प्रस्तुतिः ज्यों ब्रेज़

तासुहिको ताकेता उन लोगों में से हैं जो हिरोशिमा पर परमाणु बम गिरने के गवाह हैं। तब से वे परमाणु हथियारों के विरुद्ध मुहिम में जुटे हुए हैं। भारत और पाकिस्तान द्वारा किए गए बम विस्फोटों के तुरन्त बाद वे दोनों देशों के दौरे पर आए थे। भारत के परमाणु बम विस्फोट के पास के गांवों पोखरण और खेतोलाई में उन्होंने गांव के लोगों के साथ हुई बैठक में ये उद्गार व्यक्त किए।

हिरोशिमा बमः ‘स्मिथसोनियन एअर एड स्पेस म्युजियम' मे रखी ‘लिटिल बॉय'
की प्रतिकृति। विनाशकारी परमाण्विक हथियारों के भुलावे में डालने वाले साधारण से नाम रखने की परम्परा तभी से शुरू हुई। रिहाइशी इलाके पर फेंके। गए इस पहले परमाणु बम का वज़न लगभग 4000 कि. ग्रा. तथा ऊंचाई साढ़े दस फुट थी। इसमें साठ किलो ग्राम यूरेनियम इस्तेमाल किया गया था।

"किस मकसद से वह इस दुनिया में आई मैं सोचता है", हिरोशिमा के बम विस्फोट में बचे हुए तासुहिको ताकेता ने अपनी बड़ी बहन का जिक्र करते हुए कहा जो 16 साल की उम्र में बेहद कष्ट भोगते हुए चल बसी थी। वो उस जगह से 1.4 कि. मी. दूर थी जहां 6 अगस्त, 1945 को हिरोशिमा पर न्यूक्लियर बम गिराया गया था। अगले दिन शाम उसको घर लाया गया, उस जगह से 7 कि. मी. दूर। ताकेता ने कहा, “उसका घर पहुंचना मेरे लिए अत्यन्त दु:खद याद है। वो एक गाड़ी में लेटी हुई थी, बुरी तरह जली हुई। उसके कपड़े बदन से चिपके हुए थे। हम उसके शरीर पर तेल लगाना चाहते थे पर हम उसके कपड़े नहीं उतार पाए। हमें कैंची से उसके कपड़ों को काटना पड़ा, और किस कदर उसे दर्द हुआ था उस समय! नौ अगस्त को वो मर गई, रोती हुई, चिल्लाती हुई - ‘मां मेरे लिए कुछ करो, मां कुछ करो। हम उसकी मदद के लिए कुछ नहीं कर पाए। कोई दवाई नहीं थी, कोई डॉक्टर नहीं था।''

“मेरा नाम तासुहिको ताकेता है। मैं हिरोशिमा का रहने वाला हूँ, जहां 6 अगस्त, 1945 को एक एटम बम गिराया गया था, इतिहास में पहली बार। उस समय मैं बारह साल का था और छठी कक्षा में पढ़ता था। हमें सैन्य शिक्षा दी जाती थी, और बताया जाता था कि हमें राजा के लिए और देश के लिए अपनी जान भी हाज़िर रखनी चाहिए। जापान की ताकत दिन-पर दिन कम होती जा रही थी। 1945 की शुरुआत तक जापान का समुद्र और आकाश, दोनों पर से कब्जा खत्म हो चुका था।''

"मेरा घर हिरोशिमा से बाहर एक कस्बे में था, लेकिन मेरा स्कूल हिरोशिमा में था। 6 अगस्त, 1945 के दिन हमें छुट्टी मिली हुई थी। सुबह मुझे अपनी बड़ी बहन के घर खाना लेकर जाना था। अभी आठ बजे ही थे, मैं स्टेशन पर रेल का इंतजार कर रहा था। अचानक बड़ी तेज़ चमक हुई। सब कुछ नीला-सफेद-सा दिखने लगा। फिर तूफान की तरह गड़गड़ाहट हुई। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरा पेट कटकर खुल गया हो और मेरी अंतड़ियां बाहर आ गई हों। फिर मुझे गाल पर भीषण गर्मी महसूस हुई। मैंने उधर देखा जिधर से गर्मी आ रही थी, और मुझे सफेद धब्बा दिखा जो पीला होता गया, और फिर लाल, और एक बड़े आग के गोले में बदल गया। मुझे लगा जैसे वो मेरी ही तरफ आ रहा हो। वह एक दिल

सदाको और कागज़ के सारस : सदाको सासाकी उस बच्ची का नाम है जो हिरोशिमा पर बम फेंके जाने के समय सिर्फ दो साल की थी। 1955 में जब वह बारह साल की थी तब सदाको को लिम्फेटिक ल्यूकेमिया (कैंसर) हो गया। डॉक्टर के मुताबिक उसकी मौत काफी करीब थी। सदाको मरना नहीं चाहती थी, वह जीना चाहती थी। जापान की एक प्रचलित मान्यता है कि यदि कोई व्यक्ति कागज के एक हजार सारस बना लेगा तो उसकी मनचाही मुराद पूरी होगी। सदाको ने सभी दर्द कम करने वाली दवाएं खाना बंद कर दी और प्रचलित जापानी मान्यता पर पूरा विश्वास रखकर कागज़ के सारस बनाने लगी। अभी वह कागज के टुकड़ो को मोड़ते हुए 645 सीग्स ही बना पाई थी ..... कि 25 अक्टूबर, 1955 को वह चल बसी।
सामने: सदाको के माता-पिता सदाको की तस्वीर के साथ यह फोटो 1984 में खींचा गया। इस पेज पर: दो हथेलियां सदाको के बनाए कागज़ के सारस समेटे हुए। मई 1958 मे हिरोशिमा शांति पार्क में, हिरोशिमा त्रासदी के शिकार बच्चों की याद में एक स्मृति चिह्न बनाया गया जिस में सदाको अपने हाथ में एक बड़ा-सा सारस लिए बीस फुट ऊंचे गुम्बद पर खड़ी है।

2000 जारः नागासाकी मेडिकल स्कूल के इस कमरे में लगभग दो हज़ार जार सील बंद करके आज भी सुरक्षित रखे गए हैं। इन में उन लोगों के अवशेष हैं जो परमाणु बम विस्फोट में मारे गए थे। इतने सालों से इन्हें सुरक्षित रखा गया है - इस उम्मीद मे कि शायद कभी वैज्ञानिक इनके सहारे ये जानकारी हासिल कर पाएं कि रेडिएशन से शरीर को किस-किस तरह का नुकसान पहुंचता है।

दहला देने वाला नज़ारा था। मेरा गला बन्द हो गया। मैं यह सब उस जगह (Ground Zero) से 7 कि. मी. दूर से देख रहा था।"

"बाद में मुझे पता चला कि एनोला गे ने 9000 मीटर की ऊंचाई से बम छोड़ा था और 600 मीटर की ऊंचाई पर वह फटी था। जहां बम गिरा था, उस जगह का तापमान 6000 डिग्री तक पहुंच गया था। उस आग के गोले का व्यास 200 मीटर था। उस गोले के नीचे जो लोग तुरन्त खत्म नहीं हुए वे सब बचने का रास्ता ढूंढने के। लिए तितर-बितर भाग रहे थे। कुछ देर बाद हमने लोगों को हिरोशिमा छोड़कर हमारे कस्बे की ओर भागते देखा। वे लोग प्रेत-आत्माओं की। तरह लग रहे थे। कई जल गये थे - करीब-करीब नंगे, सूजे हुए चेहरे, या तेज़ गरमी से उनकी खाल उतर गई थी। कई लोग अपनी अंतड़ियां थामे हुए थे।"

"विस्फोट के दो दिन बाद मैं अपने दोस्तों के साथ फिर हिरोशिमा गया। पूरा शहर तबाह हो चुका था। हर जगह लाशें बिछी हुई थीं। हमारा स्कूल तहस-नहस हो चुका था। उस दिन हमसे बड़ी कक्षा के जो बच्चे स्कूल गए थे वो सब खत्म हो गए थे, सभी 183 बच्चे। हमारे चारों ओर लोग अभी भी मर रहे थे। कई चिल्ला रहे थे ‘पानी दे दो, पानी दे दो'। मैंने एक बच्चे को देखा जो अपनी मां का दूध पीने की कोशिश कर रहा था, लेकिन मां मर चुकी थी। दफनाने या अन्तिम संस्कार का कोई साधन नहीं . था, इसलिए लोग गड्ढे खोद खोदकर लाशों को उनमें डाल जला रहे थे। हर जगह जली हुई लाशों की गन्ध फैली हुई थी।''

"उस समय हिरोशिमा की जनसंख्या चार लाख थी, जिसमें से 1945 के आखिर तक एक लाख चालीस हजार लोग मर चुके थे, इनमें भी 90 प्रतिशत विस्फोट के एक हफ्ते के भीतर ही मर गए। शहर की 76,000 इमारतों में से 70,000 पूरी तरह नष्ट हो चुकी थीं, या जल चुकी थीं।''

"लोग आज तक मर रहे हैं, रेडिएशन के दूरगामी प्रभाव (after effects) की वजह से। न्यूक्लियर युद्ध का सबसे खौफनाक पहलू यही है कि अगर आप बम विस्फोट में बचे भी गए, तो सालों बाद भी आपको उसके कारण कोई बीमारी हो सकती है। पिछले साल तक कुल मिलाकर 2,02,118 मौतें दर्ज हुई हैं जिनकी वजह हिरोशिमा बम विस्फोट से जुड़ी हुई है। तब से बचे हुए लोग आज भी हर रोज़ तकलीफ और मौत के डर में जीते हैं। मैं

हिरोशिमा में बुद्ध : महात्मा बुद्ध की कासे की बनी प्रतिमा जो हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम की गर्मी के कारण पिघल गई। कांसा लगभग 1600 डिग्री फेरनहीट पर पिघलता है लेकिन हिरोशिमा में जिस स्थान पर बम फूटा था उसके ठीक नीचे का तापमान कुछ सेकंडों के लिए 7000 डिग्री फेरनहीट तक पहुंच गया था।

चाहता हूं आप लोग इसे याद रखें।''
“आज के बम उस बम से कहीं ज्यादा शक्तिशाली हैं जो हिरोशिमा पर गिराया गया था। कल्पना कीजिए अगर भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध होता है तो उस परिस्थिति में क्या होगा? सरकारें न्यूक्लियर बम इसलिए बनाने की बात करती हैं, कि इससे युद्ध रोका जा सकता है। लेकिन । न्यूक्लियर हथियारों से सुरक्षा नहीं लाई जा सकती। न्यूक्लियर युद्ध में कोई नहीं जीत सकता। सुरक्षा देशों के बीच अच्छे रिश्तों से आती है।

मैं कितने दिन जियूंगा मैं नहीं जानता, पर मैं जितने भी दिन जियूं, मैं शान्ति के लिए काम करते रहना चाहता हूं। मैं भारत और पाकिस्तान के लोगों को भी कहता हूं कि एक साथ मिलकर शान्ति के लिए काम करें। यह मेरा सपना है। जैसा कि जापान के दार्शनिक इचीरो मोरीसाकी ने कहा है - हमें एटमों के 'चेन रिएक्शन' को मनुष्यों के ‘चेन रिएक्शन' से रोकना होगा। चलिए हम सब मिलकर काम करें जिससे हम अपने पीछे अपने बच्चों और उनके बच्चों के लिए शान्तिपूर्ण दुनिया छोड़कर जा सकें। ये ही मेरी प्रार्थना है, और यही संदेश मैं हिरोशिमा से लाया हूं।'


यह लेख ज्यो द्रेज द्वारा तामुहिको ताकेता के टेप किए गए व्याख्यान का सम्पादित अंश है। ज्यों द्रेज इस दौरे में ताकेता के साथ थे।

ज्यों द्रेज़: दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स में डेवलपमेट इकॉनोमिक्स' के विजिटिंग प्रोफेसर हैं। पूर्व में 'लंदन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स' में इस विषय के व्याख्याता रह चुके हैं।

हिन्दी में अनुवाद स्मिता अग्रवाल। स्मिता अग्रवाल स्कॉलेस्टिक पब्लिशर्स नई दिल्ली के साथ काम करती है।

फोटोग्राफ 'एट वर्क इन द फील्ड ऑफ द बॉम' लेग्वक रॉबर्ट डेल ट्रिड़िस, प्रकाशक: हारप लिमिटेड लदन, मे माभार।