सुनील वर्मा

आज मैं यह सोचकर स्कूल पहुँचा था कि कक्षा में सबसे पहले ‘समूह विभाजन’ विधि द्वारा रोटियों को लड़कियों के बीच बाँटने की क्रिया के बाद इसेे अंकों में लिखने व शब्दों में बताने की शुरुआत भी करवा दूँगा। मैं लगभग दस दिन से चित्र की सहायता से समूह विभाजन का अभ्यास करवा रहा था। जैसे ही कक्षा शुरूहुई मैंने लड़कियों को कागज़ और पेंसिल देकर, एक मौखिक प्रश्न उनके सामने रख दिया, “मेरे पास 12 रोटियाँ हैं, और खाने वाली लड़कियाँ 4 हैं। इन्हें बराबर रोटियाँ बाँटो।” पर तभी स्वाति ने ज़ोर से चिल्लाकर कहा, “पर सर, आज खेल तो खेला ही नहीं हमने।”
“अरे हाँ भई, आज तो खेल खेला ही नहीं। क्यों न आज खेल रहने दें और पहले पढ़ाई कर लें?”
परन्तु, लड़कियाँ कहाँ मानने वाली थीं। बस, एक ही स्वर में दोहराने लगीं, “नहीं सर, नहीं सर।” उन्हें रोज़ की आदत जो हो गई थी। दरअसल, जुलाई में जब मैं रायपुर (होशंगाबाद) की कन्या प्राथमिक शाला में पढ़ाने के लिए गया तो शुरुआत में बच्चों के साथ काम करने और उनके मन से शिक्षक का डर दूर करने के लिए मैंने यह तरीका अपनाया जो बाद में हमारी रोज़ाना की क्रियाविधि में शामिल हो गया।
वह दिन अब भी याद है जब मैं पहली बार कक्षा में गया था। मैंने बच्चों के चेहरों पर एक डर-सा पाया। मुझे अपने बचपन के दिन याद आ गए। मैं जैसे ही अपने शिक्षक को देखता डर जाता, पता नहीं किस बात पर पीटने लगे। ऐसे डर भरे माहौल में पढ़ाई कैसे सम्भव हो सकती है? मैंने सबसे पहले कक्षा का माहौल खुशनुमा और मनोरंजक बना बच्चों के मन से डर निकालने का सोचा, बस शु डिग्री हो गया हमारे खेल का सिलसिला जो कि आज तक अनवरत जारी है। उसी का परिणाम है कि बच्चे आज इतने हक से मुझसे खेलने का आग्रह कर पा रहे हैं।
खेल के बाद मैंने बच्चों को हमेशा पढ़ने के लिए तैयार पाया है।

मैं जिस स्कूल में जाता हूँ, वह छात्राओं की प्राथमिक शाला है, और मेरी कक्षा तीसरी में कुल 57 लड़कियाँ दर्ज हैं। शुरुआती दिनों से कक्षा में औसतन 25-28 लड़कियाँ ही आती रही हैं। यह भी ज़रूरी नहीं है कि कल जो लड़की स्कूल आई थी, वह आज भी आएगी। अनुपस्थिति के कारण जानने की कोशिश की तोे उनके स्कूल न आने के अलग-अलग कारण पता चले, जिनमें उनका घर या खेती के कामों में लगे होना, स्कूल में मार-पिटाई आदि बातें सामने आती हैं।
आज कक्षा में 25 लड़कियाँ थीं। मैंने फिर सवाल दोहराया, “हमारे पास 12 रोटियाँ हैं जिन्हें 4 लड़कियों में बाँटना है।” गतिविधि के दौरान मैंने देखा कि 21 लड़कियों ने सवाल को चित्र के सहारे कुछ इस तरह से हल किया।
परन्तु चार लड़कियों के तरीकों में कुछ कमियाँ थीं जिसके कारण वे रोटियों को बराबर नहीं बाँट पाईं। वास्तव में, वे रोटियों और लड़कियों के चित्र बोली गई संख्या के अनुसार नहीं बना पाई थीं, किसी ने ज़्यादा और किसी ने कम बना दी थीं।
मैंने इन लड़कियों के तरीके को सही या गलत कहने से खुद को बचाए रखा ताकि बच्चों की सीखने की प्रक्रिया न रुके। बच्चों से चर्चा करते हुए मैंने सवाल को बोर्ड पर हल करने के लिए कहा। उन्हीं चार लड़कियों में से एक कंचन (वह जुलाई से लगातार अनुपस्थित थी, उसने अभी अक्टूबर से ही आना शुरूकिया है) ने आकर बोर्ड पर सवाल हल करना शुरु किया। पहले दो बार खुद को सुधारते हुए तीसरी बार वह सही नतीजे पर पहुँच सकी। फिर वह मुझसे बोली, “सर तीन-तीन रोटियाँ मिलेंगी।”
कंचन बोर्ड पर रोटियाँ बाँटने के जो तरीके अपना रही थी, बाकी की लड़कियाँ बड़े ही ध्यान से उन्हें देख रही थीं। जैसे ही उसने पहली बार सवाल हल करने की कोशिश की तो ढेरों लड़कियों के हाथ खड़े हो गए, “सर हम करें?”

परन्तु मैंने उन्हें मना कर कंचन को ही करने के लिए कहा और अन्तत: वह सही हल तक पहुँच गई। कंचन द्वारा अपनाए तरीके बच्चों के सीखने के क्रम को बताते हैं। सीखने की प्रक्रिया में बच्चे अपने अनुभव व तज़ुर्बे से ही सीखते हैं। ज़रूरत है तो सिर्फ उन्हें समस्या से जूझने के मौके देने की, तभी तो वे खुद का विश्वास बना पाएँगे। जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, इन तीनों स्थितियों में कंचन ने अपने तर्क लगाए और उनके द्वारा वह एक नतीजे पर पहुँची। यदि मैं पहले प्रयास के बाद उसे रोक कर किसी और को बुलाता तो शायद कंचन के सीखने के इस क्रम को मैं अनजाने में ही रोक देता। साथ ही वे अन्य लड़कियाँ जिन्होंने इसी प्रकार की गलती की थी, उन्हें भी दूसरे बच्चों के तरीके जानने का मौका मिला।
इसके बाद मैंने इस मौखिक सवाल को संख्या के रूप में लिखने और पढ़ने के तरीके पर बच्चों के साथ बातें की:
मैं: हमारे पास कुल कितनी रोटियाँ थीं?
बच्चे: 12 रोटियाँ थीं सर।
मैं: और खाने वाली लड़कियाँ कितनी थीं?
बच्चे: 4 लड़कियाँ।
मैं: बराबर-बराबर बाँटने पर हर एक लड़की को कितनी रोटियाँ मिलीं?
बच्चे: तीन-तीन रोटियाँ मिलीं।
मैं: ठीक। अब बताओ, इसको हम लिखेंगे कैसे?
(कुछ देर कक्षा से कोई आवाज़ नहीं आई। थोड़ी देर बाद भारती बोली।)
भारती: सर तीन-तीन रोटी लिख देंगे।

मुझे अपेक्षा थी कि लड़कियाँ उस पूरी प्रक्रिया के बारे में बोलेंगी जो अभी हमने सवाल हल करने के लिए अपनाई थी। परन्तु भारती ने सिर्फ अन्तिम बात का ही जवाब दिया। फिर लगा कि शुरुआत मुझे ही करनी चाहिए क्योंकि बच्चे अभी इस प्रकार के अंकों के प्रस्तुतिकरण से परिचित नहीं हैं। मुझे लगा कि बच्चों ने चित्र के रूप में जो सवाल हल किए, उसे अंकों में व्यक्त करने के लिए बच्चों को पता होना चाहिए कि उन्होंने गतिविधि के दौरान क्या-क्या किया, जिसे हम बाद में क्रमश: अंकों और चिन्हों से बदलते जाएँगे यानी बच्चों को अंकों में लिखने के तरीके खोजने का भी मौका देना चाहिए। तो एक बार फिर शु डिग्री गई चर्चा।
मैं: अच्छा, कंचन ने सबसे पहले क्या-क्या किया?
बच्चे: सर, उसने सबसे पहले 12 रोटियाँ बनाईं और चार लड़कियाँ बनाईं।
मैं: फिर क्या किया उसने?
बच्चे: फिर उसने रोटी को लाइन से बाँट दिया। तो तीन-तीन रोटियाँ मिलीं।
मैं: क्या हम बारह रोटियों को लिख सकते हैं? कौन लिखकर बताएगा?
(भारती ने झटसे आकर लिख दिया।)
मैं: और चार लड़कियों को लिखकर बता सकते हैं? कौन लिखेगा?
(निकिता ने आकर बोर्ड पर लिख दिया।)
मैं: अब बताओ, कंचन ने क्या किया था?
बच्चे: सर, रोटी को लड़कियों में बाँट दिया था।
मैं: ठीक, अब हम यह बाँटना कैसे लिखें?
(कक्षा में चुप्पी छाई रही।)
तभी स्वाति ने कहा, “सर नहीं पता आप बता दो।’’

अब सवाल था कि बच्चों को बाँटने के चिन्ह से कैसे परिचित करवाऊँ। अचानक ही उन्हें कोई नया चिन्ह दे दिया जाए, यह भी ठीक नहीं। मुझे अचानक सूझा कि बच्चों को शायद जोड़ की क्रिया से आगे लाना चाहिए। हालाँकि जोड़ की क्रिया और बाँटने की क्रिया दोनों अलग-अलग हैं परन्तु बच्चों में चिन्ह की पहचान और उसकी जिज्ञासा जगाने के लिए मुझे यह रास्ता अपनाना ठीक लगा। मैंने अपनी बात जारी रखी।
मैं: अच्छा ठीक है। अभी थोड़ी देर के लिए हम इसे छोड़ देते हैं, बाद में करेंगे। अच्छा बताओ, शिवानी के पास 3 चॉकलेट हैं और मैडम ने 3 चॉकलेट और दे दी, तो अब उसके पास कितनी चॉकलेट हो गईं?
बच्चे: सर, 6 चॉकलेट हो गईं।
मैं: इसे हम लिखेंगे कैसे?
भारती जल्दी से बोली, “सर 6 लिख देंगे।” मैं चाहता था कि वह संख्या और चिन्ह का इस्तेमाल करते हुए बताए। परन्तु ऐसा नहीं हुआ तो मैंने ही इसकी शुरुआत की और बच्चों से चर्चा करते हुए बोर्ड पर लिखता गया।
मैं: पहले रोशनी के पास कितनी चॉकलेट थीं?
बच्चे: सर तीन (साथ ही मैं बोर्ड पर लिखता भी जा रहा था)।
मैं: और मैडम ने कितनी चॉकलेट दीं?
बच्चे: सर, तीन दीं (साथ ही बोर्ड पर लिख दिया)।
मैं: फिर शिवानी ने क्या किया होगा कि उसके पास 6 चॉकलेट हो गईं?
बच्चे: सर उसने चॉकलेट को मिला दिया, तभी तो 6 चॉकलेट हो गईं उसके पास।
मैं: (बच्चों का ध्यान बोर्ड की ओर लाते हुए) पहले की तीन और मैडम की तीन चॉकलेट को मिला दिया। अरे, यह मिलाने को हम कैसे लिखें?
भारती: सर धन, जोड़ने का निशान होता है।
मैं: कौन बनाकर बताएगा, मिलाने का निशान?
(इस बार रक्षा ने आकर बोर्ड पर धन का निशान बना दिया।)
मैं: अच्छा, तो मिलाने का निशान ऐसा होता है (मैंने बोर्ड की ओर दिखाते हुए कहा)। तो शिवानी ने ये तीन चॉकलेट और मैडम की तीन चॉकलेट को जोड़ा है। तो मैं धन का निशान कहाँ लगा दँू?
(एक बार कक्षा में फिर चुप्पी छा गई। तभी भारती बोली।)
भारती: सर, आगे लगा दो।
मैं सोचने लगा कि भारती ने धन का निशान आगे लगाने के लिए क्यों बोला होगा। मैं उम्मीद में था कि कोई लड़की तो बोलेगी, ‘सर बीच में लगा दो।’ पर ऐसा नहीं हुआ। बाद में समझ आया कि अक्सर स्कूल और किताबों में बच्चों को खड़े जोड़ के सवाल हल करने के लिए मिलते हैं। शुरुआत से ही बच्चे खड़े जोड़ से परिचित होते हैं। शायद इसीलिए भारती ने कहा, “सर आगे लगा दो।”
अक्सर किताबों में लिखा होता है:

  3
+3___

बोर्ड पर जो लिखा था :
3      3
मैंने एक बार फिर बोर्ड की ओर इशारा करते हुए बच्चों से पूछा, “परन्तु शिवानी ने इन 3-3 चॉकलेट को मिलाया तो निशान भी इन दोनों के बीच में लगना चाहिए न?”
थोड़ी देर कक्षा में चुप्पी छाई रहने के बाद सभी बच्चों ने सहमति दिखाई। तब मैंने दोनों संख्याओं के बीच में अ का निशान लगा दिया और बच्चों को जोड़ने के लिए कहा।
बच्चे: सर 6 हो गए।
बोर्ड पर बराबर का चिन्ह लगाकर मैंने 6 लिख दिया।
3 + 3 = 6
मैंने बच्चों को इसी प्रकार के और सवाल मौखिक बोलकर जोड़ने के लिए कहा। मैं बोर्ड पर भी लिखता जा रहा था जिससे बच्चे आड़ा-जोड़ की धारणा भी समझ पाएँ। साथ ही मैंने सोचा कि किन्हीं संख्याओं के बीच किस प्रकार की संक्रियाएँ हो रही हैं, उसके निशान किस प्रकार के होंगेे, उन्हें किस जगह पर और क्यों लगाना चाहिए आदि की समझ भी बननी चाहिए। अब बारी थी बाँटने के चिन्ह की। मैं पुन: बच्चों का ध्यान अपने छोड़े हुए सवाल की ओर लाया।
मैं: हमारे पास 12 रोटियाँ थीं और चार लड़कियाँ। हमने बारह रोटियों को बाँटा। ये बाँटने का निशान कैसा होगा?
कक्षा में चुप्पी छाई हुई थी मतलब बच्चों के पास कोई जवाब नहीं था पर उनकी आँखों में एक जिज्ञासा ज़रूर थी जो ढँूढ़ रही थी कि आखिर ‘बाँटने’ का निशान कैसा होता होगा। तभी बच्चों में से आवाज़ आई।
बच्चे: नहीं मालूम सर, आप बता दो।
हालाँकि यही काम मैं पहले भी कर सकता था, लेकिन मैं बच्चों में एक ललक जगाकर उन्हें जोड़ की क्रिया से यहाँ तक लेकर आया, अब उनमें एक नए चिन्ह के लिए जिज्ञासा थी।
मैंने बोर्ड पर बाँटने का एक बड़ा- सा निशान बनाकर बच्चों को उससे परिचित कराया।
मैं: तो यह बाँटने का निशान है। तुम भूले तो नहीं, हमारे पास 12 रोटियाँ थीं और उन्हें चार लड़कियों में बाँटना था?
(संख्या बोर्ड पर ऊपर-नीचे लिखी हुई थीं।)
मैं: अब बताओ, इस निशान को कहाँ लगाऊँ?
बच्चे: सर दोनों के बीच में लगा दो।

मैं: ठीक है (मैंने दोनों संख्याओं के बीच में बाँटने का चिन्ह लगा दिया। साथ ही बच्चों को बताया कि ऊपर वाली बिन्दी की जगह रोटियों और नीचे वाली बिन्दी की जगह लड़कियों की संख्या लिखेंगे)।
मैं: बराबर बाँटने पर एक लड़की को कितनी रोटियाँ मिलीं?
बच्चे: सर तीन-तीन रोटियाँ।
(मैंने बराबर का चिन्ह लगाकर 3 लिख दिया।)
तभी भारती बोल पड़ी, “सर इनको आड़ा नहीं लिखा।”
यह भी सही बात थी। मैंने जोड़ की क्रिया में संख्याओं को आड़ा लिखकर उनके बीच में जोड़ का निशान लगाया था। परन्तु बाँटने की क्रिया में संख्याओं को ऊपर-नीचे लिखकर उनके बीच में बाँटने का निशान लगाया था। भारती ने इस बात को पकड़ लिया था। मैंने बच्चों को बताया कि जैसे हम जोड़ को आड़ा भी और खड़ा भी लिखते हैं वैसे ही बाँटने को भी आड़ा या खड़ा लिख सकते हैं। साथ ही मैंने बोर्ड पर लिखकर बताया।
अब, बाँटने की क्रिया को अंकों में लिखने की शुरुआत तो हो गई, परन्तु एक और काम बाकी रह गया था, उन्हें पढ़ना यानी शब्दों में बताना। इसीलिए चर्चा जारी रही।
मैं: अच्छा, इसको पढ़ेंगे कैसे?
बच्चे: सर, नहीं पता।
मैं: बारह रोटियाँ बाँटी चार लड़कियों में, सबको बराबर मिलीं, तीन (पहली बार पढ़कर बताया)।
मैं: बारह बटे चार बराबर तीन (दूसरी बार पढ़कर बताया और बच्चों को भी इस प्रकार उच्चारण करने के लिए कहा)।
बाद में बच्चों द्वारा लिखी संख्या को बोलने के अभ्यास के लिए बारी-बारी से संख्या को बोर्ड पर लिखता गया, और बच्चे उसे पढ़कर बता रहे थे।
बच्चियाँ अब तक बाँटने की प्रक्रिया से परिचित हो चुकी थीं। उसे थोड़ा और बढ़ाने के लिए मैंने एक और सवाल किया। बोर्ड पर 5/2 लिखकर बच्चों को करने के लिए कहा। साथ में एक लड़की को प्राप्त रोटी को लिखकर और पढ़कर बताने के लिए भी कहा। इस बार भारती ने आकर बोर्ड पर इस प्रकार से रोटियों को बाँटा और पढ़कर बताया: पाँच बटा दो बराबर ढाई (लिख नहीं पाई)।
भारती ने लिखी संख्या को पढ़कर और चित्र की मदद से बराबर बाँटकर बताया। परन्तु प्राप्त ढाई रोटियों को वह लिख नहीं पाई। मैं सोच रहा था कि यह ठीक ही है - बच्चों के सामने समस्या प्रस्तुत की जानी चाहिए जिससे उनमें जिज्ञासा बनी रहे और उसे समझने में वे अपना तर्क लगाएँ ताकि उनके सीखने का क्रम जारी रहे। मैं फिर बच्चों की ओर लौटा।
मैं: एक लड़की को कितनी रोटियाँ मिलीं?
भारती: सर दो रोटी और आधी रोटी।
मैं: अब इसे लिखेंगे कैसे भई (किसी भी लड़की का हाथ ऊपर नहीं उठा)?
निकिता: दो रोटी लिखकर, एक आधी रोटी लिख दो।
मैंने चित्र के नीचे 2 लिखकर पूछा, “आधी रोटी को कैसे लिख दँू?”
निकिता: सर एक लिखकर उसको आधा मिटा दो।
(मैंने निकिता को ही लिखने के लिए बुलाया। उसने आकर बोर्ड पर 1 लिखकर उसे आधा मिटा दिया।)

जैसे ही निकिता ने बोर्ड पर इस प्रकार लिखा सभी लड़कियाँ ज़ोरों से बोलने लगीं, “नहीं सर, नहीं सर।”
मैं: क्यों निकिता, अब क्या करें? कैसे लिखें हम ढाई रोटी को? सब बच्चे कहने लगे, “सर हमको नहीं पता। आप बता दो न।”
अब मुझे एक रोटी को बाँटने के बाद एक-एक हिस्से को अंकों और शब्दों में लिखने व पढ़ने की समझ बनाने के लिए काम करना होगा जिसके लिए और वक्त चाहिए परन्तु आज का एक घण्टा तो खत्म। यह काम आगे के दिनों पर टल गया लेकिन अन्तत: बच्चों के मन में आधे हिस्से को लिखने की जिज्ञासा ज़रूर जगा गया जो आने वाले दिनों में काम आएगी।


सुनील वर्मा: एकलव्य के होशंगाबाद केन्द्र पर गणित समूह, के साथ कार्यरत हैं।