अंजु दास मानिकपुरी

पिछली दो किश्तों में हमने देखा कि पहले यह मान्यता थी कि प्रकाश की गति अनन्त है। लेकिन 17वीं सदी में प्रकाश की गति को नापने की कोशिश शुरू हुई। पहले खगोलीय विधियों से प्रकाश की गति नापी गईं, फिर धरती पर ही विविध उपकरणों की मदद से। हर कोशिश के बाद हम प्रकाश की गति की माप को परिष्कृत करते जा रहे थे। एक मोटा-मोटा अन्दाज़ सभी को हो चला था कि प्रकाश की गति कितनी हो सकती है। जब धरती पर प्रकाश की गति को नापा जा रहा था तो एक और बात समझ में आई कि नपाई के लिए ज़रूरी उपकरणों को बनाना, उनमें सुधार करना जैसे बहुत-से कारक अब हमारे हाथ में थे। जितनी कम-से-कम गलतियों के साथ मापन करेंगे, उतनी ही सटीकता से गति का मापन भी हो पाएगा।

दाँतेदातर पहिये और घूमने वाले दर्पण से आगे
फीज़ो व फूको की कोशिशों से इतना स्पष्ट हो गया था कि प्रकाश की गति को धरती पर मौजूद परिस्थितयों में भी मापा जा सकता है। यह भी समझ में आ गया था कि प्रकाश की गति मापने का दाँतेदार पहिए के ज़रिए अपनाया गया तरीका या दर्पण घुमाने वाली विधि, इन सब में अभी और सुधार की गुंजाइश है। उपकरण, मापन व गणना में जितनी सटीकता आएगी, प्रकाश की गति का मान भी उतना ही सटीक होता जाएगा। इस सन्दर्भ में फीज़ो व फूको के काम को बाद के वैज्ञानिकों ने आगे बढ़ाया। जैसे दाँतेदार पहिया विधि पर मैरी अल्फ्रेड कोरनु (Marie Alfred Cornu) ने काम शुरू किया। कोरनु ने देखा कि प्रकाश के परावर्तन को नोट करने वाले अवलोकनकर्ता को पहिए की गति को बढ़ाने-घटाने के अलावा अवलोकन भी नोट करना होता था। इस काम में भूल-चूक की सम्भावना बनी रहती थी। इसलिए कोरनु ने इस भूल-चूक को कम किया, अच्छे प्रकाश-स्रोत का इस्तेमाल किया और इस सबके बाद प्रकाश की गति को 2,98,500 कि.मी. प्रति सेकण्ड बताया।
फूको की विधि में सुधार करके प्रकाश की गति पर काम को आगे बढ़ाया अमरीकी वैज्ञानिक अल्बर्ट माइकलसन ने। उन्होंने सन् 1879 में दर्पण घूमने की गति वाली विधि में सुधार करते हुए प्रकाश की गति को हमारी मौजूदा मान्य गति के बेहद करीब पहुँचा दिया। लगभग 2,99,000 कि.मी. प्रति सेकण्ड तक। माइकलसन यहीं पर रुके नहीं - सन् 1923 में उन्होंने 37 कि.मी. (लगभग 22 मील) की दूरी पर स्थित दो पहाड़ियों पर संवेदनशील उपकरण सेट करते हुए प्रकाश की गति के मान को और सटीक किया। (सोचिए गैलीलियो लालटेन की मदद से प्रयोग कर रहे थे और माइकलसन बिजली की रोशनी का उपयोग कर रहे थे, इसलिए वे प्रकाश की किरणों को 37 कि.मी. दूर भेजने की स्थिति में थे।) माइकलसन ने निर्वात नली में भी प्रकाश की गति मालूम की थी। माइकलसन प्रकाश की गति के साथ अब प्रकाश के गुणधर्मों को लेकर भी सोच-विचार कर रहे थे।    
इस समय तक वैज्ञानिक बिरादरी को समझ में आ गया था कि ये बस वक्त की बात है, जैसे-जैसे तकनीकें विकसित होती जाएँगी, गति का मान शुद्धतम होता चला जाएगा। लेकिन यहाँ तक आते-आते प्रकाश की प्रकृति को लेकर एक और अहम मुद्दा उभर आया था। क्या प्रकाश कण है, या प्रकाश तरंग है या प्रकाश दोनों रूपों में अस्तित्व में है।

प्रकाश तरंग और ईथर
उन्नीसवीं सदी में भौतिकविद थॉमस यंग द्वारा प्रकाश के व्यतिकरण (इंटरफेरेंस) गुण के अध्ययन के दौरान डबल स्लिट प्रयोग के बाद यह विश्वास पक्का होता जा रहा था कि प्रकाश तरंग प्रकृति का होता है। यह एक आम अनुभव है कि तरंगों के संचरण के लिए माध्यम की ज़रूरत पड़ती है। उदाहरण के लिए, ध्वनि तरंगों को संचरण करने के लिए किसी ठोस, द्रव या गैसीय माध्यम की ज़रूरत पड़ती है। दूसरी बात, ध्वनि के साथ यह भी देखा गया कि निर्वात में ध्वनि गमन नहीं कर सकती। यदि यह मान लिया जाए कि प्रकाश भी एक किस्म की तरंग है तो उसे किसी माध्यम की ज़रूरत होगी। यदि अन्तरिक्ष में तारों के बीच की जगह में कोई पदार्थ नहीं है तो सूरज, चांद, सितारों की रोशनी धरती तक किस तरह पहुँचती होगी? प्रकाश की गति पता करने वाले एक प्रयोग में तो प्रकाश की गति निर्वात में भी मालूम की गई थी। निर्वात में तो कुछ भी नहीं होता तो फिर ये लहरें कैसे बनीं, लहरें वास्तव में किस पदार्थ की थीं? सैकड़ों साल पहले यूनानी दार्शनिकों ने आकाश तत्व को ईथर कहा था। 19वीं सदी में समझ आया कि अगर ईथर के अस्तित्व को मान लिया जाए तो कुछ व्याख्याएँ आसान हो जाती हैं। मसलन, सूरज और पृथ्वी के बीच के अन्तरिक्ष में पारदर्शी ईथर भरा है जिसकी वजह से सूरज की रोशनी तरंगों के रूप में ईथर से होती हुई धरती तक पहुँचती है।
ब्रह्माण्ड में सब कुछ तो चलायमान है। पृथ्वी अपने अक्ष पर घूम रही है, लेकिन यह अक्ष भी कहाँ स्थिर है - पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ चक्कर लगाती है, फिर सूर्य भी स्थिर नहीं है। वो भी तो आकाशगंगा के केन्द्र की परिक्रमा कर रहा है, आकाशगंगा भी तो स्थिर नहीं है, वो भी गति कर रही है। इस ऊहापोह की स्थिति में यह विचार रखा गया कि ईथर तो ब्रह्माण्ड का मूल तानाबाना है, इसलिए वो स्थिर रहेगा, पूरी तरह विश्राम अवस्था में रहेगा।

माइकलसन सोचने लगे कि यदि ईथर विश्राम अवस्था में है, तो जब प्रकाश किरण को किसी एक दिशा में छोड़ा जाए तो वो स्थिर ईथर में से होकर गुज़रेगी। किरण की दिशा और धरती की गति की दिशा एक ही हुई तो प्रकाश का वेग और धरती की गति का वेग आपस में जुड़ जाएँगे। यदि किरण की दिशा और धरती के घूमने की दिशा विपरीत है तो प्रकाश का वेग थोड़ा कम होना चाहिए। यदि इन दोनों स्थितियों में प्रकाश का वेग मालूम हो जाए तो ईथर के सापेक्ष धरती की निरपेक्ष  (यानी एबसोल्यूट) गति मालूम कर सकते हैं। यदि आपको धरती की एबसोल्यूट गति मालूम हो तो अन्य एबसोल्यूट गतियों को मालूम कर सकते हैं। यहाँ एक छोटी-सी समस्या थी कि प्रकाश की गति की तुलना में धरती की गति नगण्य थी, इसलिए प्रकाश की गति में धरती की गति जोड़ने या घटाने से कोई उल्लेखनीय फर्क नहीं दिखने वाला था, इसलिए इस प्रयोग को बहुत ध्यान एवं सोच-विचार के साथ करने की ज़रूरत थी।

माइकलसन का प्रयोग
खैर, माइकलसन ने सन् 1881 में फूको के प्रयोग में थोड़ा सुधार करते हुए एक इंटरफेरोमीटर का उपयोग किया था। इस प्रयोग में उन्होंने एक सोडियम लौ से प्राप्त पीली रोशनी की किरण को 45 अंश के आपातित कोण से अर्धपरावर्ती/अर्धपारदर्शी दर्पण के माध्यम से गुज़रने दिया। दर्पण किरण को एक-दूसरे से लम्बवत दो किरणों में बाँटता था। इसके बाद दोनों किरणें अलग-अलग दिशा में चलती हुई स्थिर दर्पण से टकराकर वापस आती हैं। वापस आई किरणों के व्यतिकरण (इंटरफेरेंस) के पैटर्न का अवलोकन किया जाता था।
माइकलसन ने सोचा, यदि ईथर स्थिर है और पृथ्वी गतिशील, तो प्रकाश की समकोणिक दिशा में गई दो किरणें कुछ मामूली फर्क गति से अपना सफर तय करेंगी।
चूँकि अवलोकनकर्ता तक पहुँचने वाली दोनों तरंगों के वेग में थोड़ा-सा फर्क होगा, इसलिए दोनों तरंगें एक-दूसरे से एकदम मेल नहीं खाएँगी। गति में अन्तर की वजह से इन दो किरणों के फेज़ (phase) में फर्क होगा। यदि दोनों तरंगों के आरोह या अवरोह का मेल हो, दोनों तरंगें एक-दूसरे को सुदृढ़ करेंगी, जिससे पर्देे पर तेज़ चमक दिखाई देगी और जहाँ एक तरंग का आरोह, दूसरी के अवरोह से मिलेगा, दोनों तरंगें एक-दूसरे को  निष्प्रभावी बना देंगी, वहाँ चमक मन्द पड़ जाएगी। माइकलसन ने पर्दे पर बनने वाली तेज़ और मन्द रोशनी की पट्टियों को फ्रिंज कहा।
माइकलसन को उम्मीद थी कि पृथ्वी की घूर्णन गति की वजह से फ्रिंज की स्थिति में चौबीस घण्टे में, फ्रिंज की मोटाई का 0.04 अन्तर आएगा। पर माइकलसन को यह मान लगभग 0.018 प्राप्त हुआ। माइकलसन इस प्रयोग को दोहराते रहे और अवलोकन नोट करते रहे। अपने अवलोकनों के आधार पर उन्होंने अपना रिसर्च पेपर अमेरिका की एक प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका अमेरिकन जर्नल ऑफ साइंस में प्रकाशित किया। इसे पढ़कर लाव्रेंज नाम के वैज्ञानिक ने माइकलसन के प्रयोग के बारे में लिखा कि माइकलसन ने प्रयोग करते समय गणना सम्बन्धी कुछ गलतियाँ की थीं, जिसके कारण उसे अलग मान प्राप्त हुआ, दरअसल यह मान तो 0.02 के बराबर था। वहीं दूसरी तरफ इस प्रकाशित पर्चे को पढ़कर रैले ने माइकलसन को एक हौसला बढ़ाने वाली चिट्ठी लिखी कि अपने प्रयोग को फिर दोहराएँ और ज़्यादा सटीकता से करें।

माइकलसन लगातार अपने प्रयोग पर काम करते रहे। वे लगातार सोच रहे थे कि यदि ईथर जैसा कोई माध्यम है तो इंटरफेरेंस फ्रिंज में खिसकाव क्यों नहीं मिल रहा है? हर बार एक ही तरह का नतीजा आ रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे प्रकाश किसी भी माध्यम में गति करे, किसी भी दिशा में गति करे, उसकी चाल एक ही थी। चाहे ईथर हो या पृथ्वी की गति, प्रकाश की चाल पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। इस तरह ईथर के अस्तित्व पर एक सवालिया निशान लग रहा था।

माइकलसन-मोर्ले का प्रयोग
माइकलसन ने अपने आँकड़ों को रसायन के प्रोफेसर मोर्ले के साथ साझा किया। सारे दस्तावेज़ों को पढ़कर मोर्ले ने इस प्रयोग को दोहराने की ठानी। सन् 1887 में माइकलसन-मोर्ले के प्रयोग में इस बार इस्तेमाल किया गया उपकरण मर्क्यूरी पर तैर रहा था, जिसे लगातार घुमाया जा रहा था। इस बार व्यतिकरण पैटर्न की पहचान और  मापन ज़्यादा सटीकता से हो सके इसलिए दोनों ने यह प्रयोग छात्रावास के एक बन्द कमरे में किया। आधुनिक और संवेदनशील उपकरणों का इस्तेमाल करते हुए प्रयोग का ऐसा इन्तज़ाम किया जहाँ त्रुटि की सम्भावना बिलकुल न हो। चूँकि इस बार उपकरण ज़्यादा संवेदनशील था इसलिए फ्रिंज में अपेक्षित शिफ्ट फ्रिंज की मोटाई का 0.4 थी, लेकिन इस बार भी फ्रिंज शिफ्ट नहीं पाई गई। जो परिणाम दिखाई दे रहे थे, उनके अनुसार प्रकाश किसी भी दिशा में सफर करे, सफर की दिशा का प्रकाश की गति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। या दूसरे शब्दों में कहें कि प्रकाश सभी दिशाओं में एक-जैसी गति से चलता है।
इस तरह उन्होंने ईथर के अस्तित्व पर न केवल सवाल खड़ा किया, बल्कि विज्ञान को एक नई दिशा की ओर इंगित किया कि शायद प्रकाश के गमन के लिए ईथर जैसे किसी माध्यम की ज़रूरत ही नहीं है। प्राप्त आँकड़ों के अध्ययन को माइकलसन ने मोर्ले के सहलेखन के साथ उसी पत्रिका में 1887 में फिर प्रकाशित किया। इस पेपर का शीर्षक था – द रिलेटिव मोशन ऑफ द अर्थ एंड द ल्यूमिनफेरस ईथर। लेकिन इस प्रयोग के परिणामों को असली प्रकाश तभी मिल पाया जब 1905 में आइंस्टीन का सापेक्षता का सिद्धान्त प्रकाशित हुआ।

प्रकाश व विद्युत चुम्बकीय तरंगें
आज भले ही हमें स्कूली किताबों में बताया जाता है कि प्रकाश एक विद्युत-चुम्बकीय तरंग है लेकिन 19वीं सदी में विद्युत, चुम्बकत्व, प्रकाश -- सब अलग-अलग ही माने जाते थे। पहले-पहल चुम्बक व विद्युत के बीच सहसम्बन्ध खोजा गया। इसी तरह प्रकाश के विद्युत-चुम्बकीय गुणों का अध्ययन भी चल रहा था और इस सवाल की खोजबीन हो रही थी कि क्या प्रकाश एक विद्युत-चुम्बकीय तरंग है। 1865 में जेम्स क्लार्क मेक्सवेल ने एक रिसर्च पेपर प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था – डायनेमिक थियरी ऑफ इलेक्ट्रो-मेग्नेटिक फील्ड। इस पर्चे का एक अध्याय था – द इलेक्ट्रो-मेग्नेटिक थियरी ऑफ लाइट। इस शोधपत्र ने दुनिया में प्रकाश के स्वभाव पर काम कर रहे लोगों का ध्यान खींचा और पर्चे के प्रकाशन के बाद, प्रकाश के विद्युत-चुम्बकीय गुणधर्म के बारे में बहुत सारे अध्ययन किए जाने लगे, और यह साबित हुआ कि दरअसल प्रकाश एक विद्युत-चुम्बकीय तरंग है। मेक्सवेल के अध्ययन से निकलकर आया कि विद्युत-चुम्बकीय तरंग की गति लगभग 3 लाख कि.मी. प्रति सेकण्ड थी। विद्युत-चुम्बकीय तरंगों पर आगे और काम करते हुए 1907 में रोज़ा और डोरसी नाम के दो अमेरिकन भौतिकविदों ने अन्तरिक्ष में विद्युत-चुम्बकीय गुणों का अध्ययन किया। विद्युतीय और चुम्बकीय क्षेत्र के परिमाण में तुलना करने के बाद उन्होंने बताया कि प्रकाश की गति 2,99,788 कि.मी. प्रति सेकण्ड है, जो अभी की मान्य गति से केवल लगभग 0.000015% कम थी।
विद्युत-चुम्बकीय तरंगों की बिरादरी में दृश्य प्रकाश के साथ-साथ रेडियो तरंगें, माइक्रोवेव, इंफ्रारेड, अल्ट्रावॉयलेट तरंगें, एक्सरे आदि का भी अध्ययन किया गया। इनमें से कई विद्युत-चुम्बकीय तरंगों का उपयोग विज्ञान-तकनीकी के अलावा दैनिक जीवन में भी होने लगा था।

शुद्धतम वेग के एकदम करीब
बीसवीं शताब्दी में अनेक संवेदनशील और पहले के मुकाबले काफी दक्ष उपकरणों का इस्तेमाल हो रहा था। प्रकाश की गति के मान में परिमार्जन हो रहा था और अमेरिका का राष्ट्रीय मानक ब्यूरो प्रकाश की गति सम्बन्धी हर अध्ययन पर लगातार नज़र रखे हुआ था। 1950 तक प्रकाश के कई दृश्य और अदृश्य हिस्सों जैसे रेडियो, माइक्रोवेव, अवरक्त, एक्सरे, पराबैंगनी क्षेत्र आदि के अध्ययन किए जा रहे थे।
इसी दौरान 1958 में ब्रिटिश वैज्ञानिक के.डी. फ्रूम ने 72 गीगा हर्ट्ज़ के एक माइक्रोवेव स्रोत की आवृत्ति और तरंग दैर्घ्य की गणना करके प्रकाश की गति मालूम करने की कोशिश की, जो लगभग 2,99,792.5 कि.मी. प्रति सेकण्ड थी जिसमें बहुत ही कम ± 0.1 मीटर प्रति सेकण्ड की त्रुटि थी।
इस प्रयास की अगली कड़ी में, 1960 में लेज़र (LASER) की मदद से प्रकाश की गति के शुद्धतम मान तक पहुँचने की कोशिश हुई। लेज़र सम्बन्धी काम करने वाले लोगों का समूह बोल्डर समूह के नाम से प्रसिद्ध था, क्योंकि ये लोग बोल्डर नगर में स्थित संयुक्त राज्य के एनबीएस (राष्ट्रीय मानक ब्यूरो) में काम करते थे। इस समूह के प्रमुख का नाम था एवानसन। अपने 6 शोधकर्ताओं के साथ एवानसन लेज़र और प्रकाश के दृश्य भाग की आवृत्तियों का अध्ययन कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने हीलियम नियोन लेज़र का इस्तेमाल करते हुए 633 नैनो मीटर वाले प्रकाश का उपयोग करके प्रकाश की गति मालूम की जो 299,792,458 मीटर प्रति सेकण्ड थी, जिसे हम न्यूनतम त्रुटि वाला मान कह सकते हैं। फिलहाल, प्रकाश की गति के इसी मान को स्वीकार किया गया है। इस प्रयोग को दुनिया की कई नामी प्रयोगशालाओं में दोहराकर देखा गया। इनके द्वारा प्रकाशित शोधपत्रों को अनेक समीक्षकों ने पढ़कर अपनी टिप्पणियाँ भी दीं। तब जाकर वैश्विक स्तर पर ये माना गया कि अब तक प्रकाश की गति का शुद्धतम मान 299,792.458 कि.मी. प्रति सेकण्ड है।
अन्तर्राष्ट्रीय मापन मानक ब्यूरो द्वारा मीटर को परिभाषित करते हुए कहा गया कि मीटर मतलब वह दूरी है जो प्रकाश द्वारा 1 / 299,792,458 सेकण्ड में तय की जाती है। इससे यही झलकता है कि प्रकाश की गति को एक महत्वपूर्ण मानक स्थान दिया गया है।
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इस तरह सत्रहवीं सदी में प्रकाश की गति को नापने की जो कोशिशें शुरू हुईं, वे धीरे-धीरे प्रकाश की गति के शुद्धतम मान को मालूम करने के जुनून में तब्दील हो गईं। प्रकाश की गति के साथ प्रकाश की प्रकृति को जानना भी एक महत्वपूर्ण मुद्दे के रूप में उभरा। प्रकाश की प्रकृति को जानने के प्रयोगों की वजह से ईथर का तिलिस्म भी टूटा व गतिशील पिण्डों की गतियों को लेकर समझ भी बेहतर होती गई। ब्रह्माण्ड को देखने और समझने का एक नया नज़रिया मिला।
खैर, यहाँ तक आते-आते आपने यह तो जान लिया कि हमारे आसपास सबसे तेज़ गति प्रकाश की है। क्या आपके मन में यह सवाल नहीं जागा कि प्रकाश के बाद दूसरी पायदान पर कौन खड़ा है? यदि इसका जवाब जानते हैं तो संदर्भ पत्रिका को अपना जवाब लिख भेजिए।


अंजु दास मानिकपुरी: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, रायपुर (छत्तीसगढ़) में विज्ञान शिक्षण सम्बन्धी काम कर रही हैं। इससे पहले वे इन्दौर में रसायन विज्ञान की सहायक प्रोफेसर थीं।
इस लेख के लिए आइज़ेक एसिमोव की पुस्तक हाऊ डिड वी फाइंड आउट अबाउट द स्पीड ऑफ लाइट का सन्दर्भ के रूप में एवं कुछ चित्रों के लिए इस्तेमाल किया गया।
लेख के सम्पादन एवं उसकी बारीकियों को सटीक रूप में प्रस्तुत करने में भास बापट का महत्वपूर्ण योगदान मिला।