चेतना खांबेटे

इस लेख के शीर्षक को पढ़कर यह ख्याल आना लाज़मी है कि भला उधार की ज़िन्दगी भी कोई जी सकता है! जी हाँ, यह सच ही है, विषाणु या वायरस दरअसल, उधार पर ही ज़िन्दगी जी रहे हैं लेकिन इस एक वाक्य से विषाणुओं को पूरी तरह से नज़रन्दाज़ नहीं कर सकते, न ही उन्हें हल्के में लिया जा सकता है।
वायरस शब्द सुनते ही हम लोगों के दिमाग में कम्प्यूटर से सम्बन्धित वायरस आने लगते हैं। लेकिन हम यहाँ इनसे अलग जैविक वायरस या विषाणुओं की बात करेंगे (कम्प्यूटर वायरस पर लेख - संदर्भ अंक-83 में पढ़ा जा सकता है)।

पिछले कुछ समय से पूरी दुनिया के लोगों के दिलो-दिमाग और ज़िन्दगी पर जो विषय छाया हुआ है, वह है कोरोना वायरस। इसकी वजह से तेज़ रफ्तार भागती ज़िन्दगी थम-सी गई है। अखबारों से लेकर सोशल मीडिया तक, सभी जगह इसी बारे में चर्चा है। अब तो हर एक व्यक्ति खुद को कोरोना वायरस का एक अनोखा जानकार समझने लगा है। तभी तो मैं इस लेख के माध्यम से केवल विषाणु यानी वायरस के बारे में चर्चा करूँगी, जिन्होंने मुझे व्यक्तिगत रूप से हमेशा ही काफी अचम्भित किया है। इस लेख के माध्यम से हम विषाणुओं के अद्भुत संसार के बारे में भी जानने का प्रयत्न करेंगे।

विषाणु क्या है?
पिछले 100 वर्षों में वैज्ञानिकों ने विषाणु के बारे में विभिन्न प्रकार के मत दिए हैं। पहले तो इन्हें बीमारी पैदा करने वाले ज़हर के रूप में देखा गया (वायरस शब्द मूलतः लैटिन भाषा से लिया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ तरल विष या लिक्विड पॉइज़न होता है)। फिर इन्हें अणुओं का समूह मात्र माना गया और अन्य कुछ मतों के अनुसार, विषाणु को सजीव एवं निर्जीव के बीच की जगह में रखा गया।
वास्तव में विषाणु अन्य सभी प्रकार की कोशिकाओं से अलग और अत्यन्त सूक्ष्म संरचना हैं। विषाणु के आकार के बारे में यही कहा जा सकता है कि अब तक ज्ञात सबसे बड़े विषाणु को भी साधारण सूक्ष्मदर्शी से देख पाना असम्भव है। सबसे छोटे विषाणु की बात करें तो ऐसे लगभग 10,000 विषाणु सुई की नोक पर समा सकते हैं।

सामान्य कोशिकाओं में पाई जाने वाली मूलभूत बनावट और चयापचय के लिए ज़रूरी मशीनरी (कोशिकांगों) के अभाव में ये विषाणु महज़ बीमारी फैलाने वाले निर्जीव अणु ही तो हैं और आज के कोरोना महामारी के परिप्रेक्ष्य में यही उदाहरण सबसे सटीक भी लगता है, है न! परन्तु सम्पूर्ण सच्चाई शायद इससे कुछ ज़्यादा है। इनकी बनावट के बारे में विस्तृत चर्चा हम आगे करेंगे।

विषाणु सजीव है या निर्जीव?
अगर आप से सवाल किया जाए कि हम सजीव किसे कहेंगे और सजीवों को निर्जीवों से अलग कैसे करेंगे, तो आम तौर पर सजीवों को परिभाषित करते समय जिन पहलुओं का ज़िक्र सबसे पहले करते हैं, उनमें मूलभूत जैविक-प्रक्रियाओं जैसे श्वसन, पोषण, उत्सर्जन, परिसंचरण, समन्वयन, प्रजनन आदि की मौजूदगी है। इन प्रक्रियाओं के अलावा कोशिकीय संगठन, चयापचय तथा समस्थापन या होमियोस्टैसिस, सजीव होने के लिए ज़रूरी शर्तों की श्रेणी में आते हैं। इन्हीं गुणों के आधार पर सूक्ष्म-जीवाणुओं से लेकर विशाल वटवृक्ष तक हम सभी सजीवों का सम्मान पाते हैं। लेकिन विषाणु तो इन ज़रूरी शर्तों को पूरा ही नहीं करते। दरअसल, विषाणु बहुगुणन/प्रजनन और चयापचय जैसी जैविक प्रक्रियाओं को भी स्वतंत्र रूप से नहीं कर सकते। इन्हें अपनी सभी प्रक्रियाओं के लिए एक मेज़बान कोशिका की सख्त ज़रूरत होती है। हम यह भी कह सकते हैं कि विषाणु ऐसे मेहमान हैं, जो मेज़बान कोशिका के अन्दर जाकर ही सजीव कहलाते हैं, अन्यथा मेज़बान कोशिका के बिना ये बिचारे विषाणु प्रोटीन और नाभिकीय अम्लों (डीएनए/ आरएनए) के अणुओं का ढाँचा मात्र हैं।

हम यह भी कह सकते हैं कि विषाणु अणुओं का एक ऐसा समूह है जो ज़िन्दगी को स्थापित करने की कगार पर हैं। इस तरह से ये रसायन विज्ञान और जीवन के बीच एक पुख्ता सह-सम्बन्ध बताते हैं। विषाणुओं के प्रजनन के खास अंकगणित (एक से एकदम सैकड़ों, आम तौर पर बैक्टिरिया में पाए जाने वाले एक-से-दो, दो-से-चार, जैसे द्विगुणन से नहीं) को समझना शायद उपयुक्त हो, खासकर इस मामले में कि वे कैसे तेज़ी-से बदलते हैं और ऐसे बदलाव के ज़रिए खुद को बनाए भी रखते हैं और एक मेज़बान प्रजाति से दूसरी प्रजाति में स्थानान्तरण भी करते हैं। लेकिन हमारा सवाल तो वहीं रह गया कि आखिर विषाणु सजीव है या निर्जीव। यहाँ मैं दो विषाणु शास्त्रियों मार्क एच.वी. वेन रीजनमॉर्टल तथा ब्रायन डब्ल्यू.जे. माही द्वारा हाल ही में दिए गए एक कथन का ज़िक्र करना चाहूँगी। उनके अनुसार “मेज़बान कोशिका पर निर्भरता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि विषाणु दरअसल, एक प्रकार की उधार की ज़िन्दगी जी रहे हैं।” इस कथन को हमारे सवाल का उपयुक्त जवाब माना जा सकता है, है न! वैसे अब भी इस बारे में वैज्ञानिकों के बीच स्पष्ट मत नहीं बन पाया है।

विषाणु के इतिहास में ताक-झाँक
विषाणुओं की बनावट को देखने-समझने से काफी पहले ही वैज्ञानिकों ने इन्हें खोज लिया था। विषाणुओं की खोज की यह कहानी 19वीं सदी के अन्त में शुरू हुई थी। सन् 1883 में एक जर्मन वैज्ञानिक अडोल्फ मैअर तम्बाकू के पौधों में होने वाले मोज़ैक बीमारी पर खोज कर रहे थे। उन्होंने देखा कि इस रोग से प्रभावित पौधे की पत्तियों को अन्य सामान्य पौधों पर घिसने से भी यह रोग फैलता है। बाद में उन्होंने पत्तियों के रस से भी यही निष्कर्ष निकाला और कहा कि इस रोग के जीवाणु असामान्य रूप से सूक्ष्म हैं जो कि हमें सूक्ष्मदर्शी में भी दिखाई नहीं देते। इसके लगभग एक दशक बाद रूसी वैज्ञानिक डिमित्री इवानोवस्की ने भी मेयर के कथन को प्रमाणित किया, उन्होंने जीवाणुओं को पृथक करने के लिए बनाई गई विशेष छलनी/फिल्टर से इस रस को निकाला और इस छने हुए रस से भी तम्बाकू मोज़ैक रोग फैल रहा था। इवानोवस्की का यह स्पष्ट मत था कि तम्बाकू का मोज़ैक रोग अत्यन्त सूक्ष्म ज़हरीले जीवाणुओं की ही देन है। इस खोज को एक नई दिशा देने वालों में डच पादप वैज्ञानिक मर्टिनस बेइज़रिन्क का योगदान महत्वपूर्ण है। इन्होंने तम्बाकू मोज़ैक रोग पर सुव्यवस्थित प्रयोगों से यह निष्कर्ष निकाले:
• ये जीवाणुओं से भी सूक्ष्म ज़हरीले अणु हैं। (दरअसल, बेइज़रिन्क ने ही सर्वप्रथम वायरस शब्द का प्रयोग किया था)
• ये रोगाणु केवल जीवित मेज़बान कोशिका के अन्दर ही द्विगुणन/प्रजनन कर सकते हैं।
• इन रहस्यमयी रोगाणुओं को अन्य सूक्ष्म-जीवों की भाँति प्रयोगशाला में सम्वर्धन माध्यम में विकसित नहीं किया जा सकता।
आज चाहे हमें इन सुझावों में कुछ भी विशेष न लगे, लेकिन उस समय ये विचार विषाणु-विज्ञान के विकास की दिशा में मील का पत्थर माने गए। बेइज़रिन्क के इन विचारों को 1935 में अमेरिका के वैज्ञानिक वेंडेल स्टैंले ने तम्बाकू मोज़ैक विषाणु के कृत्रिम रवे/क्रिस्टल बनाकर और भी पुख्ता किया।

विषाणु की बनावट पर एक नज़र
विषाणु को क्रिस्टल के रूप में प्राप्त कर लेने पर जैव-वैज्ञानिकों के बीच खलबली मच गई थी क्योंकि तब तक तो किसी भी सरलतम जीवित कोशिका या जटिल सजीवों को क्रिस्टल के रूप में परिष्कृत नहीं किया जा सका था। तब यह कहा गया कि विषाणु कोशिकीय संरचना नहीं है, तो विषाणु आखिर हैं क्या?
विषाणु दरअसल, बीमारी फैला सकने वाले/रोगकारक अणु हैं जिसमें प्रोटीन से ढके हुए नाभिकीय अम्ल यानी डीएनए या आरएनए मौजूद रहते हैं। कुछ विषाणुओं में इस प्रोटीन के बाहर एक अतिरिक्त आवरण भी होता है। किसी भी जीव के शरीर पर मौजूद जींस को मिलाकर जीनोम कहा जाता है। अनुवांशिक पदार्थ/जींस का ज़िक्र आते ही सबसे पहले हमारे दिमाग में दोहरी कुण्डली वाले डीएनए का ही ख्याल आता है, लेकिन विषाणु तो हैं ही कुछ हटके, इनकी अनुवांशिक इकाइयाँ डीएनए तथा आरएनए, दोनों के रूप में हो सकती हैं। ये डीएनए तथा आरएनए, दोनों ही एकल कुण्डली वाले या दोहरी कुण्डली वाले हो सकते हैं। इस आधार पर विभिन्न विषाणुओं में चार प्रकार के अनुवांशिक पदार्थों में से कोई एक प्रकार पाया जाता है। इन्हीं के आधार पर विषाणु विशिष्ट समूह बनाते हैं।

इस जीनोम के बाहर के प्रोटीन से बने हुए भाग को कैप्सिड कहा जाता है। यह कैप्सिड विभिन्न आकृतियों के हो सकते हैं, जैसे छड़ाकार, षटकोणी, गोल आदि। कभी-कभी इस कैप्सिड के बाहर एक अन्य आवरण भी पाया जाता है जो कि दरअसल मेज़बान कोशिका की कोशिका-झिल्ली से वसा और कार्बोहाइड्रेट्स के अणुओं को चुराकर बनाया जाता है। यह कैप्सिड और बाह्य-आवरण ही विषाणु को विशिष्ट पहचान देते हैं। हम यूँ कहें कि हर एक विषाणु का अपना एक पहचान पत्र होता है जो उसे बाकी विषाणु के समूह से अलग बनाता है। इन अणुओं (प्रोटीन, न्यूक्लिक-एसिड, वसा, कार्बोहाइड्रेट) के अलावा किसी भी प्रकार की कोशिकीय संरचना (जैसे माइटोकॉण्ड्रिया, केन्द्रक, राइबोसोम, कोशिका भित्ति) आदि का पूर्ण अभाव होता है। अब जब इनके पास अपने स्वयं के लिए प्रोटीन या न्यूक्लिक एसिड को बनाने वाली मशीन ही नहीं है तब इन्हें मेज़बान कोशिका पर ही पूरी तरह निर्भर रहना पड़ता है। यहाँ हम विषाणु को पूर्ण परजीवी भी मान सकते हैं। विभिन्न विषाणुओं ने मेज़बान को चुनने में कोई कोताही नहीं बरती है। जन्तु, पादप, फफूँद की कोशिकाएँ, एक-कोशिकीय जीव और यहाँ तक कि जीवाणुओं को भी मेज़बान के रूप में चुना गया है। कुछ विषाणु केवल एक ही प्रजाति को मेज़बान बनाते हैं, जैसे मीज़ल्स/खसरा के विषाणु केवल मनुष्य को ही संक्रमित करते हैं। वहीं कुछ विषाणुओं के मेज़बानों की फेहरिस्त लम्बी होती है, जैसे मनुष्य में तंत्रिका-तंत्र की एक घातक बीमारी फैलाने वाले वेस्ट नील-वायरस/विषाणु मच्छर, पक्षियों और घोड़ों को भी अपना मेज़बान बनाते हैं, अतः इनके पास मेहमाननवाज़ी करवाने के लिए मेज़बानों की लम्बी सूची है।

विषाणुओं का उद्विकास तथा जैविक वर्गीकरण में स्थान
भले ही विषाणुओं को जैविक रूप से निष्क्रिय मान लिया जाए, फिर भी हम इस बात को नकार नहीं सकते कि सभी सजीवों के समान इनमें भी जीवन की मूलभूत भाषा डीएनए और आरएनए के रूप में मौजूद है। तो क्या हम विषाणु को प्रकृति का सबसे अनोखा और जटिल संयोजन कहें? या फिर जीवन का सबसे सरलतम रूप? दोनों ही विकल्पों के बारे में कुछ तय करने से पहले हमें अपनी परम्परागत परिभाषाओं को बदलना ही पड़ेगा। विषाणु के सजीवों के साथ सम्बन्ध को यूँ ही तो नकारा नहीं जा सकता न। अणुओं के द्विगुणन (इसे हम विषाणुओं का प्रजनन कह सकते हैं) हेतु मेज़बान कोशिका की ज़रूरत के चलते जैव-विकास में इन्हें कोशिकीय जीवों का पूर्वज तो नहीं माना जा सकता। दरअसल, विषाणुओं की उत्पत्ति सजीवों के समान्तर हुई और उद्विकास कई बार हुआ है। लेकिन जीव-विज्ञान के बहु-प्रचलित तीन डोमेन और पाँच जगत वर्गीकरण में इन्हें अभी भी कोई जगह नहीं मिल पाई है। हालाँकि, कुछ वर्तमान विषाणु वैज्ञानिक मानते हैं कि विषाणु को एक अलग डोमेन के रूप में स्थापित किया जाना चाहिए जो कि किसी हद तक सही भी है। हम इन्तज़ार करेंगे यह जानने के लिए कि लगभग 5,000 से भी अधिक प्रजातियों वाले विषाणुओं को जैव-वर्गीकरण में अपनी जगह कब मिलती है।

विषाणु और हमारा शरीर
 वैश्विक स्तर पर पेड़-पौधे, पशुओं और मनुष्य में होने वाले कई रोगों का कारण विषाणु ही हैं लेकिन हम अपनी बात को मनुष्यों एवं अन्य जानवरों तक ही सीमित रखेंगे। सबसे पहले हम समझने का प्रयास करते हैं कि इनकी वजह से हमारे शरीर में ऐसे कौन-से बदलाव होते हैं जिन्हें हम उन रोगों के लक्षण मानते हैं। दरअसल, ये लक्षण/बदलाव विषाणु द्वारा मेज़बान कोशिका को सीधा मार गिराने से या कोशिका द्वारा अपने बचाव में बनाए गए विषैले रसायनों के प्रभाव की वजह से दिखाई देते हैं। हालाँकि, अधिकांश अस्थाई लक्षण जैसे बुखार, बदन-दर्द आदि हमारे शरीर के द्वारा खुद को बचाने के लिए की जाने वाली तरकीब हैं, न कि विषाणु द्वारा मारी गई कोशिकाओं का परिणाम।

 कोई विषाणु कितना नुकसान पहुँचा सकता है, यह कुछ हद तक उस मेज़बान कोशिका एवं ऊतकों की पुनर्जनन की क्षमता पर भी निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, हम लोग साधारण सर्दी-ज़ुकाम से काफी जल्दी छुटकारा पा लेते हैं क्योंकि हमारे श्वसन मार्ग की उपकला-कोशिकाएँ (Epithelial Cells) विषाणु के आक्रमण से जल्दी ही मुक्ति पा लेती हैं। वहीं पोलियो के विषाणु, परिपक्व तंत्रिका-कोशिकाओं पर हमला करते हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि परिपक्व तंत्रिका-कोशिकाएँ विभाजित नहीं हो सकतीं और इसीलिए पोलियो का असर स्थाई हो जाता है।
हमारे शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र अपना काम मुस्तैदी से करता है। प्रतिरक्षा तंत्र की कुछ कोशिकाओं (बी-लिंफोसाइट) की पैनी याददाश्त के बलबूते पर ही तो टीके या वैक्सीन को बनाया जा सकता है। इन्हीं के दम पर हम कई जानलेवा बीमारियों से खुद को सुरक्षित कर पाते हैं। दरअसल, टीके के रूप में रोग उत्पन्न करने वाले रोगाणुओं को ही निष्क्रिय रूप में या बहुत कम तादाद में शरीर के अन्दर भेजा जाता है, जिससे प्रतिरक्षा तंत्र इन्हें पहचानकर खत्म करता है और साथ ही इनसे लड़ने की सुरक्षा प्रोटीन या एंटीबॉडी की डिज़ाइन को भविष्य के लिए भी संरक्षित कर लेता है। विषाणु द्वारा होने वाली कई गम्भीर बीमारियों जैसे चेचक, खसरा, पोलियो, हैपेटाइटिस आदि के लिए टीके मौजूद हैं। हालाँकि, आधुनिक विज्ञान की उन्नत तकनीकों के बावजूद भी सभी विषाणु-जनित बीमारियों के टीके बनाना मुमकिन नहीं हो पाया है।

इसके पीछे मुख्य तर्क यही दिया जाता है कि विषाणु अपनी बनावट में लगातार परिवर्तन करते रहते हैं जिससे उनके लिए बनाए गए टीके पूरी तरह से कारगर नहीं हो पाते। वैसे भी टीकाकरण तो बचाव के तौर पर किया जाता है। विषाणु-जनित रोग से संक्रमित हो जाने पर हम ज़्यादा कुछ कर नहीं सकते क्योंकि इनके लिए कोई भी सटीक इलाज मौजूद नहीं है। विषाणु के संक्रमण में एंटीबायोटिक/प्रतिजैविक दवाइयाँ कोई फायदा नहीं पहुँचातीं क्योंकि ये जीवाणुओं पर ही असरकारक हैं, विषाणुओं पर नहीं। यहाँ इसको ऐसे भी समझ सकते हैं कि क्योंकि विषाणुओं में ज़्यादा स्वतंत्र और विशिष्ट जैवरासायनिक प्रक्रियाएँ नहीं हैं, एंटीवायरल को ईजाद करना उतना आसान नहीं है जितना, मसलन,  एंटीबायोटिक्स को। लेकिन कुछ ऐसी दवाइयाँ हैं जो सीधे विषाणु की अनुवांशिक कार्यप्रणाली को बाधित कर देती हैं या फिर उनके आक्रमण से होने वाले संक्रमण के दुष्परिणामों से शरीर को बचाती हैं। अतः विषाणु-जनित रोग हो जाने पर अक्सर विभिन्न प्रकार से काम करने वाली दवाइयों का मिश्रण या कॉकटेल दिया जाता है।

कुछ उभरते विषाणु
आप भी ये मानते होंगे कि उभरते कलाकार हमारी कला को और भी समृद्ध करते हैं परन्तु यह उभरते विषाणु क्या बला हैं? अचानक ही प्रकट होकर अपना प्रभाव दिखाने वाले विषाणु इसी श्रेणी मे आते हैं। लगभग 100 वर्ष पहले प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान, सबसे बड़ी वैश्विक महामारी स्पैनिश फ्लू विषाणु-जनित बीमारी ही थी, जिसने 5 करोड़ से ज़्यादा लोगों को अपनी चपेट में लिया था। इसके अलावा पिछले 40 सालों में एच.आई.वी.-एड्स, इबोला आदि विषाणु-जनित बीमारियाँ भी विश्व में फैली हैं और इनके दुष्प्रभावों के बारे में हमने भी काफी सुना है।  इसी कड़ी में 2009-10 में वैश्विक महामारी के रूप में सामने आई विषाणु-जनित बीमारी स्वाइन फ्लू जिसने एक-डेढ़ साल में 207 देशों के लाखों लोगों को अपनी चपेट में लिया और हज़ारों लोग मौत के शिकार हुए। अगर हम बीती बातों को छोड़ भी दें तो भी हाल ही में कोरोना विषाणु से फैली बीमारी कोविड-19 भी अचानक प्रकट हुई है जिसने दुनिया भर में डर और मौत का कहर मचाया हुआ है। प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य जाति पर अपना इतना असर डालने वाले ये विषाणु अचानक कैसे सामने आए जो कि पहले गुमनाम थे। हम यहाँ विषाणु-जनित रोगों के अचानक प्रादुर्भाव के कारणों को जानने की कोशिश करेंगे।

सबसे पहला और महत्वपूर्ण कारण विषाणु में उत्परिवर्तन (अनुवांशिक संरचना में अचानक होने वाले बदलाव) के फलस्वरूप अपनी सम्पूर्ण बनावट को बदल लेना है। यह तथ्य आरएनए विषाणु के सन्दर्भ में सटीक कहा जा सकता है। इस बदलाव के कारण हमारा प्रतिरक्षा तंत्र नया रूप धारण किए हुए इन विषाणु से लड़ नहीं पाता और चपेट में आ जाता है। उदाहरण के लिए,  H1N1/स्वाइन फ्लू को साधारण इंफ्लुएंज़ा विषाणु का उत्परिवर्तित रूप माना जाता है। इंफ्लुएंज़ा विषाणु में बदलाव के लिए केवल उत्परिवर्तन ही एकमात्र कारण नहीं है। कई बार इंफ्लुएंज़ा के एक से अधिक विषाणुओं द्वारा एक ही कोशिका को संक्रमित करने पर इन विषाणुओं के अनुवांशिक पदार्थों में अदला-बदली हो सकती है और ये विषाणु फिर से एक नए स्वरूप में प्रकट हो जाते हैं।
इसके अलावा एक अलग-थलग छोटी जगह से लोगों के बड़े पैमाने पर आने-जाने की वजह से भी कुछ विषाणुओं का प्रसार वैश्विक स्तर पर हुआ है। जैसे एड्स की बात ले लें, माना जाता है कि यह बीमारी अफ्रीका के एक छोटे-से हिस्से में सीमित थी लेकिन पिछले कुछ ही दशकों में एच.आई.वी. विषाणु पूरी दुनिया में फैल गया है। हालाँकि, इस प्रसार में कई सामाजिक और तकनीकी बदलावों का भी काफी महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

इन विषाणुओं के फैलने का तीसरा रास्ता जानवरों के सम्पर्क से फैलने वाला संक्रमण है। माना जाता है कि तीन-चौथाई विषाणु-जनित नई बीमारियाँ  जानवरों से ही हम तक आई हैं। ये जानवर ही विषाणुओं को पालने-पोसने वाले प्राकृतिक स्रोत बन जाते हैं। यह बात साफ करनी चाहिए कि जिस तरह वायरस दूसरे जानवरों से इन्सानों में फैल सकते हैं, उसी तरह वे इन्सानों से दूसरे जानवरों में भी फैल सकते हैं। यहाँ हम फिर एक बार स्वाइन फ्लू का ज़िक्र करेंगे। यह H1N1 विषाणु सूअरों से मनुष्यों में आए थे (स्वाइन=सूअर)। ऐसे ही आपको बर्ड फ्लू भी याद होगा जो कि संक्रमित पक्षियों से आने वाले H5N1 विषाणु के कारण होता है। कोरोना वायरस के प्रसार की कड़ी की शुरुआत भी चीन में प्राणियों (मुख्यतः शायद चमगादड़ों) से हुई मानी जाती है।
हमें एक बात स्पष्ट रूप से पता होनी चाहिए कि ये विषाणु स्वयंभू नहीं हैं। बल्कि पुराने या मौजूदा विषाणु ही एक नए रंग-रूप के साथ पलटकर सामने आए हैं। जीवों के व्यवहार तथा पर्यावरण में बदलाव के फलस्वरूप इन विषाणुओं का प्रसार तेज़ी-से होता है और ये महामारी का रूप ले लेते हैं।

प्रयोगशाला में निर्मित विषाणु
कई सारे विषाणुओं को आज प्रयोगशालाओं में उन्नत तकनीकों की मदद से तैयार किया जा सकता है। हालाँकि, यह बात स्पष्ट है कि ये तैयार किए गए नए विषाणु पूरी तरह से रसायनों/अणुओं की मदद से नहीं बनते बल्कि पहले से ही मौजूद किसी विषाणु की संरचना में फेरबदल करके बनाए जाते हैं। ये दरअसल, जीनोम पर आधारित कुछ खोजपरक प्रयोगों का भाग भी हो सकते हैं। किन्तु आज के परिप्रेक्ष्य में इस तरह के संश्लेषित विषाणुओं को चिन्ता का विषय भी माना जा रहा है क्योंकि कुछ विकसित देश या मानवता के दुश्मन संश्लेषित विषाणुओं का उपयोग जैविक हथियारों के रूप में कर सकते हैं। इस आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता क्योंकि किसी भी स्तर के युद्ध में अगर इन जैविक हथियारों का उपयोग किया गया तो परिणाम स्वरूप बड़े स्तर पर महामारी फैलने से उस देश में न केवल स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ेगा वरन साथ ही, उस देश की आर्थिक स्थिति भी कमज़ोर हो जाएगी। इस बात को हाल ही में फैली हुई बीमारी कोविड-19 के उदाहरण से भली-भाँति समझा जा सकता है।

दूसरी ओर यह भी गौर करने लायक और महत्वपूर्ण है कि हाल ही में फैले सार्स-कोव-2 वायरस में ‘अप्राकृतिक' या डिज़ाइन किया गया वायरस होने के कोई संकेत नहीं दिखाई दिए हैं।

विषाणुओं का विज्ञान में महत्व
विषाणुओं द्वारा फैलाई गई छोटी-छोटी तकलीफों से लेकर बड़ी-बड़ी महामारियाँ हमारे सामने इनका नकारात्मक पक्ष ही प्रस्तुत करती हैं, लेकिन इन विषाणुओं को विज्ञान के इतिहास ही नहीं वरन भविष्य के लिए भी फायदेमन्द माना जा रहा है और इन पर लगातार नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। अनुवांशिक विज्ञान का इतिहास तो जीवाणु एवं विषाणु पर आधारित प्रयोगों से मज़बूत हुआ था (जैसे डीएनए को सर्वव्यापी अनुवांशिक पदार्थ का रुतबा दिलाने वाले हरशे एंड चैस के प्रयोग)। इन विषाणुओं का उपयोग जैव-अभियांत्रिकी के क्षेत्र में प्रचुरता से होता है (जैसे वांछनीय जींस को अन्य जीव में पहुँचाने वाले वेक्टर के रूप में कुछ पादप/जीवाणुओं के विषाणु)।

जैसा कि हमने पहले पढ़ा है, किसी भी सजीव के शरीर में मौजूद कुल जींस को उसका जीनोम कहा जाता है। कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि लाखों वर्ष पूर्व मौजूद प्राचीन विषाणुओं के जींस ने हमारे पूर्वजों के जीनोम में अपनी एक जगह बना ली और पीढ़ी-दर-पीढ़ी ये जींस अपनी रोग कारक क्षमता को त्यागते हुए हमारे ही जींस का हिस्सा बन चुके हैं। ये विषाणु जींस अब हमें कई अन्य खतरनाक विषाणुओं से रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रदान करने में भी अहम भूमिका निभाते हैं। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि गर्भावस्था के दौरान बनने वाले प्लेसेंटा को बनाने के लिए भी जिन प्रोटींस की ज़रूरत होती है, उनके लिए भी यही विषाणु जींस जिम्मेदार हैं।

विषाणु से मनुष्य जाति को होने वाले सम्भावित फायदों की बात हो और बैक्टीरियोफेज का ज़िक्र न हो, यह ठीक नहीं है। हमने पढ़ा है कि बैक्टीरियोफेज वे विषाणु हैं जो किसी भी बैक्टीरियल कोशिका यानी जीवाणुओं पर निर्भर होते हैं। ये बैक्टीरियोफेज विषाणु जीवाणु कोशिकाओं के अन्दर प्रवेश करके, उनकी मशीन का उपयोग करके, अपने लिए प्रोटीन और अनुवांशिक पदार्थ बनाते हैं और अन्ततः उस जीवाणु कोशिका को नष्ट कर देते हैं। इसी गुण को हमारे फायदे के लिए उपयोग में लाया जा रहा है यानी कि जीवाणु से होने वाले संक्रमण से बचाव में इन्हीं बैक्टीरियोफेज का उपयोग किया जा सकता है, इस पर शोध जारी है।

वैज्ञानिक नित नई खोजों से यह भी प्रमाणित कर रहे हैं कि हमारे शरीर के सहजीवी-मित्र जीवाणुओं की तरह ही कई विषाणु भी हमारे पाचन तंत्र और प्रतिरक्षा तंत्र के लिए सहायक हैं। विषाणुओं का पौधों के साथ सकारात्मक सम्बन्ध, उनकी उत्पादकता और रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि कर देता है।
हम चाहे विषाणुओं को सजीव मानें या न मानें, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विषाणु को उनकी विशेष पहचान देकर उनके प्राकृतिक माहौल में अर्थात् जीव-जगत के सजीव जाल के परिप्रेक्ष्य में ही अध्ययन किया जाना आवश्यक है। तभी शायद हम इनके विषय में और सकारात्मक जानकारी ले पाएँगे।

जैव-विकास में प्रतिरक्षा तंत्र और विषाणुओं की साँठ-गाँठ
जन्तुओं का प्रतिरक्षा तंत्र इम्यूनोग्लोबिन नामक प्रोटीन और कुछ विशिष्ट सफेद रक्त कोशिकाओं के ज़रिए उत्पाती बैक्टीरिया तथा विषाणुओं पर हमला करता है। घुसपैठियों का जवाबी हमले का तंत्र भी तैयार होता है। इस तंत्र का प्रमुख हथियार होता है प्रतिरक्षा तंत्र को दबा देने वाले अणु बनाना। विषाणुओं का एक और हथकण्डा यह होता है कि वे शिकार की कोशिकाओं को एक-दूसरे में घुलमिल जाने के लिए मजबूर कर देते हैं और खुद अपनी संख्या बढ़ाते रहते हैं। हद तब हो जाती है जब कुछ विषाणुओं का डीएनए शिकार के डीएनए में घुसकर उसका एक भाग ही बन जाता है। इसे जन्तुओं द्वारा अंगीकृत विषाणु डीएनए कहते हैं। लेकिन जैव-विकास ऐसी मौकापरस्त प्रक्रिया है कि जन्तुओं ने इसका भी फायदा उठा लिया है। इन जन्तुओं के जींस के समूह (जीनोम) में अंगीकृत विषाणुओं का उपयोग करके ही स्तनधारी जन्तुओं का पृथ्वी पर आविर्भाव हो सका। माँ के लिहाज़ से तो हर गर्भ पराए अणुओं का एक समुच्चय होता है क्योंकि भ्रूण में माँ के अणु तो होते ही हैं, उनके साथ पिता के पराए अणु भी होते हैं। माँ के प्रतिरक्षा तंत्र की नैसर्गिक प्रवृत्ति होती है कि वह इन पराए अणुओं पर हमला करे। यानी गर्भ ठहरते ही गर्भपात हो जाए। लेकिन छछून्दर से हाथी तक, चमगादड़ से व्हेल तक सभी स्तनधारी जन्तुओं में यह गर्भपात टल जाता है। इसका कारण यह है कि गर्भ ठहरते ही माँ के शरीर में अब तक निष्क्रिय अवस्था में पड़े अंगीकृत विषाणु सक्रिय हो जाते हैं। इनकी मदद से माँ के प्रतिरक्षा तंत्र की कार्रवाई कुछ समय के लिए स्थगित कर दी जाती है। फिर कोशिकाओं को अन्य कोशिकाओं से जोड़ने की प्रक्रिया के ज़रिए भ्रूण के इर्द-गिर्द सुरक्षात्मक आवरण यानी आँवल (प्लेसेंटा) बनाया जाता है। इसकी आड़ में भ्रूण सुरक्षित रहता है। जैव-विकास के दौरान यह प्रक्रिया कैसे विकसित हो गई, यह अब तक एक पहेली है, लेकिन इतना निश्चित है कि स्तनधारियों ने दुश्मन के हथियारों को बड़ी होशियारी से अपनाकर अपनी उन्नति का रास्ता साफ कर लिया है।
- माधव गाडगिल की किताब ‘विषाणु - विकास का एक और वाहक' से।


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पेड़-पौधों और जन्तुओं में बीमारियों का संक्रमण देने के मामले में विषाणु ही सबसे सूक्ष्म एवं सरलतम नहीं हैं। अब तो वाईरॉइड (आरएनए अणु) तथा प्रियोन (प्रोटीन अणु) खोजे जा चुके हैं जो कि विषाणु से भी सूक्ष्म और सरल हैं। लेकिन इनके बारे में विस्तृत चर्चा फिर कभी।


चेतना खांबेटे: केन्द्रिय विद्यालय, इंदौर में जीव-विज्ञान पढ़ाती हैं।
सन्दर्भ:
1. Unit3. Chapter 19, Campbell Biology, Tenth_Edition-Reece, Urry, Cain_et_al
2. https://www.virology.ws/2009/03/19/viruses-and-the-tree-of-life/
3. https://en.m.wikipedia.org/wiki/Virus
4. https://www.sciencedaily.com/releases/2015/04/150430170750.htm
5. https://www.the-scientist.com/features/viruses-of-the-human-body-32614
6. श्वास प्रश्वास सम्बन्धी https://link.springer.com/article/10.1007/s12052-012-0441-y