दुनू रॉय
पुस्तक समीक्षा

किताब: हमारी धरती हमारा जीवन (उत्तराखंड क्षेत्र के विद्यालयों की कक्षा 6-10 के लिए पर्यावरण अध्‍ययन का पाठ्यक्रम)
लेखक: एम. जी. जैक्‍सन;
अनुवाद: सतीष दत्‍त पाण्‍डेय;
प्रकाशक: उत्‍तराखण्‍ड पर्यावरण शिक्षा केन्‍द्र, अलमोड़ा, उ.प्र.।

ऐतिहासिक चिपको आंदोलन की जन्‍मभूमि में पैदा इस कोशिश के कई अनुकरणीय पहलू हैं। जो कार्य उत्‍तराखंड में संभव हैं
, वह देश के विभिन्‍न अंचलों में भी कुछ फेर बदल करके फैलाए जा सकते हैं। . . . पर्यावरण विषय नया ही नहीं बल्कि जटिल भी है। जो तर्क आज सही लगता है, उसे कुछ घटनाएं कल गलत भी साबित कर सकती हैं। इसीलिए पर्यावरण संबंधी मानयताएं गलातार बदलती रहती हैं। और किसी भी समीक्षा की जि़म्‍मेदारी बन जाती है कि उन परविर्तनों को इंगित करे ताकि पाठ्यक्रम में भी निरन्‍तर विकास होता रहे।

जब किसी वस्‍तु को पाने में असुविधा होती है तब उसकी कीमत बढ़ने लगती है। शायद यही क्रम पर्यावरण के साथ भी चला। साठ के दशक तक इस देश में इतना साफ पानी था, इसकी नदियां इतनी कोमल थीं, इसकी ज़मीन इतनी सुफला और सजला कि कौन कल्‍पना कर सकता था कि भोपाल में एक रसायन रातों रात 2500 प्राणों को काल के मुंह में पहुंचा सकता है। परन्‍तु विकास का पहिया कई कलियों को रौंदता हुआ निकल चुका है।

इसका पहला आभास हुआ जब 1974 में भारत सरका ने जल प्रदूषण को रोकने के लिये कानून बनाया। उसके पहले दंड संहिता में अवश्‍य कुछ धाराएं थीं जिसके तहत किसी को भी सार्वजनिक जगह को गंदा करने से रोका जा सकता था। लेकिन बढ़ती हुई गंदगी को उन नियमों से रोकना असम्‍भव सा हो रहा था। इसलिए अधिनियमों की पंक्ति बढ़ती गई। जल प्रदूषण के बाद वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने का कानून, फिर वन कानून में सुधार और वनय प्राणी सुरक्षा अधिनियम। भोपाल कांड के बाद औद्योगिक दुर्घटनाओं संबंधी बीमाकरण भी हुआ और कुछ ही वर्ष बाद पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम भी पारित हो गया।

जैसे-जैसे कानून बनते गए, वैसे ही कुछ व्‍यक्तियों ने उनका उपयोग भी करना शुरू कर दिया। देश के कई भागों में पर्यावरणीय समलों को लेकर उथल-पुथल शुरू हुई। कहीं कोई बांध के डूब क्षेत्र से परेशान था तो कहीं कोई दलदल से। कोई कहीं पेड़ बचाने में लगा था तो कहीं और कोई पेड़ उखाड़ने में। कोई साफ पानी के लिए लालायित था तो कोई और दूषित जल से पस्‍त। मुआवजा नियंत्रण और सुरक्षा के लिए अदालतों में याचिकाओं की लम्‍बी कतार खड़ी है। यहां तक कि सरकार कई दिनों से विशेष पार्यावरण नयायालयों की भी बात कर रही है।

कुल मिला कर पर्यावरण एक जीवंत विषय बन गया है लजो तमाम संगठनों के मानस में समा चुका है। प्रचार प्रसार के माध्‍यमों में उसका महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। जि़ंदगी के हर पहलू को अब वह प्रत्‍यक्ष में छूने लगा है। इसी को देखते हुए शायद सर्वोच्‍च नयायालय ने तीन वर्ष पहले निर्देश दिए कि विद्यालयीन शिक्षा में पर्यावरण को भी शामिल किया जाए। इसी निर्देश के फलस्‍वरूप पहले छुटपुट पर्यावरण शिक्षण के जो प्रयोग चल रहे थे उनका विस्‍तार हुआ है, और काफी पाठ्य-सामग्री का विकास भी हुआ है। इसी श्रृंखला में उत्‍तराखंड पर्यावरण शिक्षा केन्‍द्र, अलमोड़ा द्वारा कक्षा 6 से 10 तक के लिए प्रकाशित तथा प्रसारित हमारी धरती, हमारा जीवन शीर्षक का पाठ्यक्रम एक वयावहारिक तथा सराहनीय प्रयास है।

मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरका की सहायता व आर्थिक सहायोग से छपी इन पुस्‍तकों के लेखक हैं एम. जी. जैक्‍सन। श्री जैक्‍सन और उनके सहयोगियों ने वढ़ी लगन से पाठ्यक्रम को तैयार किया है। स्‍पष्‍ट है कि वे उत्‍तराखंड क्षेत्र की परिस्थिति से अच्‍छी तरह से परिचित हैं। विशेष तैार पर इन पुस्‍तकों में शुलतापूर्वक कइ अभ्‍यास सुझाए गए हैं जिनसे विद्यार्थियों को वस्‍तु स्थ्‍िाति को समझने में मदद मिले और साथ ही रचनात्‍मक कार्य भी हो।

गांव के परिवेश पर आधारित इस पाठयक्रम में कई कलाएं उभारी गई हैं। सरल विधियों द्वारा ज़मीन, पानी, फसल, घास इत्‍यादि को नापना, पौधों को उगा कर कलम लगाना, ईधन और चारे की व्‍यवस्‍था करना, चूल्‍हे और शौचालय का निर्माण करना, तथा इस प्रकार के व्‍यावहारिक कामों से स्‍कूली शिक्षा को जोड़ना। इन पुस्‍तकों मे इस संबंध में उपयोगी अनुभवों का भंडार इै। इसके अलावा अपनी धरती, अपना प्रबंध, अपनी जि़म्‍मेदारी शीर्षक से एक प्रशिक्षक मार्गदर्शिका और एक कार्य-पुस्तिका भी प्रकाशित की गई है; जिनमें पाठृयक्रम के सिद्धांतों को ग्रामीण समाज तक पहुंचाने की कोशिश की गई है।

ऐतिहासिक चिपको आंदोलन की जन्‍मभूमि में पैदा इस कोशिश के कई अनुकरणीय पहलू हैं। जो कार्य उत्‍तराखंड में संभव हैं, वह देश के विभिन्‍न अंचलों में भी कुछ फेर बदल करके फैलाए जा सकते है। ध्‍यान देने लायक बात यह है कि पर्यावरण विषय नया ही नही बल्कि जटिलि भी है। जो तर्क आज सही लगता है, उसे कुछ घटनाएं कल गलत भी साबित कर सकती हैं। जैसे कि बीस वर्ष पहले माना जाता था कि मलेरिया समाप्‍त करने का उत्‍तम तरीका डी.डी.टी. छिड़कना है। परन्‍तु वर्तमान में सभी जान गए हैं कि जहां एक तरफ मच्‍छर इस दवा को हजम कर गया है, वहीं दूसरी ओर मनुष्‍य ही धीरे-धीरे उसका शिकार हो गया है। इसीलिए पर्यावरण संबंधी मान्‍यताएं लगातार बदलती रहती हैं। और किसी भी समीक्षा की जि़म्‍मेदारी बन जाती है कि उन परिवर्तनों को इंगित करे ताकि पाठयक्रम में भी निरन्तर विकास होता रहे।

इन पुस्‍तकों में कुद सुधार यदि शैली में किया जाए तो वे और लोकप्रिय हो सकती हैं। सतीश दत्‍त पाण्‍डेय ने बड़ी मेहनत से हिन्‍दी अनुवाद किया है। ऐसी कठिन और तकनीकी विद्या को सकूली बच्चों के लिए रोचक बनाना कोई आसान काम नहीं है । आशा है कि अगले संस्‍करण में भाषा और सरल की जाएगी और हिन्‍दी की जगह हिंदुस्‍तानी का प्रयोग किया जाएगा ताकि आम लोग भी बात की नस को पकड़ सकं। गणना, चित्रण और व्‍याकरण की जो छोटी मोटी गलतियां हैं उन्‍हें भी निस्‍संदेश सुधार लिया जाएगा। एक दिलचस्‍प बात है कि अंग्रेज़ी में बढ़े और छोटे को सम्‍बोधित करने में कोई अंतर नहीं है  परन्‍तु किन्‍दीके अवतरित रूप में अनुवादक आप और तुम के बीच मे लटक गए हैं।

दूसरी बात है कि शायद उत्‍तराखंड के ग्रामीण स्‍कूली बच्चों की वास्‍तविक अवस्‍था की पहचान की कमी हैं। कक्षा आठ के विद्यार्थी की एक आदर्श छवि है, परन्‍तु अधिकतर जगहों पर वास्‍तविक विद्यार्थी उससे कोसों दूर है। इसीलिए लगता है कि किसी अभ्‍यास के लिए जिस हुनर की अपेक्षा है वो शायद असलियत में मौजूद ही न हो। मसलन साक्षर ग्रामवासियों से उम्‍मीद की गई है कि वे पूरे परितंत्र का लेखा जोखा कर लें, परन्‍तु अन्‍य जगह जो उदाहरण दिया गया है उसमें दूध उत्‍पादन का अनुमान लगाने का काम कक्षा 10 के विद्यार्थी ही कर पाए हैं। इसी प्रकार यह सोचना कि 12-13 वर्ष के छोटे बच्‍चे 50 किलोग्राम की क्षमता की कमानीदार तुला लेकर बांट सहित पहाड़ी रास्‍तों में ग्राम का भ्रमण करेंगे तो यह शायद बच्‍चों से ज़यादती है।

यदि उन्‍हें विभिन्‍न क्षेत्रों में – जहां पेड़ कटाई या चराई या आग से विनाश हुए हैं- जल और मिटटी के बहाव को नापने का अभ्‍यास दिया जाता तो वे स्‍वयं तय कर पाते कि किस स्थिति में सबसे अकधक भूक्षरण हो रहा है। पटवारी से यदि वे स्‍वयं आंकड़े मांगते (पाठ्यक्रम में शिक्षक इसकी व्‍यवस्‍था करते हैं) ओर फिर उन आंकड़ों की तुलना वस्‍तुस्थिति से करते तो विद्यार्थियों को सरकारी तंत्र की कर्मठता और विश्‍वसनीयता को परखने का भी मौका मिलता। इस प्रकार की कई और सुधार की सम्‍भावनाएं हैं जो अनुभव के साथ उभरेंगी। इसमें भी कोई शंका नहीं कि उत्‍तराखंड सेवा निधि में ऐसे अनुभवों को सूत्र मे बांधने की पूरी क्षमता है।

पुस्‍तकमाला में एक चीज़ यदि खटकती है तो वह है मूल सिद्धांतों में एक विशिष्‍ट दृष्टिकोण का वर्चस्‍व। इसके कुछ उदाहरण दिए जा सकते हैं। पुस्‍तकों मे इस बात को बार-बार दोहराया गया है कि चराई ही उत्‍तराखंड के वनों के विनाश का मुख्‍य कारण है और इसलिए जानवरों को खूंटे पर खिलाना चाहिए। चराई के साथ आबादी की बढ़ोत्‍तरी, आग और (ग्रामीणों द्वारा) पेड़ कटाई को भी जंगल की दूर्गति के लिए दोषी ठहराया गया है। ‘दंडक’ और ‘चिपको’ की कर्मभूमि में यह मान्‍यता कुछ अटपटी- सी लगती है। पूरी पुस्‍तकमाला में (कार्य-पुस्तिका में एक वाक्‍य को छोड़कर) कहीं भी इस ऐतिहासिक तथ्‍य का उल्‍लेश नहीं है कि अंग्रेज़ हुकूमत ने बहुत बड़े पैमाने पर वनों को ग्राम समाज के अधिकार से छीन कर, उनहें व्‍यवसायिक स्‍वार्थों की पूर्ति के लिए एक छोर से दूसरे छोर तक साफ कर डाला। इसी क्रम में बांज को समाप्‍त कर दिया गया ताकि अधिक ‘मूल्‍यवान’ चीड़ उसकी जगह ले सके।

यही ‘मूल्‍य’ की समझ पाठ्यक्रम की बुनियाद में विराजमान है। पूरी शिक्षा का उद्देश्‍य ही है ‘अधिकतम सम्‍भव उत्‍पादकता’ को हासिल करना। ऐसे संदर्भ में उपयोगिता की परिभाषा केवल मानव समाज से जुड़ी है – बीज, पशु आहार और भूसे की ज़रूरतें अनाज का ‘नष्‍ट’ होना हुआ।

मानवों में भी कोई भेद भाव नहीं है; गांव में सभी को बराबर मान लिया गया है, पुरूष और महिला में कोई अंतर नहीं है। सुरक्षा केवल दीवारें प्रदान कर सकती हैं; ग्राम सभा के सामूहिक निर्णय द्वारा चराई के क्रम को तय करने को कोई महत्‍व नहीं दिया गया है।

घास चारा को पत्‍ता चारा से हीन माना गया है; घास की चराई का खाद, घसनियों के स्‍वास्‍थ्‍य और आहार की पौष्टिकता से सम्‍बंधों का कोई उल्‍लेख नहीं है। निजी स्‍वार्थों को ‘टिकाऊ उत्‍पादन’ और ‘रख-रखाव’ के लिए अहम् ठहराया गया है; सार्वजनिक प्रक्रियाओं और संयुक्‍त परिवार को अड़चन के रूप में प्रस्‍तुत किया गया है।

ये समसत मान्‍यताएं एक तरह से आधुनिक विकास और विज्ञान के बेढंगे समझ की देन हैं। मनुष्‍य की बुनियादी ज़रूरतों को पानी, दूध, ईधन और पैसों तक सीमित करके, आधुनिकता में सामाजिक रिश्‍तों, शादी, त्‍यौहार, जन्‍म, मृत्‍यु, दुख और सुख के लिए कोई स्‍थान बाकी नहीं रह जाता। तमाम पारम्‍परिक तरीकों की बलि चढ़ा दी जाती है और नागफनी के जीवंत संधान की जगह केवल मृत शिलाओं की दीवार ही नज़र आती है। पानी को नियंत्रित करने के लिए प्‍यास्टिक की चादरें, पाइप और टैंक, पहाड़ी झरनों के कलरव को मूक कर देती हैं।

अंत में पुस्‍तकों के पन्नों में से मानो पहाड़ का भाव विहीन चेहरा ही झांक रहा हो। उस चेहरे को ‘उत्‍पादकता’ और ‘उन्‍नतशीलता’ के खूनी पिस्‍सुओं से आखिर कौन बचाएगा? मानव संसाधन विकास मंत्रालय की इस भेंट में मानव एक निर्जीव संसाधन मात्र प्रकट होता है।

दुनू रॉय -                              

 कक्षा-7 की किताब से लिया गया एक पाठ

सूखा पदार्थ प्रतिशत निकालने का तरीका

यह बॉक्‍स असल में बॉक्‍स 8-2 का ही अनुक्रम है जिससे हमने प्रतिशत निकालना सीखा था। पहले हम एक भिन्‍न बनाते हैं और फिर उसे 100 से गुणा करते हैं।

मान लीजिए हमने चारे के लिए एक गटठा हरे बांज के पत्‍ते काटे। उसे हम अपने कमानीदार तराजू पर तौलते हैं ओर उसका वज़न 24 कि. ग्रा; निकलता है। हम यह जानना चाहते हैं कि इस 24 कि. ग्रा; में कितना सूखा पदार्थ हैं।

यह निकालने के लिए हम एक एक कि. ग्रा. (या 1000 ग्राम) ताज़ी पत्तियों का नमूना लेते हैं। हम उन्हें धूप मे सुखाते और एक बार फिर तौलते हैं। पट्टियों का  लीजिए कि सूखे पत्‍ते 400 ग्राम निकलते हैं। 1000 ग्राम ताज़े पत्‍तों में केवल 400 ग्राम सूखा पदार्थ है। इस तरह 100-400 – 600 ग्राम पानी था।

चारे का सूखा पदार्थ प्रतिशत क्‍या हुआ? पहले हम एक भिन्‍न बनाते हैं, जैसे –   
सूखे पत्‍तों का वज़न/ताज़े पत्‍तों का वजन  =  400 ग्राम/1000 ग्राम

फिर हम प्रतिशत निकालने के लिए इसे 100 से गुणा करते हैं, जैसे-
=400 x 100/1000 = 40

इस तरह ताज़ी पत्‍ती चारे का सूखा पदार्थ प्रतिशत है 40

आइए अब यह देखते हैं कि इस प्रतिशत संख्‍या को हम व्‍यावहारिक समस्‍याएं सुलझाने मे कैसे उपयोग कर सकते हैं?

पहली वाली समस्‍या में हमने कहा थ कि हमारा चारे का गट्ठा 24 कि. ग्रा. का था। अगर हम पूरे गट्ठे को सुखा लेते तो उसका वज़न कितना होता? निश्‍चय ही पूरे गट्ठे को सुखाना बहुत बड़ा काम है। इसीलिए तो शुरू में हमने सिर्फ 1 कि; ग्रा. का एक नमूना लिया था। क्‍योंकि हम जानते हैं कि ताज़े पत्‍तों में 40 प्रतिशत सूखा पदार्थ होता है, हम यह निकाल सकते हैं कि अगर उसे सुखाया जाए तो पूरे गट्ठे का वज़न कितना होगा?

गट्ठे के चारे का सूखा वज़न = 24 कि. ग्रा. x ताज़े पत्‍तों का प्रतिशत सूखा पदार्थ/100
                                 = 24 कि. ग्रा. x 40/100 = 9.6 कि. ग्रा.

अब यह मानिए कि हमारा वह चारे का गट्ठा एक ही पेड़ से काटा गया था। हमारे पोषक क्ष्‍ज्ञेत्र में प्रति नाली 20 ऐसे पेड़ हैं, तो फिर प्रति नाली चारा सूखा पदार्थ का प्रतिशत क्‍या हुआ?
पहले प्रति नाली चारे का उपज निकालिए।
ताज़ा चारा प्रति नाली = 24 कि. ग्रा. x 20 = 480 कि. ग्रा.

अब इस संख्‍या को उसके तुल्‍यमान सूखा पदार्थ परिमाण में बदलिए।
एक नाली में उपजा सूखे चारे का वज़न  =  480 x 40/100  = 192 कि. ग्रा.

कक्षा- 7 की किताब क एक पाठ का अंश

पेड़ों से बीज कैसे एकत्र करें

अकेसिया (अकेसिया डेक्‍यूरेंस, अकसिया मिर्न्‍सी)
अकेसिया में हर साल बीज बनते हैं। जनवरी माह मे पीले रोएंदार फूल आते हैं। बीज लगभग 10 से. मी. लंबी पतली फलियों में रहते हैं। फलियां जून माह में पकती हैं। पकेने पर वे फट से खुल जाती हैं और बीजों को पेड़ से कछ दूरी पर छिटका देती हैं। इसलिए फलियों को खुलने से पहले ही तोड़ लेना होता है। फलियों को धूप में सुखाकर हल्‍की गहाई की जाती है। 1000 बीजों का वज़न लगभग 14 ग्राम होता है। कस कर बन्‍द किए गए पलास्टिक के थैलों मे वे कई साल तक अंकुरण क्षमता रखते हैं।

बांज (कैरकस ल्‍यूकोट्राकोफोरा)
... याद रखिए कि बांज के पेड़ आम तौर से हर दूसरे साल ही अच्‍छी बीज पैदावार करते हैं। बीजों को कस कर बन्‍द किए गए प्‍लास्टिक के थैलों में एक साल तक रखा जा सकता है ताकि अगले साल उपयोग किया जा सके। हां, उनकी अंकुरण क्षमता थोड़ी बहुत कम हो जाएकी। 1000 बीजों का वज़न लगभग दा किलो होता है।

कक्षा -8 की किताब का एक पाठ

एक टेढ़े तिरछे खेत को नापने का तरीका

अभ्‍सास- 2 (कक्षा-6 ) में आपने खेतों को साफ सुथरे वर्गो और आयतों में बांटा था। इसमें से किसी की भी लंबाई को उसकी चौड़ाई से गुणा करके आप सरलता से उका क्षेत्रफल निकाल लेते थे। किसी गांव में ऐसे वर्गाकार या आयताकार खेत नहीं होते। आप देखेंगे कि वे सब टेढ़े मेढ़े तिरछे होते हैं जैसा कि नीचे के चित्र में दिखाया गया है।

किसी ऐसे खेत का क्षेत्रफल निकालने का सैद्धांतिक तरीका है – इसको कई छोटे-छोटे समान आयताकार या वर्गाकार टुकड़ों में बांटकर उनका क्षेत्रफल निकालना तथा फिर पूरे खेत का क्ष़त्रफल निकालना। यह सीखने के लिए आइए हम कागज़ पर एक अभ्‍यास करें। खेत को ऊपर के चित्र की तरह अंकित कीजिए। उसके बाद डोरी से कई सीधी पड़ी हुई रेखाएं खींजिए। इन पंक्तियों को नीचे के चित्र में क, ख, ग, घ, ड., से दिखाया गया है। जितना ही तिरछा खेत होगा उतनी ही अधिक ऐसी सीधी पड़ी हुई रेखओं की आपको ज़रूरत होगी। फिर, हर देखा के मध्‍य बिन्‍दु पर खड़ी रेखाएं डालिए ओर उन्‍हें त, थ, द, ध, न, से चिन्हित कीजिए। इन्‍हें अनुप्रस्‍थ रेखाएं कहते हैं।

वास्‍तव में आप कर यह रहे हैं कि एक बड़े टेढ़े खेत को छोटे-छोटे आयतों में बांट रहे हैं, जैसे – खेत का क्षेत्रफल लगभग इस प्रकार होगा

अत: हम हर आयत का क्षेत्रफल निकालने के लिए उसकी लंबाई को चौड़ाइ्र से गुणा कर देते है और फिर सब खेत्रफलों को जोड़ कर पूरे खेत का क्षेत्रफल निकाल लेते हैं।

एक उदाहरण देखे : किसी एक खेत में ऊपर वाल चित्र के क और त को नापा जाता है ओर वे इस प्रकार मिलते हैं –

इसी तरह अन्‍य आयतो की लंबाई और चौड़ाई निकालकर उनका क्षेत्रफल निकाला जाएगा।

याद रखिए कि इस तरीके से लगभग सही परिणाम ही निकालते हैं। कुछ जगहें ऐसी होती हैं जहां आयतों की रेखाएं एक दूसरे के ऊपर पड़ जाती हैं। इस तरह की गलतियां उन जगहों के जोड-तोड़ से ठीक हो जाती हैं जो किसी भी आयत में नहीं पड़ती।

जब आप किसी खेत को नापने जाएं तो उसे नापने का एक तुरंत और व्‍यावहारिक तरीका इस प्रकार है:

  1. एक सिेरे से शुरूआत करके खेत की चौड़ाई को पांच-पांच मीटर के फासले से नापिए(अनुप्रस्‍थ रेखाए) और हर नाप को लिखिए। अंत में सबका औसत लिकाल लीजिए। यह हुई खेत की चौड़ाई जिसे क कहिए।
  2. खेत की लंबाई नापिए। अपनी नाप खेत के सामने ओर पीछे के किनारों के लगभग बीच में कीजिए, चाहे वह एक तिरछी लाइन ही क्‍यां नह हो। इसे ख कहिए।
  3. आपके खेत का क्षेत्रफल है- क्षेत्रफल = क x ख

एक उदाहरण नीचे दिया गया है, हम पृष्‍ठ 25 पर दिखाए गए खेत को लेंगे, लेकिन उसे एक असली खेत मानकर चलेंगे–

मान लिजिए कि लम्‍बाई क मीटर है और खेत की चौड़ाई के तीन नाप हैं 8 मी.,  6 मी., और 4 मी.। 'ख' इन तीन नापों का औसत होगा,

या                8 + 6 + 4  = 6 मी.

खेत का क्षेत्रफल होगा लगभग  = 18 x 6
                                      = 108 वर्ग मीटर 
               या ½ नाली से थोड़ा अधिक

इस रेखा पर खेत की लंबाई नापिए।

*पर्वतीय क्षेत्रों में ज़मीन नापने की इकाई


दुनू रॉय – विदूषक कारखाना, अनूपपुर, जिला शहडोल, म.प्र. में लम्‍बे अर्से तक रहे। पर्यावरण, विकास, टेक्‍नॉलाजी एक जनविज्ञान के मुद्दों पर लेखन एवं कार्य। दिल्‍ली में निवास।