सुशील जोशी

आँखें जैव विकास के सन्दर्भ में लम्बे समय से विवाद का विषय रही हैं। जैव विकास का सिद्धान्त बताता है कि विभिन्न जीव रूप, विभिन्न सजीवों के अंगों व रचना का विकास क्रमश: हुआ है। इस विकास का इस अर्थ में कोई पूर्व निर्धारित उद्देश्य नहीं होता कि फलाँ रचना का विकास किया जाना है। मगर जैव विकास को न मानने वाले कहते हैं कि समस्त सजीवों समेत पूरी सृष्टि की रचना एक सृष्टा ने सोच-समझकर, सोद्देश्य की है। आप देख ही सकते हैं कि इन दो मतों के बीच गम्भीर टकराव है।
आँखें अक्सर इस टकराव के केन्द्र में रही हैं। 1802 में विलियम पेली ने इसे समझाने के लिए घड़ीसाज़ की उपमा दी थी। उनका कहना था कि घड़ी जैसी पेचीदा चीज़ की उपस्थिति दर्शाती है कि उसे बनाने वाला कोई घड़ीसाज़ ज़रूर रहा होगा। दूसरे शब्दों में घड़ी जैसी पेचीदा चीज़ का निर्माण बेतरतीब संयोगों के परिणामस्वरूप नहीं हो सकता। इस उपमा के आधार पर ‘सृष्टिवादी’ कहते रहे हैं कि आँख जैसी जटिल रचना को देखकर यह असम्भव लगता है कि इसका निर्माण या विकास बेतरतीब उत्परिवर्तनों के ज़रिए हुआ होगा। एक मायने में वे कहते हैं कि आँखें ‘सृष्टा’ की उपस्थिति का प्रमाण हैं।
मगर जैव विकास का अध्ययन करने वाले बताते हैं कि दरअसल, आँखों की रचना इस बात का प्रमाण है कि यह अंग मूलत: बेतरतीब जुगाड़ का परिणाम है। इसके पक्ष में वे आँखों की रचना के एक विशेष पक्ष की ओर ध्यान दिलाते हैं। यह विशेष पक्ष है, हमारी व अन्य स्तनधारियों की आँखों में एक अन्ध बिन्दु की उपस्थिति। आगे बढ़ने से पहले आप यह देख लें कि अन्ध बिन्दु होता क्या है। मूलत: अन्ध बिन्दु से तात्पर्य यह है कि हमारी दोनों आँखों में एक ऐसा हिस्सा होता है जहाँ हमें दिखाई नहीं देता। यदि विश्वास नहीं होता तो बॉक्स में दी गई विधि से जाँच कर लें।

यह अन्ध बिन्दु क्यों है?
अन्ध बिन्दु को समझने के लिए आँख की रचना पर नज़र डालनी होगी। हमारी आँखें एक गेंद जैसी हैं। इसकी खोल लगभग पूरी अपारदर्शी है। सामने की तरफ इसका एक छोटा-सा हिस्सा पारदर्शी है। इसे आँख का तारा कहते हैं। इसी में लेंस होता है जो प्रकाश को आँख के पिछले भाग में फोकस करता है। आँख के पिछले भाग को रेटिना कहते हैं। रेटिना पर बड़ी संख्या में प्रकाश संवेदी कोशिकाएँ हैं। जब इन पर प्रकाश पड़ता है तो इनमें जैव-रासायनिक क्रिया होती है और इससे एक विद्युत संकेत पैदा होता है। इस विद्युत संकेत को दिमाग तक पहुँचाने का काम तंत्रिकाएँ करती हैं। यहाँ एक दिलचस्प तथ्य है।
यदि सोच-समझकर आँखों की रचना बनाई जाएगी तो यह स्वाभाविक होगा कि ये तंत्रिकाएँ प्रकाश संवेदी कोशिकाओं के पीछे होंगी। मगर हमारी आँखों में तंत्रिका कोशिकाएँ प्रकाश संवेदी कोशिकाओं के सामने हैं। यानी जब प्रकाश लेंस से होकर रेटिना पर पहुँचता है तो पहले वह तंत्रिका कोशिकाओं से टकराता है। ये तंत्रिका कोशिकाएँ कुछ प्रकाश को बिखेरती हैं। प्रकाश के बिखरने से भी ज़्यादा बड़ी समस्या दूसरी है जिसका सम्बन्ध अन्ध बिन्दु से है।

तंत्रिका कोशिकाओं के अलावा प्रकाश संवेदी कोशिकाओं पर एक अन्य किस्म की कोशिकाओं की दो-तीन परतें होती हैं। इन कोशिकाओं को मुलर कोशिकाएँ कहते हैं। माना जाता है इनकी वजह से संवेदी कोशिकाओं तक पूरा प्रकाश नहीं पहुँच पाता।
परन्तु पहले तंत्रिकाओं की बात पूरी कर लें। प्रकाश संवेदी कोशिकाओं के सामने होते हुए भी अन्तत: सारी प्रकाश तंत्रिकाएँ रेटिना के पीछे की ओर जाती हैं। रचना कुछ ऐसी है कि सारी तंत्रिकाएँ रेटिना के केन्द्र की ओर बढ़ती हैं और बीच में एक जगह से रेटिना को पार करके पीछे की ओर निकलती हैं। इस स्थान को पैपिला कहते हैं। इस जगह पर इतनी सारी तंत्रिकाओं का झुण्ड-सा बन जाता है कि प्रकाश संवेदी कोशिकाओं के लिए जगह ही नहीं बचती। इस बिन्दु पर रेटिना प्रकाश के प्रति असंवेदी होता है। रेटिना के इस भाग पर रोशनी पड़े तो इसका संकेत दिमाग को नहीं जाता। यही आँख का अन्ध बिन्दु है।
जैव विकास के अध्येता कहते हैं कि यदि कोई ‘घड़ीसाज़’ होता तो ऐसा कभी न करता - वह तंत्रिकाओं को प्रकाश संवेदी कोशिकाओं के पीछे रखता ताकि अन्ध बिन्दु न बने। और मुलर कोशिकाओं को भी प्रकाश संवेदी कोशिकाओं के पीछे रखना ही बेहतर होता। रेटिना की यह विचित्र उल्टी रचना क्रमिक जैव विकास का एक प्रमाण है। इससे पता चलता है कि जैव विकास में लगातार पहले उपस्थित रचनाओं में छोटे-मोटे परिवर्तन होते हैं और नई रचनाएँ बनती हैं। इस प्रक्रिया में ज़रूरी नहीं कि दोषरहित चीज़ ही बने। पहले मौजूद रचना नई रचना पर कई सीमाएँ आरोपित कर देती है।
यानी अंगों और रचनाओं में खामियाँ हमें बताती हैं कि ये सब किसी सोची-समझी डिज़ाइन के तहत नहीं बने हैं बल्कि छोटे-मोटे परिवर्तनों के परिणाम-स्वरूप अस्तित्व में आए हैं। मगर अब इस बहस में एक नया आयाम जुड़ गया है।

खामी का गुण
हमने देखा कि तंत्रिकाओं को प्रकाश संवेदी कोशिकाओं के सामने रखने की वजह से अन्ध बिन्दु पैदा होता है। सामान्य देखने की क्रिया के दौरान आपका ध्यान इस बात पर नहीं जाता क्योंकि दिमाग उस हिस्से को ‘भर’ देता है। हमने यह भी देखा कि प्रकाश संवेदी कोशिकाओं तक पहुँचने से पहले प्रकाश को कुछ अन्य कोशिकाओं की परत से भी गुज़रना होता है। इनमें मुलर कोशिकाएँ प्रमुख होती हैं।
मुलर कोशिकाएँ शंक्वाकार होती हैं। इनका चौड़ा वाला हिस्सा अन्दर की ओर तथा संकरा वाला हिस्सा प्रकाश संवेदी कोशिकाओं की ओर होता है (देखें चित्र)। ऐसा माना जाता था कि इनकी वजह से प्रकाश बिखरता होगा और संवेदी कोशिकाओं को कम प्रकाश मिलता होगा। मगर लिपज़िग विश्वविद्यालय के ग्रेजुएट कॉलेज के एण्ड्रीयास राइनबैक और जोकेन गक के दल ने जब रेटिना में प्रकाश के गमन का अध्ययन किया तो पाया कि मुलर कोशिकाएँ ऑप्टिकल फाइबर के समान कार्य करती हैं और प्रकाश को फोकस करने में ही मदद करती हैं।
हाल ही में हाइफा स्थित टेक्निऑन-इज़राइल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के अमिचाई लेबिन और एरेज़ राइबेक ने मानव नेत्र की कोशिकाओं की जानकारी के आधार पर रेटिना के कामकाज का एक मॉडल तैयार किया है। उनके परिणाम भी बताते हैं कि दरअसल, प्रकाश को मुलर कोशिकाओं की परत में से गुज़ारने से फायदा होता है।
अमिचाई व राइबेक बताते हैं कि आँखों में दो तरह के प्रकाश होते हैं। एक तो जो पुतली में से सीधे आया है। दूसरा वह होता है जो आँख के अन्दर की सतह से परावर्तित हुआ है। मॉडल से पता चला है कि मुलर कोशिकाओं की उपस्थिति का फायदा यह होता है कि सीधे पुतली से आने वाला प्रकाश रेटिना की प्रकाश संवेदी कोशिकाओं तक अधिक पहुँचता है जबकि आँख की अन्दरूनी सतह से परावर्तित होने वाला अधिकांश प्रकाश मुलर कोशिकाओं से टकराकर बिखर जाता है। इससे ज़्यादा स्पष्ट प्रतिबिम्ब रेटिना पर बनता है। दूसरे शब्दों में मुलर कोशिकाएँ एक छन्नी की तरह काम करती हैं।

इसके अलावा मुलर कोशिकाओं की वजह से रंगीन प्रकाश को सही फोकस करने में भी मदद मिलती है। जब रोशनी लेंस से होकर गुज़रती है तो प्रिज़्म के समान उसके रंग कुछ हद तक अलग-अलग हो जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि कुछ रंग ठीक से फोकस नहीं हो पाते। मुलर कोशिकाएँ इन अलग-अलग हुए रंगों को फिर से इकट्ठा करने में भी मदद करती हैं।
कुल मिलाकर अमिचाई व राइबेक का कहना है कि मुलर कोशिकाएँ दृष्टि को ज़्यादा स्पष्ट व पैना बनाने में मदद करती हैं।
इतना सुनना था कि सृष्टिवादी लोगों को जैसे नया तर्क मिल गया। उन्होंने फौरन यह मत व्यक्त किया कि देखिए, हम तो कह ही रहे थे कि आँख की रचना जैसी भी है, सोच-समझकर, फायदे के लिए बनाई गई है। वैसे सृष्टिवादियों की एक आम आदत रही है कि जब भी जीव वैज्ञानिक कोई नया अनुसंधान या खोज करते हैं, सृष्टिवादी उसका हवाला देकर अपनी बात को पुष्ट करने में भिड़ जाते हैं।
वैज्ञानिकों का मत है कि यह संयोग है कि मुलर कोशिकाएँ इस तरह की भूमिका निभा रही हैं। मतलब प्रकाश संवेदी कोशिकाओं को तंत्रिका कोशिका और मुलर कोशिकाओं के पीछे रखने की वजह से जो समस्या पैदा हुई थी, प्रकृति ने यथासम्भव उससे लाभ भी उठाया। यह जैव विकास का एक खास गुण है - मौजूदा रचनाओं का नाना प्रकार से इस्तेमाल करना। और मुलर कोशिकाओं से जो थोड़ा फायदा हो रहा है, उसके मुकाबले अन्ध बिन्दु की वजह से नुकसान भी कम नहीं है। खैर, यह बहस तो चलती रहेगी।


सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।
यह लेख स्रोत फीचर्स के अगस्त 2010 अंक से साभार।