मुकेश मालवीय   [Hindi PDF, 296 kB]

बात तो बहुत पुरानी है पर कल अचानक सामने आ गई। मेरे स्कूल में एक खान मास्साब हैं। कल मैं और खान मास्साब अपने स्कूल में पीछे की तरफ खड़े हुए थे। स्कूल में पीछे एक खेत है। खेत में धान लगी हुई थी। धान की फसल को देखते-देखते खान मास्साब अचानक ‘धान मास्साब, धान मास्साब’ कहते हुए हँसने लगे।

मैंने पूछा, “क्या हुआ?”
वे बोले, “यह धान का खेत देखकर मुझे भीमा की याद आ गई। भीमा मुझे ‘धान मास्साब, धान मास्साब’ कहकर बुलाता था।”
मैंने पूछा, “कौन भीमा?”

खान मास्साब ने एक गहरी साँस ली और दूर कहीं खो गए। मैं उनका चेहरा देख रहा था। उन्होंने बताना शु डिग्री किया, “बात उन दिनों की है जब मैं शिक्षक बनकर पहली बार स्कूल में पढ़ाने पहुँचा। वह एक गाँव का स्कूल था। गाँव का नाम था बोरगाँव। बोरगाँव तक कच्ची सड़क थी और शहर से एक बस दिन में यहाँ आती थी। बोरगाँव के स्कूल में आए मुझे अभी कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन स्कूल में एक युवक आया। वह ऊँचा पजामा और बण्डी पहना हुआ था। बण्डी में बीच में एक जेब थी जिसमें से एक मुड़ी हुई कॉपी झाँक रही थी। खाली रिफिलों का एक बण्डल भी जेब में था। उसके कान में एक रिफिल फँसी हुई थी। पैर में चप्पल नहीं थी। उम्र कोई बीस-इक्कीस के करीब होगी। आँखें कंजी और छोटी-छोटी थीं पर भौंहें बड़ी-बड़ी। ललाट चौड़ा और चपटा था। गोरे रंग का मासूम मुस्कुराता हुआ चेहरा।”

खान मास्साब दूर देखते हुए इस तरह बयान कर रहे थे जैसे वह युवक उनके ठीक सामने खड़ा हो। मैं भी खान मास्साब के साथ उस घटना को देखने लगा। इसके बाद क्या हुआ यह मैं खान मास्साब के अपने शब्दों में ही बयान करूँगा।

स्कूल के एक शिक्षक से उस नौजवान ने इशारा करके कुछ माँगा।
“क्या चाहिए भीमा? लीड?” शिक्षक ने पूछा।
युवक का ‘हाँ’ में सिर हिला।
शिक्षक मेरी तरफ इशारा करके बोले, “ये नए मास्साब आए हैं अपने स्कूल में -- खान मास्साब -- इनसे माँगो।”
युवक ने कहा, “धान मास्साब, धान मास्साब।” फिर लिखने का इशारा करते हुए हाथ फैलाकर मेरी ओर कातरता से देखने लगा।
दूसरे शिक्षक हँसते हुए बोले, “धान मास्साब नहीं, खान मास्साब।”
पर उसने फिर ‘धान मास्साब’ कहा।

मैं नवयुवक के आकर्षण में तो था ही, मैंने अपने पेन की रिफिल निकाली और उसे दे दी। उसका पूरा शरीर उत्साह से भर गया। उसने फुर्ती से मुझसे रिफिल लेकर अपने दूसरे कान में खोंस ली और ताली बजाते हुए वहाँ से भाग गया।
मेरे साथी शिक्षक ने मुझे बताया कि इसका नाम भीमा है। उम्र में बड़ा है पर बच्चे जैसा दिमाग है। हर दो-चार दिन में स्कूल आता है, रिफिल माँगने।
“रिफिल का क्या करता है?” मैंने पूछा।

शिक्षक बोले, “तुमने देखा नहीं उसकी बण्डी की जेब में एक डायरी थी? भीमा रोज़ बस आने के पहले स्टैंड पर पहुँच जाता है। जब बस आती है तो बस-एजेन्ट (स्थानीय कंडक्टर) की तरह सवारी का नाम अपनी डायरी में लिखने का प्रयोजन करता है। कई सालों से मैं उसे ऐसा करते देख रहा हूँ।”
अगले दिन मैं जब बस से बोरगाँव पहुँचा तो मुझे बस से उतरते देख भीमा खुशी से चिल्लाया, “धान मास्साब आ गया, धान मास्साब आ गया।”

मैं बस से उतरकर एक तरफ खड़ा हो गया और भीमा को देखने लगा। भीमा अब अपने काम में लगा हुआ था। वह जाने वालों को बस में चढ़ने का इशारा कर रहा था और अपनी कॉपी में कुछ-कुछ लिख रहा था। जब बस में सब लोग चढ़ गए तो भीमा बस में सामने के गेट से चढ़ा और सीट पर बैठी हुई सवारियों को देखते हुए पीछे के गेट से उतर गया। बस के कंडक्टर को भी भीमा पसन्द था। उसने ज़ोर-से आवाज़ लगाई, “भीमा, हो गया!” भीमा ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया और बस हॉर्न बजाती हुई चली गई।
मैं हर सप्ताह सोमवार को इस बस से आता था और शनिवार को लौटता था। हर सप्ताह बोरगाँव पहुँचते ही मेरा सामना इसी खुशगवार आवाज़ से होता, “धान मास्साब आ गया, धान मास्साब आ गया।”

मैं एक खाली रिफिल अपने पास रखता और स्कूल में खाली समय में भीमा का इन्तज़ार करता। भीमा खाली रिफिल कभी फेंकता नहीं था। उसके पास तकरीबन 40-50 रिफिलों का एक बण्डल था जो उसकी बण्डी की जेब में रखा रहता।
भीमा मेरा दोस्त बन गया था। मुझे पता चला कि भीमा के माता-पिता नहीं हैं। उसका एक बड़ा भाई है। पिता भीमा की बहुत फिक्र किया करते थे। उनके पास लगभग बीस एकड़ ख्ेाती थी जो उन्होंने दोनों लड़कों के नाम बराबर बाँट दी थी, यह सोचकर कि भीमा के नाम ज़मीन रहेगी तो बड़ा भाई उसकी फिक्र करेगा। पर अब बड़े भाई की शादी हो गई थी और धीरे-धीरे भीमा घर में अकेला होता जा रहा था। हालाँकि, भीमा ने कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की थी। वह तो अपनी कॉपी बण्डी में रखे और कान में रिफिल खोंसे हमेशा मस्त घूमता रहता। उसे सिर्फ आधी खाली रिफिल की ज़रूरत पड़ती जो उसे ‘धान मास्साब’ से मिल ही जाती।

हर गाँव की तरह बोरगाँव के भी बड़े-बुज़ुर्गों को अपने गाँव के सभी लोगों की चिन्ता रहती थी। इसलिए उन्हें भीमा की चिन्ता भी हुई। चिन्ता जब ज़्यादा बढ़ गई तो एक दिन सबने मिलकर तय किया कि भीमा की शादी कर देनी चाहिए। भीमा के पास दस एकड़ ज़मीन भी है। कोई समझदार लड़की भीमा के साथ गुज़र-बसर कर ही लेगी।
कुछ दिनों बाद भीमा की खूब फिक्र करने वाली उसकी दुल्हन आ गई। पर समस्या तब खड़ी हुई जब शादी के पन्द्रह दिन बाद दुल्हन के मायके वाले दुल्हन को लेने आए। भीमा दुल्हन को ले जाने नहीं दे रहा था। उसने दुल्हन की पेटी छुपा दी और गुस्सा हो गया। सबने मनाया पर भीमा नहीं माना। उसने एक डण्डा हाथ में ले रखा था। तभी किसी को याद आया कि भीमा खान मास्साब की बात मानता है, खान मास्साब को बुलाओ।

मैं भीमा के घर पहुँचा। मुझे देखकर भीमा दौड़कर मेरे पास आया और रुआँसा होकर बोला, “धान मास्साब, ये ले जा रहे हैं उसको।”
फिर भीमा मुझसे लिपटकर सिसक-सिसककर रोने लगा।
आखिर में ऐसी स्थिती देख दुल्हन ने कहा, “मैं अपना घर छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगी। मायके भी नहीं।”
दिन बीतते गए।

भीमा अब यहाँ-वहाँ नहीं घूमता। अपने घर और खेत पर रहता। पर बस के समय ज़रूर बस के पास आ जाता। और रिफिल लेने मेरे पास तो आता ही आता।
कुछ दिनों बाद मेरा तबादला बोरगाँव से देशावाड़ी हो गया। भीमा की याद बहुत आती रही, फिर धीरे-धीरे मैं उसे भूल गया। लगभग पाँच साल बाद मैं एक दिन किसी काम से चिचोली जा रहा था। बोरगाँव का रास्ता चिचोली के पास से जाता है। मैं अपनी मोटरसाइकल पर था। जहाँ से बोरगाँव के लिए रास्ता कटता है वहाँ पहुँचते-पहुँचते मैंने सोचा कि भीमा से मिले बगैर मैं यहाँ से कैसे आगे जा सकता हूँ। अपनी मोटर-साइकल बोरगाँव की तरफ मोड़ने से पहले मैंने अपने पेन की रिफिल निकाली। रिफिल आधी थी। मैं कच्चे रास्ते पर बढ़ गया। बोरगाँव स्टैंड पर बस खड़ी थी। मैंने सोचा अच्छा है भीमा यहीं मिल जाएगा। मुझे देखते ही धान मास्साब, धान मास्साब कहेगा।
पर मुझे बस के आसपास कहीं भी भीमा दिखाई नहीं दिया। शायद अब भीमा ने बस पर आना छोड़ दिया होगा। खेती-बाड़ी के काम में लगा होगा।

मैं स्कूल चला गया, यह सोचकर कि पुराने मास्साब को लेकर भीमा से मिलने उसके घर जाऊँगा। पुराने मास्साब मिले। मैंने उनसे कहा, “पहले भीमा के यहाँ चलते हैं, उससे मिलकर फिर बाकी सारी बातें करेंगे।”
पुराने मास्साब बोले, “भीमा अब यहाँ नहीं रहता, तुम्हें नहीं पता?”
“कहाँ चला गया भीमा!!”
पुराने मास्साब बोले, “ईश्वर के यहाँ।”
मैं सकते में आ गया। पुराने मास्साब बोले, “एक साल हो गया। उस दिन भीमा बस के पिछले गेट से उतरा, तभी खाली रिफिल का बण्डल उसकी बण्डी की जेब से बाहर गिर गया। रिफिल का बण्डल बस के नीचे लुढ़क गया। भीमा बस के नीचे घुसा, तभी बस चल दी।”
इसके आगे मैं कुछ सुन नहीं सका। मैं इस गाँव में अब क्या करता। धान मास्साब, धान मास्साब कहने वाला मेरा दोस्त...
तभी मुझे जेब में रखी खाली रिफिल का ख्याल आया।
मैं खाली रिफिल के साथ वापस आ गया।
वह खाली रिफिल आज भी मेरे पास है और भीमा भी।


मुकेश मालवीय: शासकीय माध्यमिक शाला, पहावाड़ी (शाहपुर, बैतूल, म.प्र.) में शिक्षक हैं।