भारत डोगरा

अभी हिमालय क्षेत्र के किसान प्रतिकूल मौसम के असर से उभरे भी नहीं थे कि केन्द्र सरकार के एक नए निर्णय ने उन्हें विचलित कर दिया है। इस निर्णय के अनुसार सेब के आयात के अवसरों को पहले से अधिक व्यापक बना दिया गया है जिसके कारण अब सेब का आयात कहीं अधिक बड़े पैमाने पर हो सकेगा और यह विदेशी सेब ग्राहकों तक पहले से सस्ते दामों पर पहुंच सकेगा। इससे पहले सेब का आयात केवल एक बंदरगाह से हो सकता था जबकि अब यह आयात विभिन्न समुद्री, वायुयान व भूमार्गों से हो सकेगा। इसका हिमालय क्षेत्र के सेब उत्पादकों पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ने की संभावना है और वे इसका व्यापक स्तर पर विरोध भी कर रहे हैं।
विरोध के यह स्वर कह रहे हैं कि यदि आयात को ही इतना बढ़ाना था तो पहले हिमालय क्षेत्र में सेब का उत्पादन बढ़ाने को इतना महत्व क्यों दिया गया और लोगों को इसमें अधिक निवेश करने को क्यों कहा गया। अब जब गांववासी सेब उत्पादन पर अधिक आश्रित हो गए हैं तो उनके द्वारा सेब की बिक्री के अवसर कम किए जा रहे हैं।

दूसरी ओर कुछ पर्वतीय किसान कहते हैं कि उनके लिए सेब उत्पादन से अधिक ज़रूरी यह है कि स्थानीय मिश्रित खेती की पद्धतियों को प्रोत्साहित किया जाए क्योंकि स्थानीय लोगों के पोषण के लिए और पर्यावरण के अनुकूल खेती के लिए यह परंपरागत मिश्रित खेती ही सबसे उपयोगी है। इस संदर्भ में उत्तराखंड में बारहनाजा कृषि व्यवस्था की रक्षा के प्रयास काफी चर्चित रहे हैं। इस मिश्रित पद्धति के अतंर्गत अनेक पौष्टिक मोटे अनाजों, दलहनों, तिलहनों व मसालों को एक साथ उगाया जाता है व अपेक्षाकृत कम उपजाऊ भूमि पर भी यह मिश्रित खेती भली-भांति हो जाती है क्योंकि ये विभिन्न फसलें एक-दूसरे की पूरक हैं।
इस परंपरा के पीछे बहुत सुन्दर विज्ञान है। कुछ वर्ष पहले सरकारी अधिकारियों ने पर्वतीय किसानों को यह कहना आरंभ किया कि बारहनाजा तो पिछड़ी खेती है, अत: इसे हटाकर नई व्यापारिक फसलें लगाओ। उस समय बीज बचाओ आंदोलन ने इस सरकारी प्रचार का कड़ा विरोध किया और बारहनाजा की खूबियों का बहुत प्रचार-प्रसार किया जिसे आज वैज्ञानिकों के स्तर पर भी मान्यता मिली है।

अब उत्तराखंड की सरकार ने भी कहा है कि ऐसी मिश्रित खेती और जैविक खेती को बढ़ावा देना चाहिए। उधर सिक्किम राज्य को जैविक कृषि राज्य ही घोषित कर दिया गया है। ऐसी पहल का स्वागत होना चाहिए पर कुल मिलाकर पर्वतीय किसान बहुत उपेक्षित हैं। हिमालय की खेती में महिलाओं का बड़ा योगदान है पर उन्हें उचित मान्यता नहीं मिल पाई है। हाल ही में उत्तराखंड में पशुओं के चारे के लिए घास काटने में विशिष्ट कुशलता रखने वाली महिलाओं को विशेष तरह के आयोजन में सम्मानित किया गया तो यहां की महिला किसानों को शायद पहली बार लगा कि उनकी मेहनत व कुशलताओं को भी मान्यता मिल सकती है।
आज ज़रूरत इस बात की है कि हिमालय क्षेत्र में इस तरह की पर्यावरण की रक्षा के अनुकूल खेती को सरकार प्रोत्साहित करे तथा साथ में किसानों, विशेषकर महिला किसानों के व्यापक हित के लिए ज़रूरी कदम उठाए। हिमालय क्षेत्र की सरकारों को ऐसे कदम उठाने चाहिए कि यदि वहां के किसान जैविक खेती व पर्यावरण की रक्षा के लिए आगे आते हैं तो उन्हें इसके अनुकूल आर्थिक अवसर भी उपलब्ध हों तथा उन्हें अपने उत्पादों के लिए उचित कीमत मिले। चूंकि मौसम अधिक प्रतिकूल हो रहा है अत: इसके असर से खेती को बचाने के लिए भी सरकार को ज़रूरी कदम उठाने चाहिए।

हाल ही में हिमाचल प्रदेश के हाई कोर्ट में न्यायाधीश राजीव शर्मा और न्यायाधीश सुकेश्वर ठाकुर की खंडपीठ ने राज्य सरकार को आदेश दिए कि वह छोटे और निर्धन किसानों को 50 हज़ार रुपए तक के कर्ज़ माफ करने के लिए योजना तैयार करे। इन आदेशों में यह भी कहा गया है कि सरकार विभिन्न कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य भी तैयार करे। इन उत्पादों की सूची काफी बड़ी है।
न्यायालय ने सरकार को एक किसान आयोग गठित करने के लिए कहा है तथा इस आयोग में किसान प्रतिनिधियों को शामिल करने के लिए भी कहा है।
इससे भी व्यापक व स्पष्ट निर्देश उच्च न्यायालय ने हिमाचल सरकार को यह दिया है कि वह स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करे।
हाई कोर्ट ने इस आदेश के पालन के लिए मुख्य सचिव की ज़िम्मेदारी तय की है। चूंकि हाई कोर्ट के निर्देश काफी व्यापक व महत्वपूर्ण हैं अत: इसका उत्सुकता से इंतज़ार है कि इसके पालन में राज्य सरकार कितना आगे बढ़ती हैं। (स्रोत फीचर्स)