माधव केलकर

मलाया, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो द्वीप समूह का समुद्र में डूबा नदी तंत्र। किसी समय नदियां दूर तक बहती हुई समुद्र में गिग्ती थीं लेकिन समुद्र का जल स्तर बढ़ने के बाद नदियां सिमट-सी गई हैं।

डूबी हुई नदी घाटी
बात इस सदी के शुरुआती सालों की है जब दुनिया भर में समुद्रों के अध्ययन का काम चल रहा था। अभी काम ने जोर पकड़ा ही था कि मलाया, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो द्वीप समूह के पास समुद्र के भीतर टोह लेते हुए एक शानदार खोज वैज्ञानिकों के हाथ लगी। यह थी - इन द्वीप समूहों का समुद्र में डूबा हुआ नदी-तंत्र। इन द्वीप समूहों का, एक लाख साल पहले तक प्रमुख नदी तथा उसकी सहायक नदियों सहित एक विकसित तंत्र होता था और ये नदियां दक्षिणी चीन सागर तथा जावा समुद्र तक सफर तय करती थीं। लेकिन समुद्र का जल स्तर बढ़ने के कारण इन द्वीपों को जोड़ने वाली जमीन डूब गई और साथ ही यह शानदार नदी तंत्र भी। समुद्र की तली का अध्ययन करते हुए ये प्राचीन नदी घाटियां हाथ लग गई। आज ये घाटियां समुद्र में लगभग 100 मीटर नीचे डूबी हुई हैं।

यह तो हुई एक मिसाल जो हमारे इस भ्रम को तोड़ती है कि समुद्र मे पानी का स्तर सदैव एक-सा बना रहता है। यदि धरती का इतिहास देखा जाए तो समझ में आता है कि समुद्र के जल स्तर में तो खासे उतार-चढ़ाव होते रहे हैं।

समुद्र तली में उतार-चढ़ाव
जब यह समझ बनना शुरू हुई कि समुद्र के जल स्तर में भी परिवर्तन होते हैं तो शुरुआत में यही समझा जाता रहा कि किन्हीं टेक्टॉनिक* (भूगर्भीय) गतिविधियों के कारण या समुद्र की तली में होने वाले परिवर्तनों जैसे समुद्र की तली का अवसादों (Sediments) से, लावा से भरना, तली पर नए पहाड़, गहरी दरारें आदि बनने

* टेक्ट्रॉनिक गतिविधियों पर और जानकारी के लिए संदर्भ का अक 14 देखिए।

नई और पुरानी दुनिया को जोड़ने वाला पुल

दुनिया का नक्शा देखिए - एशिया महाद्वीप और उत्तरी अमरीका की जमीन एक दूसरे के पास तो है लेकिन आपस में जुड़ी हुई नहीं है, बीच में 'बेरिंग स्ट्रेट' के रूप में बेरिंग सागर मौजूद है। हां, सरसरी तौर पर तो यही लगता है, लेकिन आज से कुछ हज़ार-लाख साल पहले तक साइबेरिया और अलास्का को जोड़ने वाला एक प्राकृतिक पुल होता था। इस पुल की मदद से ही एशिया महाद्वीप की विभिन्न प्राणी और वानस्पतिक प्रजातियां अमरीका पहुंची थीं। आज यह जमीनी पुल समुद्र की सतह ऊपर उठने के कारण 50 मीटर नीचे डूबा हुआ है। आदिम मानव भी शायद इसी पुल का इस्तेमाल कर अमरीका महाद्वीप पर पहुंचा था। यह ज़मीन-नुमा पुल समुद्र के जल स्तर में उतार-चढ़ाव के हिसाब से पृथ्वी के इतिहास में कई बार डूबा और कई बार बाहर आया है।

के कारण ही समुद्र के जल स्तर में परिवर्तन होते हैं। लेकिन इनमें से कोई भी कारण पूरी दुनिया के समुद्र के जल स्तर में 100 मीटर तक के उतार चढ़ाव को नहीं समझा सका। इसलिए ऐसा कोई ठोस कारण चाहिए था जो काफी सवालों के जवाब दे सकता हो। धीरे-धीरे समझ में आया कि यह कारण था - धरती पर हिमयुग का आना और हिमयुग का समाप्त होना। हिमयुग यानी धरती के काफी बड़े हिस्से पर बर्फ की कई मीटर मोटी चादर का बिछ जाना।
आमतौर पर यह मान्यता है कि जब हिमयुग आता है तो समुद्री जल का काफी बड़ा हिस्सा बर्फ में तब्दील हो जाता है जिसमे समुद्र का जल स्तर नीचे चला जाता है। जब हिमयुग खत्म हो रहा होता है तब बर्फ के पिघलने से जो पानी समुद्र में आता है उससे समुद्र का जल-स्तर फिर से बढ़ता है।

लेकिन सवाल यह है कि यह कैसे पता चले कि किसी स्थान विशेष में समुद्र के जल-स्तर में परिवर्तन आया है या नहीं? कुछ सामान्य मे अवलोकन हैं जिनकी मदद से इस परिवर्तन का पता लगाया जाता है। यदि कोई हिस्सा हज़ारों साल पहले समुद्र में डूबा हुआ था तो समुद्र अपने कुछ-न-कुछ निशान तो छोड़ ही जाएगा। मसलन कुछ समुद्री जीव-वनस्पतियों के जीवाश्म, पुराने समुद्री तट, समुद्री लहरों द्वारा बनाए गए कटाव के निशान वगैरह।

नदियों के वर्तमान डेल्टा क्षेत्र में बोर-होल (छेद) करके वहां गहराई में जाकर चट्टानों के नमूनों को लेकर यह पता किया जाता है कि किस समय की चट्टानों में मिलने वाले जीवाश्म ताजे पानी में रहने वाले जीव-वनस्पति के हैं और किस समय की चट्टानों में खारे पानी में पाए जाने वाले जीव वनस्पति के जीवाश्म मिलते हैं। इस जानकारी से यह पता चल जाता है कि जहां वे चट्टानें बनी थीं वह भाग समुद्र में डूबा था या नहीं।

नियोग्लोबोक्वाड्रिना पेचिडर्मा
जब पहले-पहले यह कहा गया कि समुद्र सतह में उतार-चढ़ाव का प्रमुख कारण हिमयुग से जुड़ा है तो यह साबित करना काफी कठिन था। लेकिन बाद की खोजों में पता चला कि समुद्र में कुछ वनस्पतियां और फोरामिनिफेग जैसे कुछ संवेदनशील सूक्ष्मजीव भी मौजूद हैं जो समुद्री पानी के तापमान में होने वाले पग्विर्तन के प्रति संवेदनशील हैं। अवलोकनों में यह तथ्य भी सामने आया कि उथले पानी में पाई जाने वाली फोरामिनिफेरा की ही एक प्रजाति नियोग्लोबोक्वाड्रिना पेचिडर्मा (Neogloboquadrina Pachyderma) हिमयुग के दौरान (जब बर्फ का फैलाव हो रहा हो) अपनी सामान्य बनावट में थोड़ी भिन्न बनावट वाली मिलती है। सामान्य बनावट वाले फोरामिनिफेरा वहा पाए जाते है जहां समुद्री पानी खूब ठंडा हो लेकिन बर्फ न हो। इसी प्रजाति के भिन्न बनावट वाले फोरामिनिफेग वहां रहना पसंद करते है जहा पानी ठडा तो हो, पर साथ ही खूब सारी बर्फ भी फैली हो।

यदि समुद्र की तली में हजारों लाखों साल पुरानी चट्टानो के नमूने लेकर उनमें फोरामिनिफेरा के जीवाश्मों की बनावट का अध्ययन किया जाए

फोगमिनिफेरा - समुद्र में पाया जाने वाला एक मूक्ष्म जीव, जो समुद्री पानी के तापमान से प्रभावित हो जाता है। उत्तरी अटलाटिक मागर में बो-होल करके खोज करते ममय फोगमिनिफेग की नियो-ग्लोबोक्वाटिना पेचिडर्मा प्रजाति के मिले जीवाश्मो से यह बात साफ हो गई कि हिमयुग के दौरान इम प्रजाति के कुछ भिन्न बनावट वाले कवच मिलते हैं। यहा चित्र में दिखाए गए फोगमिनिफेग का संबध हिमयुग के बाद के गरम दौर में है। इसी तरह चित्र 2 में दिखाया गया फोगमिनिफेरा उम ममये का है जब धरती पर हिमयुग था।

तो नियोग्लोबोक्वाडिना पेचिडर्मा के सामान्य बनावट वाले और भिन्न बनावट वाले फोरामिनिफेरा को देखकर यह अनुमान सहजता से लगाया जा सकता है कि किस कालावधि में समुद्र की सतह पर बर्फ का फैलाव था और किस कालावधि में बर्फ नहीं थी।

रासायनिक साक्ष्य
समुद्री पानी के रासायनिक अध्ययनों से पता चला कि पानी मे ऑक्सीजन के सामान्य परमाणुओ (160) के साथ 170 तथा 180 नामक आइसोटोप* भी पाया जाता है। सामान्यत: समुद्री पानी में 997% 160 के परमाणु, 0.2% 180 तथा ().01% 170 पाया जाता है। समुद्री पानी में सामान्यतः 180 और 160 का एक निश्चित अनुपात 1.499 होता है। परन्तु कई कारकों की वजह में कई बार यह अनुपात बदल भी जाता है। जब समुद्री पानी का वाष्पीकरण होता है तो वाष्प में हल्के 1) परमाणु ज्यादा होते हैं और इमलिए वाष्पीकरण के बाद बच्चे समुद्री पानी में भारी 180 परमाणु की मात्रा एक प्रतिशत तक पहुंच जाती है। यदि वाष्पीकरण के बाद बारिश जैसी क्रियाए जल्दी हो जाएं तो समुद्र के पानी में ऑक्सीजन के सामान्य परमाणु और आइसोटोप्स का निश्चित अनुपात पुन स्थापित हो जाता है। परन्तु वही जल वाष्प अगर बारिश के बजाए बर्फ बनने

*प्रकृति में काफी सारे तत्वो के आइसोटोप पाए जाते है। आइमोटोप और उसके मूल तत्व में मुख्य फक परमाणु भार का होता है। आइसोटोप और मुल नत्व में इलेक्ट्रॉन और प्रोटांनो की मरूपी तो समान होती है, लेकिन आइसोटोप में न्यूट्रॉनो की मळ्या ज्यादा होती है, जिसकी वजह से आइसोटोप भारी होते है।

अटलाटिक महासागर में किए गए बोर-होल में प्राप्त जानकारी के आधार पर पिछले 7 ) नाव मान में तापमान के प्रति मवेदनशील फगिमिनिफरी की प्रजाति में आ परिवर्तन और अमीनन आइमोटाप की मात्रा में आया पग्विर्तन माफ नर पर दिखाई दे रहे हैं। चित्र में स्पष्ट होता है कि 55 लाख मान्न के आमपाम तापमान में गिगवट आने लगी। माथ ही गरम वातावरण में रह मरने वाले फोगमिनिफेग मिलना भी बंद हो गए। ध्रुवीय इलाको में कमोबेश यही स्थिति आज भी बनी हुई है।

लगे तो समुद्री पानी में 160:180 का अनुपात गड़बड़ाने लगता है। यह बात तो हमारे आज के अध्ययन बताते हैं लेकिन हजारों-लाखों साल पहले समुद्री पानी में 160 और 180 के अनुपात में आए उतार-चढ़ाव को किस तरह पता किया जाए यह एक समस्या मुंह बाए खड़ी थी।

फारामिनिफेरा का कवच
ऐसी विकट परिस्थिति में फोरामिनिफेरा एक बार फिर हमारे काम आए। फोरामिनिफेरा के कवच (Shell) दुनिया भर की समुद्री चट्टानों में बहुतायत में पाए जाते हैं। इनकी मदद से चट्टानों की आयु तो तय की ही जाती है परन्तु इनके कवच में पाए जाने वाले कैल्शियम कार्बोनेट (CaCO,) के विश्लेषण से उनमें 160 और 180 के अनुपात का पता लगाया जा सकता है। कैल्शियम कार्बोनेट का ‘मास स्पेक्ट्रोस्कोप' के जरिए अध्ययन करते समय इसके ऑक्सीजन अणु वाले हिस्से को ध्यान से तौला गया तो काफी चौंकाने वाले परिणाम सामने आए। कुछ कालावधि के कवचों में तो 160 और 180 का सामान्य अनुपात दिखाई दिया लेकिन कुछ कालावधि के कवचों में 180 की मात्रा ज्यादा पाई गई। यानी इस खास समय में समुद्र का काफी सारा पानी बर्फ में तब्दील हुआ था जिसकी वजह से समुद्र के शेष पानी में 180 का अनुपात ज्यादा हो गया। इस तरह यह साबित किया जा सका कि कवचों में 180 की मात्रा बढ़ने का अप्रत्यक्ष संबंध तापमान कम होने से है।

कारल राफ
इसी तरह समुद्री कोरल रीफ (प्रवाल भित्ती) ने भी समुद्र जल के उतार-चढ़ाव को समझने में काफी मदद की है। समुद्री कोरल लाखों की संख्या में समुद्र के भीतर किसी ज़मीनी हिम्मे से चिपककर कैल्शियम कार्बोनेट से अपनी बस्ती को बनाते हुए लगातार ऊपर की ओर वृद्धि करते जाते है। जैसे ही यह बस्ती समुद्री सतह के करीब पहुंचती है, यह वृद्धि रुक जाती है। यदि समुद्र की सतह किन्हीं कारणों से ऊपर चढ़ती है तो कोरल की नई पीढ़ी बस्ती को बनाने का काम फिर शुरू कर देती है। इस तरह कोरल की नई पीढ़ियां पुरानी पीढ़ी के काम को आगे बढ़ाती रहती हैं। यह कोरल रीफ का सामान्य-सा नियम है।

पिछले अठारह हज़ार सालों के दौरान, पिछले हिमयुग की बर्फ पिघलने के कारण समुद्र के जल स्तर में आए परिवर्तन को बारबाडोस द्वीप (वेस्ट इंडीज द्वीप समूह) में कोरल रीफ की एक के ऊपर एक जमी हुई अलग अलग पीढ़ियों की मदद से बखूबी समझा गया है। इस कोरल रीफ की आयु निकालकर तथा दुनिया की दूसरी जगहों से मिली जानकारी के आधार पर हम कह सकते हैं कि:

---आज मे 18 हजार से 12 हज़ार माल के बीच धरती पर तेजी से बर्फ पिघलने का सिलसिला शुरू हुआ।
---12 हजार से 10 हजार साल के दौरान बर्फ पिघलने की रफ्तार कुछ धीमी रहीं।
---10,000 से 8,500 माल के बीच युरोप में बर्फ की चादर गायब हो गई।
---6500 साल पहले उत्तरी अमरीका में भी बर्फ की चादर गायब हो गई।
---दस हज़ार माल पहले बर्फ पिघलने में समुद्री जल स्तर में हुई वृद्धि के बारे में एक मोटा अनुमान है कि यह वृद्धि उम ममय 25 मीटर प्रति मौ माल रही होगी।

हिमयुग के मायने
इस लेख में कई बार हिमयुग का जिक्र किया गया है। वर्ष में धरती के बड़े हिस्से के ढकने को हिम युग कहते है। धरती पर ममय-समय पर होने वाले जलवायु संबंधी परिवर्तनो के कारण अर्थात नापमान कम होने के कारण, धरती का एक बड़ा हिम्मा बर्फ के नीचे मालो दबा रह जाता है।
(आज के दौर मे अंटार्कटिका, ग्रीन लैंड, उत्तरी ध्रुव प्रदेश, हिमालय-आल्म की कई चोटिया बर्फ की मोटी चादर के नीचे दबी हुई हैं, जो हमारी धरती के क्षेत्रफल का लगभग 12-15 प्रतिशत है।) और कुछ हजार सालों के बाद पृथ्वी का तापमान बढ़ने के कारण बर्फ के पिघलने का दौर शुरू हो जाता है। ऐसा माना जाता है कि धरती पर अब तक ऐसे कई हिमयुग आ चुके हैं। वर्तमान दौर पिछले हिमयुग की बर्फ के पिघलने का दौर है।

हिमयुग क्यों आता है?
'हिमयुग क्यो आता है?' इस सवाल को लेकर अभी भी कोई तसल्लीबख्श जवाब नहीं मिला है। परन्तु अब तक के धरती के इतिहास में तापमान और हिमयुगो के अध्ययन में कुछ पैटर्न जरूर नज़र आते हैं। इस पैटर्न और पृथ्वी की विभिन्न गतियों के बीच एक कार्य-कारण सबंध भी दिखता है।

सन् 1911 मे यूगोस्लावियाई वैज्ञानिक मिलेन्कोविच ने धरती की विभिन्न गतियो की कालावधि की गणना की। साथ ही उसने यह भी पता लगाया कि इन गतियों के कारण पृथ्वी पर पहुंचने वाले सूर्य विकिरण की मात्रा पर क्या असर पड़ेगा। तत्पश्चात उमने पृथ्वी की तीन गतियों को इन प्रक्रियाओं के लिए जिम्मेदार ठहराया:

सामने वाले पेज पर बने चित्र पृथ्वी की विभिन्न चक्रीय गतियों से संबधित है। पृथ्वी की इन गतियों और धरती पर हिमयुग के चक्रों के बीच पहली बार युगोस्लावियाई वैज्ञानिक मिलेन्कोविच ने एक संबंध प्रदर्शित किया था। चित्र:1 पृथ्वी की 23,000 साल वाली चक्रीय गति दर्शाता है, जिसमे पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव की 11,000 साल पहले की और आज की स्थिति दिखाने का प्रयास किया गया है। चित्र:1B पृथ्वी के डोलने की तुलना लट्टू के साथ करते हुये यह दिखाने की कोशिश की हैं कि किस तरह 'कोन ऑफ प्रिसेशन' बदलता है। इसी चित्र में अभी के ध्रुव तारे' के साथ-साथ 11 हजार साल पहले पृथ्वी की धुरी के ठीक ऊपर स्थित 'बंगा' तारे की दिशा भी दिखाई गई है। चित्र:2 आज की स्थिति में पृथ्वी का अक्षीय झुकाव 235 डिग्री है। परन्तु पृथ्वी का यह झुकाव 215 से 215 डिग्री के बीच खिसकता रहता है और 10,000 साल में 215 में 215 होते हुये वापस 215 डिग्री पर आ जाता है। चित्र:3 पृथ्वी सुर्य का चक्कर एक दीर्घ वृत्ताकार कक्ष में लगाती है। इस कक्ष का निकटतम बिन्दु 1171 करोड़ कि. मी. दूर है और दूरस्थ बिन्दु 152 करोड़ कि. मी. की दूरी पर है। परन्तु ये दूरियाँ स्थिर नहीं रहती और एक नियत क्रम में 1,00,000 साल के चक्र के दौरान बदलती रहती हैं। इस चित्र में आज की स्थिति दर्शाई गई है।

--पृथ्वी सूर्य का चक्कर एक दीर्घ वृत्ताकर पथ पर घूमते ही पूरा करती है। सूर्य और चांद के गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द घूमते हुए अपनी धुरी पर झूलती है। जैसे तेज़ी में घूमना हुआ लट्टू घूमने के साथ-साथ डोलता है। डोलने का एक चक्र पृथ्वी लगभग 23,000 साल में पूरा करती है।
इसके असर को इस तरह समझा जा सकता है कि आज जनवरी में पृथ्वी का दक्षिणी गोलार्द्ध सूर्य की तरफ झुका होता है और उत्तरी गोलार्द्ध सूर्य से परे होता है। परन्तु आज से ग्यारह हजार साल पहले जनवरी में उत्तरी गोलार्द्ध सूर्य की तरफ झुका होता था - यानी आज में एकदम विपरीत स्थिति थी। और अगले ग्यारह

इस ग्राफ मे फोगमिनिफेग के कवचो में 180 की मात्रा में आरा परिवर्तन को मुख्य आधार बनाने हुए पिछले 6 लाख मालो के दौरान आए छह प्रमुख हिमयुग दिखाए गए है। जब-जब 180 का धनात्मक मान सबसे अधिक होता है, धरती पर हिमयुग होता है, जब 180 का मान कम हो जाता है, वह दौर बर्फ पिघलने का दौर होता है, जिसे इटर ग्लेशियल पीरियड कहते हैं। ग्राफ को ध्यान में देखने पर हिमयुगो के बीच एक लाख माल का चक्रीय क्रम स्पष्ट नज़र आता है।

हज़ार साल बाद फिर से वैसी ही विपरीत स्थिति की जाएगी। यानी यह चक्र तकरीबन 23,000 साल में पूरा होता है।
---पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द दीर्घ वृत्ताकार पथ में चक्कर लगाती है। परन्तु इस दीर्घ वृत्त का आकार (Shape) सदेव एक-सा नही रहता। लगभग १0,000 साल में आकार में बदलाव का एक चक्र पूरा होता है*

---एक और कारण है - पृथ्वी के अक्षीय झुकाव में होने वाला परिवर्तन। अभी पृथ्वी का अक्षीय झुकाव 235 डिग्री है। लेकिन यह झुकाव 40,000 माल की कालावधि में 21.5 डिग्री से 24.5 डिग्री के बीच परिवर्तित होकर वापस 21.5 डिग्री हो जाता है। इसकी वजह से पृथ्वी की कर्क रेखा और मकर रेखा की स्थिति खिसकती रहती है। जब झुकाव अधिकतम होता है तो किसी भी जगह पर वर्ष भर के दौरान तापमान में अंतर भी अधिक हो जाता है; और जब झुकाव न्यूनतम होता है तो यह फर्क कम हो जाता है।

मिलेन्कोविच द्वारा बताए तीनों कारणों की जब जांच की गई तो यह


* अपने दीर्घ वृनाकार कक्ष में पृथ्वी ,3 जनवरी को सूर्य के निकटतम और 1 जुलाई को सबसे अधिक दूरी पर होता है।


समझ में आया कि इन तीनों लम्बी अवधि के नियमित परिवर्तनों का धरती पर आने वाले हिमयुग से कोई-न कोई सबंध तो जरूर है। पृथ्वी के पिछले आठ लाख साल के इतिहास का सूक्ष्म अध्ययन बताता है कि इस दौरान धरती के तापमान के बदलावों में बीस हजार, चालीस हजार और एक लाख साल की नियमितता है। इससे यह तर्क काफी पुख्ता होता है कि धरती की विभिन्न गतियो के चक्रों और तापमान बदलाव में कार्य-कारण सबंध जरूर है। लेकिन किस्सा यही ख़त्म नहीं हो जाता क्योंकि इस परिकल्पना की तुलना जब अध्ययनो में प्राप्त तथ्यों से करते है तो तीन प्रमुख समस्याएं सामने खड़ी हो जाती है।

1. हिमयुग और हिमयुगों के बीच के अंतराल के तापमान में औसतन 1 में 5 डिग्री सेल्सियस का अंतर होता है। जबकि पृथ्वी की गतियों की वजह में कुल मिलाकर पृथ्वी के तापमान पर आधे डिग्री से ज्यादा का अंतर नहीं पड़ सकता।

2. पृथ्वी के तापमान के इतिहास में कभी 40,000 साल वाला चक्र प्रभाव दिखता है तो कभी एक लाख माल वाला; जबकि पृथ्वी की गतिया तो निरंतर बनी हुई हैं।

3. इसमे यह समझ में नहीं आता कि पिछले 20-30 लाग्छ मालों के दौरान माधव केलकर संदर्भ में संबद्ध हैं। हिमयुगों की तीव्रता क्यों बढ़ती गई।
फिर भी पृथ्वी में कुछ ऐसा जरूर है जो इन छोटे-छोटे परिवर्तनो को खूब बड़े पैमाने के मौसमी परिवर्तनों में बदल देता है।

पिछले कुछ सालों में यह अहसास बना है कि पृथ्वी पर ऊर्जा के शोषण और ऊर्जा के परावर्तन को प्रभावित करने वाले कुछ और भी कारक हैं,
जैसे—
--- धरती पर घुमक्कड महाद्वीपो का अपनी जगह बदलते रहना।
--- धरती पर बनने वाले ना पहाड़ पठार और महाद्वीपों के उठाव।
---इसके अलावा वायुमडल में ग्रीन हाऊस गैसों की मात्रा में घट-बढ़।
---वक्त-वेवक्त ज्वालामुखी फूटने मे वायु मण्डल में धूल, गैसों आदि का फैलना।
---पृथ्वी पर बर्फ की परत फैलने से ऊर्जा का परावर्तन बढ़ना और इसमें तापमान में गिरावट आना।

अभी भी पूरी तरह हम यह नहीं जान पाए है कि धरती में ऐसा क्या है जो कभी-कभी धरती को बर्फ की एक विशाल चादर से ढाक देना है। फिर इतना गर्म कर देता है कि समुद्र का जल स्तर कई मीटर बढ़ जाए। ऐसा क्या है जो इस चक्र को लगातार चलाए रखता है। आशा है प्रकृति के इस खेल को हम आज नहीं तो कल ज़रूर समझ सकेंगे।