कमलेश चन्द्र जोशी

कजरी गाय की किताबों को पढ़ते हुए अक्सर बचपन कानिबन्ध याद आ जाता है जिसकी पंक्तियाँ होती थीं - मेरे घर में एक गाय है। उसका नाम श्यामा है। वह सफेद रंग की है। उसके दो सींग हैं। उसकी एक पूँछ है। गाय हमारी माता होती है। वह हमें दूध देती है। उसका दूध मीठा होता है। हम सब उसे प्यार करते हैं। उसे हम गौमाता कहते हैं। ... इन वाक्यों को याद करके हम परीक्षाओं में पूरे अंक प्राप्त कर लेते थे। इन अंकों के परे हम गाय के बारे में नए ढंग से कुछ और सोच पाए हों ऐसा याद नहीं पड़ता। कल्पनाशील ढंग से सोचना हमारी स्कूली पढ़ाई में शामिल ही नहीं था फिर चाहे वह गाय हो या कोई और चीज़। आगे जब किस्से-कहानियों को पढ़ने की शुरुआत हुई तो भी याद नहीं पड़ता है कि गाय को मुख्य चरित्र के रूप में प्रस्तुत करते हुए कोई बढ़िया कहानी पढ़ी हो। हाँ, बैलों को मुख्य पात्र बनाते हुए प्रेमचन्द ने बढ़िया कहानी ज़रूर लिखी थी ‘दो बैलों की कथा’ जिस पर ‘हीरा-मोती’ नामक फिल्म भी बनी थी। इस श्वेत-श्याम फिल्म की कुछ धँुधली यादें मेरे मन में ज़रूर हैं। इसके बाद नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली से प्रकाशित एक जापानी किताब का हिन्दी में अनुवाद ‘लालची बछिया गुलाबो’ बच्चों के साथ कक्षा में पढ़ी थी और इस पर बच्चों से बातचीत भी की थी। गाय पर और कोई कहानी याद नहीं आती। हो सकता है कि गाय हमारी संस्कृति में एक पवित्र प्रतीक के रूप में विद्यमान है इसलिए उस पर एक नए ढंग से सोचना, परम्परा से छेड़छाड़ कर लिखना चुनौतीपूर्ण काम हो।

1997 में नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली से ‘कजरी गाय झूले पर’ नामक एक स्वीडिश किताब का अरविन्द गुप्ता द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद छपकर आया। उसके चित्रों और कहानी ने मन को कहीं बहुत गहरे से छुआ। वह पुस्तक स्मृतियों में बराबर बनी रही और आज भी यात्रा के दौरान गायों के झुण्ड को चरते देख कहीं-ना-कहीं उस किताब के चित्र सामने आ ही जाते हैं और किताब की याद ताज़ा हो जाती है। इस किताब की याद केवल अपने तक ही सीमित नहीं है। जब इस किताब को बच्चों के साथ इस्तेमाल किया तो उन्होंने भी इसका खूब आनन्द लिया। गाय को झूला झूलते हुए देखना उनके लिए एक चमत्कारिक अनुभव था। वे मन ही मन बहुत खुश होते थे।

इस किताब को पढ़ने के अनुभव को अपने लिए एक दूसरे स्तर पर ले जाना एक और चौंका देने वाला अनुभव था। जब गाय को एक भारतीय लड़की के रूप में देखना शुरू किया और उस पर अपने अर्थ बनाए। किताब में जहाँ यह सन्दर्भ आता है कि गाय केवल गौशाला में बन्द होने के लिए नहीं है, वह गौशाला में बैठे रहना नहीं चाहती, केवल जुगाली करना नहीं चाहती, वह अपने मन से कुछ नया करना चाहती है। नया सोचना चाहती है। स्कूल जाना चाहती है। वह साइकिल चलाना चाहती है। झूला झूलना चाहती है। इन बातों को सोचते हुए मुझे किसी पाठ्य की ताकत का एहसास हुआ कि हम एक पाठ्य से किस-किस तरह से नए अर्थ बना सकते हैं?

यह एक चौंकाने वाला अनुभव था जिसके बारे में बहुत दिनों तक सोचता रहा। मन में हमेशा यह रहता है कि उस गाय की कहानी को मैं ऐसे क्यों देखता हूँ? उसके चित्र मुझे क्यों याद रहते हैं? ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी मैदानी या पठारी भाग में गायों को चरते हुए देखा हो - चाहे वह उत्तर प्रदेश का कोई मैदानी क्षेत्र हो, छत्तीसगढ़ का जंगली क्षेत्र, झारखण्ड का पठारी भाग हो, उत्तराखण्ड की तराई या राजस्थान का पथरीली पहाड़ियों का इलाका। वहाँ चरती हुई गायों के झुण्ड ने मुझे हमेशा कजरी गाय व उसके दोस्त कौए की याद दिलाई। यह कहानी कुछ ऐसी थी कि वह कोई सन्देश नहीं देती थी, बस केवल एक खुलेपन का एहसास देती थी। इसके आकर्षक चित्र बार-बार अपनी ओर खींचते थे। अगर यह किताब बच्चों की किसी लाइब्रेरी में या किसी के घर पर दिख जाती है तो मैं उसे एक बार पलट ज़रूर लेता हूँ। कभी-कभी विश्वास नहीं होता कि बच्चों की किताब भी बड़ों पर इतना असर डाल सकती है और साथ ही यह विश्वास कहीं पक्का होता है कि साहित्य को विभिन्न खाँचों में विभाजित नहीं किया जा सकता। साहित्य, साहित्य होता है।
‘कजरी गाय झूले पर’ प्रकाशित होने के लगभग बारह साल बाद इस  की दो और किताबें हाल ही में पढ़ने को मिलीं - ‘कजरी गाय ने की सफाई’ व ‘कजरी गाय फिसलपट्टी पर’ जिनके चित्रों में वही बात है जो पिछली किताब में थी।

पहली किताब ‘कजरी गाय ने की सफाई’ में कजरी गाय अपने दोस्त कौए के साथ अपनी गौशाला को साफ करना चाहती है। उसमें कौआ गौशाला साफ करने की नई-नई रणनीतियाँ उपयोग में लाता है। कहानी की शुरुआत में कजरी गाय अपनी पूँछ इधर-उधर फटकार कर सफाई करती है।
कौआ: तुम बस अपनी पूँछ इधर-उधर फटकारती हो, इसे तुम सफाई कहती हो। लो मैं घर चला।
कौआ तरकीबें भिड़ाने में माहिर है। आगे वह कहता है।
कौआ: मुझे सफाई अच्छी लगती है। मैं बढ़िया सफाई कर लेता हूँ! कोई भी जगह मैं पाँच मिनट में साफ कर सकता हूँ।
कजरी गाय: पर इस गौशाला का क्या करें?
कौआ: यह गौशाला तो मैं पाँच मिनट में साफ कर दूँगा।
कजरी गाय: सच? कैसे?
कौआ: पाँच सेकण्ड में तुम्हें गौशाला में कूड़ा-करकट का निशान भी नहीं दिखेगा। हो तैयार?
कजरी गाय: ठीक है, कर दो साफ।
कौआ चिल्लाया: एक! दो! तीन! चार! और... पाँच! खटाक्!
कजरी गाय: पर, कौए, यह तूने क्या किया?
कौआ: मैंने बत्ती बुझा दी, बस! गन्दगी नज़र से दूर करने का सबसे तेज़ तरीका!

कजरी गाय: पर यह तो बेईमानी हुई, कौए!
कौआ: बेईमानी! (वह चिल्लाया)। तुम जैसी गाय क्या जाने? तुम्हें कूड़ा नज़र आ रहा है, या नहीं आ रहा?
कजरी गाय: मुझे तो कुछ भी नज़र नहीं आ रहा।
कौआ: बन गई न बात! (कौए ने डींग मारी)। कितना तेज़, तेज़, तेज़ तर्रार हूँ मैं। लगता तो ऐसा ही है!
(तभी गाय ने बत्ती जला दी। खटाक्।)
कजरी गाय: साफ नज़र आ रहा है, कूड़ा वहीं है।
इस तरह से कजरी गाय और कौए के संवाद कहानी को आकर्षक बनाते हैं जिसमें एक चुटीलापन है और बच्चों जैसी बहानेबाज़ियाँ भी हैं। किसी समस्या के हल को ढूँढ़ने के अपने नए-नए तरीके हैं जिनमें बच्चे आनन्द भी लेते हैं। कहानी के अगले चरण में कौआ कूड़ा साफ करने की दूसरी तरकीब लगाता है। वह किसान का घास सुखाने वाला पंखा ले आता है और उसे गौशाला में चला देता है जिससे सूखी घास उड़कर दरवाज़े के बाहर गिरने लगती है। इसके साथ वह खुद ही कहता है, “यह हुई न बात! यह पंखा तो बड़ा ज़ोरदार निकला। सारा कूड़ा-कचरा हवा के साथ बाहर।” जब गाय कहती है, “इसके साथ तो हमारी सूखी घास भी बाहर फेंकी जा रही है!”
कौआ: मुझे फरक नहीं पड़ता।
कजरी गाय: लेकिन कौए, सर्दियों में हम क्या खाएँगे?
कौआ: पिज़्ज़ा मँगवा लिया करो। मुझे बड़ा पसन्द है।
आखिर में वह पम्प चलाकर गौशाला की दीवारों को सफेद कर देता है तब वहाँ की गायें भी सफेदी में रंग जाती हैं और उससे कहती हैं कि हमें साफ करो। कौआ गायों को पोंछता है और मन ही मन सोचता है कि मैं इन गायों के बीच कहाँ फँस गया और वह जंगल की ओर उड़ जाता है। यहाँ कहानी समाप्त होती है।
कजरी गाय व कौए के वार्तालाप से बुनी यह कहानी बच्चों के अपने मन से सोचने के तरीकों को खूबसूरती से दर्शाती है और कहानी कोई उपदेश दिए बिना समाप्त हो जाती है। हालाँकि कहानी का सन्दर्भ स्वीडन का है और जाड़े के बाद धूल की साफ-सफाई वहीं के सन्दर्भ को बनाते हैं (जबकि हमारे यहाँ साफ-सफाई दीवाली के पहले होती है), लेकिन बड़े बच्चे आसानी से इसे जोड़ते हुए कहानी का मज़ा ले पाएँगे। कहानी के अन्तिम पृष्ठ में गाय का बसन्त को निहारना, उस पर कविता लिखना एक लेखक की सुन्दर कल्पना है। इस प्रकार यह किताब बच्चों के आम जीवन के अनुभवों को खूबसूरती से कहानी में पिरोती है।

दूसरी किताब ‘कजरी गाय फिसलपट्टी पर’ में कजरी गाय बच्चों की तरह फिसलपट्टी पर फिसलना चाहती है। इसके इर्द-गिर्द कहानी को बुना गया है। जिस पर गाय फिसले उस फिसलपट्टी का क्या होगा? गाय उस पर कैसे चढ़ेगी? वह कैसे फिसलेगी? ये सब कल्पनाएँ करना अपने आप में मज़ेदार अनुभव है।
एक दिन कजरी गाय मैदान में बैठे-बैठे सामने तालाब पर बच्चों को नहाते देख रही थी। तभी उसका दोस्त कौआ फट-फट-फट कर उड़ता हुआ वहाँ आ पहुँचता है। तब कजरी गाय कौए को तालाब के किनारे की फिसलपट्टी के बारे में बताती है। कौआ कहता है कि यह तो बच्चों के लिए लगाई गई है, वे अक्सर यहाँ फिसलने के लिए आते हैं। लेकिन गाय का मन बच्चों की तरह फिसलने के लिए मचल रहा था।

कौआ: वहाँ जाओ, ठीक है। पर फिसलपट्टी पर फिसलने की कोशिश मत करना। यह गाय के लिए बहुत तंग है, गाय का भार नहीं सम्भाल पाएगी। ऊपर जाने की सीढियाँ तो हैं, पर तुम ऊपर नहीं चढ़ पाओगी (वह फिसलपट्टी की ओर दौड़ी तो कौए ने कहा)।
लेकिन गाय कहाँ मानने वाली थी। हालाँकि, उसे फिसलपट्टी की ऊँचाई देखकर कुछ निराशा ज़रूर हुई लेकिन उसने हार नहीं मानी और कौए की मदद से फिसलपट्टी पर किसी-न-किसी तरह चढ़ ही गई। यहाँ के चित्र व कल्पना रोचक हैं, जब कौआ गाय को ज़ोर देकर फिसलपट्टी पर चढ़ा रहा है। इसे देखते हुए कौए द्वारा कजरी गाय को झुलाने की बात याद आती है।

गाय जब फिसलपट्टी पर फिसलती है तो उसके और कौए के संवाद बड़े रोचक हैं। इन पृष्ठों पर चित्रों का महत्व भी समझ में आता है। साथ ही संवाद के कुछ उदाहरण भी देखते हैं।
कजरी गाय: ओए! मैं तो गिर रही थी (कजरी गाय बुदबुदाई)। यह तो बहुत ऊँची है, उफ्फ! (उसने रम्भाकर साँस ली)। इस जगह अपना सन्तुलन रखना मुश्किल है। पता नहीं, बच्चे कैसे करते हैं? शायद इसलिए कि उनके कुल दो पाँव होते हैं, और मेरे तो चार हैं। इनके लिए तो यहाँ ऊपर जगह ही नहीं है (नीचे देखकर उसने पुकारा)। देख, कौए! मेरी तरफ देख तो सही!
कौआ अब भी चारों खाने चित था (गाय को फिसलपट्टी पर चढ़ाने के प्रयास की वजह से)।
कौआ: आगे खिसको और नीचे फिसलो (उसने एक पैर हिलाते हुए कहा)।
कजरी गाय: लेकिन तुझे देखना होगा। वरना नीचे फिसलने का कोई फायदा नहीं (कजरी गाय ने चिल्लाकर कहा)।
कौआ: मैं देख रहा हूँ (कौए ने उसे विश्वास दिलाया)।
कजरी गाय फिसलपट्टी पर आगे नीचे की ओर झुकी।
कजरी गाय: यह तो बड़ी तंग है। क्या मेरे फिसलने के लिए सचमुच जगह है?
कौआ: बस फिसलो नीचे।
कजरी गाय: और बीच का हिस्सा थोड़ा उठा हुआ भी तो है। उसके बारे में मैंने नहीं सोचा था...।
कौआ: फिसलो नीच्च्चे! कोई आ सकता है।
कजरी गाय: बहुत अच्छा! इसका मतलब यही हुआ कि ज़्यादा लोग देखेंगे।
कौआ: काँ! मुझे चिन्ता उसी की है।
कजरी गाय: अब मैं करने जा रही हूँ, कौए। मैं नीचे फिसल रही हूँ। सचमुच। म् म् म् हा...। एक... दो...।

इस वार्तालाप को बच्चों की किसी आम जीवन की घटना से जोड़कर देखा जा सकता है। इसका अपना आकर्षण है जिसमें बच्चे आनन्द लेते हैं और बँधे रहते हैं। फिसलपट्टी पर फिसलने के बाद कजरी गाय जब मुड़कर फिसलपट्टी को देखती है तो उसे पता चलता है कि फिसलपट्टी एकदम सीधी हो गई है। इस घटना के साथ दिए चित्र में कजरी गाय के भाव देखने लायक हैं। अब कजरी गाय और कौआ फिसलपट्टी को पहले की तरह सीधी करने के बारे में सोचते हैं, इसके लिए तरकीबें लगाते हैं। कौआ अपने पंख पीठ पीछे बाँधे चहलकदमी करता हुआ बताता है।
कौआ: हमें इसे क्रेन लगाकर ऊपर उठाना होगा। एक बड़ी-सी क्रेन... और फिर इसके नीचे हम एक जैक लगा देंगे... और बड़े-बड़े वज़न लटकाकर दोनों सिरों को नीचे की ओर मोड़ेंगे (वह बुदबुदाया)।
इसके बाद वह दूसरी तरकीब सोचता है।
कौआ: हेलिकॉप्टर! (उसके मुँह से निकला) एक हेलिकॉप्टर से हम इसके दोनों सिरों पर बड़े-बड़े वज़न गिराएँगे। इससे बीच का हिस्सा पहले जैसे ऊपर उठ जाएगा। दो हेलिकॉप्टर मिल जाएँ तो और बेहतर होगा।
कौए की इन्हीं तरकीबों के बीच कजरी गाय अपनी दुलत्ती मारकर फिसलपट्टी को यथास्थिति में ला देती है। इस प्रकार कहानी पूरी होती है।

इन कहानियों की अगर परतें उघाड़ें तो हमें दो संरचनाएँ मिलती हैं। पहली तो कजरी गाय और उसके साथी कौए को लेकर बच्चों की रोज़मर्रा की घटनाओं के आधार पर कहानी का ताना-बाना बुना गया है। इस ताने-बाने को बेहद कल्पनाशीलता व संवादपरकता के ज़रिए उभारा गया है जिससे कहानी में रस नज़र आता है। दोनों किताबों में कजरी गाय व कौए के बीच संवाद कहानी के प्राण हैं और चित्रों ने इसमें चार चाँद लगाए हैं।

कहानी की दूसरी संरचना यह है कि कहानी में जो समस्या प्रस्तुत की गई है वे अपने-अपने तर्कों से उसके बाल सुलभ हल ढूँढ़ते हैं। जैसे कि पहली किताब में लाइट बुझाकर, घास सुखाने का पंखा चलाकर तथा सफेद रंग का पम्प चलाकर उसकी सफाई का उपक्रम करते हैं। इसमें महत्वपूर्ण है कि वे अपना तर्क लगा रहे हैं। इसी तरह दूसरी किताब में कौआ फिसलपट्टी को ठीक करने के नवाचारी तरीके सोचता है - क्रेन या हेलीकॉप्टर के ज़रिए। कहानी में इस तरह के स्पेस बच्चों को स्वयं सोचने का मौका देते हैं और बच्चे कहानी से जुड़ते भी हैं। यह कहानी के शिल्प को भी दर्शाता है। इस तरह किताब कक्षा में बच्चों से और बच्चों के बीच बातचीत के रास्ते भी खोलती है।

इन किताबों में लेखक का प्रकृति-प्रेम भी उभरकर आता है। इसे किताब के पहले व अन्तिम पृष्ठ को देखकर आसानी से जाना जा सकता है - जैसे कि कजरी गाय का फूल चुनना, बसन्त ऋतु का आनन्द लेते हुए कविता लिखना, तालाब के किनारे बैठ पेड़ों के पीछे सूरज को देखना आदि। यह सारी बातें कहीं-न-कहीं कहानी में कुछ अनकहे सन्देश छोड़ती हैं। और किताब में प्राकृतिक दृश्यों के इतने सुन्दर चित्रण शायद बच्चों को प्रकृति को देखने व महसूस करने की सलाह चुपके-से दे ही जाते हैं।

यहाँ यह बताना भी उचित होगा कि स्वीडन में बाल साहित्य की काफी समृद्ध परम्परा रही है। वहाँ बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में ही लोगों में यह समझ बनने लगी थी कि बच्चों को पुस्तकों के माध्यम से उपदेश देना निरर्थक है तथा बच्चों को डाँटना-फटकारना भी गलत समझा जाता था। इसके लिए वहाँ काफी जागरूकता भी बढ़ी। बाल अधिकार सम्बन्धी कानून बने और पूरे देश में लागू हुए। इसका असर वहाँ की रचनाओं में भी दिखाई पड़ता है। इसके उदाहरण के लिए आस्ट्रिड लिंडग्रेन की मशहूर रचना ‘पिप्पी लम्बे मोजे’ को देखा जा सकता है। 1945 के आस-पास प्रकाशित यह रचना स्वीडन में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में काफी लोकप्रिय हुई तथा इसका दुनिया की 90 से अधिक भाषाओं में अनुवाद हुआ। इसमें बच्चों का बड़ों की दुनिया के प्रति एक व्यंगात्मक नज़रिया देखा जा सकता है। इसके साथ यहाँ यह बताना भी उचित होगा कि वहाँ के बाल साहित्य की समृद्धता का अन्दाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वहाँ बच्चों की किताबों के प्रमुख पात्रों पर पोस्टर, मुखौटे आदि भी तैयार किए जाते हैं। इन्हें वहाँ के पार्कों में भी आसानी से देखा जा सकता है।

द ‘मामा मू' टेल

यह कुछ इस तरह से शुरू हुआ। जब मेरे बच्चे छोटे थे तो सामान्यतः सोते वक्त मैं और टॉमस ए-4 नाप के कागज़ की दो शीट लेते, उन्हें आधा मोड़ते, पिन लगाते और एक छोटी, कोरी किताब बना देते थे। उसे अपने हाथों में पकड़कर, हम बच्चों से पूछते थेः तो, आज रात हमें किस तरह की कहानी बनानी चाहिए? और फिर बच्चे उसे आगे बढ़ाते थे। उनकी कहानियों व गीतों के ज़रिए ही हमने मिलकर बहुत-सी कहानियाँ बनाईं। मामा मू वास्तव में, बच्चों द्वारा दुनिया का अर्थ समझने के जिज्ञासु और तर्कसंगत तरीकों की कोशिशों की एक मिसाल है। हालाँकि, अपने बच्चों को समझने

और उनके मनोरंजन के रूप में शुरू हुआ काम, अब व्यावसायिक उद्यम बन गया है। बच्चों के सहचर्य से ही हमने यह जाना कि खेलना सीखने का एक महत्वपूर्ण ज़रिया है। यदि बच्चों के पास खेलने के मौके हों तो वे अपने शुरुआती सालों में ही असाधारण मात्रा में सीख जाते हैं। जैसे ही वे स्कूल जाना शुरू करते हैं तो सिखाने की प्रक्रिया की ज़िम्मेदारी कोई और ले लेता है और पाठ्यक्रम उस चीज़ पर आधारित होता है जिसे समाज महत्वपूर्ण समझता है। अपने बच्चों को सुनने और वे क्या सोचते हैं उसमें उत्साह लेने के महत्व का भी हमें एहसास हुआ। उनके गाने और कहानियाँ लगभग हमेशा ही उनकी खुशियों, डर और महत्वाकांक्षाओं पर आधारित होती थीं।

'मामा मू' यानी कजरी गाय की लेखिका यूया वेसलेंडर की बातचीत
(भारत यात्रा के दौरान फरवरी 2009 को 'द हिन्दू' में छपे बिंदु शाजन पेराप्पादन के साथ साक्षात्कार से)

कुल मिलाकर कजरी गाय की ये पुस्तकें बच्चों को स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करने में सक्षम हैं। इसके साथ ये उन्हें पढ़ने का आनन्द लेने व खुद कल्पना करने के मौके देती हैं। ये किताबें मूलत: स्वीडिश में हैं और मामा-मू का पात्र वहाँ बहुत लोकप्रिय है जिसकी कहानी यूया टॉमस विस्लेंडर ने लिखी है तथा चित्र स्वेन नॉर्दक्विस्ट ने बनाए हैं। उनके बनाए चित्रों के बिना यह किताब अधूरी ही कही जाएगी। चित्रों ने इस कहानी को एक सम्पूर्णता प्रदान की है। उन्होंने चित्रों के माध्यम से कहानी की जो विभिन्न छवियाँ उभारी हैं उसका एहसास चित्रों को देखकर ही किया जा सकता है। दोनों किताबों का हिन्दी अनुवाद अरुन्धती देवस्थले ने किया है, जो बच्चों के लिए सहज व बोधगम्य है। कहीं-कहीं ज़रूर अनुवाद के प्रवाह में कमी लगती है। जैसे कि ‘उसने अपनी पूंछ के फटकारे मारे’ की जगह ‘उसने अपनी पूँछ को इधर-उधर फटकारा’ कर सकते हैं। इसी तरह ‘वह तो कब का जंगल में घुस चुका था’ की जगह ‘वह तो कब का जंगल की ओर उड़ गया था’ या ‘कजरी गाय फिसलपट्टी पर चढ़ तो गई, पर जगह तंगी से उसके पैर लड़खड़ाने लगे’ की जगह ‘कजरी गाय फिसलपट्टी पर चढ़ तो गई, पर तंग जगह से उसके पैर लड़खड़ाने लगे’ किया जा सकता था। इससे पहले भी वे आस्ट्रिड लिंडग्रेन की मशहूर कृति ‘पिप्पी...’ का हिन्दी में अनुवाद कर चुकी हैं। आशा है, आगे भी वे इसी की अन्य किताबों व अच्छी किताबों के अनुवाद आम भारतीय बच्चों को उपलब्ध कराएँगी। यहाँ ये बताना उचित होगा कि आगामी अक्टूबर माह में इसी  की दो अन्य किताबें, ‘कजरी गाय बनाए घर, पेड़ पर’ तथा ‘कजरी गाय को आई चोट’ हिन्दी में प्रकाशित होकर आ रही हैं।


कमलेश चन्द्र जोशी: प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े हैं। इन दिनों अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, देहरादून में कार्यरत। बच्चों के साथ काम करने का लम्बा व गहरा अनुभव।
कजरी गाय की किताबों के प्रकाशक - ए एंड ए बुक ट्रस्ट। प्रत्येक किताब का मूल्य - पचास रुपए। ए एंड ए बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित बाल साहित्य एकलव्य, भोपाल के पिटारा में उपलब्ध है