सुशील जोशी

भाग-3  [Hindi PDF, 195 kB]

उन्नीसवीं सदी के अन्तिम वर्षों में हेनरी बेकेरल रेडियोधर्मी पदार्थों का अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने देखा कि ये रेडियोधर्मी पदार्थ बगैर किसी बाहरी ऊर्जा के विकिरण छोड़ते रहते हैं। खास तौर से यह देखा गया कि भारी धातुएँ खुद होकर विकिरण उत्सर्जित करती रहती हैं। जब अर्नेस्ट रदरफोर्ड ने इस विकिरण का अध्ययन किया तो पाया कि इसमें दो तरह के विकिरण होते हैं। उन्होंने इन्हें कण माना था और दो तरह के कण पहचाने थे। कुछ कण ऐसे थे जो किसी पदार्थ में काफी गहराई तक घुस पाते थे, इन्हें रदरफोर्ड ने ‘बीटा कण’ कहा जबकि उन कणों को ‘अल्फा कण’ कहा जो पदार्थों में बहुत गहराई तक घुस नहीं पाते थे।
1900 में बेकेरल ने दर्शाया कि बीटा किरणें विद्युत क्षेत्र में विचलित हो जाती हैं और उनके द्रव्यमान-आवेश अनुपात के आधार पर बताया कि वे कैथोड किरणों के समान हैं। दूसरे शब्दों में ये इलेक्ट्रॉन थे। आगे चलकर रॉबर्ट मिलिकन और हार्वे फ्लेचर ने इलेक्ट्रॉन्स के आवेश का सटीकता से मापन किया। इसके लिए उन्होंने तेल की बूँद का उपयोग किया था। उन्होंने किया यह था कि तेल की अत्यन्त महीन बूँद को आवेशित करके उसे अपने वज़न से गिरने को मुक्त कर दिया। इसके बाद उस बूँद के इर्द-गिर्द एक विद्युत क्षेत्र निर्मित किया और विद्युत क्षेत्र की तीव्रता इतनी रखी कि वह उस आवेशित बूँद को गिरने से रोकने के लिए पर्याप्त हो। इसके आधार पर वे आवेश की काफी अच्छी गणना कर पाए।

अब बारी आई अल्फा कणों की। पता चला कि इनका आवेश धनात्मक था जिसका परिमाण बीटा कणों के बराबर था, मगर द्रव्यमान बहुत अधिक था - हीलियम के परमाणु के बराबर। चूँकि ये कण धनावेशित थे इसलिए इनमें रुचि पैदा होना स्वाभाविक था। आखिर ऋणावेशित इलेक्ट्रॉन की खोज के बाद धनावेशित कणों की खोज हो जाती तो तस्वीर पूरी हो जाती।
रदरफोर्ड ने अल्फा कणों पर ध्यान केन्द्रित किया। वे देखना चाहते थे कि ये अल्फा कण पदार्थों के साथ कैसी अन्तर्क्रिया करते हैं। तो उन्होंने गाइगर के साथ मिलकर एक प्रयोग तैयार किया जो अब विज्ञान के एक आदर्श प्रयोग के रूप में याद किया जाता है।

उन्होंने सोने का एक वर्क लिया। इसकी मोटाई 0.00004 से.मी. थी। उनका इरादा यह था कि इस पर अल्फा कणों की बौछार करेंगे और देखेंगे कि उन पर क्या असर होता है। दरअसल इसके ज़रिए वे भारी धातुओं (जिनमें से अल्फा कण निकलते हैं) के परमाणुओं के बारे में कुछ सुराग पाना चाहते थे। उन्होंने एक ऐसी जुगाड़ जमायी जिसमें भारी धातु के एक टुकड़े को सीसे के ब्लॉक में बन्द कर दिया जिसमें एक ही सुराख था। अल्फा कण इसी सुराख में से निकल सकते थे क्योंकि सीसे की मोटी परत अल्फा कणों को सोख लेती है।

ये अल्फा कण सोने की 0.00004 से.मी. मोटी झिल्ली से टकराते थे। उम्मीद थी कि ये उस परत को चीरते हुए निकल जाएँगे। तो सोने की झिल्ली के दूसरी तरफ उन्हें एक ऐसी जुगाड़ जमानी थी कि जब अल्फा कण सोने के पर्दे में से दूसरी ओर निकलें तो उन्हें ‘देखा’ जा सके। रदरफोर्ड और गाइगर ने काफी प्रयोगों के बाद पाया कि ज़िंक सल्फाइड पुता एक पर्दा लगाया जाए तो हर बार अल्फा कण के टकराने पर सम्बन्धित बिन्दु पर एक चमक पैदा होती है। तो सोने के पर्दे के दूसरी ओर उन्होंने ज़िंक सल्फाइड का एक पर्दा लगा दिया।
अब पूरा प्रयोग तैयार था। इस पूरे उपकरण को एक अँधेरे कमरे में रखा गया और रदरफोर्ड व गाइगर घण्टों वहाँ बैठकर ज़िंक सल्फाइड पर अलग-अलग बिन्दुओं पर पैदा होने वाली चमक को रिकॉर्ड करते थे।

तेल की बूँदों वाला प्रयोग

मिलिकन के प्रयोग का सिद्धान्त अत्यन्त आसान है। तेल की महीन बूँदों को मुक्त रूप से गिरने दिया जाए तो वे एक अन्तिम वेग हासिल कर लेंगी। इस अन्तिम वेग को टर्मिनल वेग कहते हैं। यदि यह क्रिया एक ऐसे प्रकोष्ठ में की जाए, जिसमें हवा के झोंके न हों, तो ये बूँदें मात्र गुरुत्वाकर्षण और स्थिर हवा द्वारा आरोपित उछाल बल के कारण चन्द मिलीमीटर प्रति सेकण्ड का टर्मिनल वेग हासिल कर लेती हैं। टर्मिनल वेग का मापन करके इनका द्रव्यमान निकाला जा सकता है।

फिर इसी बूँद को आवेशित कर दिया जाता है। अब एक विद्युत क्षेत्र निर्मित करके इन्हें ऊपर की ओर धकेला जा सकता है। जब गुरुत्व बल और विद्युतीय बल बराबर हो जाएँ (यानी बूँद हवा में एक ही जगह पर तैरती रहे) तब बूँद पर आवेश की गणना की जा सकती है। गुरुत्व बल थ्र्ढ़ होगा और विद्युत क्षेत्र की वजह से लगने वाला बल कद्द होगा। निलम्बन की स्थिति में थ्र्ढ़ उ कद्द. इसमें थ्र् बूँद का आभासी द्रव्यमान (वास्तविक द्रव्यमान-उछाल बल), ढ़ गुरुत्व बल, क विद्युत क्षेत्र की शक्ति और द्द बूँद पर आवेश की मात्रा है।
यह ज़रूरी नहीं है कि किसी बूँद पर आवेश एक ही होगा। मगर मिलिकन ने पाया कि बूँद पर न्यूनतम आवेश 1.60न्10-19 कूलंब है। इससे अधिक आवेश वाली बूँदों पर आवेश की मात्रा इस मान का कोई गुणज (3.20न्10-19, 4.80न्10-19, 6.40न्10-19, 8.00न्10-19 कूलंब ) थीं।

चित्र: तेल की बूँदों वाले प्रयोग में उपयोग किया गया एक उपकरण। वर्तमान समय में यह साइंस एंड इंडस्ट्री म्यूज़ियम, शिकागो में रखा है।

अन्तत: जो परिणाम प्राप्त हुए वे आशा के अनुरूप ही थे। सारे अल्फा कण ज़िंक सल्फाइड के पर्दे पर लगभग एक छोटे-से वृत्त के दायरे में ही पहुँचे थे। रदरफोर्ड को यही उम्मीद थी कि सोने के पर्दे में से गुज़रते वक्त अल्फा कण सोने के परमाणुओं से टक्करों के कारण थोड़े विचलित होंगे मगर विचलन ज़्यादा-से-ज़्यादा 1 डिग्री का होगा। और यही हुआ भी। मगर आपने रदरफोर्ड के इस प्रयोग का जो विवरण पाठ्य पुस्तकों में पढ़ा था, वह सम्भवत: ऐसा नहीं था।

सोने का वर्क वाला प्रयोग: रदरफोर्ड और गाइगर ने सोने का बेहद पतला वर्क लिया और इस पर अल्फा कणों कि बोंछार कर देखने कि कोशिश की, कि अल्फा कणों पर क्या असर होता है. चित्र 1 वाले परमाणु माँडल में अल्फा कण वर्क के पार चले जायेंगे. लेकिन रदरफोर्ड ने देखा कि सोने के पर्दे में से गुजरते वक़्त अल्फा कण थोड़े विचलित हुए (चित्र-2) इस अधर पर उन्होंने चित्र 1 वाले माँडल को खारिज किया. (दोनों चित्र सिर्फ समझ के लिए हैं.)

वास्तव में जब रदरफोर्ड और गाइगर ने यह प्रयोग किया था तो परिणाम ऐसे ही थे। विज्ञान की कहानियाँ उतनी नाटकीय या रोचक नहीं होतीं जितना उन्हें बना दिया जाता है।
एक दिन गाइगर ने रदरफोर्ड को बताया कि अर्नेस्ट मार्सडेन नाम के एक शोध-छात्र को एक प्रोजेक्ट करना है। रदरफोर्ड का जवाब था, “क्यों न मार्सडेन उसी प्रयोग को दोहराकर यह देखने की कोशिश करे कि कोई अल्फा कण ज़्यादा विचलित तो नहीं होता?”
जब मार्सडेन ने प्रयोग किया तो ज़िंक सल्फाइड का पर्दा सिर्फ सोने की झिल्ली के पीछे नहीं बल्कि चारों तरफ लगाया गया। मार्सडेन ने पाया कि कुछ कण (20,000 में से 1) 90 डिग्री से भी ज़्यादा कोण से विचलित होते हैं। इन परिणामों के बारे में रदरफोर्ड ने कभी कहा था, “यह मेरे जीवन की सबसे अविश्वसनीय घटना थी। यह तो लगभग ऐसा था कि आप एक 15 इंची हथगोला एक टिशू पेपर पर मारें और वह लौटकर आपको ठोंक दे।”

खैर, वे कितने ही चकराए हों मगर इस परिणाम का निहितार्थ समझने में उन्होंने देर नहीं की।

उनका निष्कर्ष था कि इन परिणामों की व्याख्या एक ही तरीके से की जा सकती है। आपको मानना होगा कि परमाणु का सारा धनावेश और द्रव्यमान बहुत थोड़ी-सी जगह में घनीभूत है। इसे उन्होंने केन्द्रक कहा। बस हमें इतना ही बताया जाता है। यह विज्ञान की एक रोमांटिक, संयोगवश खोजों की और अन्तर्दृष्टि पर आधारित छवि को पुष्ट करता है।
मगर रदरफोर्ड इतना ही कहते तो बात नहीं बनती। इस मान्यता को लेकर उन्होंने समीकरणें विकसित कीं जिनके आधार पर कुल अल्फा कणों में से किसी एक कोण से विचलित होने वाले कणों की संख्या का पता चल सकता था। इन समीकरणों से उन्होंने यह भविष्यवाणी की कि अल्फा कणों का विचलन सोने के वर्क की मोटाई के समानुपाती होगा और केन्द्रक पर उपस्थित आवेश के वर्ग के समानुपाती होगा। और तो और, वे यह भी गणना कर पाए कि विचलन का कोण अल्फा कणों के वेग की चौथी घात के व्युत्क्रमानुपाती होगा।
गाइगर और मार्सडेन ने इन तीनों पूर्वानुमानों की जाँच प्रयोगों के माध्यम से की और इन्हें सही पाया।

इस सारी मशक्कत के बाद रदरफोर्ड इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि परमाणु का सारा धनावेश और द्रव्यमान उसके केन्द्र में घनीभूत है। इसे उन्होंने ‘केन्द्रक’ नाम दिया। उन्होंने यह भी कहा कि परमाणु के कुल आयतन के मुकाबले केन्द्रक का आयतन नगण्य होता है।
रदरफोर्ड के मुताबिक यही कारण है कि अधिकांश अल्फा कण सोने की एक झिल्ली में से आर-पार निकल जाते हैं - उनके रास्ते में कोई ऐसी बड़ी चीज़ नहीं आती कि उन्हें विचलित कर सके। बहुत ही थोड़े-से अल्फा कण केन्द्रक के पास से गुज़रते हैं और केन्द्रक के धनावेश से प्रतिकर्षित होकर ये थोड़े विचलित होते हैं। कभी-कभार ये अल्फा कण जाकर सीधे केन्द्रक से टकराते हैं और 90 डिग्री से अधिक के कोण से विचलित होते हैं।

90 डिग्री या उससे अधिक के कोण से विचलित होने वाले अल्फा कणों की संख्या के आधार पर गणना करके रदरफोर्ड ने केन्द्रक के आकार का एक अन्दाज़ भी लगा लिया था। उनके मुताबिक परमाणु के व्यास की तुलना में केन्द्रक का व्यास 10,000 गुना कम था। गौरतलब है कि इस मॉडल में प्रोटॉन का कहीं ज़िक्र नहीं है, न्यूट्रॉन की तो बात ही जाने दें।

इस सारी जानकारी के आधार पर रदरफोर्ड ने परमाणु संरचना का एक मॉडल प्रस्तुत किया था। इसमें परमाणु में एक अत्यन्त सूक्ष्म धनावेशित केन्द्रक था और इलेक्ट्रॉन उसके आसपास काफी दूरी पर स्थित थे। आप देख ही सकते हैं कि यदि थॉमसन का तरबूज़ मॉडल सही होता तो अल्फा कणों के विचलन का ऐसा पैटर्न देखने को नहीं मिल सकता था। उस मॉडल के अनुसार तो धनावेश पूरे परमाणु में एकसार ढंग से बिखरा हुआ था। अत: यदि वह मॉडल सही होता तो होना यह चाहिए था कि परमाणुओं में से गुज़रते हुए सारे अल्फा कण लगभग एक-जैसे धनावेश से टकराते और अपने मार्ग से लगभग एक बराबर विचलित होते या शायद विचलित ही न होते।

तो एक बार फिर नए अवलोकनों के आधार पर परमाणु के मॉडल में सुधार किया गया। इस नए मॉडल में परमाणु के बीचोंबीच एक निहायत सघन केन्द्रक था जिसमें परमाणु का सारा धनावेश स्थित था और इलेक्ट्रॉन केन्द्रक से कुछ दूरी पर उसके चक्कर काटते थे। मगर यह मॉडल भी जल्दी ही भँवर में उलझने वाला था।

(...जारी)


सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।