स्मृति चिटणीस एवं किशोर पवार                                                                                                            [Hindi PDF, 245 kB]

ठंड, गर्मी, बारिश जैसी प्राकृतिक शक्तियों से स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए इन्सानों ने मकानों का निर्माण किया। घास-फूस से शुरू करके सीमेंट कांक्रीट तक विभिन्न सामग्रियों का उपयोग मकान बनाने में होता है। मकान मज़बूत और भव्य होते गए हैं। आज भी हम निरन्तर गगनचुम्बी भवनों का निर्माण करते जा रहे हैं, और यह भी जानते हैं कि इनका निर्माण अभियांत्रिकी की कई विधाओं के संतुलित क्रियान्वयन का परिणाम होता है। यदि इनमें से कोई भी एक पक्ष उपेक्षित रह जाए, तो इन भवनों को धराशायी होने में समय नहीं लगेगा।
इनकी तुलना यदि प्रकृति की नायाब रचनाओं से करें, जी हां, वही आसपास के विशाल वटवृक्ष और यहां-वहां सिर उठाती सामान्य दूब, तो पाएंगे कि इनकी रचना में भी स्थापत्य के विभिन्न सिद्धांत नज़र आते हैं।

आइए, पहले बहुमंज़िला भवनों को देखें। ये मुख्यत: तीन प्रकार के बलों का सामना करते हैं -
1. गुरुत्व बल, जो नीचे की ओर कार्य करता है।
2. हवाओं की गति व दिशा के कारण उत्पन्न बल, जो पूरी इमारत को जड़ से उखाड़ने की कोशिश करता है।
3. इमारतों के छज्जे व अन्य लटकने वाले भागों के कारण जुड़ाव की जगहों पर लगने वाला गुरुत्व बल।
यह भी देखा जाए कि इन बलों से निपटा कैसे जाता है। गुरुत्व बल से निपटने के लिए सीमेंट-कांक्रीट और लोहे के मोटे-मोटे कॉलम बनाए जाते हैं, जिनकी नींव ज़मीन में बहुत गहरे तक धंसी रहती हैं। इन्हें अपनी जगह बनाए रखने में मदद करती हैं - बीम या गर्डर जिन पर छत और ऊपरी मंज़िलें थमी रहती हैं। छज्जों इत्यादि पर सीमेंट और सरियों का प्रचुरता से उपयोग किया जाता है, ताकि लटकता हुआ भार थामा जा सके। हवा द्वारा लगाए गए बल का प्रतिरोध करने के लिए इमारतों के कोनों पर विशेष तौर पर चौड़े कॉलम बनाए जाते हैं या तेज़ हवाओं के क्षेत्रों में इन्हें गोल बना दिया जाता है। संक्षेप में कहें, तो इमारतों की यांत्रिक मज़बूती मुख्यत: दृढ़ता और अनम्यता के कारण होती है।

लेकिन पौधे और वृक्ष हमेशा एक जैसे नहीं रह पाते, इनका आकार, लम्बाई और भार, उम्र और मौसम के साथ-साथ बदलता रहता है। कभी ये मुलायम-नाज़ुक फूलों को संभालते हैं, तोे कभी भारी-भरकम कटहल जैसे फलों को; कभी ये डालियां हरे पत्तों से लदी होती हैं, तो कभी बिल्कुल वीरान। और-तो-और इनकी नींव भी बदलती रहती है। जी हां, जड़ें भी तो बढ़ती हैं, मरती हैं, नई बनती हैं। फिर भी, ये साल-दर-साल वहीं रहते हैं - शान से सिर उठाए, सारे बलों का सामना करते हुए।

आइए, इनकी तुलना करें, इमारतों पर पड़ने वाले बलों से। इनके तने, टहनी व पत्तियों पर गुरुत्व बल लगता है। गुरुत्व बल फैली हुई टहनियों और पत्तियों के जुड़ाव बिन्दुओं पर विशेष दबाव बनाता है, क्योंकि ये भी छज्जों की तरह एक सिरे पर जुड़ी हुई और दूसरे सिरे पर लटकी रहती हैं। इन टहनियों और पत्तियों को सामना करना पड़ता है, कभी मंद झोंकों का, तो कभी तेज़ काटती हुई हवा का। ये हवा तो हरपल कोशिश करती है, इन वृक्षों, झाड़ियों और घास को जड़ से उखाड़कर अपने साथ बहा ले जाने की। ये भी हवा के आगे झुक जाते हैं, झूम जाते हैं, फिर लौट आते हैं, अपनी मनपसंद मुद्रा में।
आइए जानें, इन ऊंचे-ऊंचे यूकेलिप्टस और दो-दो एकड़ में फैले बरगद जैसे वृक्षों की यांत्रिक सुदृढ़ता का राज। यह सुदृढ़ता आती है - विशेष प्रकार की कोशिकाओं के समूहों और उनकी जमावट से, जिन्हें सामूहिक रूप से यांत्रिक ऊतक कहा जाता है। ये ऊतक जीवित और मृत दोनों प्रकार की कोशिकाओं से मिलकर बनते हैं। हम सब इन्हें जानते हैं - सन और जूट के रेशे, लकड़ी इत्यादि इन्हीं के तो रूप हैं।

यांत्रिक ऊतक
मुख्य यांत्रिक ऊतक हैं - स्केलेरनकायमा यानी दृढ़-ऊतक। ये दृढ़ दीवार वाली रेशेनुमा कोशिकाएं पौधों में सभी स्तरों पर और सभी परतों में पाई जाती हैं (चित्र:2)। तन्यता शक्ति व लचीलेपन के कारण ये पौधे को हवा के वेग व गुरुत्व के विरुद्ध खड़े रहने की शक्ति देता है। स्केलेरनकायमा की लम्बी और सिरों पर नुकीली कोशिकाएं रेशे कहलाती हैं। ये कोशिकाएं मुख्यत: पानी के संवहन में सहायक ज़ाइलम ऊतक का भाग होती हैं।

ज़ायलम भी पौधों को दृढ़ता प्रदान करता है। ज़ायलम दो प्रकार का होता है। एक तो सक्रिय ज़ायलम जो फिलहाल संवहन में क्रियाशील है और दूसरा अक्रिय ज़ायलम जो अब संवहन कार्य नहीं कर रहा है। चूंकि अक्रिय ज़ाइलम तने के केन्द्र में पाया जाता है, अत: यह पौधों के केन्द्रीय अक्ष को सुदृढ़ करता है। इनकी सुदृढ़ता का कारण इनकी कोशिका-दीवारोंें में उपस्थित लिग्निन नाम का पदार्थ होता है। ऐसी लिग्निन युक्त कोशिकाएं ज़ाइलम के बाहर भी होती हैं, जिन्हें बास्ट फाइबर्स कहा जाता है। यहां इनका मुख्य कार्य पतली भित्ती वाली पैरनकायमा कोशिकाओं के लिए रक्षा कवच बनना होता है। इनके मुख्य उदाहरण पटसन, जूट और अलसी के रेशे हैं, जो व्यावसायिक रूप से उपयोगी हैं।

स्केलेरेनकायमा की कुछ कोशिकाएं चौड़ी एवं कम लम्बी होती हैं; इन्हें स्क्लेरिड कहा जाता है। इनकी उपस्थिति हम नाशपती के फलों में करकराती स्टोन कोशिकाओं, सुपारी या नारियल के कठोर कवच में महसूस कर सकते हैं। इनका काम बीज के आवरण व फलों की अंत:भित्ति को मज़बूत बनाना एवं पत्तियों के फलक को दृढ़ता प्रदान करना है।
रेशों और स्कलेरिड की उपस्थिति तने को मज़बूती प्रदान करने के साथ ही पानी के संवहन तंत्र को भी सहारा देती है। पौधों में पानी का जड़ों से शीर्ष तक संवहन नलिकाओं द्वारा होता है। ये लम्बी-लम्बी पाइपनुमा कोशिकाएं एक के ऊपर एक लम्बाई में जुड़ी रहती हैं। ये पतले पाइप 100-150 फीट लम्बे वृक्षों के सिरों तक पानी को पम्प करने के लिए आवश्यक दाब को आसानी से सहन कर जाते हैं।
इमारती लकड़ी की मज़बूती इन्हीं कोशिकाओं की लम्बाई, इनकी भित्तियों की मोटाई, रेशों और स्कलेरिड्स की संख्या व वितरण पर निर्भर करती है।

ऐसा नहीं है कि सारे यांत्रिक ऊतक मृत कोशिकाओं से बने होते हैं, इनमें कई जीवित कोशिकाएं भी होती हैं। जैसे कोलेनकायमा कोशिकाएं। ये कोशिकाएं, दो कोशिकाओं के जुड़ाव-बिन्दु पर मोटी होती हैं। ये पौधे की आरम्भिक अवस्था से ही पौधे के शीर्ष स्थानों पर उपस्थित कोमल ऊतकों की रक्षा करती हैं। जीवित होने के कारण शीर्षों की वृद्धि के साथ-साथ ये भी विभाजित होती रहती हैं। कोलेनकायमा कोशिकाएं कोमल तनों, पत्तियों के डंठलों, पत्ती के फलक व शिराओं, फूल की अंखुड़ियों और पंखुड़ियों में प्रचुरता से पाई जाती हैं। ये कोशिकाएं लचीली होती हैं, अत: पौधे के वे भाग भी लचीले होते हैं जहां ये पाई जाती हैं (चित्र 3-4)।
ये सभी ऊतक मिलकर या स्वतंत्र रूप से पौधे को विभिन्न दबावों के विरुद्ध सहारा देते हैं।
आइए, अब देखते हैं कि पौधे के विभिन्न भागों में ये किस प्रकार लगे होते हैं।

कोमल तने
छोटे एकवर्षीय पौधों व नए पौधों के तने कोमल होते हैं, और तेज़ी से बढ़ते हैं। इन तनों में मुख्य यांत्रिक ऊतक कोलेनकायमा होता है। अंदर की कोर में छोटे-छोटे समूहों में उपस्थित ऊतक किसी ‘I’ बीम की तरह तने को चारों ओर से थामे रखते हैं। मकानों में लगने वाले ‘I’ बीम में चौड़े पटिए मज़बूत होते हैं, जबकि उन्हें जोड़ने वाली बीच की पट्टी पतली व हल्की हो सकती है (चित्र-5)। इसी प्रकार संवहन पूलों (Vascular Bundles) पर उपस्थित स्कलेरेनकायमा ‘I’ बीम के चौड़े पटियों की तरह होता है, जबकि बीच-बीच में उपस्थित पैरनकायमा की जीवित कोशिकाएं स्पंज की तरह झटकों को अवशोषित कर लेती हैं। इसी कारण तने किसी भी दिशा में झुकाव सहन कर जाते हैं, जबकि परिधि पर स्थित कोलेनकायमा की रिम पौधे को लचीला बनाए रखती है। अंदर और बाहर की दो सतत रिंग्स (कोर) पौधे को हवा और बाढ़ के पानी का क्षैतिज दबाव और बारिश के तिरछे दबाव का प्रतिरोध करने की शक्ति देते हैं (चित्र 6-7)।

झाड़ियां और वृक्ष
इनके तने बेहद मज़बूत होते हैं। आपने देखा ही होगा कि पेड़ों कीे ऊपरी डालियांं तो आसानी से काटी जा सकती हैं, परन्तु मुख्य तने को काटना व उखाड़ना मुश्किल होता है। अपनी दृढ़ता की वजह से ही तनेे शाखाओं और पत्तियों के बोझ को संभाल पाते हैं। जिस तरह इमारतों के बोझ को कांक्रीट के खम्भे थामे रखते हैं, उसी तरह ठोस लकड़ी के कॉलम यानी ज़ाइलम का अक्ष यह काम करता है।

लताएं
वृक्षों की मज़बूती तो निर्विवाद है ही, लताएं भी कम मज़बूत नहीं होती। इन लताओं का साम्राज्य स्कलेरेनकायमा की उपस्थिति से ही कायम है। इन लताओं की कोमल नज़र आती काया अपने अंदर पैठे इसी ऊतक के कारण मुड़ती-झुकती ज़रूर है, परन्तु टूटती नहीं। ये ऊतक त्वचा के बहुत अंदर एवं केन्द्र से थोड़ी दूर बीच में गोल रिंग के रूप में पाए जाते हैं। बोगेनविलिया आदि काष्ठीय लताओं में ज़ाइलम मुख्य यांत्रिक ऊतक की तरह कार्य करता है, पर इनमें बीच-बीच में पैरनकायमा भी पाया जाता है, जो झटकों को किसी रबर की तरह सहन करने की क्षमता देता है। ये लताएं किसी आधार या आसपास उपस्थित वृक्षों की सहायता से ऊपर की ओर बढ़ती जाती हैं, यदि इनमें वृक्षों के समान ज़ायलम का एक ठोस स्तम्भ पाया जाता, तो आधार-वृक्षों के हिलने से उत्पन्न खिंचाव के चलते ये टूट भी सकती थीं। अत: पैरनकायमा की उपस्थिति इस स्तम्भ में लचीलापन बनाकर लताओं को सुरक्षित रखती है।

एकबीजपत्री पौधे
गेहूं और घास जैसे एकवर्षीय पौधों के तने ज़्यादा लम्बे नहीं होते। इनमें ज़ायलम एक केन्द्रीय अक्ष के रूप में नहीं पाया जाता, बल्कि फ्लोएम के साथ मिलकर छोटे-छोटे ऊतक समूह, जिन्हें हम संवहन पूल (vascular bundle) कहते हैं, बनाता है। इन संवहन पूलों के चारों ओर स्कलेरेनकायमा की खोल चढ़ी रहती है, जिन्हें बंडल शीथ कहते हैं। यह खोल पौधे की पूरी लम्बाई में फैली रहती है और पौधे को थामे रखती है, ठीक उसी तरह जिस तरह सरिए खम्भों को थामे रखते हैं।
जड़ें

आपने लम्बे पोल पर लगा झण्डा देखा होगा। उसे सही स्थान पर बनाए रखने के लिए कई रस्सियों की सहायता से ज़मीन पर दूर-दूर तक फैली हुई खूंटियों से बांधा जाता है। बिल्कुल उसी तरह पौधे की जड़ें भी पौधे के वज़न को एक बड़े क्षेत्र में वितरित कर देती हैं।
जब हवा इन वृक्षों को एक दिशा से दबाती है, तब ये जड़ें ऊपर की ओर खिंचने लगती हैं परन्तु इनका केन्द्रीय अक्ष, जो ज़ाइलम के सुदृढ़ रेशों और वाहिकाओं का बना होता है, इस बल को झेल लेता है (चित्र 9)।

पत्तियां
तने और जड़ों के विपरीत पत्तियां चपटी होती हैं, अत: इन पर हवा के थपेड़े सतह पर लगते हैं, जिसके कारण तेज़ हवा में इनके कटने-फटने की आशंका बढ़ जाती है।
हम सभी ने बचपन में पीपल की पत्तियों को गलाकर, सुखाकर उसकी जाली को देखा है। इनकी जाली शिराओं का जाल होता है। इन सभी शिराओं में ज़ाइलम पाया जाता है, जो पानी के संवहन के साथ-साथ सहारा देने का काम करता है। इसके साथ ही, अधिकांश मुख्य शिराओं की त्वचा के नीचे कोलेनकायमा के समूह पाए जाते हैं। ये दोनों ऊतक मिलकर पत्ती को लचीला व दृढ़ बनाए रखते हैं। केवड़ा जैसी कई पत्तियों में तने की तरह ‘क्ष्’ बीम भी पाई जाती है। ये पत्ती की ऊपरी सतह से निचली सतह तक जुड़कर उसे अतिरिक्त यांत्रिक मज़बूती देती है (चित्र 10)।

केले या घास जैसे एकबीजपत्री पौधों की लंबी पतली पत्तियों में इस तरह का जालीदार शिरा विन्यास नहीं पाया जाता, बल्कि शिराएं एक दूसरे से समान्तर फैली होती हैं। इन पत्तियों की ऊपरी और निचली सतहों में उपस्थित कोलेनकायमा के समूह पत्ती को सीधा रखने और विभिन्न दबावों को सहन करने की शक्ति देते हैं। कई पत्तियों में त्वचा के नीचे स्कलेरेनकायमा भी उपस्थित होता है। पत्तियों के किनारों में भी पर्याप्त मात्रा में कोलेनकायमा या स्क्लेरेनकायमा उपस्थित होता है, जो इन्हें हवा के थपेड़ों के विरुद्ध न कटने-फटने की क्षमता प्रदान करता है। मगर केले जैसी बहुत बड़ी पत्तियां हवा के प्रवाह में इतना अधिक प्रतिरोध पैदा करती हैं कि कट-फट जाती हैं।
पत्तियों, फूलों और पुष्पक्रमों के डंठल भी रोचक रचनाएं हैं, जो एक सिरे पर तने से जुड़े होते हैं और दूसरे सिरे पर पत्ती या फूल का भार संभालते हैं। इसमें मदद करते हैं स्क्लेरेनकायमा के कई समूह, जो इनकी त्वचा से केन्द्र तक फैले रहते हैं। इसी कारण तेज़ हवा व बारिश में भी ये नहीं टूटते हैं (चित्र 11)।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ ज़मीनी पौधे ही सारे दबावों का सामना करते हैं। पानी में पाए जाने वाले पौधे भी पानी के बहाव का सामना करते हैं। छूने में कोमल लगने वाले इन पौधों में भी पर्याप्त मात्रा में स्कलेरेनकायमा के समूह पाए जाते हैं।
ज़मीनी पौधों में कई विशिष्ट रचनाएं भी पाई जाती हैं। जैसे बरगद की स्तंभ जड़ें, गन्ने व केवड़ा की अपस्थानिक जड़ें (Adventitious Roots) इत्यादि पौधों को अतिरिक्त स्थायित्व प्रदान करती हैं। ये रचनाएं पौधों में शुरू से नहीं होती, जैसे-जैसे पौधा बढ़ता है, ये बनने लगती हैं।
यहां पेड़-पौधों की वास्तुकला की कुछ बातें ही हो पाई हैं। कई बल और प्रतिबल हैं, रचनाएं हैं, रणनीतियां हैं, जिनका ज़िक्र तक नहीं हो पाया है। अगली बार जब आप किसी पौधे को या विशाल वृक्ष को शान से खड़ा देखें, तो सोचें कि “कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा।”


स्मृति चिटणीस: इंदौर के होल्कर विज्ञान महाविद्यालय में वनस्पति विज्ञान पढ़ाती हैं।
किशोर पवार: इंदौर के होल्कर विज्ञान महाविद्यालय में वनस्पति विज्ञान पढ़ाते हैं।