महेश बसेड़िया

एक शाम जब शिक्षा प्रोत्साहन केन्द्रों का भ्रमण करके हम होशंगाबाद ज़िले के बाबई ब्लॉक में गनेरा गाँव पहुँचे तो साढ़े सात बज चुके थे। बिजली न होने के कारण वहाँ अँधेरा था। हमें होशंगाबाद लौटने की भी जल्दी थी।
गनेरा केन्द्र के अनुवर्तनकर्ता साथी को उसके घर के पास उतारकर, जीप चलने को ही थी, इतने में एक व्यक्ति हाथ से रुकने का इशारा कर हमारी ओर दौड़ते नज़र आए। वे गनेरा शिक्षा प्रोत्साहन केन्द्र पालक समिति के अध्यक्ष नामदेव जी थे। आते ही उन्होंने कहा, “पहेली का उत्तर 875 ग्राम है।” मैंने बिना सोचे-समझे अचकचाकर कहा, “875 ग्राम!” तो वे तुरन्त बोले, “हाँ, हाँ, 875 ग्राम घी।”
एकाएक मुझे सारा वाकया याद आ गया। यह सोचकर मैं स्फूर्ति से भर गया कि कैसे एक अनुत्तरित सवाल हल न होने तक मन में खलबली मचाए रखता है और हल मिल जाए तो उत्तर सम्बन्धित लोगों तक पहुँचाने की व्यग्रता छाई रहती है।

सवाल का हल गनेरा गांव में मिलना काफी अप्रत्याशित था। नामदेव जी ने जिस सवाल का जवाब दिया, वह कुछ दिन पहले बैतूल ज़िले के शाहपुर ब्लॉक के एक गाँव बानाबहेड़ा में पूछा गया था। वैसे आप शायद सोच रहे होंगे कि नामदेव जी का भला बानाबहेड़ा गाँव से क्या सम्बन्ध, वे वहाँ क्यों गए थे आदि आदि।
सिलसिलेवार अपनी बात कहूँ तो गनेरा और बानाबहेड़ा गाँव में एकलव्य संस्था स्थानीय समुदाय की मदद से शिक्षा प्रोत्साहन केन्द्र चलाती है। सालभर स्थानीय समुदाय अपने गांव के शिक्षा प्रोत्साहन केन्द्र की देखरेख तो करते ही हैं लेकिन साल में एक बार अन्य केन्द्रों में जाकर वहाँ के काम को भी देखते हैं। अन्य केन्द्रों को देखकर अपने केन्द्र में सुधार की गुंजाइश तलाशने के साथ-साथ वे वहाँ गाँव वालों से मिलकर अपने विचार, अपने अनुभव भी बाँटते हैं। इसी तारतम्य में विगत महीने गनेरा और आस-पास के गाँव के पालक शाहपुर ब्लॉक के गाँवों में चल रहे शिक्षा प्रोत्साहन केन्द्र देखने गए थे।

सुबह के दो घण्टे गनेरा के पालकों ने विविध केन्द्रों का अवलोकन किया, साथ ही केन्द्र संचालकों और बच्चों से खुलकर सवाल-जवाब भी किए। इसके बाद स्थानीय पालकों से बातचीत और चाय-नाश्ते का कार्यक्रम महुए के दरख्त तले हुआ।
नर्मदा के उपजाऊ मैदानी गाँव वालों में से ज़्यादातर का पहाड़ी क्षेत्र के जंगलों से घिरे आदिवासी गाँवों में आने का यह पहला मौका था। वे सभी इस अनुभव से अभिभूत थे। आदिवासी इलाकों में चल रहे शिक्षा प्रोत्साहन केन्द्रों को देखने के बाद चर्चा के दौरान बहुत-से लोगों ने कहा कि आर्थिक तौर से कमज़ोर होने के बाद भी यहाँ के लोगों का शिक्षा के प्रति लगाव और जुड़ाव देखकर वे बहुत प्रभावित हुए हैं।

दोनों इलाके के लोग आत्मीयता से अपने अनुभवों को साझा कर रहे थे। तभी बाबई तहसील के गाँव नगवाड़ा से आए बुज़ुर्ग किसान रमेश यादव उर्फ ज्ञानू दादा की बोलने की बारी आई तो उन्होंने सबसे पहले गणित के दो पहेली नुमा सवाल पूछ लिए; जिन्हें मैं आपके सामने रख रहा हूँ।

पहला सवाल - सर्दी के मौसम में एक ग्वाला घर से कुछ घी लेकर तीर्थ यात्रा पर निकला। रास्ते में एक मन्दिर मिला तो उसने भगवान से प्रार्थना की, यदि घी दुगना हो जाए तो वो 1 किलो घी भगवान को चढ़ा देगा। घी दुगना हो गया। वायदे के मुताबिक उसने 1 किलो घी चढ़ा दिया। आगे जाने पर दूसरा मन्दिर मिला। वहाँ भी पहले मन्दिर के समान घी दुगना होने पर उसने 1 किलो घी चढ़ा दिया। जब वो तीसरे मन्दिर पहुँचा तो फिर से घी दुगना होकर 1 किलो हो गया। ग्वाला भगवान को सारा घी चढ़ाकर वापस घर लौट आया।
तो बताइए वो घर से कितना घी लेकर चला था?
इस पहेली का सही जवाब उस समय तो काफी माथापच्ची के बाद भी किसी को नहीं सूझा। इसलिए इसे आराम से घर पर सोच-विचारकर जवाब देने के लिए छोड़ दिया गया।

लेख के शु डिग्री में जिस गनेरा गाँव का ज़िक्र किया गया है उस गाँव के नामदेव जी काफी माथा-पच्ची के बाद यह मालूम कर सके कि ग्वाला कितना घी लेकर घर से चला था। उनका जवाब सुनने के बाद मैं यह जानने को उत्सुक था कि नामदेव जी ने आखिर जवाब किस तरह मालूम किया होगा। होशंगाबाद लौटते हुए सारे रास्ते मैं यह अनुमान लगा रहा था कि क्या नामदेव जी ने बीज-गणित की विधि से हल निकालने का प्रयास किया होगा? फिर सोचने लगा कि क्या इस किस्म के सवाल बिना बीज-गणित जाने हल नहीं किए जा सकते? गणित तो हमारे लोक-जीवन से गुँथा हुआ है। क्या कोई व्यक्ति केवल तर्क लगाकर इसे हल कर सकता है? कई बार ऐसे सवालों में तुक्का या अनुमान भिड़ाकर जवाब का एक छोर हाथ लग जाता है और आप जवाब खोजने में कामयाब हो जाते हैं। आप चाहे इसे अन्धेरे में तीर निशाने पर लगना कहें, लेकिन मेरे विचार से ऐसी कोशिश भी चिन्तन और समस्या समाधान का ही एक हिस्सा है।

खैर, घर पहुँचने के बाद मैं ज़्यादा देर तक खुद पर काबू न रख सका। मैंने नामदेव जी को फोन लगाया और आखिर पूछ ही लिया, “आप जवाब तक किस तरह पहुँचे। आपने कौन-सा तरीका अपनाया?” नामदेव जी के बताए अनुसार, शिक्षा प्रोत्साहन केन्द्रों के भ्रमण से लौटने के बाद उन्होंने अपने यार-दोस्तों के सामने भी यह दोनों पहेलियाँ रखी थीं। चूँकि नामदेव जी कपड़ों की सिलाई का काम करते हैं इसलिए उनके यहाँ लोगों का आना-जाना लगा ही रहता है। तोते वाली पहेली का जवाब तो दो लोगों ने बता दिया था लेकिन घी के सवाल का जवाब नहीं मिला।

नामदेव जी ने घी वाली पहेली स्कूली बच्चों से भी पूछी लेकिन जवाब नहीं मिल सका। एक रात खाना खाने के बाद सोने से पहले यह पहेली उनके दिमाग में फिर घुमड़ने लगी। वे कागज़-पेन लेकर बैठ गए। इस बार उन्होंने आखिरी मन्दिर की ओर से सोचना शु डिग्री किया। आखिरी मन्दिर में घी चढ़ाने के बाद ग्वाले का डिब्बा खाली हो गया। इसका मतलब आखिरी मन्दिर आने से पहले ग्वाले के पास आधा किलो घी था। इससे पहले वाले मन्दिर में भी ग्वाले ने एक किलो घी चढ़ाया था। यानी उस मन्दिर में पहुँचने से पहले ग्वाले के पास 750 ग्राम घी था। और सबसे पहले मन्दिर में घी दुगना होने के बाद 1750 ग्राम (एक किलो तीन पाव) था। मतलब साफ है कि ग्वाला घर से 875 ग्राम या साढ़े तीन पाव घी लेकर चला होगा।

क्या है शिक्षा प्रोत्साहन केन्द्र?

प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता लाने और शिक्षा को आनन्ददायक बनाने के लिए एकलव्य संस्था मध्यप्रदेश के होशंगाबाद, हरदा, बैतूल, देवास और उज्जैन ज़िलों के कुछ गाँवों में शिक्षा प्रोत्साहन केन्द्र संचालित कर रही है। इन सभी केन्द्रों के संचालन में स्थानीय जन भागीदारी एक उल्लेखनीय पहलू है।
गाँव में समुदाय द्वारा उपलब्ध करवाई जगह पर इन केन्द्रों में प्रतिदिन दो घण्टे बच्चों को गतिविधि आधारित तरीकों से भाषा और गणित की विविध दक्षताएँ विकसित करने के मौके दिए जाते हैं। यहाँ यह बता देना भी उचित होगा कि ये केन्द्र, स्थानीय प्रायमरी स्कूलों के विकल्प के रूप में नहीं हैं। इन केन्द्रों पर पढ़ने वाले ज़्यादातर बच्चे स्थानीय स्कूलों में भी जाते हैं। इन केन्द्रों पर बच्चों को पढ़ाने का काम स्थानीय युवक-युवतियाँ करते हैं। इन युवाओं को प्रशिक्षित किया जाता है।
केन्द्र में पढ़ाने वाला युवा समय पर केन्द्र खोलता है या नहीं, बच्चों की उपस्थिति कम तो नहीं हो रही है, केन्द्र पर शैक्षणिक सामग्री का उपयोग हो रहा है या नहीं... जैसे अनेक पहलुओं पर स्थानीय समुदाय अपनी निगहबानी बनाए रखता है।
अपने इलाके के शिक्षा प्रोत्साहन केन्द्रों के संचालन में मदद के अलावा अन्य केन्द्रों को देखकर अपनी समझ बढ़ाना, अपने अनुभवों को बाँटना भी पालक भ्रमण दल का एक प्रमुख उद्देश्य है। ऐसी यात्राओं से पालक अन्य केन्द्रों के अच्छे-बुरे पक्षों से रूब डिग्री होते हैं, साथ ही उन गाँवों में पालकों की शिक्षा के प्रति चाह को भी जान पाते हैं। इन सब का मिला-जुला असर यह पड़ता है कि पालक अपने केन्द्रों पर शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए प्रयासरत हो जाते हैं।

—प्रदीप चौबे

इतना सुनने के बाद मैं काफी देर तक हैरान था। नामदेव जी ने जितना गणित वे जानते थे उसके आधार पर पहेली की चुनौती को स्वीकार किया था और अपनी लगन, सूझ-बूझ और तर्क शक्ति से आखिर उसका हल खोज ही लिया।
हमारे ग्रामीण इलाकों में गणित की पहेलियों को लेकर काफी रुचि होती है और इससे भी बड़ी बात है कि वे औपचारिक बीज-गणित या रेखागणित के सूत्रों का उपयोग किए बिना हल निकालने का जज़्बा रखते हैं।

दूसरा सवाल - कुछ तोते उड़कर कहीं जा रहे थे। पेड़ पर बैठे एक तोते ने उनसे पूछा तुम कितने तोते हो। उनमें से एक तोता बोला डेवढ़े (डेढ़ गुना) तोते आगे उड़ गए हैं और हमसे दुगने पीछे उड़कर आ रहे हैं। यदि तुम भी हमारे साथ शामिल हो जाओ तो हम कुल 100 तोते हो जाएँगे। इस पहेली का जवाब दो-तीन लोगों ने ढूँढ़ लिया था।
फिलहाल इसका जवाब यहाँ नहीं दे रहा हूँ। ‘संदर्भ’ के पाठक इसका जवाब बीज-गणित या तर्क या तुक्के से खोजने के लिए स्वतंत्र हैं। अपने जवाब ‘संदर्भ’ के पते पर लिखकर ज़रूर भेजिए।


महेश बसेड़िया: एकलव्य के होशंगाबाद केन्द्र पर कार्यरत हैं। बच्चों के साथ विविध गतिविधियों में रुचि। फोटोग्राफी का शौक।
फोटो: महेश बसेड़िया।
गणित की ऐसी ही रोचक पहेली के लिए पढ़ें विजय शंकर वर्मा का लेख ‘जादुई तालाब की पहेली’ संदर्भ, अंक 22-23 में।