लेखक :  टी.वी.वैंकटेश्वरन्
अनुवाद: के.बी.सिंह

कमल कीचड़ में उगता है,और यह गंदगी से पूरी तरह साफ-सुथरा निकलता है। कीचड़ भरे पानी में रहने पर भी इसकी पत्तियां खुलने पर बेदाग और धूल या प्रदूषण से अनछूई होती हैं। अक्सर कीचड़ और गंदगी वाले परिवेश में पाए जाने के बावजूद कमल बेदाग होता है और इसलिए भारतीय संस्कृति में इसे पवित्रता, मर्यादा, निर्मलता और अच्छाई से जोड़ा गया है। भगवान विष्णु के पैर, देवी लक्ष्मी की आंखें, भगवान बुद्ध का शुद्ध हृदय, सभी कमल से जुड़े हैं: कमल-चरण, कमल-नयन, कमल-हृदय; शायद इसलिए कि कमल प्रतिकूल परिस्थितियों में पनपने के बाद भी गंदा नहीं होता।

यह हमारा रोज़मर्रा का अनुभव है कि यदि आस-पास के किसी बाग से पत्ते तोड़कर गौर से देखें तो उन पर एक-दो दाग मिलना निश्चित है। यहां-वहां धूल के दाग, कीड़ों के अंडे, प्रदूषण के कारण गंदगी या गंदला धब्बा। पर कमल के पत्ते किसी नई-नवेली ऑलपिन या सेफ्टी पिन जैसे साफ-सुथरे होते हैं। कमल को कौन साफ-सुथरा बनाता है? वह स्वयं को कैसे दागों और गंदगी के हमलों से मुक्त रख पाता है? आखिरकार, अन्य पत्तियों की तरह कमल की पत्तियों को भी गंदे और प्रदूषित पर्यावरण का सामना करना पड़ता है और इसलिए इन्हें भी थोड़ा-बहुत गंदा तो होना चाहिए।

हाल के अध्ययनों ने उन भौतिक कारणों का पता लगाया है जिनकी वजह से कमल की पत्तियां खुद को साफ-सुथरा रख पाती हैं। इनके अनुसार कमल की पत्तियों की सतह पर करोड़ों सूक्ष्म गड्ढ़े पाए जाते हैं जो उन्हें साफ रखने में काफी महती भूमिका निभाते हैं। इन सूक्ष्म छिद्रों की भूमिका पर कुछ देर बाद बात करेंगे, अभी सिर्फ इतना बता दें कि खुद को साफ रखने के इस गुण को ‘कमल प्रभाव’ (Lotus Effect) कहा जाता है। लोट्स इफेक्ट पर की गई शोध से हमें आश्चर्यजनक झलक मिलती है कि कुदरत खुद को सर्वव्यापी धूल और रोगकारक जीवों से बचाने के लिए क्या-क्या कर सकती है।

पत्ती स्वयं को साफ कैसे रखती है?
पौधों की एक मूलभूत समस्या यह है कि प्रकृति में पत्तियों को लगातार प्रदूषण का सामना करते रहना पड़ता है। इन प्रदूषकों में से अधिकांश अकार्बनिक होते हैं, जैसे विभिन्न प्रकार की धूल और कालिख; जबकि कुछ जैविक होते हैं, जैसे फफूंद के बीजाणु (spore) व कोनीडिया, हनीड्यू। और शैवाल। पौधों के लिए स्वयं को पर्यावरण के इन हमलों से बचाना और अपने-आप को किसी तरह सुरक्षित रखना बेहद ज़रूरी है। इसलिए जैव-विकास के दौरान पत्तियों ने स्वयं को धूल और अन्य प्रदूषकों से यथासंभव मुक्त रखने की व्यवस्था विकसित की है। पत्तियां अपनी सतह की गीला हो जाने की क्षमता को घटाकर यह हासिल करती हैं। इस क्षमता के साथ एक और बात विचारणीय है कि पौधों को बारिश में खुद को ज़िंदा रखना है इसलिए यह ज़रूरी है कि वे पानी न सोखें; अत: पत्तियों की सतह को जल विकर्षक भी होना चाहिए।

पत्तियों की बिलकुल नहीं या अत्यंत कम भीगने की अदभुत क्षमता लंबे समय से ज्ञात तथ्य है। यह क्षमता आमतौर पर पत्तियों की सतह के संघटकों और संरचना के कारण होती है। इनकी सतह की पानी से गीला न होने की सीमा, सतह की सूक्ष्म संरचना के साथ-साथ उन पर जल-विकर्षक मोम जैसे क्रिस्टलों की परत की मौजूदगी से जुड़ी होती है। यहां रसायन शास्त्र, सूक्ष्म संरचना, गीलेपन तथा प्रदूषण के बीच विशेष अंतर-संबंध हैं। शायद आप भी उलझ गए होंगे कि पत्तियों के कम गीले होने के गुण का, पत्तियों द्वारा खुद को प्रदूषण से मुक्त रखने से भला क्या संबंध है?

गीलेपन के कारकों को समझना
पदार्थों के गीला या न गीला होने के पीछे के कारक सौ सालों से अधिक समय से खोज का विषय बने हुए हैं, लेकिन इसके बावजूद अभी भी सब कुछ समझा नहीं जा सका है। पर, विषय की वर्तमान समझ के आधार पर, सामान्य नियम के तौर पर निम्न बातें कही जा सकती हैं।
किसी पदार्थ की, आस-पास के माध्यम के तौर पर पाई जाने वाली हवा और पानी से गीले होने की क्षमता; पानी/हवा, पदार्थ/पानी और पदार्थ/हवा के बीच अंतरापृष्ठीय तनाव के अनुपात पर निर्भर करती है। तनावों का अनुपात, सतह पर पानी की बूंद का संपर्क कोण निर्धारित करता है। 00 संपर्क कोण पूर्ण गीलेपन की क्षमता का संकेत है, पानी की बंूद एक कोशिकीय परत की तरह फैल जाती है। संपर्क कोण 1800 होेने का मतलब है गीलेपन की पूर्ण अनुपस्थिति, बूंद सतह को केवल एक बिंदु पर संपर्क करती है।

उच्च अंतरापृष्ठीय तनाव वाले पदार्थ कम अंतरापृष्ठीय तनाव वाले पदार्थों की तुलना में गीलेपन की अधिक क्षमता रखते हैं। उदाहरण के लिए सोख्ता कागज़ (ब्लॉटिंग पेपर) में गीलेपन की क्षमता अधिक होती है; यानी अंतरापृष्ठीय तनाव अधिक है और संपर्क कोण लगभग 00 है। वहीं दूसरी ओर टेफ्लॉन जैसी सामग्री में अंतरापृष्ठीय तनाव कम होता है, इसलिए संपर्क कोण तकरीबन 1800 होता है और वे लगभग गीले ही नहीं होते।

इसके साथ ही सतह की बनावट भी गीलेपन की क्षमता में योगदान देती है। किसी सतह पर पानी का व्यवहार काफी हद तक सतह के खुरदरेपन पर निर्भर है। एक चिकनी और आसानी से गीली होने वाली सतह की गीला हो जाने की क्षमता, उसे खुरदरा करने से और भी बढ जाती है। जैसे, एक पॉलिश की गई लकड़ी खुरदरी बना देने पर आसानी से गीली हो जाएगी।

परन्तु यदि विचाराधीन सतह जल-भीतिक (hydrophobic) - यानी पानी को विकर्षित करने वाली होती है, तो एक नाटकीय गुण उभरता है। एक चिकनी जलभीतिक सतह, खुरदरा करने पर परा-जलभीतिक (super hydrophobic) यानी अत्यधिक नगण्य गीलापन क्षमता वाली सतह बन जाती है। जब एक जलभीतिक सतह को घिसा और खुरदरा बनाया जाता है, हवा बूंदों और सूक्ष्म संरचनाओं के बीच फंस जाती है। इस तरह की सूक्ष्म संरचनाओं वाली मोम-युक्त पत्ती पर पड़ने वाली पानी की बूंद पत्ती पर से लुढ़क जाती है। सतह का खुरदरापन, पत्ती और बूंद के बीच संपर्क क्षेत्र को न्यूनतम कर, लगभग घर्षण-रहित लुढ़कन संभव कर देता है।

न भीगने की क्षमता, सूक्ष्म संरचना और सफाई
जब किसी सतह को धोने के लिए उस पर पानी डाला जाता है तो यह ज़रूरी होता है कि सतह गीली न हो लेकिन सतह पर मौजूद धूल तथा अन्य प्रदूषक पानी की बूंदों से चिपककर पानी के साथ बह जाएं और सतह साफ हो जाए। जहां आमतौर से जलभीतिक, मोम-युक्त सतहें पानी को विकर्षित करती हैं और गीले होने का प्रतिरोध करती हैं, वहीं धूल तथा अन्य ठोस सामग्री इनकी सतह से चिपक सकती हैं। मोम-युक्त सतह पानी को विकर्षित कर सकती है, पर धूल तथा अन्य प्रदूषक सतह पर आसंजन (चिपकाव) बल लगा सकते हैं। पर जब सतह न केवल जलभीतिक बल्कि खुरदरी भी हो, तब ऐसी पत्तियां न केवल पानी की बूंदों और सतह के बीच आसंजन में बाधा डालती हैं, बल्कि धूल कणों और सतह के बीच चिपकाव भी कम हो जाता है। यदि पानी की बूंद ऐसे धूल कण पर लुढ़कती है, तो कण गीला हो जाता है और बूंद की सतह पर चिपक जाता है। इस प्रकार कण का सतह से आसंजन कम होने के कारण, इसे पानी की बूंद द्वारा पत्ती से हटा दिया जाता है तथा पत्ती साफ-सुथरी और बेदाग हो जाती है।

ऐसी सतह पर सिर्फ इतना ही नहीं होता। स्वभाविक है कि धूल, कीचड़, आदि जैसे प्रदूषक जो स्वयं जलाकर्षक (जल-स्नेही) होते हैं, पानी की बूंदों से आकर्षित हो जाते हैं और जलभीतिक सतहों से हटा दिए जाते हैं। लेकिन तब क्या होगा जब प्रदूषक स्वयं जलभीतिक हो, उदाहरण के लिए वायरस, बीजाणु आदि? सभी अपेक्षाओं के विरुद्ध पानी की बूंद इन कणों को भी हटा देती है। इस मामले में कण बूंद द्वारा ले नहीं जाए जाते बल्कि वे पानी की बूंद की सतह पर समान रूप से फैलकर चिपक जाते हैं।

यह आश्चर्यजनक है कि हाइड्रोफोबिक प्रदूषक भी हाइड्रोफोबिक सतहों से पानी की बूंद द्वारा हटा दिए जाते हैं। स्थितियों पर सूक्ष्मता से गौर करने पर प्रक्रिया ज़्यादा स्पष्ट हो जाती है। पत्तियों पर मौजूद धूल कण या अन्य प्रदूषक पत्तियों की ऊपरी सतह के मोमीय-क्रिस्टलों के सिरे भर छूते हैं। इस प्रकार संपर्क क्षेत्र घट जाता है और चिपकाव भी अत्यधिक कम होता है। ऐसी स्थिति में पानी की बूंद और प्रदूषक कण के बीच आसंजन ज़्यादा होता है बनिस्बत प्रदूषक कण और पत्तियों की मोम-युक्त सतह के। इसलिए, कण पानी की सतह पर चिपककर बह जाता है।

कमल और कमल-प्रभाव
इंसानी चेहरे पर एक या दो डिंपल (गड्ढे) चेहरे की सुंदरता बढ़ा देते हैं, वहीं कमल की पत्तियों की सतह पर करोड़ों गड्ढों की वजह से पत्तियां बेदाग बनी रहती हैं। वास्तव में, कमल-प्रभाव एक संयोग मात्र न होकर पौधे द्वारा विपरीत पर्यावरण में स्वयं को बचाए रखने की बहुतेरी व्यवस्थाओं में से ही एक है। जैव सतहें; आधारभूत कार्यों जैसे यांत्रिक स्थायीकरण, तापमान पर नियंत्रण, उत्सर्जन एवं गैस विनिमय के लिए करोड़ों सालों में विकसित एवं अनुकूलित बहुउद्देशीय व्यवस्थाएं हैं।

धूल आदि अकार्बनिक प्रदूषकों का जीवित ऊतकों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। गंदी पत्ती धूप में ज़्यादा गर्म होगी, अम्लीय कीचड़ का विपरीत प्रभाव पड़ सकता है तथा धूल कण पत्ती के स्टोमेटा में अवरोध पैदा कर पत्तियों के सामान्य काम में बाधा पहुंचा सकते हैं। इसी तरह बीजाणु, बैक्टीरिया या शैवाल आदि जैविक प्रदूषक भी पत्तियों के सामान्य काम में बाधा डाल सकते हैं। सामान्यत: पत्तियों की सतह मोम-युक्त और जलभीतिक होती हैं, इसलिए गंदगी और कीचड़ बारिश से धुल जाता है।

पत्तियों द्वारा खुद को साफ रखने की ऐसी सभी व्यवस्थाओं में कमल-प्रभाव, काफी परिष्कृत तरीका है। कमल की पत्तियां न केवल जलभीतिक होती हैं बल्कि चेचक की तरह सूक्ष्म गड्ढों से पटी होती हैं। सूक्ष्म (कोशिकाओं) और नेनो संरचनाओं (मोमी क्रिस्टल) के संयोजन से संपर्क क्षेत्र न्यूनतम कर दिए जाते हैं। इस प्रकार, कमल की पत्ती की सतह अत्यधिक धूल-प्रतिरोधी और जल-विकर्षक होती है। अपनी सतह की इस परा-जलभीतिकता से यह गंदगी या रोगकारकों को सतह पर जमने से रोकती है। हर बरसात या जल बहाव के साथ गंदगी और रोगाणु धुल जाते हैं।

अध्ययनों ने दिखाया है, कमल की परा-जलभीतिकता इतनी अधिक है कि शहद या पानी में घुलनशील गोंद भी इसकी सतह पर चिपक नहीं पाती और ऐसे अत्यधिक श्यान (गाढ़े) द्रव भी पत्ती पर से पूरी तरह बह जाते हैं। वास्तव में ऐसी सूक्ष्म व्यवस्थाएं न सिर्फ कमल बल्कि गोभी, नरकुल, भारतीय चनसूर (क्रेस), ट्यूलिप, अरबी, ग्लेडियोलस आदि के पत्तों और यहां तक कि तितलियों एवं चिड्डों (ड्रैगनफ्लाई) के पंखों पर भी पाई जाती हैं। फलस्वरूप इनकी सतह भी साफ-सुथरी बनी रहती है।

प्रौद्योगिकीय प्रयोग
मनुष्य प्रकृति से काफी कुछ सीखता है और सफाई हमारी एक बाध्यता है। यदि ‘कमल प्रभाव’ का अन्य मानव निर्मित सतहों पर प्रयोग करें तो कैसा रहे, ताकि सिर्फ पानी से धोने पर ये चकाचक हो जाएं? निश्चित रूप से, इस तकनीक को इस्तेमाल करने से खुले में रखी प्रत्येक सामग्री बरसात में साफ हो जाएगी। ज़रा कल्पना कीजिए, यदि कमल-प्रभाव का इस्तेमाल ओढ़ने-बिछाने या पहनने के कपड़ों में किया जाए तो कपड़ों की धुलाई एकदम सरल काम हो जाएगा। बस गंदे कपड़ों को पानी में डुबो कर खंगालने की ज़रूरत भर होगी और कपड़े पहले की तरह चमाचम हो जाएंगे। परन्तु, साबुन और डिटर्जेंट खिड़की से बाहर फेंक देने का समय अभी नहीं आया है, इन कल्पनाओं को अमली-जामा पहनाने से पहले अभी और शोधकार्य की ज़रूरत है।

चूंकि कमल-प्रभाव पूरी तरह भौतिक-रासायनिक गुणों पर निर्भर है और यह जीवित व्यवस्था से बंधा नहीं है; इसलिए स्वयं को साफ रखने वाली सतह, प्रौद्योगिकीय रूप से बनाई जा सकती है। इस्तेमाल के संभावित क्षेत्र हैं: इमारत की बाहरी सतह पर किए जाने वाले पेंट, छत की टाइलें, कपड़े और विभिन्न प्रकार की कोटिंग के विशाल क्षेत्र आदि। वास्तव में, कुछ सतहों पर ऐसी संरचनाएं बनाने के लिए ज़रूरी पदार्थ आज भी उपलब्ध हैं। बहुत-सी प्रयोगशालाओं में, धूल-विकर्षक या स्वयं को साफ रखने वाली सतहें विकसित करने के लिए गहन वैज्ञानिक प्रयास जारी हैं। कुछ पदार्थों से जलभीतिक और तैलभीतिक गुणों वाली सतहें बनाई जा सकती हैं। इस प्रकार न वे गीली होंगी और न तेल से गंदी।


टी.वी.वैंकटेश्वरन: विज्ञान लेखन में रुचि। विज्ञान प्रसार में प्रधान वैज्ञानिक के रूप में कार्यरत हैं। तमिलनाडु सायंस फोरम से गहरा जुड़ाव।अंग्रेज़ी से अनुवाद: के.बी.सिंह: अनुवाद, लेखन एवं संपादन के क्षेत्र में कार्यरत। लखनऊ में निवास।