सत्‍यु चित्र: विप्‍लव शशि

अनारको बात-बात पर सवाला करती है ... और सही जवाब न मिलने पर झुंझलाती है ... बड़ों की तरफ से थोपे गए अनावश्‍यक अनुशासन के खिलाफ विद्रोह करती है ... सोचमी है वह क्‍या करे, कैसे कर, यह सब पापा और मम्मी ही क्‍यों तय करते हैं? वे उसकी अपनी इच्‍छा जानने की कोशिश क्‍यों नहीं करते? कई बार बैठे-बैठे अनारको ख्‍यालों में खे जाती है और कल्‍पना मे वह सब देखना शुरू कर देती है जो वह अपने लिए चाहती है। अनारको के आठ दिशीर्षक से लिखी किताब एक फैंटेसी कथा है, जिसमें अनारको के आठ सपनों का जि़क्र है। ऐसा है अनारको का दूसरा सपना।

... एक पर एक चिडि़या उड़ती जा रही हैं, जैसे ज़मीन तोड़कर चिडि़यों का फव्‍वारा चल रहा हो। इतनी सारी कि गिनना शुरू करो तो फिर गिनते ही रहो। और गिनते-गिनते बस गिनती ही रह जाए और चिडि़यां देखना ही भूल जाओ... ‘’अन्‍नों, अन्‍नो, चल अब उठ जल्‍दी।‘’ अम्‍मी ने उसे झकझोरा और उसका सपना टूट गया। खैर, अनारको ने आंख मलते हुए कुछ सोचा, फिर खुश होकर कहा, ‘’अच्‍छा अममी, ठाकुर जी को जल चढ़ाना है न?’’ अम्‍मी उसके कान के पास मुंह ले गई और कहा, ‘’नहीं, आज से तेरा स्कूल सवेरे का हो गया है, तुझे याद नहीं? डठकर स्‍कूल जा।‘’

अनारको उठ तो गई, पर उसकी तो पूरी योजना थी कि ठाकुर जी को जल चढ़ाने के बहाने आज भी फिर सेमल के नीचे बैठेगी, सो उसने कहा, ‘6पर अम्‍मी, ठाकुर जी को खुश करना तो ज़रूरी है न?’’ अम्‍मी ने लंबी सांस छोड़ी। फिर कहा, ‘’नहीं, स्‍कूहल जाना उससे भी ज़रूरी है। पढ़ेगी नहीं तो विद्या कहां से आएगी? जा तैयार हो जा।‘’ अनारको ने आखिरी कोशिश की, ‘’लेकिन अम्‍मी,अगर ठाकुर जी खुश हो जाएंगे तो विद्या अपने –आप आ जाएगी, फिर स्‍कूल क्‍यों जाना? अम्‍मी ने दूसरी बार लंबी सांस छोड़ी और कहा, ‘’अच्‍छा जा, पापाजी से पूछ ले ....।‘’ अनारको को यही बात अच्‍छी नहीं लगती कि अम्‍मी हमेशा यह कह देती हैं कि अच्‍छा अब पापा से ही पूछ ले। पर उसे मालूम था कि अब पापा के पास जाना ही पड़ेगा।

‘’पापा मैं आज स्‍कूल नहीं जाऊगी।‘’ ‘’क्‍या कहा, स्‍कूल नहीं जाएगी? तो विद्या कहां से आएगी?’’ पापा ने ज़रा डपटकर पूछा। पर अनारको का तो उकदम ही मन नहीं था स्‍कूल जाने का। उसने पूछा, ‘’पापा, विद्या मिल जाने से मैं क्‍या करूंगी?’’ पापाजी ऐसे सवाल के लिए तैया नहीं थे, खीझ गए। फिर कहा, ‘’तू जो विद्या सीखेगी तो बड़ी होकर तेरे काम आएगी। चल, तैयार हो जा।‘’ पर अनारको जमी रही, ‘’अभी से विद्या सीखूंगी तो वड़ी होते-होते भूल जाऊंगी।‘’ पापा ने चिल्‍लाते हुए कहा, ‘’इत्‍ती-सी लड़की और सुबह उठते ही बक-बक, बक-बक। चल, हाथ मुंह धो, कुल्‍ला कर।‘’

मजबूरन अनारको ने वह सब किया जो उसे कहा गया था। गुस्‍से में रगड़-रगड़कर पांवों को धोया तो कल शाम की धूल पूरी छूट गई और पानी की काली-काली धार सरकने लगी। अनारको उसका सरकना देखती रही। फिर कुछ सोचा और पापा से कहा, ‘’पापा, एक बात पूछूं?’’ पापा ने कहा, ‘’पूछ।‘’ ‘’विद्या क्‍या सिर्फ स्‍कूल से ही आती है, पापा?’’

‘’क्‍या उल्‍टे-सीधे सवाल करती रहती है। जा रोटी रखी होगी, खा ले और बस्‍ता उठाके स्‍कूल जा।‘’

अनारको का बहुत-बहुत मन था कि पापा से कहे, ‘’पापा एक बात और पूछूं।‘’ और फिर पूछे कि आप जब भी कोई चीज़ जानते नहीं तो यह क्‍यों कह देते हैं कि उल्‍टा सवाल मत कर? लेकिन अनारको ने हिसाब लिगाया और समझा कि अभी पापा से और सवाल पूछ नहीं सकते, नहीं तो पिटाई ही होगी। सो वह गणवेश पहलकर रसोई में गई और झटपट रोटी खाकर बस्‍ता उठाया और स्‍कूल चल दी।

स्‍कूल के रास्‍ते पर धूलवाली सड़क पर वह कुछ दूर पैर से लकीर खींचती चली। फिर एक कीड़े का करतब देखने लगी। उसने एक चींटी पकड़ी और उसे धूल के उस छोटे-से गड्ढे में छोड़ दिया जो उस कीड़े ने बनाया था। चींटी सरकते हुए बिलकुल नीचे पहुंच गई। फिर उसमें से एक कीड़ा निकला और चींटी को पकड़ लिया। फिर क्‍या, झट से उसने कीड़े पर थूका और तिनके से एक साथ थूक, धूल, चींटी और कीड़े को उठाकर किनारे पर कर दिया। किर देखने लगी, पर कुछ साफ दिखाई नहीं दिया तो उठकर चलना शुरू किया। चलते-चलते खूब दूर-दूर तक देखने लगी। रेल की पटरी, पअरी के पीछे खंभे, खंभों के पीछे खेत, फिर पेड़ और वो ... दूर पहाड़। वह सोचने ही लगी थी कि पहाड़ के पीछे क्‍या होगा, कैसा होगा कि इतने में स्‍कूल की घंटी बज उठी तो अनारको को दौड़ना पड़ा। अभी परसों किंकु प्रार्थना में देर से पहुंचा तो उसे चार छड़ी लगाई थी मास्‍साब ने। अनारको दौड़ते-हांफते, दौड़ते-हांफते स्‍कूल पहुंची और प्रार्थना में अपनी कक्षा की कतार में खड़ी हो गई। पहले मास्‍साब एक लाइन बोलते, फिर सब बच्‍चे एक साथ दोहराते। अनारको ने आज औरों के साथ प्रार्थना में नहीं गाया। जब सब गाते तो वह चुप रहती, और एक अजीब-सी आवाज़ सुनाई पड़ती थी उसे। सबके गाने का कैसा मधुमक्‍खी– सा स्‍वर, परबहुत ज़ोर-जोर से। यही सुनते-सुनते वह सोचने लगी कि अच्‍छा, स्‍कूल मं भी प्रार्थना होती है। इसका मतलब है कि स्‍कूल में भी मास्‍साब लोग मानते हैं कि ठाकुर जी को खुश करने से विद्या मिलती है। उसने इस बात को अपने मन में गांठ लिया और सोचा कि अगली बार अम्‍मी के सामने यही बात रखेगी। गांठ लगाते-लगाते प्रार्थना खत्‍म हो गई और फिर एक साथ कतारों को तोड़ने की हलचल। थोड़े समय के लिए उथल-पुथल, हल्‍ला–गुल्‍ला, धूल और फिर सब ठंडा- सब कमरों के अंदर।

पहली घंटी हिंदी की थी, मास्‍टरजी कविता याद करा रहे थे। ‘’झंडा ऊंचा रहे हमारा।‘’ मास्‍टरजी छड़ी हिला-हिलाकर कह रहे थे और उसके सारे साथी हिल-हिलकर दोहरा रहे थे। ‘’झंडा ऊंचा रहे हमारा।‘’ पर अनारको का मन इसमें नहीं था। उसे मजा नहीं आ रहा था, सो वह चुप रही और चुप रहते-रहते कुद अलग-अलग ख्‍यालों में खो गई। अचानक सब तरफ सन्‍नाटा हो गया था और मास्‍टर जी सीधे उसकी तरु आने लगे। इसके पहले कि वह कुछ संभल पाती मास्‍टरजी ने उसका कान पकड़ा और पकड़े-पकड़े उसे दरवाजे तक ले गए, फिर धकेलकर बाहर निकाल दिया और पीछे से चिल्‍लाए, ‘’तेरा पढ़ने में मन नहीं लगता, तो मत आना स्‍कूल, जा।‘’ अनारको को रोना तो आ ही रहा था, सो मुंह लटकाए चलती बनी। पर एक बार स्‍कूल के अहाते से निकलते ही उसे फुरफुरी होने लगी और वह तेज-तेज़ कदम से सेमल के पेड़ की तरु चलने लगी। आज वहां कोई नहीं था, क्‍यों‍कि किंकु भी तो सबके साथ हिल रहा था उधर कक्षा में। सो सेमल के नीचे छोटे-छोटे पत्‍थरों को चुनने लगी, फिर हाथ से धूल हटाकर सपाट जगह बनाई और पत्‍थरों को सजाने लगी, गोल-गोल, ताकि फूल बन जाए। इतने मं वह सोचने लगी पिछली गर्मी की बात, मामाजी के यहां भौंरी गांव में। गांव, थोड़ा आगे निकलकर जंगल ओर सुबह-सुबह अगर जंगल से थोड़ा आगे निकल जाओं तो सामने कल-कल करती चमकती नही, और नदी के उस तरु रेत। फिर वह और मंतो रेत में गड्ढा करते, बिलकुल नदी के किनारे, तो रेत में पानी भर आता। फिर वे दोनों गमछे से छोटी-छोटी मछलियां पकड़कर उस गड्ढे के पानी में छोड़ देते, बड़ी देर तक उन मछलियों को देखते रहते और फिर उस गड्ढे को धसकाकर मछलियों को फिर से पानी में जाने देते।

अनारको यह सब याद कर ही रही थी कि न जाने कैसे अचानक वह एक गांव में पहुंच गई। गांव के पास हरा-भरा जंगल था, जंगल के पार काली- भूरी चट्टानें थीं, चट्टानों के उस पार नीचे नरम-नरम, कीचड़-सी, भीगी-भीगी दलदली रेत थी और पास में नदी, और नदी में थीं मछलियां। अरे, ये क्‍या। मछलियां तो बातें कर रही थीं, और अनारको साफ सुन सकती थी उनकी बातें। पानी के अंदर गोल-से घेरे में थीं मछलियां। कुछ बैठक-सी हो रही थी मछलियों की। उसमें से एक मछली कुछ इस तरह से तनकर बोल रही थी कि अनारको को लगा, वह मछलियों का राजा है।

‘’सुनते हैं, कुद मछलियां अनुशासन से नहीं रह रही हैं। जब मन आया नाच रही हैं और जब मन आया गा रही हैं।‘’

एक साथ कई मछलियों ने सिर हिलाया, ‘’हां महाराज, सही है, कुछ मछलियां बहुत ही सिरदर्द बनती जा रही हैं।‘’

महाराज मछली ने कहा, ‘’फिर इनका इलाज किया जाए?’’

एक मछली थोड़ा आगे को तैरकर आई और बोली, ‘’इलाज क्‍या हो सकता है, महाराज। ये तो बचपन से ही ऐसी हैं।‘’

महाराज ने कहा, ‘’फिर बचपन का इलाज किया जाए, मेरा मतलब बचपन से ही इलाज किया जाए।‘’

‘’हां महाराज, अब हम सारी मछलियों को बचपन से ही समझाना शुरू करें कि कैसे तैरनार चाहिए। और कैसे रूकना चाहिए, कि क्‍या अच्‍छा होता है क्‍या बुरा, कि क्‍या सही होता है और क्‍या गलत।‘’ एक अच्‍छी मछली ने अपनी दाढ़ी हिलाते हुए कहा। एक साथ इतना बोलने के कारण वह हांफ रहा था। इतने में एक दूसरी मछली बोल पड़ी, ‘’अरे सारे बच्‍चे इतने चंचल हैं कि उनको एक जगह बैठा पाएं, तभी कुछ समझा पाएंगे।’’ दूसरी मछली का बोलना खत्‍म होते ही तीसरी मछली ने कहना शुरू किया, ‘’पहले इस पर बात होनी चाहिए कि हम अपनी बात इतनी जगह कैसे समझा पाएंगे। कुछ मछलियां पत्‍थर वाल घाट पर रहती हैं, कुछ बरगद की नीचे वाली गइराई में, कुछ उधर ऊपर की ओर ...।‘’ इससे पहले कि वह मछलियां कहां-कहां रहती हैं, यह गिनाती चलती, एक चौथी मछली ने धीरे-धीरे गर्दन हिलाते हुए कहा, -अरे हमें जो कुछ भी समझाना होगा, इम उसे पत्‍थरों पर लिखवा लेंगे। फिर हम उन किताबों को पढ़ेंगे ओर देखेंगे कि उनमें वही बात लिखी है या नहीं जो हम समझाना चाहते हैं।‘’ इस सबके दौरान महाराज मछली ने समझ लिया था कि बैठक का काम ठीक-ठाक चल रहा है, सो वह ऊंघ रहा था। अब वह अचानक हड़बड़ाकर उठा ओर कहा, ‘’मैं भी देखना चाहूंगा कि हमारे बच्‍चे कैसी किताबों से पढ़ेंगे।‘’ सारी मछलियों ने एक साथ सर हिलाया, ‘’हां-हां, ज़रूर-ज़रूर, महाराज भी किताबों की जांच करेंगे।‘’ और महाराज मछली बहुत देर से चुप था और इस कोशिश में था कि बात का छोर कहीं और न चला जाए, सो बड़े ध्यान से धीरे-धीरे मुंह खोल और बंद कर रहा था। अब उसने बड़ी होशियारी जताते हुए कहा, ‘’अगर बच्‍चे भाग जाएंगे तो हम कमरे बना देंगे। उन कमरों में हम उनको बैठा लेंगे। फिर सबको एक साथ समझाएंगे।‘’

एक पांचवीं मछली ने अपनी ऐनक सीधी कर, खुजलाते हुए कहा, ‘’लेकिन कमरे में बैठे-बैठे तो बच्‍चे थक जाएंगे। फिर हम जो समझाएंगे, उनकी समझ में ही नहीं आएगा।‘’ फिर वह अपनी जगह पर कुछ ऐसे किलने-डुलने लगी जैसे कोई बहुत पते की बात की हो और दाएं-बाएं देखने लगी।

छठी मछली बहुत देर से चुप था, अब वह तन गया और कहा, ‘’अरे हम उन्‍हें थोड़ी देर में बाहर छोड़ देंगे।‘’ एक सातवीं मछली अपनी ही जगह पर कुछ कुनमुनाई, कुछ हंसी। फिर हंसते हुए, पर सोचते हुए कहा, ‘’भई, उनको बाहर छोड़ देंगे तो वे भाग जाएंगे। फिर लौटकर कमरों में नहीं आएंगे।‘’ अब आठवीं मछली की बारी थी। महाराज मछली ज़ोर-ज़ोर से ऊंघ रहे थे। सो आठवीं मछली ने ज़रा खंखारा और कहने लगी, ‘’हम एक ऐसा बटन बनाएंगे कि हम जब चाहें बच्‍चे बाहर चले जाएंगे।‘’

फिर अनारको को दिखने लगा बटन, फिर ढेर सारे बटन। फिर उनमें से एक बटन बड़ा होता गया, लंबा होता गया, काला होता गया ओर उसे दूर से स्‍कूल की घंटी दिखने लगी। ‘’धतद्य तेरे की, मदलियों में भी स्‍कूल बनने लगा।‘’ उसने सोचा ओर वह हड़बड़ाकर खड़ी हो गई। फिर चल दी स्‍कूल की ओर। दूसरी घंटी छूट चुकी थी और तीसरी घंटी लगने को थी। सो अनारको झट कक्षा में घुस गई और बस्‍ते में से किताब निकालकर पढ़ने लगी, ‘’चार तिया बारह, चार चौक सोलह, चार पंजे .. बीस ...।‘’ ये बात और है कि कक्षा में उसके साथी सात के पहाड़े पर हिल रहे थे।


सत्‍यु- पूरा नाम सतीनाथ षड़ंगी। भोपाल गैस त्रासदी तथा अन्‍य जन आंदोलनों से जुड़े हुए हैं। लेखन में कहरी रूचि।
विप्‍लव शशि- फाइन आर्ट में पढ़ाई, भोपाल में निवास।
‘अनारको के आठ दिन’ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्‍ली द्वारा 1994 में प्रकाशित।