमेटा से अन्दर जाती है।

केवल बहुत सुबह और शाम के वक्त जब प्रकाश की मात्रा कम होती है। तब श्वसन में निकली कार्बन डाइऑक्साइड और प्रकाश संश्लेषण में बनी ऑक्सीजन क्रमशः प्रकाश संश्लेषण और श्वसन के लिए काम आ जाती है। ऐसे में पत्तियों से किसी भी गैस का विसरण नहीं होता।

परन्तु रात के वक्त प्रकाश की अनुपस्थिति में पत्तियों में केवल श्वसन के चलने से ऑक्सीजन हवा से अन्दर जाती है और कार्बन डाइऑक्साइड बाहर निकलती है।

कुल मिलाकर इन तथ्यों को ध्यान में रखने से ऐसा लगता है कि छोटी और बहुत पतली जड़ों के लिए तो यह संभव है कि पानी में घुलित ऑक्सीजन से अपना काम चलाती हों परन्तु बड़े बहुवार्षिक पेड़ों की मोटी जड़ों द्वारा ऐसा कर पाना संभव नहीं है, क्योंकि हवा का पानी में विसरण एक बहुत ही धीमी प्रक्रिया है। वहीं इन जड़ों पर लेन्टिसेल से भी इंकार नहीं किया जा सकता।

अतः इस बात की संभावनाएं ज्यादा हैं कि जड़ों के अग्र भाग, जो हमेशा पानी की तलाश में होते हैं, से तो हवा घुलित अवस्था में अन्दर विसरित हो; परन्तु जड़ के पुराने मोटे भागों में जहां छाल भी होती है, लेन्टिसेलों से हवा का आदान-प्रदान होता है। मुझे लगता है कि इस विषय पर अभी और विचारों के आदान प्रदान की ज़रूरत है ताकि स्थिति स्पष्ट हो सके।

हां, अंत में दिए गए प्रयोगों के बारे में भी कुछ सवाल; लेख श्वसन का और प्रयोग वाष्पोत्सर्जन के हैं। बात कुछ जमी नहीं। परन्तु इसे पढ़ कर मुझे यह प्रेरणा ज़रूर मिली कि क्यों न कुछ श्वसन से संबंधित प्रयोग करके देखे जाएं। तो मैं और मेरी बिटिया भिड़ गए श्वसन को लेकर कुछ प्रयोग करने। हमने जो किया वह आप भी आजमा के देखिए।

दो प्रयोग

पहला प्रयोगः अरबी या इसी जाति की मोटे डंठल वाली एक पत्ती लीजिए। एक थाली में पानी भर कर इसे चित्रानुसार पूरा डुबा दें और डंठल की ओर से ज़ोर से फूकें। पत्ती की निचली सतह से बुलबुले उठते नजर आते हैं। ये पौधे में अन्तरा-कोशिकीय संबंध बताते हैं, और पत्ती से लेकर डंठल तक में उनकी उपस्थिति दर्शाते हैं।

दूसरे प्रयोग में हमने अरंडी की पत्ती को पेट्रोल वाली रबर की नली से चित्रानुसार जोड़कर हवा खींची ( अगले पृष्ठ पर ऊपर वाला चित्र)। नली की पानी में डूबी सतह से बुलबुले निकलते दिखाई देते हैं। स्पष्ट है पत्तियों पर उपस्थित स्टोमेटा से हवा पत्ती के अन्दर प्रवेश करती हुई डंठल तक आती है।

यह प्रयोग केवल डंठल से भी किया जा सकता है

दूसरा प्रयोगः इस प्रयोग को करने के लिए चित्र के अनुसार उपकरण जमाकर चौड़े मुंह वाली बोतल में, या बडी टेस्ट ट्यूब या उफननली लेकर उसमें 10-15 कनेर या गुलाब की पत्तियां इस प्रकार रखीं कि उनके डंठल वाले हिस्से नीचे की ओर थोड़े से पानी में डूबे रहें।

एक या दो घन्टे बाद बोतल की हवा को ऊपर से पानी डालकर विस्थापित किया और उसे चुने के पानी या फिनॉफ्थेलीन के रंगीन घोल से गुजारा। नतीजा साफ था - चूने का पानी दूधिया हो गया और फिनॉफ्थेलीन के रंगीन घोल का रंग उड़ चुका था।

जिस बोतल में पत्तियां रखी थीं उसे काले कार्बन या काले कपड़े से ढंक कर रखें या उपकरण को अंधेरे में रखें। आप सोच सकते हैं कि ऐसा करना क्यों ज़रूरी है।

चूने का पानी बोतल में उपस्थित हवा में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड की वजह से तो दूधिया नहीं होता इसे पक्का करने के लिए प्रयोग के पहले या बाद में एक अन्य बोतल (जिसमें पत्तियां न रखी गई हों) की हवा को विस्थापित कर पानी या फिनॉफ्थेलीन के रंगीन घोल से गुज़ार कर जरूर देखें।


किशोर पंवारः शासकीय महाविद्यालय सेंधवा, जिला खरगोन में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक।