रमेश उपाध्याय

कहानी

“दिशाएं चार होती हैं  बेटे; पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण। देखों, अगर हम सुबह के समय सूरज की तर फ मुंह करके खड़े हों, तो हमारे सामने वाली दिशा पूर्व होगी, पीछे पश्चिम, बांए हाथ की ओर उत्तर और दाएं हाथ की ओर दक्षिण।”  लड़का मां का मुंह ताकता रहा कि शायद कुछ और भी बताएगी लेकिन वह चुप हो गई तो बोला, “यह सब तो मेरी साइंस-टीचर ने भी बताया था मां।”

किसी देश के किसी शहर में एक दिन एक औरत अपने बेटे को स्कूल से मिला हुआ होम-वर्क करा रही थी। लड़का किताब पढ़ता जाता था और समझ में न आने वाले शब्दों के अर्थ पूछता जाता था। सहसा उसने पूछा, “मां दिशा क्या होती है?”

“दिशा! यह शब्द इस पाठ में कहां आया है?”

“इस पाठ में नहीं है, विज्ञान की किताब में है। हमारी साइंस-टीचर ने आज दिशा वाला पाठ पढ़ाया था।”

“फिर  भी तेरी समझ में नहीं आया कि दिशा क्या होती है?”

“इसीलिए तो पूछ रहा हूं।”

“दिशा...”  उस औरत ने बताना शुरू किया लेकिन खुद चक्कर में पड़ गई। उसे लगा कितनी जानी-बूझी चीज़ है दिशा लेकिन बच्चे को उसका ज्ञान कराना कितना मुश्किल। उसने कुछ कठिनाई करते हुए कहा, “दिशाएं चार होती हैं बेटे; पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण। देखों, अगर हम सुबह के समय सूरज की तरफ मुंह करके खड़े हों, तो हमारे सामने वाली दिशा पूर्व होगी, पीछे वाली पश्चिम, बाएं हाथ की और उत्तर और दाएं हाथ की ओर दक्षिण। लड़का मां का मुंह ताकता रहा कि शायद कुछ और भी बताएगी लेकिन वह चुप हो गई तो बोला, “यह सब तो मेरी साइंस-टीचर ने भी बताया था मां। वे हमारी क्लास के सारे बच्चों को बाहर ग्राउंड में ले गई थीं। वहां जाकर उन्होंने हम सबको सूरज की तरफ मुंह करके खड़ा होने को कहा और बोलीं, अब तुम्हारे सामने पूर्व है, पीठ पीछे पश्चिम।”

“ बच्चे ने बताया लेकिन मां, मुझे दिशा कहीं दिखाई ही नहीं दी। मैंने खूब अच्छी तरह देखा। वहां सामने ग्राउंड की घास थी, उसके बाद पेड़ों की कतार थी, उसके बाद स्कूल की बाउंडरी-वॉल थी पर दिशा कहीं नहीं दिखाई दी। फिर मैंने ऊपर देखा। उधर स्कूल के पीछे वाली बिÏल्डग थीं, उसके ऊपर आसमान था, आसमान में सूरज था, दो-तीन चीलें उड़ रही थीं लेकिन पूर्व तो कहीं भी नहीं था।”

अब उस औरत को बेटे की नासमझी से परेशानी होने लगी। बोली, “तुमने अपनी टीचर से पूछा फिर?”

पूछा मां, मैंने कई बार पूछा। मैंने कहा, मैडम, मुझे सामने की सब चीज़ें दिखाई दे रही हैं लेकिन पूर्व तो यहां कहीं भी नहीं है। लेकिन मैडम ने मुझे पूर्व दिशा नहीं दिखाई। बस, यही कहती रहीं कि जिधर तुम्हें ये सब चीजें दिखाई दे रही हैं, उधर पूर्व दिशा है। मैंने कहा, मैडम, मुझे तो कहीं भी दिशा दिखाई नहीं देती। मैडम बोली, सब चीज़ें दिखाई थोड़ें ही देती हैं। हवा कहीं तुम्हें दिखाई देती है? पर तुम जानते हो कि हवा है।”

“तुम्हारी मैडम ने बिल्कुल ठीक बताया।” उस औरत ने राहत की सांस ली। उसे लगा, अब वह बेहतर ढंग से बेटे को दिशा-ज्ञान करा सकती है। उसने कहा, “कई चीज़ें होती हैं बेटे, जो दिखाई नहीं देतीं, पर होती हैं। जैसे हम कहते हैं ‘ऊंचाई’ तो क्या ऊंचाई हमें दिखाई देती है? हम ऊंचे कद के लोगों को देखते हैं, ऊंची-ऊंची बिÏल्डग देखते हैं, ऊंचे पेड़ों और पहाड़ों को देखते हैं, हवाई जहाज़ों को देखते हैं, पर ऊंचाई को तो हम नहीं देख पाते न? या जैसे, गहराई को लो। नाला गहरा होता है, नदी उससे ज़्यादा गहरी होती है और समुद्र सबसे ज़्यादा गहरा होता है। लेकिन क्या इन चीज़ों की गहराई हमें दिखाई देती है? इसी तरह दिशा भी हमें दिखाई नहीं देती, पर...”

लड़का सुनता रहा, लेकिन वह खिड़की से बाहर देख रहा था और किन्हीं ख्यालों में खोया हुआ था। अचानक वह सचेत हुआ और मां की बात बीच में ही काटकर बोला, “साइंस-टीचर ने आज मुझे मारा।”

“मारा! क्यों?”  वह औरत चौंकी, घबराई, गुस्साई और सौफे से उठकर बेटे के पास जा पहुंची। बेटे की छोटी-सी मेज़ पर बायां हाथ टिकाकर दाएं हाथ से उसका गुदगुदा गाल सहलाते, हुए बोली, “यहां, लेकिन क्यों मारा?”

“उन्होंने जब यह कहा कि हवा दिखाई नहीं देती, तो मैंने कहा, न दे दिखाई हवा, पर हमें महसूस तो होती है। लेकिन दिशा तो न दिखाई देती है, न महसूस होती है। यह सुनकर उन्होंने मुझे ज़ोरों से डांटा। कहने लगीं - ईश्वर तुझे दिखाई देता है, महसूस होता है, पर वह है कि नहीं?”

“फिर? तूने क्या जवाब दिया?” वह औरत फर्श पर बेटे की मेज़-कुर्सी के सामने बैठ गई। उसके स्वर में चकित और चिंतित होने का भाव था।

लड़का बोला, मैंने कहा, मैडम, मेरी मां तो कहती है कि ईश्वर है, पर पापा कहते हैं कि नहीं है। मुझे तो ईश्वर भी दिखाई नहीं देता .. बस, इतना सुनते ही टीचर गुस्सा हो गई। तेज़ी से मेरी तरफ आई और मेरे गाल पर चांटा मारा। कहने लगीं, तू नास्तिक है, इसलिए तुझे समझ में कुछ नहीं आता। मैंने सैकड़ों बच्चे पढ़ा दिए, किसी ने भी पलटकर नहीं पूछा कि दिशा क्या होती है। बेबकूफ, अपनी क्लास के इन दूसरे बच्चों को ही देख, इनमें से कोई और भी तुम्हारी तरह चिड़-बिड़ कर रहा है? अब अपनी खैर चाहते हो तो मुंह बन्द करके चुपचाप बैठे रहो।”

“बड़ी खराब है तुम्हारी साइंस-टीचर।” कहते हुए वह औरत क्रोध से तमतमा गई, लेकिन बेटे को गोद में उठाकर उसका मुंह चूमने लगी। फिर प्यार से उनके सिर पर हाथ फेरते हुए उसने कहा, “कल मैं तुम्हारे स्कूल आऊंगी और उनसे पूछूंगी कि बच्चे को मारने-पीटने का क्या मतलब है।”

उसी समय उस औरत का पति घर लौटा। वह उस शहर के विश्वविद्यालय में पढ़ाता था। वह एक गम्भीर, अध्ययन-शील, मगर खुशमिज़ाज आदमी था। उसने अपने बेटे को पत्नी की गोद में देखा तो बोला, “आज क्या बात है? इतने बड़े बेटे को गोद में उठाकर प्यार किया जा रहा है।”

पत्नी ने बेटे पर उसकी विज्ञान-शिक्षिका द्वारा किए गए अत्याचार के बारे में बताया और आक्रोश भरे स्वर में कहा, “टीचर का काम बच्चे को सही ढंग से समझाना है या मारना-पीटना? मैं कल जाकर स्कूल के हैडमास्टर से इस बात की शिकयत करूंगी।”

“पहले अपने बेटे को दिशा-ज्ञान करा दो।” पति ने सोफे पर बैठकर मुस्कराते हुए कहा, “हज़रत सात साल के हो चुके और इन्हें अभी तक दिशाओं का ही पता नहीं है।”

पति का समर्थन न पाकर पत्नी झुंझला उठी, “दिशा-ज्ञान हो कैसे? तुम तो अभी से इसे दिशाहीन बनाए दे रहे हो। यह वहां अपने अज्ञान के कारण नहीं पिटा है। तुमने इसे पूरा नास्तिक और अविश्वासी बना दिया है, इसलिए पिटा है। दुनिया की हर चीज़ आंखों से थोड़ें ही दिखाई देती है, कुछ चीज़ों  मान भी लेना पड़ता है। हम-तुम भी कभी बच्चे थे। हमें भी बताया गया था कि सूरज की तरफ मुंह करके खड़े हो जाओ तो यह पूर्व दिशा होती है। और हमने माना था कि नहीं?”

“दूसरों की बात मान लेना तो तुम्हारे बस में है, अपनी बात दूसरों से मनवा लेना नहीं। खासतौर पर बच्चों से। खैर लाड़ले को होम-वर्क करा रही थीं क्या? तुम चाय बना लाओ, तब तक मैं इसे पढ़ता हूं।” पति ने हंसते हुए कहा।

“तुमने ही इसे बिगाड़ा है। दिन-रात इतने छोटे लड़के के सामने अपनी प्रोफेसरी छांटते रहते हो।” पत्नी जाते-जाते बड़बड़ाई, “अभी से पक्का नास्तिक बना दिया है...”

मां के जाने के बाद बेटा अपना काम निपटाने के लिए अपनी मेज़-कुर्सी पर बैठ गया, लेकिन पढ़ाई में ध्यान लगाने के बताय बोला, “ईश्वर कुछ नहीं होता है न पापा? फिर मैडम क्यों कहती हैं कि होता है?”

“छोड़ो, तुम अपना काम करो। कुछ लोग ईश्वर को मानते हैं, कुछ नहीं मानते। अपने घर में ही देख लो, तुम्हारी मां मानती है, मैं नहीं मानता।”

“तो दिशाओं को भी जोग मानते हैं, मानें। दूसरों से क्यों कहते हैं कि वे भी मानें।” बेटे ने कहा।

बेटे की बात सुनकर अब पिता को भी लगा कि मामला गंभीर है। उसने कहा, “देखों बेटे, ईश्वर को तुम मानो या न मानो, तुम्हारा काम चल सकता है। हम नहीं मानते, फिर भी हमारा काम चल रहा है। चल रहा है ना? लेकिन दिशाओं को न मानने पर किसी का भी काम नहीं चल सकता।”

“लेकिन पापा, ईश्वर की तरह दिशा भी तो दिखाई नहीं देती।”

“यूं तो बहुत-सीं चीज़ें है जो दिखाई नहीं देतीं। समय तुम्हें दिखाई देता है क्या? लेकिन समय पर सब काम करने पड़ते हैं कि नहीं?”

“लेकिन दिशा क्या होती है पापा?”

“बताते हैं, तुम ज़रा अपनी मेज-कुर्सी आगे ले आओ।”

बेटा उठा। अपनी छोटी-सी मेज़ उठाकर आगे लाया। फिर दौड़कर गया और कुर्सी भी उठा लाया।

“नहीं-नहीं, बहुत आगे ले लाए, थोड़ा पीछे खिसकाओ, मुझे अपने पैर फैलाने की जगह तो दो भई।”

बेटे ने मेज़-कुर्सी थोड़ी पीछे खिसकाई।

“थोड़ा बार्इं तरफ को खिसकाओ, ताकि रोशनी खिड़की से तुम्हारी मेज़ पर ठीक तरह से पड़े।”

बेटे ने मेज़-कुर्सी तरफ खिसकाई।

“नहीं, बहुत ज़्यादा खिसका ली। वहां तो तुम्हारे ऊपर पंखे की हवा ही नहीं आएगी, ज़रा दार्इं तरफ हटाकर बैठो।”

बेटे ने मेज़-कुर्सी दार्इं तरफ हटा ली और बैठ गया।

“अब बताओ, मैंने तुमसे क्या-क्या कहा और तुमने क्या-क्या किया?”

बेटा अपने पिता के इस ‘खेल’ को समझ गया। कुछ समय से वह इस बात को समझने लगा था कि बड़े लोग कभी-कभी ‘खेल’ के बहाने बच्चों को शिक्षा दिया करते हैं। यह चीज़ उसे अच्छी नहीं लगती थी। ज्यों ही बड़ों का यह ‘खेल’ उसकी समय में आ जाता था, वह चिड़चिड़ा हो उठता था। पिता के ‘खेल’ के प्रति  उसने अपनी नापसंदगी ज़ाहिर करते हुए जवाब दिया, “आप हमें उल्लू बनाकर दिशाएं बता रहे हैं पापा; आगे, पीछे, बाएं दाएं।”

“इसका मतलब हुआ, तुम पहले से ही जानते हो कि दिशाएं क्या होती हैं?” पिता ने मुस्कुराते हुए पूछा।

“बिल्कुल बेवकूफ थोड़े ही हूं। बेटे ने तुनकमिज़ाजी के साथ किंचित गर्वीले स्वर में उत्तर दिया।

 “फिर तुम स्कूल में क्या पिटे? पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण। आगे, पीछे, बाएं, दाएं ही तो दिशाएं हैं। इनको तुम देख नहीं सकते लेकिन इनको माने बिना तुम्हारा काम भी नहीं चल सकता।”

“किसी का भी?”

“हां किसी का भी काम नहीं चल सकता। जैसे मान लो,, तुम्हें आगे जाना है और तुम आगे की तरफ न जाकर पीछे की तरफ चल दो। जाना हो तुम्हें उत्तर की ओर और चले जाओ दक्षिण में, तो क्या उस जगह पहुंच पाओगे जहां तुम्हें पहुंचना है? या, यूं समझो कि सड़क पर तुम्हें बार्इं ओर से चलना चाहिए लेकिन तुम दाई ओर से चलते हो, तो एक्सीडेंट होगा कि नहीं?”

“छोड़िए पापा, हम समझ गए, हमें हमारा होम-वर्क करने दीजिए।”

“ठीक है, करो।”

बेटा अपना काम करने लगा। पिता ने अखबार उठा लिया।

पत्नी जब चाय लेकर रसोईघर से वापस आई तो चकित रह गई। उसने बेटे से पूछा, “क्यों रे, समझ लिया पापा से कि दिशाएं क्या होती हैं?”

“हां, मां।”

“बताना ज़रा।”

लड़के ने चारों दिशाएं और उन्हें मालूम करने का तरीका ठीक-ठीक बता दिया। पत्नी ने अविश्वास से पति की ओर देखा। पति ने मुस्कराते हुए कहा, “ज्ञान किसी के दिए कम, अपने अनुभव से ज़यादा प्राप्त होता है।”

“मैं जितनी देर में चाय बनाकर लाई उतनी देर में इसने अपने अनुभव से ज्ञान प्राप्त कर लिया?” पत्नी ने आश्चर्य से पूछा।

“अनुभव तो इसे पहले से ही था। पति ने चाय का प्याला उठाते हुए कहा, आगे-पीछे, बाएं-दाएं सब समझता है यह। टीचर का काम सिर्फ यह बताना था कि इन्हीं को दिशाएं कहते हैं और इनके अपने अलग-अलग नाम हैं वह ज़रा समझदारी से काम लेती तो इस पर गुस्सा करने से बच सकती थी। खैर, तुम टीचर की शिकायत करने मत जाना। मैं जिस दिन इसकी फीस देने इसके सकूल जाऊंगा, साइंस-टीचर से मिलूंगा।”

तीन-चार दिन बाद वह अपने बेटे के स्कूल गया। फीस जमा करने के बाद वह हैडमास्टर से मिला और अपना परिचय देकर बोला, “मैं ज़रा बच्चे की साइंस-टीचर से मिलना चाहता हूं।”

“कोई शिकायत है?” हैडमास्टर से पूछा।

“नहीं-नहीं, बस यूं ही ज़रा पूछना चाहता हू कि लड़का क्लास में कैसा पढ़-लिख रहा है।”

“आप चलकर लाउंज में बैठिए, मैं अभी किसी को भेजकर बुलवा हूं।” विज्ञान-शिक्षिका प्रौढ़ वय की थी, मगर एक नामी पब्लिक स्कूल की रीति-नीति के अनुसार श्रंृगारपूर्ण वेश-भूषा में सजी हुई थी। उसे देखकर कतई आभास नहीं होता था। कि यह कोई ईश्वर-भक्त आध्यात्मिक महिला होगी। अपने कुछ भारी शरीर के बावजूद वह बहुत तेज़ी से चलती हुई आई। तनाव के चिन्ह उसे चेहरे पर साफ दिखाई दे रहे थे। वह अपनी कक्षा छोड़कर आई थी और उसे तुरन्त लौट जाना था, इसलिए औपचारिकताओं में समय नष्ट किए बिना बोली, मैं समझ गई, आप यहां क्यों आए हैं। मैंने आपके बेटे को चांटा मार दिया था, यही न?”

“जी नहीं, मैं...”

“या आप नाराज़ हुए होंगे कि मैंने उसे नास्तिक-वास्तिक यह दिया था।”

शिक्षिका ने कहा।

“देखिए, मैं आपसे...”

“आप मुझसे क्या कहना चाहते हैं, मैं जानती हूं।” शिक्षिका ने पुन- बात काटकर अपनी अधीरता का परिचय दिया, “आप मुझे यह बताएंगे कि आप कितने बड़े आदमी हैं, कहां-कहां तक आपकी पहुंच है, और आपका बच्चा आपको कितना प्यारा है। इसलिए कहने से पहले ही मेरा जवाब सुन लीजिए। आप मुझसे नाखुश तो हों, आपका बच्चा मुझसे नाखुश नहीं है। रही आपकी धमकियां, मैं उससे नहीं डरती। मैं सिवाय ईश्वर के किसी से नहीं डरती।”

“देखिए, आप बिल्कुल गलत समझ रही हैं। मैं न तो किसी से आपकी शिकायत करने आया हूं, न आपसे यह कहने कि आपने मेरे बेटे को क्यों मारा। अगले दिन आपने बच्चे को खूब प्यार किया और चाकलेट खिलाई, यह भी मुझे मालूम हो चुका है। और रही बात मेरी तो मैं कोई बड़ा प्रभावशाली व्यक्ति नहीं, एक साधारण प्राध्यापक हूं। मैं खुद शिक्षक हूं, इसलिए शिक्षकों की कठिनाइयां समझता हूं...।”

“शिक्षकों की कठिनाईयां कोई नहीं समझता।” शिक्षिका पहले से कुछ नरम पड़ी, लेकिन उसकी आवाज़ में अभी तुर्शमिज़ाजी थी, “कोई नहीं सोचता कि छोटे बच्चों को पढ़ना कितना मुश्किल काम है। वह भी हमारे देश में, जहां एक-एक टीचर की क्लास में पचास-पचास बच्चे होते हैं! कोर्स वक्त पर पूरा करना होता है, रजिस्टर भरना होता है, पर्चे बनाने होते हैं, कॉपियां जांचनी होती हैं, रिज़ल्ट बनाना होता है, और भी पचासों काम करने पड़ते हैं। फिर, यह ठरा पब्लिक स्कूल। माफ कीजिए, यहां पैसे वालों के बिगड़े हुए बच्चे पढ़ने आते हैं जिनको अनुशासित रखना  बड़ा मुश्किल काम है। अनुशासन नहीं रहता तो फौरन जवाब-तलब होता है, चेतावनी और धमकियां मिलने लगती हैं। और किसी बच्चे को हम ज़रा डांट-डपट दें तो मां-बाप शिकायत लेकर आ जाते हैं।”

“विश्वास कीजिए, मैं कोई शिकायत लेकर नहीं आया हूं। मुझे तो सिर्फ यह सुनकर आपसे मिलने की उत्सुकता हुई कि आप साइंस-टीचर होकर भी बड़ी ईश्वर-भक्त हैं। आप विज्ञान और आध्यात्म की दो विपरीत दिशाओं में एक साथ कैसे चल पाती हैं?”

यह सुनकर विज्ञान-शिक्षिका के चेहरे पर एक साथ कई भाव आए ओर गए। उसने झटके से अपनी कलाई-घड़ी में समय देखा और बोली, “क्षमा कीजिए, मेरे पास इन फालतू बातों के लिए वक्त नहीं है। मैं आपके लिए अपनी क्लास छोड़कर आई हूं। बच्चे शोर मचा रहे होंगे। हालांकि  मैं अपनी मर्ज़ी से यहां नहीं आई हूं तो भी बच्चे अगर क्लास से बाहर निकल आए तो डांट मुझे ही पड़ेगी।” कहकर वह जाने को हुई लेकिन फिर ठिठकर कहने लगी, “वैसे भी, आप तो नास्तिक हैं, आपको ईश्वर से क्या? यूनिवर्सिटी में आराम से प्रोफेसरी करते हैं। फिर आप पुरूष हैं, आप क्या जानें कि औरतों की ज़िन्दगी क्या है। मैं सुबह पांच बचे की उठी हूं, घर-भर का चाय-नाश्ता और खाना बनाकर आई हूं और यहां से जाने के बाद फिर रात तक खटूंगी। मेरा बड़ा बेटा बेरोज़गारी में आवारागर्दी करता घूम रहा है, बेटी सयानी हो गई है, और छोटे लड़के को पिछले साल जब से पीलिया हुआ है, पेट की बीमारी है, और वह अक्सर चारपाई पकड़े रहता है। आजकल वह बहुत बीमार है। मेरी सास उसे देखती है, पर खुद बहुत बूढ़ी हैं और दमे की मरीज़ हैं। मेरे पति ऐसी नौकरी करते हैं, जिसमें उन्हें महीने में बीस दिन बाहर रहना पड़ता है। इसलिए घर-परिवार को मैं अपने दम पर संभालती हूं। आप मज़े में होंगे, इसलि आपको ईश्वर पर विश्वास नहीं होगा, पर मुझे तो ईश्वर का ही सहारा है।

अंतिम बात कहते-कहते विज्ञान-शिक्षिका की आंखे छलछला गर्इं। अपने नन्हें-से-रूमाल से आंसू पोंछते हुए उसने क्षमा मांगी।

प्राध्यापक ने कहा, “माफी तो मुझे आपसे मांगनी चाहिए। मैंने आपका दिल दुखाया। नहीं माफी मुझे ही मांगनी चाहिए। मेरा व्यवहार आपके बेटे के प्रति ही नहीं, आज आपके प्रति भी ठीक नहीं रहा। दरअसल, होता यह है कि हम पर मार कहीं पड़ती है, उसका दर्द कहीं और जाकर व्यक्त होता है। कुछ-कुछ ऐसी बात हैकि आदमी मन्दिर में जाकर रोना चाहे और पहुंच जाए अखाड़े में लड़ने।”

प्राध्यापक मुस्कराया, “शायद इस बात को यूं भी कहा जा सकता है कि आदमी पिटे तो अखाड़े में और रोए मन्दिर में जाकर।”

अब विज्ञान-शिक्षिका भी मुस्कराई। बोली, “आप वाकई नास्तिक हैं। लेकिन जो बीच अखाड़े लड़ रहा है, उसे मन्दिर में जाकर रोने की फुरसत ही कहां?” इतना कहकर उसने झटके से नमस्कार किया और पीछे मुड़कर देखे बिना कक्षा में चली गई।

‘दिशा’ - ‘किसी देश के किसी शहर में’ किताब से साभार।
लेखक - रमेश उपाध्याय
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
प्रथम संस्करण - सन् 1987
मूल्य - 30 रूपए

नुक़ता

नुक़ता यानी बिंदी, यानी प्वाइंट। ये महज़ किसी जगह की निशानदेही के लिए होता है। ज्योमेटरी की किताबों में आया है कि नुक़ता जगह नहीं घेरता। एक आधा नुक़ता की हद तक यह बात सही होगी, लेकिन चार नुक़तों से तो आप सारा हिंदुस्तान घेर सकते हैं।

मुतवाज़ी खुतूत

यह वैसे तो आमने-सामने ही होते हैं लेकिन तअल्लुक़ात निहायत कशीदा2। इनको कितना भी लम्बा खींचकर ले जाइए ये कभी आपस में नहीं मिलते। किताबों में यही लिखा है। लेकिन हमारे ख़्याल में इनको मिलाने की कोई संजीदा कोशिश भी कभी नहीं की गई। आजकल बड़-बड़े नामुकिनात को मुमकिन बना दिया गया है, यह तो किस शुमारोक़तार में हैं।


1. समानान्तर रेखाएं 2. तनावपूर्ण