गायत्री

यह एक आम धारणा है कि परिवार कितना बड़ा हो सकता है, परिवार में अगला बच्चा कब जन्म लेगा, परिवार में लड़के की चाहत होती है, जैसे मुद्दों के प्रति छोटे बच्चे संवेदनशील नहीं होते। यहाँ बच्चों की आपसी बातचीत के मार्फत यह बात उजागर होती है कि किशोरावस्था से पहले भी बच्चे इन मुद्दों के प्रति न केवल संवेदनशील होते हैं बल्कि अपने परिवेश से इस सन्दर्भ में ज्ञान का निर्माण करने का प्रयास भी करते हैं।

एकलव्य, होशंगाबाद में बच्चों के लिए एक पुस्तकालय है जिसमें रोज़ाना करीब 30-35 बच्चे आते हैं और अपनी मन-पसन्द किताबें चुनकर पढ़ने के लिए घर ले जाते हैं। इसके अलावा, हम कुछ साथी मिलकर उनके साथ नियमित रूप से विविध प्रकार की गतिविधियाँ भी करवाते हैं मसलन - चित्र बनाना, दीवार अखबार बनाना, कबाड़ से जुगाड़, कोलाज बनाना, ओरिगामी, कहानी सुनाना, कुछ खेल आदि। बाल पुस्तकालय के ये सदस्य अधिकांशत: पास की बस्ती मालाखेड़ी से आते हैं, कुछ बच्चे आस-पास की कॉलोनियों से। जब बच्चे पुस्तकालय में होते हैं उस दौरान हम उनसे बातचीत भी करते हैं। इस अनौपचारिक संवाद में कभी कोई रोचक विषय भी निकल आता है।
ऐसे ही एक दिन 7-8 बच्चे बैठकर चित्र बना रहे थे। मैं भी पास ही बैठी उनकी सहायता कर रही थी। तभी उनके बीच कुछ रोचक बातचीत शुरु हुई। यथासम्भव बातचीत का पूरा ब्यौरा लिख रही हूँ।
उस दिन पुस्तकालय में आयशा नाम की एक नौ साल की बच्ची आई और कहने लगी, “मेडम जी! यह किताब हमरी दीदी ने भेजी है। दीदी बोल रही है कि उनका नाम काट देना क्योंकि वह अब बड़ी हो गई है, इसलिए अब एकलब नहीं आएगी। उसकी जगह आप मेरा और मेरी छोटी बहन मुस्कान का नाम लिख दो।”

मैंने उसकी बहन की ओर देखकर पूछा, “तुम्हारी छोटी बहन कौन-सी क्लास में पढ़ती है?”
आयशा: तीसरी में।
गायत्री: तुम्हारे कितने भाई-बहन हैं?
आयशा: मेडमजी, हम पूरे 13 भाई-बहन हैं। हमरी मम्मी बोलती है कि हमरे पापा की तबियत ठीक नहीं रहती इसलिए हमरे बहुत सारे भाई-बहन हैं।
गायत्री: अच्छा! आयशा यह बताओ कि तुमसे छोटे कितने भाई-बहन हैं?
आयशा: मेडमजी, दो बहनें और दो जुड़वाँ भाई।
गायत्री: कल तुम अपनी छोटी बहनों और जुड़वाँ भाइयों को भी ले आना।
आयशा: हाँ मेडमजी, ले आऊँगी।
उस वक्त पुस्तकालय में बैठे कुछ बच्चे किताब पढ़ रहे थे और कुछ चित्र बना रहे थे। आयशा के साथ हो रही मेरी बातचीत वे भी सुन रहे थे। उनमें से एक, अमन (लगभग 10 वर्ष) ने कहा, “मेडमजी, तेरह भाई-बहन तो असम्भव हैं!”
गायत्री: नहीं, बहुत-से लोगों के 10-12 बच्चे होते हैं।
इसके बाद मैंने उसे ऐसे कुछ बड़े परिवारों के बारे में बताया।
अमन: तीन-चार तक तो मैंने भी सुने हैं। लेकिन तेरह तो बहुत ज़्यादा होते हैं। तेरह का मतलब है थर्टीन! बाप-रे-बाप!
यह कहते हुए अमन मुस्कुराया और चुप हो गया। फिर कुछ पल रुककर कहने लगा, “इसकी मम्मी ने ऑपरेशन नहीं करवाया होगा। इसलिए तो इतने सारे बच्चे हो गए।”

यह सुनकर मेरा बेटा अक्षर (6 वर्ष) बोला, “नहीं रे अमन, इसकी कम-से-कम दस माँ होंगी क्योंकि दस माँओं से ही तो इतने बच्चे सम्भव होते हैं। एक माँ के तो तीन से ज़्यादा बच्चे नहीं होते।”
अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए उसने आस-पास रहने वाले ऐसे परिवारों के बारे में बताया जिनमें तीन भाई-बहन थे।
अब कुछ और बच्चे भी बातचीत में शामिल हो गए।

कमलेश: अबे अक्षर, तू अकेला है, इसलिए तुझे ऐसा लगता है। मेरे चाचा के भी चार बच्चे हैं। तेरी मम्मी ने बड़ा ऑपरेशन किया होगा, इसलिए तेरे और भाई-बहन नहीं हो पाए।
यह सुनकर अक्षर मेरे पास आकर लड़ने लगा और मेरी चुन्नी खींचते हुए बोला, “क्यों किया आपने ऑपरेशन? मेरे भी इनके जैसे भाई-बहन होते तो क्या तकलीफ होती आपको?”
मैंने उसे समझाने का प्रयास किया कि मैंने कोई ऑपरेशन नहीं किया है।

अमन: अक्षर तू कमलेश की बात में मत आ यार! वो तो हरकुछ बोलता रहता है। जब अपन आठ साल के हो जाते हैं ना तब अपने भाई या बहन आ जाते हैं। वह अपनी मम्मी तय करती है कि अपने लिए भाई लाना है या बहन। मैं जब आठ साल का था, तब मेरी बहन ‘तोशी’ आ गई। तू जब आठ साल का हो जाएगा तब तेरे घर भी भाई या बहन आ जाएँगे। अभी तू छ: साल का है, और दो साल इन्तज़ार कर तो तेरे भी भाई-बहन होंगे।

अमन की बात अक्षर को कुछ ठीक लगी और उसके चेहरे के भाव ऐसे हो गए मानो समस्या का हल मिल गया हो। लेकिन यह तसल्ली ज़्यादा देर तक नहीं बनी रह सकी क्योंकि इस दौरान उसका हमउम्र दोस्त ऋषि आ गया था जो ध्यान से इस बातचीत को सुन रहा था। अब उससे चुप नहीं रहा गया।
ऋषि: अमन सुन, मैं तो छ: साल का हूँ। अक्षर के साथ पहली कक्षा में पढ़ता हूँ और दो महीने पहले ही मेरी बहन ‘ऋचा’ आ गई।
अब बातचीत घूम-फिर कर एक ऐसे मोड़ पर आ गई थी जिससे बचने की हम बड़े लोग हमेशा कोशिश करते हैं। मैं सोच में पड़ गई। तभी आयशा की छोटी बहन मुस्कान बोल पड़ी, “मेडमजी! हमरी मम्मी की तमन्ना थी कि लड़का होना चाहिए और मम्मी को लड़का सभी बहनों के बाद हुआ। पहले हम ग्यारह बहनें हुईं और आखिर में हमरे दो जुड़वाँ भाई जो बड़े ऑपरेशन से हुए और मरते-मरते बचे। हमरी मम्मी ने अस्पताल में ही भाई को बचाने के लिए मन्नत माँगी थी। तब हमरे भाई घर आ सके।”

बच्चों ने इस चर्चा में बहुत ही सहज रूप से भागीदारी की। आम तौर पर माता-पिता सोचते हैं कि छोटे उम्र के बच्चों की ऐसे मुद्दों पर खास समझ नहीं होती या बच्चे संवेदनशील नहीं होते। लेकिन यहाँ बच्चों की बातचीत से यह काफी साफ तौर पर उभरता है कि बच्चे न केवल इन मुद्दों पर अपनी राय रखते हैं बल्कि वे अपने परिवेश से सुनकर, देखकर अपने ज्ञान का निर्माण भी कर लेते हैं। ऊपर दी गई बातचीत में परिवार कितना बड़ा हो सकता है, लड़के की चाहत, छोटे-बड़े भाई-बहनों के बीच उम्र का फासला, अगला बच्चा कब जन्म लेगा इसका फैसला कौन करता है, कैसे करता है, किसी के घर में छोटे बहन-भाई के जन्म न लेने का कारण ऑपरेशन होता है जैसी बातें बच्चे काफी सहज तरीके से समझाते हैं। यही नहीं, वे तर्क करते हैं, अपने अवलोकन बताते हैं और अपने परिवेश में ही हल खोजने का प्रयास करते हैं। जैसा कि आपने देखा कि एक बच्चे ने अपने अनुभव का हवाला देते हुए काफी हद तक सभी बच्चों से मनवा लिया कि घर में नए बच्चे के जन्म का बड़े बहन-भाई की उम्र से कोई सम्बन्ध नहीं है। किशोरावस्था में बच्चों में होने वाले शारीरिक बदलाव के पहले भी बच्चे इन सभी मुद्दों के प्रति संवेदनशील हो सकते हैं यह चर्चा इसका एक उदाहरण है।

मैंने इस पर भी गौर किया कि बातचीत में बच्चों ने अपनी बात बेझिझक रखी। मेरा प्रयास था कि चर्चा में बच्चों की ज़्यादा-से-ज़्यादा भागीदारी हो और मेरा दखल कम रहे। बच्चों की बातें सुनते हुए मैंने महसूस किया कि वे एक-दूसरे की बातें ध्यान से सुन रहे थे। शायद छोटे बच्चों में भी एक गम्भीर श्रोता के गुण मौजूद होते हैं।


गायत्री: एकलव्य के होशंगाबाद केन्द्र में कार्यरत। बच्चों के साथ गतिविधियों में रुचि।