लेखक: रे ब्रेडबरी
अनुवाद: उषा चौधरी                                                                                                                                     [Hindi PDF, 172 kB]

विज्ञान कथा
सितम्बर के आरम्भ की एक ढलती दोपहर को मैं पहले-पहल उस चित्रांकित व्यक्ति से मिला। डामर की सड़क पर चलते-चलते मैं विस्कांसिन की अपनी दो सप्ताह की पदयात्रा के अंतिम चरण में था। शाम होने पर मैं एक जगह रुका, पोर्क के साथ कुछ बीन्स और एक डोनट खाया, बस लेटकर कुछ पढ़ने की तैयारी में ही था कि वह चित्रांकित व्यक्ति पहाड़ के ऊपर चढ़ता हुआ, आकाश की पृष्ठभूमि में मेरे पास आकर खड़ा हो गया।

तब मैं नहीं जानता था कि वह आदमी चित्रांकित है। मुझे केवल यह पता था कि वह मज़बूत मांसपेशियों वाला लंबा आदमी है जो किसी कारणवश मोटा हो गया है। मुझे याद आता है कि उसकी बाहें लंबी और हाथ मोटे थे पर उसका चेहरा एक बच्चे जैसा था जो मानो उसके विशालकाय शरीर पर ऊपर से चिपका दिया गया हो।
उसे मेरे वहां होने का एहसास था क्योंकि मेरी ओर देखे बिना ही उसने कहा, “क्या आप बता सकते हैं कि मुझे नौकरी कहां मिल सकती है?” “संभवत: नहीं,” मैंने कहा।

“पिछले चालीस सालों में मुझे एक भी ऐसा काम नहीं मिला जिस पर मैं टिक सका होऊं,” उसने कहा।
हालांकि वह एक गरम ढलती दोपहरी का समय था फिर भी उसने ऊनी कमीज़ पहन रखी थी और उसके बटन गले तक बंद कर रखे थे। कमीज़ की बाहें भी कलाइयों पर बटन से बंद थीं। उसके चेहरे से पसीना टपक रहा था फिर भी वह अपनी कमीज़ ढीली करने या उतारने का कोई प्रयत्न नहीं कर रहा था। आखिर में उसने कहा, “ठीक है, रात रुकने के लिए यह एक अच्छी जगह है, अगर मैं भी यहीं रुक जाऊं तो आपको कोई एतराज़ तो नहीं होगा?”
“मेरे पास कुछ अतिरिक्त भोजन भी है, आपका स्वागत है,” मैंने कहा।
वह धम्म से बैठ गया और बुदबुदाया, “मुझे अपने पास ठहराने के लिए तुम पछताओगे। मेरे से वास्ता पड़ने वाले हर किसी के साथ ऐसा ही होता है, तभी तो मैं आज तक चलता ही जा रहा हूं। ये देखो, सितम्बर का महीना शु डिग्री हो गया है, श्रमिक दिवस के कार्निवाल का मौसम आ गया है। इस मौसम में तो मैं किसी छोटे शहर में सड़क किनारे खेल-तमाशे दिखाकर अच्छी कमाई कर लेता। पर देखो, यहां मैं बेकार बैठा हूं।”

उसने अपना भारी-सा एक जूता उतारा और उसे ध्यानपूर्वक देखने लगा। “मेरी कोई भी नौकरी बस दसेक दिन तक ही चलती है, फिर कुछ-न-कुछ हो जाता है और मैं निकाल दिया जाता हूं। अब तो अमेरिका का कोई भी कार्निवाल मुझे पास फटकने तक नहीं देता।”

“इस मुसीबत की वजह क्या है?” मैंने पूछा। उत्तर के लिए उसने धीरे-से अपने कसे हुए कॉलर का बटन खोला। अपनी बंद आंखों से ही उसने धीरे-से अपनी कमीज़ के सारे बटन नीचे तक खोल डाले। फिर उसने अपनी अंगुलियों से छाती को स्पर्श किया। “कमाल है,” मुंदी आंखों उसने कहा, “तुम उन्हें महसूस नहीं कर सकते, पर वे अब भी वहीं हैं। मैं हमेशा उम्मीद करता हूं कि मैं उन्हें वहां खोजूं और वे न मिलें। मैं अत्याधिक गर्मी के दिनों में भी घंटों धूप में चलता हूं, बिलकुल जलता-भुनता हुआ और ये सोचता हूं कि मेरा पसीना उन्हें बहा देगा, सूरज की गरमी उन्हें जलाकर राख कर देगी लेकिन सूरज के ढलने के बाद भी वे वहीं-के-वहीं रहते हैं।” उसने हल्के-से अपना सिर मेरी ओर झुकाया और अपनी छाती दिखाते हुए पूछा, “क्या वे अभी भी दिख रहे हैं?”
लंबी चुप्पी के बाद मैंने कहा, “हां, वे अब भी वहीं हैं।” वे तस्वीरें। वे चित्र।
“कॉलर के बटन बंद रखने का दूसरा कारण बच्चे हैं।” आंखे खोलते हुए उसने कहा, “गांव-कस्बों की सड़क पर वे मेरा पीछा करते हैं। पहले तो हर कोई तस्वीरों को देखने को उत्सुक रहता है, फिर उन्हें देखना नहीं चाहता।”

उसने कमीज़ उतारकर उसे अपने हाथों में लपेट लिया। गले के चारों ओर नीले रंग से गुदी गोलाकार धारी से लेकर नीचे कमर तक वह चित्रों से भरा हुआ था।
मेरे विचारों का अनुमान लगाते हुए उसने कहा, “बस ये ऐसे ही बढ़ते गए हैं। देखो, मैं पूरा-का-पूरा चित्रांकित हूं।” उसने अपना हाथ खोला। उसकी हथेली पर एक गुलाब था, ताज़ा तोड़ा हुआ; जिसकी मुलायम गुलाबी पंखुड़ियों पर पानी की पारदर्शी बूंदें झलक रही थीं। मैंने उसेे स्पर्श करने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, परन्तु आश्चर्य! वह केवल एक चित्र मात्र था।

उसके बारे में कुछ और बताना मेरे लिए मुश्किल है कि मैं कैसे बैठा-बैठा उसे घूरता रहा क्योंकि उसके शरीर पर चित्रों के जटिल समूह थे, रॉकेट थे, फव्वारे थे, अनेक लोगों के चित्र थे जो अपने विस्तार में बड़े उलझे हुए और रंगीन थे। उसके शरीर पर अंकित लोगों की भीड़ की हल्की फुसफुसाहट तक सुनाई पड़ रही थी। जब कभी उसके शरीर का मांस खिंचता था तो उन तस्वीरों के छोटे-छोटे मुंह हिलकर स्फुरित हो जाते, छोटी-छोटी हरी और स्वर्णिम आंखें झपझपाने लगतीं और गोरे-गोरे गुलाबी हाथ इशारे करने लगते। उसकी छाती पर घास के पीले मटमैले मैदान, नीली नदियां और पहाड़ तथा आकाश-गंगा के बीच सूरज-तारे व नक्षत्र फैले थे। आदमियों के ही लगभग बीस या अधिक समूह थे जिनके चित्र उसकी बाहों, कंधों, पीठ, बगलों, कलाइयों और पेट के समतल भाग पर दिख रहे थे। वे चित्र उसके शरीर के बालों के गुच्छों एवं भूरे चकत्तेदार धब्बों के बीच हिलते-डुलते बगलों से झांकते, हीरों-सी आंखें चमकाते दिखाई पड़ते थे। हरेक समूह अपनी क्रिया में पूरी तरह तल्लीन और हरेक चित्र अपने आप में कला-दीर्घा का एक विशिष्ट चित्र हो सकता था।

“क्यों, ये तो बहुत सुंदर हैं, हैं न?” मैंने कहा। मैं उसके चित्रों के बारे में कैसे वर्णन कर सकता था? हां, अगर एल ग्रीको ने अपने चरमोत्कर्ष के दिनों में हाथ से भी छोटे आकार की कलाकृतियां पूरे कायिक विस्तार के साथ चमकीले सल्फ्यूरिक रंगों में बनाई होतीं, तो शायद उसने अपने चित्रों के लिए इस आदमी के शरीर का इस्तेमाल किया होता। उसके शरीर के रंग त्रिआयामी थे। ये चित्र अपने आप में मानो ऐसी खिड़कियां थीं जो भयानक वास्तविकता दिखा रही थीं। यहां तो एक दीवार पर संसार के सभी सुंदरतम दृश्य अंकित थे; और यह व्यक्ति तो जैसे चित्रों के खज़ाने की चलती-फिरती कला-दीर्घा था।
चित्रकारी का यह काम किसी मामूली ‘टेटू’ गोदने वाले का नहीं था जो सांसों में व्हिस्की की गंध और तीन तरह के रंग लेकर मेलों में काम करता है। ये तो किसी विशिष्ट प्रतिभाशाली व्यक्ति का काम था - स्पंदनयुक्त, स्पष्टता और सुंदरता का नमूना।
“हां,” चित्रयुक्त आदमी ने कहा, “मुझे अपने इन चित्रों पर बहुत गर्व है...... इतना कि मैं उन्हें जला देना चाहता हूं। मैंने रेगमाल, एसिड, चाकू..... किस-किस का इस्तेमाल नहीं किया.....।”
सूरज ढल रहा था। पूर्व दिशा में चांद निकल आया था।

“आपको पता है ये चित्र आगे आने वाले समय की भविष्यवाणी करते हैं,” चित्रांकित आदमी ने कहा।
मैं चुप रहा।
“जब तक दिन रहता है, तब तक सब ठीक रहता है,” वह बोलता गया। “दिन में तो मैं कार्निवाल में काम कर लेता हूं, लेकिन रात में ....., रात में ये तस्वीरें चलती हैं, रूप बदल लेती हैं।”
मैं मुस्कराया। “तुम्हारे शरीर पर ये चित्र कब से हैं?” मैंने पूछा
“सन् उन्नीस सौ में जब मैं बीस वर्ष का था और एक कार्निवाल में काम कर रहा था, मेरा पैर टूट गया जिसकी वजह से मुझे बिस्तर पर लेटे रहना पड़ा। अपनी जीविका चलाने के लिए मुझे कुछ करना था सो मैंने शरीर गुदवाने का निश्चय किया।”
“लेकिन तुम्हें गोदा किसने? उस कलाकार का क्या हुआ?”
“वह फिर भविष्य में चली गई,” उसने कहा। “वह एक बूढ़ी औरत थी जो विस्कांसिन के मध्य भाग के एक छोटे-से घर में रहती थी, वह जगह, यहीं आस-पास है, यहां से दूर नहीं होगी। वह एक छोटी-सी बूढ़ी चुड़ैल थी जो एक क्षण हज़ार साल की बुढ़िया लगती थी तो दूसरे ही क्षण बीस साल की युवती। लेकिन उसने बताया था कि वह समयातीत है, वह समय की यात्रा कर सकती है। तब मैं हंसा था यह सुनकर। अब मैं समझ गया हूं।”

“तुम उससे मिले कैसे?”
उसने मुझे बताया कि उसने बुढ़िया का साइनबोर्ड सड़क किनारे देखा था जिस पर लिखा था, “त्वचा पर चित्रकारी।” गोदना नहीं। इसलिए वह चित्रकारी कराने के लिए सारी रात उसके पास बैठा रहा और उसकी जादूभरी सुइयां कभी उसे तेज़ ततैया के डंक की पीड़ा और कभी कोमल मधुमक्खी के डंक की वेदना देती रहीं। सुबह तक वह ऐसा दिखने लगा जैसे किसी बीस रंगों वाले प्रिंटिंग प्रेस से छपकर निकला हो - हर तरफ से चमकदार और चित्रमय।

“मैं पिछले पचास वर्षों से हर गर्मी के मौसम में उसे ढूंढता रहा हूं,” उसने हवा में हाथ लहराते हुए कहा, “जब भी वह चुड़ैल मुझे मिलेगी, मैं उसे मार डालूंगा।”
सूरज ढल-चुका था। आकाश में कुछ तारे और चांद निकल आए थे जिसकी रोशनी में घास और गेहूं के खेत चमकदार लग रहे थे। चांदनी में चित्रांकित व्यक्ति पर अंकित तस्वीरें ऐसे चमक रही थीं जैसे हल्की रोशनी में जलता हुआ कोयला, छितरे हुए माणिक और पन्ने, रोओल्ट और पिकासो के रंग या फिर एल ग्रीको द्वारा चित्रित पिचकी हुई लंबायमान आकृतियां।
“जब ये आकृतियां चलने लगती हैं तो लोग मुझे नौकरी से निकाल देते हैं। मेरे चित्रों में जब कोई हिंसात्मक घटना होती है तो उन्हें अच्छा नहीं लगता। हर चित्र एक छोटी कहानी है। अगर आप उन्हें गौर से देखें, तो वे कुछ ही मिनटों में अपनी कहानी कहने लगते हैं। तीन घंटे में आप अठारह से बीस कहानियां मेरे शरीर पर अभिनीत होते हुए देख सकते हैं। आप उनकी आवाज़ें भी सुन सकते हैं और उनके विचार भी सुन सकते हैं। यह सब यहीं हो रहा है, मेरे ऊपर, बस आपको देखना भर है। लेकिन इस सबसे महत्वपूर्ण मेरे शरीर पर एक और खास निशान है,” उसने अपनी पीठ को उघाड़ते हुए कहा, “देखो, इधर मेरे दाहिने कंधे पर कोई विशेष आकृति नहीं है, बस एक गड्ड-मड्ड-सा, अस्त-व्यस्त-सा निशान है।”

“जब मैं किसी आदमी के पास लंबे समय तक रहता हूं तो ये निशान बढ़ने लगता है और वहां उसकी तस्वीर उभर आती हैं। अगर मैं किसी स्त्री के साथ होता हूं तो उसकी तस्वीर उस जगह पर आ जाती है और एक घंटे के अंदर उसकी पूरी ज़िंदगी का दृश्य दिखा देती है कि वह कैसे जीएगी, कैसे मरेगी, जब साठ साल की होगी तो कैसी दिखेगी। अगर मेरे साथ कोई पुरुष होता है तो एक घंटे बाद उसकी तस्वीर भी मेरी पीठ पर उभर आती है। इसमें वह आदमी किसी नुकीली चोटी से गिरता हुआ या ट्रेन के नीचे आकर मरता हुआ दिखता है। बस, फिर मुझे नौकरी से निकाल दिया जाता है।”
जितनी देर भी वह मुझसे बातें करता रहा, वह अपना हाथ अपनी छाती के उन चित्रों पर फेरता रहा। जैसे वह उनके फ्रेमों को व्यवस्थित कर रहा हो, उनकी धूल हटा रहा हो, एक कला पारखी, कला संरक्षक की तरह।
वह अब पूरी तरह लेट गया। रात गर्म थी। हवा बिल्कुल नहीं चल रही थी। वातावरण गर्म और घुटन भरा था। हम दोनों ने अपनी-अपनी कमीज़ें उतार दी थीं।
“वह बूढ़ी औरत तुम्हें कभी नहीं मिली?”
“कभी नहीं।”
“और तुम सोचते हो कि वह भविष्य से आई थी।”
“नहीं तो उसे उन सब कहानियों के बारे में कैसे पता चलता जो उसने मेरे शरीर पर चित्रित की थीं?”

उसने थककर अपनी आंखें बंद कर लीं। उसकी आवाज़ धीमी पड़ने लगी। “कभी-कभी रात को मुझे उनका अनुभव होता है। वे तस्वीरें चींटियों की तरह मेरे शरीर पर रेंगती हैं। तब मैं जान जाता हूं कि वे अपना काम कर रही हैं। अब मैं उनकी ओर बिल्कुल नहीं देखता। मैं बस आराम करने की कोशिश करता हूं। मुझे ज़्यादा नींद नहीं आती। तुम भी उनकी तरफ देखना मत। मैं तुम्हें सतर्क कर रहा हूं। जब सोओ तो दूसरी तरफ करवट ले लेना।”
मैं उससे कुछ ही फीट की दूरी पर लेट गया। उसके शरीर पर उकेरे चित्र बहुत सुंदर लग रहे थे, अन्यथा शायद मैं उस उबाऊ जगह से बाहर जाने के लिए उत्सुक हो जाता। लेकिन वे चित्र! मैं उन्हें अपनी आंखों में भर लेना चाहता था। कोई भी व्यक्ति अपने शरीर पर ऐसी चीज़ें देखकर कुछ पागल-सा तो हो ही जाता।
रात काफी शांत थी और मैं चित्रांकित आदमी कीे सांसों की आवाज़ सुन सकता था। दूर बीहड़ों से झींगुरों की आवाज़ें आ रही थीं। मैं करवट लेकर इस तरह लेटा कि उन चित्रों को देख सकूं। शायद आधा घंटा बीता होगा। वह चित्रांकित आदमी सोया या नहीं, मैं नहीं जानता, लेकिन अचानक मैंने उसके फुसफुसाने की आवाज़ सुनी, “वे हिलडुल रही हैं..... है न?”
मैंने कुछ क्षण प्रतीक्षा की। फिर कहा, “हां।”

तस्वीरें गतिमान थीं। बारी-बारी से वे एक या दो मिनट के लिए हिलती-डुलती थीं। चांदनी रात में क्षणिक विचारों और दूर से आती समुद्र की आवाज़ के बीच लगता था जैसे छोटे-छोटे नाटक खेले जा रहे हैं। कहना मुश्किल है कि ये नाटक एक घंटे चले या तीन घंटे। मुझे तो केवल इतना पता है कि मैं मंत्र-मुग्ध-सा लेटा था, बगैर हिले-डुले जबकि आकाश में तारे अपनी यात्रा पूरी करने को थे।
सोलह चित्र! सोलह कहानियां! मैंने उन्हें एक-एक कर गिना। सबसे पहले मेरी आंखें एक दृश्य पर जम गईं। एक बड़ा-सा मकान था जिसमें दो लोग थे। मैंने तपते आकाश में गिद्धों को उड़ते देखा, स्वर्णित शेर देखे और आवाज़ें सुनीं।
पहला चित्र गतिमान हुआ और जीवित हो उठा।


रे ब्रेडबरी: बीसवीं सदी के प्रख्यात विज्ञान कथा लेखकों में से एक प्रमुख नाम।
यह कहानी 1952 में हाइनमैन द्वारा प्रकाशित उनके संकलन, द इलस्ट्रेट्ड मैन, से ली गई है।
हिन्दी अनुवाद: उषा चौधरी: शौकिया अनुवाद कार्य। भोपाल में रहती हैं।
चित्रांकन: उदय खरे: शौकिया चित्रकार। भोपाल में रहते हैं।
रे ब्रेडबरी के विज्ञान-गल्प संकलन ‘द इलस्ट्रेट्ड मैन’ का यह प्राक्कथन अपने आप में किसी विज्ञान-कथा से कम नहीं है। इसके बाद एक-एक करके वे सोलह विज्ञान-कथाएं सुनाते हैं जो चित्रांकित आदमी की त्वचा पर रात भर में घटती हैं। इनमें से एक कहानी ‘आखिरी रात’ हमने संदर्भ के अंक 50 में प्रकाशित की थी। अगले अंक में इसी संकलन से एक और कहानी आपको पढ़वाएंगे।