कमलेश चन्द्र जोशी

हम में से काफी लोगों का यह मानना है कि बच्चों को बचपन से सब कुछ हम ही सिखाते हैं, या बच्चे खुद से होकर कुछ सीखते भी हैं तो बहुत धीरे-धीरे। यदि बच्चों को थोड़ा और करीब से देखने की कोशिश करेंगे तो समझ आएगा कि बच्चे खुद से होकर भी सहजता से सीखते हैं, बस जरूरत है हम बड़ों को धैर्य रखने की।

मुझे ऐसा कई बार महसूस हुआ है कि बच्चों को सभी बातें -सिखाने की सारी जिम्मेदारी हमारी नहीं होती। बच्चे हमारे साथ रहते हुए माहौल को देखकर बहुत सारी बातें अपने आप सीखते हैं। कई दफा बच्चों की जिन छोटी-छोटी बातों पर हम ध्यान नहीं देते या कभी सोच विचार करना जरूरी नहीं समझते; वे छोटी-छोटी बातें ही कभी-कभी हमें उद्वेलित करती हैं और सोचने पर मजबूर करती हैं। बच्चों के साथ काम करते हुए हम जहां उन्हें सिखाते हैं, वहीं उनसे काफी बातें सीखते भी हैं। इस तरह सीखने-सिखाने की दो तरफा प्रक्रिया चलती रहती है। लेकिन जब हम उनके साथ काम करते हुए इन अनुभवों को महसूस करना बंद कर देते हैं वहीं हमारी रचनात्मकता में कमी आ जाती है और हमें यह सारा काम बोरियत भरा लगता है। इस बोरियत को दूर करने तथा अपने काम में ताज़गी बनाए रखने के लिए बच्चों की दुनिया पर ध्यान देना बेहद ज़रूरी होता है।

अनोखा कैरमबोर्ड
बच्चों के साथ महसूस किए गए कुछ अनुभवों से मुझे बच्चों को समझने में खासी मदद मिली है। अंकुर संस्था के एक केन्द्र पर बच्चों को रंग-बिरंगी कहानियों की किताबों से पढ़ना-लिखना सिखाया जाता है। इस केन्द्र में नौ से दस वर्ष के बच्चे जुड़ते हैं जहां वे किताबों व कहानियों का आनंद लेते हैं। हमारे केन्द्र पर एक कैरमबोर्ड भी है। कैरम खेलने के लिए बच्चे हमेशा लालायित रहते हैं और इसके लिए उनमें कभी-कभी झगड़ा भी हो जाती है। असल में होता यह है कि कैरमबोर्ड पर एक समय चार बच्चे ही खेल सकते हैं, तो बाकी बच्चे कहां जाएं? इसलिए पहले खेलने के लिए अक्सर झगड़ा हो जाता है। इन झगड़ों को निपटाने के लिए हमें अपनी काफी ऊर्जा लगानी पड़ती है। इन सब झगड़ों से परेशान होकर हमने दूसरा एक आसान-सा हल निकाला। एक दिन हमने कैरमबोर्ड की सारी गोटियां छिपा दी और बच्चों से कह दिया कि सारी गोटियां खो गई हैं।
                   
इस तरह हमने उनका खेलना बंद करवा दिया। इस घटना के अगले दिन मैं क्या देखता हूं-- विनोद नामक नौ साल का लड़का अपनी पुरानी कॉपी के गत्ते पर रंग-बिरंगी लाइन खींचकर, परकार से गोला बनाकर कैरमबोर्ड बनाकर लाया है। इसमें गोटियों की जगह उसने काले और सफेद बटनों का इस्तेमाल किया। क्वीन गोटी की जगह गुलाबी रंग के बटन का इस्तेमाल किया, और तो और स्ट्राइकर की जगह स्वेटर के दो-तीन बड़े बटन जुगाड़ लाया। फिर वह अपने दोस्तों को बुलाकर उस गत्ते पर कैरम खेल रहा था। मैं यह देखकर अचंभित हुआ तथा मन-ही-मन खुश भी। और सोचने लगा कि हमने अपनी परेशानी से बचने के लिए गोटियां तो छिपा दी, लेकिन हम किसी की सृजनात्मता को तो समाप्त नहीं कर सकते। अब आप ही सोचिए कि उसने कैरमबोर्ड को बनाने के बारे में कैसे सोचा होगा? बटन इकट्ठे किए होंगे और साथ ही उसी दिन कैरमबोर्ड भी बना लिया। यहां पर इससे यह तो समझ में आता ही है कि जब सीखने की ललक होती है तो हम कितनी फुर्ती से काम कर लेते हैं?
विनोद के भीतर ‘कबाड़ से जुगाड़' करने की गजब क्षमता है, ऐसा मैंने कई बार महसूस किया है। लेकिन उसकी इस क्षमता को हम विशेष रूप से उभार न सके क्योंकि हमारा ध्यान केन्द्र पर आने वाले अन्य छोटे बच्चों पर ज्यादा रहता है।

गिंजाई या कनखजूरा
लक्ष्मण भी हमारे केन्द्र पर आता है। इस केन्द्र में हम एक बार बच्चों को किताब से 'चींटा मोची' नामक कहानी सुनाना चाह रहे थे। इस कहानी में एक शब्द आता है ‘गिंजाई' जो एक कीड़े का नाम है। मैं काफी देर तक सोचता रहा कि 'गिंजाई' शब्द शायद बच्चों के लिए कठिन होगा और शायद उनकी भाषा में इसका कोई और नाम हो। इसलिए इस कीड़े की जगह और कोई नाम सोच लें, जिसके बहुत सारे पैर होते हैं और जो बच्चों को आसानी से समझ में आ जाए। लेकिन मैं काफी देर तक सोचने के बाद भी कोई वैकल्पिक शब्द नहीं सुझा पाया।

फिर अगले दिन कहानी सुनाकर अंत में बच्चों पर ही छोड़ दिया कि "अच्छा तुम लोग बताओ किस कीड़े के बहुत सारे पैर होते हैं?" इस पर दस वर्षीय लक्ष्मण ने उत्तर दिया - "कनखजूरा।'' मैं उसके उत्तर को सुनकर चकित था। जिसके लिए मैं कोशिश करके भी कुछ सोच नहीं पाया था उसका उत्तर लक्ष्मण ने तुरंत दे दिया। लेकिन होता यह है कि हम हमेशा यह मान लेते हैं कि बच्चे से ज़्यादा तो हमें आता ही है और कई दफा हम उनकी बातों पर ध्यान ही नहीं देते। लेकिन वास्तव में बच्चे भी अक्सर उम्दा जवाब देते हैं इसलिए ज़रूरी है कि हम बच्चों की बातों पर ध्यान दें।

इसी तरह नौ साल के सलीम की चित्र बनाने में गहरी रुचि है लेकिन रंग भरने में नहीं। जब उससे पूछा कि तुम रंग क्यों नहीं भरते? तो उसका जवाब था कि रंग भरने से चित्र खराब हो जाता है, साफ नज़र नहीं आता। उसकी यह बात मेरे दिमाग में हमेशा चोट करती रहती है; सोचने पर मजबूर करती है कि सभी बच्चों को रंग भरना पसंद है, तो इसे क्यों नहीं? कारण जानने में मैं अभी तक असमर्थ रहा हूं।

सलीम ने किया लाजवाब
एक दिन मैं सभी बच्चों को खुशी-खुशी -3 भाग-1 (कार्य-पुस्तिका) किताब से ताराबाई मोडक की कहानी ‘खीरा खाऊं कचर कचर' सुना रहा था। इसके आगे की गतिविधि में मेरा इरादा बच्चों से चित्र बनवाने का भी था। इस कहानी को सुनाते हुए मैं बच्चों से बातें भी करता जा रहा था। सलीम को कहानी सुनने में बहुत मज़ा आ रहा था। वह सभी बच्चों को बता रहा था कि यह कहानी ‘चुहिया लाई मटर का दाना' की तरह की कहानी है। उसका यह कहना बिल्कुल सही था। वह इस कहानी का मेल अपनी पहले सुनी कहानी से करने में सफल रहा था। मैं जो कहानी सुना रहा था उसमें एक कौआ भाजी के खेत में पहुंचकर खीरे खाना चाहता है, लेकिन खीरे की बेल उसे टरकाती है कि जाओ चोंच धोकर आओ। इस तरह कौआ क्रमशः बावड़ी, कुम्हार, खेत व हिरन के पास जाता है। वह हिरन से मिट्टी खोदने के लिए सींग मांगता है, जिससे कुम्हार मटका बनाएगा। कहानी में हिरण अपने सींग दे देता है, लेकिन यहां पर मैं रुककर बच्चों से पूछता हूं कि अच्छा बताओ, कौआ अब किसके पास जाएगा, तो सलीम ने तुरन्त उत्तर दिया, “बढ़ई के पास जाएगा, आरी मांगने। तभी तो वह हिरण को सींग काट सकेगा। तब वह मिट्टी खोदेगा।'' उसके उत्तर से मैं बहुत खुश हुआ। उसने न सिर्फ तुरन्त उत्तर दिया पर अपनी कल्पना के फलस्वरूप कहानी को विस्तार देने में भी सफल रहा। इस बात से मैंने यह भी जाना कि वह कितने ध्यान से कहानी सुन रहा था, तभी तो एकदम से उत्तर दे पाया।

मटका और टमका
इन्द्रजीत और भारत दोनों की उम्र पांच वर्ष है। वे भी हमारे केन्द्र पर नियमित रूप से आते हैं। इन्द्रजीत और भारत को शब्द लिखना सिखाने से पहले मैंने उनका हाथ खोलने के लिए स्वतंत्र आकृतियां बनवाई। वे पतंग, पत्ता, फूल, लड़का, मटका आदि अपने आसपास की चीजें बनाने लगे। तब मैंने सोचा, क्यों न अब इन्हें लिखना सिखाया जाए? इन्द्रजीत ने जब पतंग बनाई तो मैंने उसे पतंग लिखकर बताया। कुछ दिनों बाद वह पतंग लिखना और पहचानना सीख गया। इसके बाद वह इन शब्दों का आकार देखकर तुरन्त बता देता कि यह मटका लिखा है, यह पतंग। फिर मुझे कुछ और जल्दी हुई और मैंने उसे एक नए शब्द से परिचित कराना चाहा, फूल से। लेकिन उसने मुझे तुरंत उत्तर दिया कि इसे नहीं बना पाऊंगा, यह नहीं आता। तब मैंने भी महसूस किया कि मैं जल्दी कर रहा हूं। अगर मैं ‘प' या 'म' से कुछ और शब्द सिखाता और उन अक्षरों की पहचान कराता तो ज़्यादा अच्छा रहता। उसकी बात सुनकर मैंने उसे फूल लिखाने का इरादा छोड़ दिया।

भारत भी लिखने की प्रकिया में है। उसने भी अभी दो शब्द सीखे हैं - पतंग और मटका। लेकिन वह मटका में 'ट' उल्टा लिखता है। मैं उसे मटका और पतंग लिखवा रहा था। उसने दोनों शब्द लिखकर दिखाए। फिर मैंने मटका की जगह ‘टमका' लिखा और उससे पूछा, यह क्या लिखा है? उसने तुरंत उत्तर दिया - "मटका।'' मैंने कहा – “यह भी मटका और टमका भी मटका।'' तो उसने कहा- 'यह (टमका) उल्टा लिखा है।'' उसने इतना मजेदार उत्तर दिया, जिसकी मुझे बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी। असल में वह अपनी जगह बिल्कुल सही था क्योंकि वह खुद उल्टा लिखता है, उसे अभी शब्द में अक्षरों के क्रम का ज्ञान नहीं है, उसके लिए तो मटका और टमका दोनों ही मटका हैं।

अगर आप पूछेंगे तो वह बताएगा कि यह मटका है, आपने उल्टा लिखा है। लेकिन यहां हम यह जाने बगैर कि शुरुआती दौर में ‘टमका' लिखवाने में बच्चों के मस्तिष्क में क्या बिम्ब बनेगा; यह शब्द बच्चे के लिए क्या माने रखता है; हम बच्चे को बताने लगते हैं कि यह ‘टमका' लिखा है और उससे बुलवाएंगे टमका। लेकिन यदि यही करना है तो इससे अच्छा तो यह है कि बच्चे 'म', 'ट' और ‘का' की पहचान करें और इससे बनने वाले कुछ सार्थक शब्द पहले सीखें।

सहयोग, सहभागिता......
हमारे केन्द्र पर आने वाले बच्चे खुद ही कमरों में झाडू लगाते हैं, ब्लैकबोर्ड साफ करते हैं, चटाई बिछाते हैं। ये सभी छोटी-छोटी बातें हैं, बच्चे इन कामों को मज़े से करते हैं। इन कामों को करते हुए उनमें सहयोग और सहभागिता की भावना बढ़ती है। परन्तु अक्सर हम एक गलती करते हैं कि हम इन कामों को बच्चों के ही काम मान लेते हैं। इंतज़ार करते रहते हैं कि बच्चे आकर झाडू लगाएंगे, चटाई बिछाएंगे और ब्लैकबोर्ड साफ करेंगे। इससे बच्चों से हमारी दूरी का आभास होता है। जबकि होना यह चाहिए कि ये छोटे-छोटे काम भी बच्चों के साथ मिलकर करने चाहिए ताकि हमारे और उनके बीच एक समानता का रिश्ता बना रहे। यह रिश्ता हमारे सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को मजबूती प्रदान करता है।


कमलेश चन्द्र जोशीः 'नालन्दा' शैक्षिक नवाचार केन्द्र, लखनऊ में कार्यरत हैं।