पी.के.बसन्त [Hindi PDF, 277 kB]

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कक्कु और अँग्रेज़ी की पढ़ाई

कक्कु और उसके साथी स्कूल से काफी खुश - स्कूल शु डिग्री होने के पहले धमा-चौकड़ी, टिफिन के समय खेलना और स्कूल के बाद तो खेलना ही खेलना। स्कूल से घर के रास्ते में आम के बागान थे, मकई का खेत था और एक पोखरी भी थी। कक्कु के गाँव वाले दोस्त आम के मौसम में कच्चे-पक्के आम खाते थे। इस मामले में भीखू उस्ताद था। झटहा (छोटी-सी डण्डी) के एक या दो प्रहारों से ऊँचे-से-ऊँचे आम को तोड़ डालता था। इसके पहले कि बागान वाला वहाँ पहुँचे, सारे बच्चे रफूचक्कर हो जाते थे। मकई के खेत में रखवाली करने वाले मचान पर बैठकर आराम-से कच्चे आम को काट कर, नमक मिलाकर चाट बनाते फिर उसको चटखारे लेकर खाते। इन सबके बाद पोखरी में बिना नहाए कैसे जाया जा सकता था। शुरू-शु डिग्री में कक्कु को कपड़े उतार कर पोखरी में कूदने में थोड़ी शर्म आती थी, लेकिन पानी में छपकने का मज़ा उसे कब पोखरी में बहा ले गया, उसे पता भी नहीं चला।

स्कूल में अँग्रेज़ी की पढ़ाई सबसे ज़्यादा मुश्किल थी। भाषा अलग, लिपि अलग और ऊपर से put और but में ‘u’ के अलग-अलग उच्चारण समझने के लिए अति मानवीय कुशाग्रता की ज़रूरत थी जो कक्कु की पूरी कक्षा में किसी को नहीं थी। इसलिए कक्षा के बच्चे नित नवीन प्रयोग करते रहते थे। मास्टर जी ने क्लास के बच्चों को अपने-अपने माँ-बाप के नाम अँग्रेज़ी में लिखने को कहा। कक्कु ने लिखा-My father name is Ram Singh. My Mother name is Sita. शिक्षक बड़े प्रभावित हुए। अँग्रेज़ी से नहीं बल्कि इस बात से कि भगवान ने कक्कु के माँ-बाप की कैसी जोड़ी बनाई है। शायद सतयुग के बाद पहली बार एक पति-पत्नी का नाम राम और सीता था। नहीं तो पति का नाम राम होता तो पत्नी का नाम रीता, मीता, सुनीता या कुछ और हो जाता था और अगर पत्नी सीता हो तो पति का नाम हरेन्द्र, नगेन्द्र, राजू या कुछ और हो जाता था। शिक्षक इतने भाव-विह्वल हुए कि एक दिन कक्कु के पिताजी से मुलाकात करने पहुँच गए। वहाँ पर जब यह पता चला कि कक्कु के पिताजी का नाम उदय प्रताप सिंह है तो कक्कु के शिक्षक और पिताजी दोनों चकरा गए। कक्कु को बुलाया गया। “क्यों भई, तुमने हमारा नाम राम सिंह और अपनी माँ का नाम सीता सिंह क्यों लिख डाला?”
“मैं क्या करता, अँग्रेज़ी में आपका और मम्मी का नाम लिखता तो निश्चित गलती हो जाती। राम और सीता शब्द लिखना आसान था, इसलिए लिख दिया।”

एक दिन दीपू ने पूछा, “‘को’ मतलब क्या होता है?” पूरी क्लास चकरा गई। तब स्पेलिंग पूछी गई। स्पेलिंग निकली ‘ड़दृध्र्’। उच्चारण के चक्कर में पूरी क्लास ऐसी फँसी कि कोई भी मतलब नहीं निकाल पाया। अन्त में मास्टर जी से जब पूछा गया तो वे भी चकराए। स्पेलिंग बताई जाने पर बड़े खफा हुए। बोले ‘काऊ’ को ‘को’ कहकर मुझे परेशान करता है, तुम्हारा ‘फुटुरे’ (future) अच्छा नहीं है।”
देखते-देखते परीक्षा आ गई। अब घर वाले भी कक्कु को पढ़ने के लिए कहते। अँग्रेज़ी के पर्चे को लेकर कक्कु काफी परेशान था। खैर, परीक्षा तो देनी ही थी। ‘cow’ पर एक लेख खूब अच्छी तरह रट गया। शब्दार्थ अच्छी तरह सीख लिया। परीक्षा में और सब चीज़ें तो कर डालीं लेकिन लेख कैसे लिखे? रटकर आए थे ‘ड़दृध्र्’ पर, लेख आ गया जवाहर लाल नेहरु पर। अब कुछ तो लिखना था, सो उसने लिखा -  Jawahar Lal Nehru has two hands. He also has two foots. He has two eyes. He has two ear. He is in my father office. He has a cap.

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कक्कु गया फिल्म देखने

परीक्षा खत्म होते ही छुट्टियाँ शु डिग्री हो गईं। सुबह से शाम तक खेल। पास के मुफ्फसिल में एक सिनेमा हॉल था। कक्कु का बहुत मन था सिनेमा देखने का। पैसे भी थे लेकिन घर वाले जाने नहीं देते थे। एक दिन कक्कु और भीखू खेलने के बहाने निकले और चल दिए सिनेमा देखने। रेल से बेटिकट यात्रा करके मुफस्सल पहुँचे।
कक्कु पहले भी कई बार सिनेमा देख चुका था लेकिन भीखू के लिए यह पहला अनुभव था। बड़े उत्साह से वे लोग सिनेमा हाल पहुँचे। कक्कु ही टिकट के पैसे दे रहा था। टिकट खरीदने के लिए एक खिड़की के आगे लम्बी लाइन लगी थी। भीखू भी लाइन में लग लिया। ऐसा लगता था कि टिकट के लिए पैसों से ज़्यादा दम-खम की ज़रूरत थी। लोग आगे से, पीछे से यहाँ तक कि सिर के ऊपर से भी खिड़की तक पहुँचने की कोशिश कर रहे थे। भीखू का तो दम अटका जा रहा था। एक लम्बे-तगड़े व्यक्ति ने भीखू को खींच कर बाहर कर दिया। भीखू परेशान कि एक तो लाइन में दबे-पीसे गए और शायद दोबारा लाइन में लगना पड़े। लेकिन भला हो उस आदमी का, उसने पैसे लेकर दो टिकट खरीद दिए।
कक्कु ने भीखू को सॉफ्टी आइसक्रीम खिलाई। इसके पहले भीखू ने कभी सॉफ्टी आइसक्रीम नहीं खाई थी। जब सॉफ्टी आइसक्रीम हाथ में आई तो भीखू ने उसमें की आइसक्रीम बड़े मज़े से खाली तथा पीले रंग का कोन (आइसक्रीम रखने का बिस्कुट का बना कवर) फेंक दिया। भीखू ने समझा कि शायद यह आइसक्रीम रखने की कोई कटोरी होगी। यह देखकर कक्कु ने कहा, “बुद्धुदेव, वो भी खाने की चीज़ ही होती है। और वह खाने में बहुत कुरकुरा लगता है।” अब पछताने की बारी भीखू की थी। लेकिन पछताने से क्या होता था वो, तो कोन को नीचे ज़मीन पर फेंक चुका था।

सिनेमा हॉल के भीतर जाते समय गेट कीपर ने टिकट दिखाने को कहा। जब गेट कीपर ने टिकट के दो टुकड़े कर दिए तो भीखू लगभग चीख पड़ा। इतनी मुश्किल से टिकट मिला था वह भी फाड़ दिया। कक्कु ने स्थिति सम्भाली और दोनों हॉल के अन्दर गए। अन्दर सीटों की लूट चल रही थी। भीखू सबसे आगे बैठना चाहता था। पर कक्कु उसे समझाकर सबसे पीछे की सीट पर ले गया। कक्कु को पीछे बैठने का घाटा तब समझ में आया जब सीट नहीं बदली जा सकी थी। उस इलाके के लोगों को ईख (गन्ना) खाने का बहुत शौक था। ऐसा लगता था कि जो लोग भी हॉल के अन्दर आते वे अपने साथ ईख के दो-तीन डण्डे भी लाते थे। इसे वे बड़े आराम-से झण्डे की तरह खड़ा रखते थे। परिणाम यह हुआ कि सिनेमा के पर्दे के आगे ईख के डण्डों के कई पर्दे बन गए थे। कक्कु और भीखू कभी बाईं तरफ तो कभी दाईं तरफ झुक कर फिल्म देख रहे थे।

सिनेमा थी ‘छोटा भाई’। फिल्म में एक बच्चे की माँ मर गई थी। बच्चा हर पाँचवें मिनट पर माँ की याद में ज़ार-ज़ार रोता था और कई बार रोते-रोते गाने भी गाता था। कक्कु और भीखू का दिल पिघल गया। हालत ये हो गई कि दोनों सुबक-सुबक कर रोने लगे। पास बैठा व्यक्ति बड़ा कठोर दिल का था। उसने उन्हें डाँट लगाई, “चुप! सिनेमा देखते वक्त शोर क्यों मचाते हो?” दोनों किसी तरह चुप हुए। लेकिन मन भरा जा रहा था। कक्कु ने भीखू को देखा और भीखू ने कक्कु को। फिर दोनों ज़ोर-ज़ोर-से रोने लगे। पास बैठा व्यक्ति अब गुस्सा हो गया। बोला, “चुप! बाहर जा।” कक्कु और भीखू आँखें पोंछते, सहमे-सहमे हॉल से बाहर आ गए। पाँच मिनट बाद जाकर कहीं रुलाई बन्द हुई। फिर भाग कर हॉल के अन्दर गए। सिनेमा कैसे छोड़ सकते थे। पर यह क्या - थोड़ा समय गुज़रा नहीं कि दोनों फिर सुबक-सुबक कर रो रहे थे। फिर डाँट पड़ी, फिर बाहर निकले। इसी तरह से रोते, निकाले जाते हुए पूरी फिल्म निकल गई। वापस घर जाते वक्त फिर बेटिकट यात्रा। लेकिन इस बार टी.टी. ने पकड़ लिया तथा बोला कि जेल ले जाएँगे। कक्कु डर से काँपने लगा। भाव-विह्वल तो था ही। कक्कु रोने लगा। फिर भीखू भी बिलख-बिलख कर रोने लगा। जेल के डर से नहीं बल्कि इस बात से कि इस खबर पर घर में कितनी पिटाई होगी। टी.टी. को दया आ गई। लेकिन दया का मतलब था कि कक्कु की जेब में जो भी पैसे थे उसने अपनी जेब में रख लिए। घर आने पर कक्कु देर तक रोता रहा। ‘छोटे भाई’ के लिए पता नहीं उसने कितने आँसू बहाए।

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घोड़ी ने दूल्हे को क्यों पटका?

छुट्टियों के दौरान कक्कु ने एक और चीज़ सीखी - सिगरेट पीना। उसके पिताजी सिगरेट पीकर जो ठूँठ फेंक देते थे उसे वह जलाकर पीने की कोशिश करता था। सिगरेट के धुएँ का स्वाद उसे बेहद बुरा लगता था, लेकिन सिगरेट पीना उसे यह एहसास देता था कि अब वह बड़ा हो गया है। ज़्यादातर समय वह अपने दोस्तों को प्रभावित करने के लिए मुँह में सिगरेट की ठूँठ रखा करता था। अगर कभी उसे सुलगाता था तो उसका इस्तेमाल वह दोस्तों को दागने के लिए करता था।

छुट्टियों के दौरान एक अजीबो-गरीब घटना घटी। जून-जुलाई का महीना शादी-ब्याह का मौसम हुआ करता था। बड़े घरों के दूल्हे थ्री-पीस सूट पहने घोड़ी पर सवार होकर आते थे। पीछे-पीछे मिलिट्री की स्टाइल में एक बैंड ज़ोर-ज़ोर से कोई फिल्मी धुन बजाता हुआ चलता था। उनके पीछे रंग-बिरंगी पोशाक पहने बाराती चलते थे। लड़की वाले उनकी खूब खातिर करते थे। अगले दिन दूल्हा रोती-पीटती दुल्हन को अपने साथ लेकर चला जाता था।

वैसी ही एक बारात आई। एक मोटा-सा दूल्हा एक मरियल-सी घोड़ी पर सवार था। उसे इतना पसीना हो रहा था कि कोट बाहर से भी गीला नज़र आ रहा था। बैंड वाले खूब ज़ोर-ज़ोर-से कोई फिल्मी धुन बजा रहे थे। घोड़ी इस शोर-शराबे के बीच पूँछ हिलाती गर्दन झुकाए खड़ी थी। दूल्हा जीवन में पहली बार घोड़ी पर सवार हुआ था। काफी परेशान था और इन्तज़ार में था कि कब घोड़ी से नीचे आए। तभी अचानक घोड़ी कूद कर दौड़ने लगी। जिस आदमी के हाथ में लगाम थी वह भी बैंड का बाजा सुनने में इतना मगन था कि रस्सी उसके हाथ से सरक गई। दूल्हे राजा ने घबराकर पैरों को घोड़ी के पेट में चिपका लिया। पर यह क्या, घोड़ी और तेज़, और तेज़ भागने लगी। अजीब हालत थी - सबसे आगे घोड़ी पर सवार दूल्हा भागा जा रहा था, कुछ दूरी पर लगाम पकड़ने वाला तरह-तरह की आवाज़ें निकाल कर घोड़ी को रोकने की कोशिश कर रहा था, इन सबसे बहुत पीछे थे दूल्हे के रिश्तेदार - दौड़ते-हाँफते, हैरान-परेशान, ये लोग समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें। बैंड बाजे वाले समझ नहीं पा रहे थे कि गाने की धुन जारी रखें या बन्द कर दें। ड़्रम और तुरही वाले रुक गए लेकिन कुछ बेसुरी तुरहियाँ बजती रहीं। उधर दूल्हे राजा अपने पैर को जितना चिपकाते, घोड़ी उतनी तेज़ होती जाती। अन्त में दूल्हे राजा को एक ही उपाय सूझा - अगर किसी तरह घोड़ी की गर्दन पकड़ लें तो गिरने से तो बच जाएँगे। उन्होंने घोड़ी की पीठ पर बैठे-बैठे ऐसी कमाल की छलांग लगाई कि घोड़ी की गर्दन के पास पहुँच गए।

लेकिन यह क्या, घोड़ी ने ऐसे पलट कर गर्दन झटकी कि दूल्हे राजा सीधा ज़मीन की तरफ चल दिए। दूल्हे राजा ने डरकर आँखें बन्द कर लीं। ज़मीन पर पहुँचने पर भी जब ज़्यादा चोट नहीं लगी तब उन्होंने आँखें खोलीं। वे गाँव की सबसे बड़ी नाली में गिरे थे। जब वे किसी तरह आँखें मीचते खड़े हुए तो उन्हें अपनी हालत का अन्दाज़ा लगा। पगड़ी कब की गायब हो चुकी थी। कोट की जेब नाली के जल से भरकर फूल गई थी। नाली में पाया जाने वाला हर आइटम कोट और पतलून के विभिन्न हिस्सों से लटक रहा था। बड़ी मुश्किल से उन्हें बाहर निकाला गया। उसी हालत में चल-चल कर वे एक पड़ोस के मकान में ले जाए गए। तब कहीं जाकर उन्हें अलग-अलग हिस्सों में लगी चोट का एहसास हुआ। फूट कर उन्होंने घोड़ी वाले को दो-चार गालियाँ निकालीं। दूल्हे को गाली देते देख बाराती आश्वस्त हो गए कि ज़्यादा चोट नहीं आई है। घोड़ी क्यों बिदक गई थी, इसको लेकर अटकलें लगाई जा रही थीं। कुछ लोगों का कहना था कि पटाखों की कोई चिंगारी घोड़ी पर आ गिरी। भीखू ने यह बात किसी को नहीं बताई कि उसने कक्कु को सिगरेट की ठूँठ से घोड़ी को दागते हुए देखा था।


पी.के. बसन्त: दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं।
सभी चित्र व सज्जा: कनक शशि: भोपाल में रहती हैं और स्वतंत्र कलाकार के रूप में पिछले एक दशक से बच्चों की किताबों के लिए चित्रांकन कर रही हैं।