अजय शर्मा

पृथ्‍वी का चुंबकत्‍व शायद जीवन के लिए एक रक्षा कवच भी है तो कई प्रवासी जीवों को मार्गदर्शन में भी मदद करता है। लेकिन कई सवाल हैं जिनके जवाब या तो नहीं हैं या फिर अधूरे हैं।

चुंबक से खेलने और उससे तरह- तरह के प्रयोग करने में बच्‍चों को मज़ा आता है। इसके बारे में तकरीबन सभी स्‍कूल में पढ़ते हैं कि चुंबकीय पदार्थ अपने इर्द-गिर्द एक चुंबकीय बल क्षेत्र की रचना करते हैं, जिसके माध्‍यम से वह अन्‍य चुंबकीय पदार्थों और लोहे से बनी चीजों को प्रभावित करते हैं। पर क्‍या जीव-जंतु भी चुंबकीय बल के प्रति संवेदनशील होते हैं? क्‍या हम भी चुंबकीय बल से प्रभावित होते हैं या हो सकते हैं?

इस तरह के पेचीदा सवालों पर मेरा ध्‍यान तब आकर्षित हुआ जब मैंने अपने मित्र को मेगनेटो-थेरेपी के तहत चुंबको की मदद से अपने एक रोग का इलाज करते पाया। जवाब जलाशने निकला तो समझ में आया कि मामला काफी उलझा हुआ है, पर है बेहद दिलचस्‍प। बहुत से वैज्ञानिक भी एक लंबे समय से इन प्रश्‍नों के संतोशप्रद जवाब खोजने में जुटे हुए हैं। इनके प्रयास से एक धुंधली-सी तस्‍वीर ज़रूर उभरी है। इस तस्‍वीर की मुख्‍य आकृतियां कैसा रूप ले रही हैं, आइए इस लेख में समझें।

इतिहास में चुंबकीय दिकद्यसूचक का सबसे शुरूआती वर्णन ग्‍यारहवीं सदी में देखने को मिला है। चीन के नाविकों द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले एक दिकद्यसूचक का उल्‍लेख है उसमें। पर ऐसा समझा जाता है कि चीन के लोग, छठवीं सदी के पहले ही यह जान गए थे कि स्‍वतंत्रता से घूम- फिर सकने वाला एक चुंबक हमेशा एक खास दिशा (लगभग उत्‍तर-दक्षिण) मं ही रूकता है। लेकिन ऐसा क्‍यों होता है, यह सोलहवीं सदी के अंत तक एक रहस्‍य था। इस सवाल का जवाब तब मिला जब विलियम गिलबर्ट ने, सन 1600 में पहली बार यह सुझाया – ऐसा इसलिए होता है क्‍योंकि पृथ्‍वी के चुंबकीय गुणों के महत्‍व को मद्देनज़र रखते हुए तब से इनका बारीकी से अध्‍ययन किया गया है। ओर आज हम जानते हैं कि हमारी धरती का चुंबकीय क्षेत्र किस तरह समस्‍त जीवन को अपने में समेटे हुए है – चाहे वह जल में मौजूद हो, सतह पर हो या वायुमंडल में। प्रभाव की दृष्टि से भी चिरकाल से यही चुंबकीय बल सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण रहा है। अत: जीव-जन्‍तुओं की चुंबकीय संवेदनशीलता या उन पर पढ़ने वाले चुंबकीय प्रभावों की चर्चा करते वक्‍त हमारा प्रमुख केन्‍द्र् बिन्‍दु पृथ्‍वी का चुंबकीय बल ही होगा।

इसलिए जीव- जगह की बात शुरू करें उससे पहले यह ज़रूरी हो जाता है कि एक सरसरी नज़र पृथवी के चुंबकत्‍व पर भी डाल ली जाए।

पृथ्‍वी – एक चुंबक
सबसे पहला प्रश्‍न तो शायद यही होगा कि आखिर पृथवी में चुंबकत्‍व क्‍यों है? सवाल सरल है। पर जैसा कि सरल वालों के साथ अक्‍सर होता है जवाब अपूर्ण ओर असंतोषप्रद ही नजर आते हैं। भूगर्भशास्त्रियों के बीच इस विषय को लेकर कोई एक सर्वमान्‍य समझ तो नहीं उभर पाई है; हां, पर इस बात पर सभी एकमत हैं कि इस चुंबकत्‍व की उत्‍पतित पृथ्‍वी की लौह संपन्‍न द्रवीय बाहरी कोर में बह रही विद्युत धाराओं की वजह से ही होती है।

मोटे तौर पर समझा जाए तो पृथ्‍वी का चुंबकीय बल एक भीमकाय छड़ चुंबक सरीखा है। ‘भैगोलिक उत्‍तर दक्षिण ध्रुवों’ के अतिरिक्‍त पृथ्‍वी में एक ओर जोड़ी ध्रुव ‘उत्‍तर और दक्षिण चुंबकीय ध्रुव’ मौजूद हैं।

अब जैसा कि सर्वविदित है, एक लटकाए हुए चुंबक (या चुंबकीय सुई) का उत्‍तरी ध्रुव उत्‍तर दिशा में रूकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि पृथवी का चुंबकीय दक्षिण ध्रुव दक्षिण में न होकर, भौगौलिक उत्‍तरी ध्रुव के समीप है; और चुंबकीय उत्‍तरी ध्रुव भौगौलिक दक्षिण ख्रुव के पास है।

है न, यह थोड़ी दिलचस्‍प बात। पर ऐसा भी नहीं है कि चुंबकीय ध्रुव अपने से विपरीत भौगोलिक ध्रुवों के ठीक ऊपर या आसपास हैं।

चुंबकीय दक्षिण ध्रुव भौगोलिकउत्‍तरी ख्रुव से दूर उत्‍तरी कनाडा में पड़ता है। चुंबकीय उत्‍तरी ध्रुव तो भौगोलिक दक्षिण ध्रुव से और भी अधिक दूर अंटार्कटिका में मौजूद है। यही कारण है कि दिकसूचक एकदम उत्‍तर दिशा कभी नहीं दिखाता। माजरा क्‍या है, चित्र-1 देखकर स्‍पष्‍ट हो जाएगा।

पृथ्‍वी का चुंबकीय बल सतह पर तो विद्यमान है ही, यह आकाश में भी काफी दूर तक फैला हुआ है। इसके प्रभाव खेत्र का अगर बल रेखाओं के द्वारा दर्शाया जाए तो स्थिति ‘चित्र-2’ के अनुरूप उभरती है। जैसा कि इस चित्र में आपने गौर किया होगा, उस अर्धगोलार्द्ध की तरु जहां दिन है, चुंबकीय बल एक सीमित क्षेत्र में ही सिमल गया है, जबकि दूसरी तरु यह पृथ्‍वी के व्‍यास से हजारों गुना लंबी दूरी तक फैला हुआ है। यह विरूपता हमारे सूर्य की देने है।

दरअसल, सूरज से हमें केवल प्रकाश और गर्मी ही प्रपत नहीं होती बल्कि खासी मात्रा में तीव्र गतिधारी आवेशित कणों (इलेक्‍ट्रॉन और प्रोटॉन) की धाराएं भी निकलकर पृथ्‍वी तक पहुंचती हैं। इन धाराओं को सोलर विंड कहा जाता है। सोलर विंउ जब पृथ्‍वी के समीप पहुंचती है तो उसके चुंबकीय क्षेत्र पर एक तरह का ‘दबाव’ डालती है। इस ‘दबाव’ के कारण ही यह चुंबकीय खेत्र एक तरफ से दब जाता है।

सोलर विण्‍ड के अतिरिक्‍त अंतरिक्ष से (दरअसल हमारे सौर मंडल से भी दूर से) एक और किस्‍म के आवेशित कण(मुख्‍यत: प्रोटॉन) हमारी धरती पर अविरत बरसते रहते हैं। इन कणों को कॉस्मिक किरणें कहा जाता है। ये किरणें कहां से आती हैं, यह अभी पक्‍के तौर पर नहीं मालूम। पर हम खुशनसीब हैं कि, पृथ्‍वी  का चुंबकीय क्षेत्र एक कवच की तरह काम करते हुए सोलर विंड और कॉस्मिक किरणों के अधिकांश कणों को धरती से परे धकेल देता है।

हां, कुछ कण ज़रूर इस सुरक्षा कवच को भेद पाने में सफल हो जाते हैं। इनमें से कुछ तो चुंबकीय खेत्र के ऊपरी इलाकों में फंस कर ‘वेन एलन रेडिएशन बेल्‍ट’ का निर्माण करते हैं। और बाकी हम तक पहुंच कर हमारे शरीर को हर समय भेदते हरते है। जी हां, इस प्रहार का भले ही आपको गुमान न हो, पर यह जांची परखी बात है कि अगर आप समुद्र तट पर आराम फरमा रहे हैं तो औसतन एक से तीन कण प्रति वर्ग से.सी. प्रति मिनट की दर से कॉसिमक किरणें आपके जिस्‍म से आर-पार हो रही होंगी। जैसे-जैसे भूमध्‍य रेखा से दूर जाते हैं यह दर बढ़ती जाती है।

यह किरणें हमें किस तरह प्रभावित करती हैं यह तो पता नहीं, पर स बात की प्रबल संभावना ज़रूर है कि पृथ्‍वी के चुंबकीय क्षेत्र और इन किरणों की परसपर क्रिया का असर शुरू से ही जैव विकास पर होता आया है। इस असर का प्रमुख कारण चुंबकीय क्षेत्र की दिशा और मात्रा में निरंतर होती घट-बढ़ को माना जाता है (देखें बॉक्‍स)।

जी हां, पृथ्‍वी का चुंबकीय क्षेत्र स्थिर नहीं है। लाखों वर्षों से इस में निरंतर अनियमित बदलाव होते आए हैं। इन बदलावों के प्रमाण हमें पृथ्‍वी में (चट्टान की) विभिन्‍न परतों और समुद्री तल पर मौजूद चट्टानों के चुंबकत्व के अध्‍ययन से मिले हैं। यह बदलाव चुंबकीय क्षेत्र की मात्रा और दिशा दोनों में देखने को मिलता है।

अभी तक उपलब्‍ध प्रमाणों के हि‍साब से कई बार ऐसा भी हुआ है कि चुंबकीय क्षेत्र घट कर शून्‍य हो गया और फिर उल्‍टी दिशा में बढ़ने लगा। ऐसा अनुमान है कि पिछले पचास लाख सालों में इस तरह की उलट-फेर बीस बार हो चुकी है। आखिरी बड़ी उलट-फेर लगभग सात लाख साल पहले हुई थी। लेकिन करीब 30 हजार साल पहले एक छोटी उलटफेर भी रिकॉर्ड की गई है। और लगभग दस लाख वर्ष पहले एक समय तो ऐसा भी आया था जब दस-बीस हजार साल के लिए पृथ्‍वी का चुंबकीय क्षेत्र लगभग लुप्‍त ही हो गया था।

इस तरह के बदलाव शुरू से ही इतनी बेतरतीबी और अनियमितता से होते देखे गए हैं कि यह अंदाज लगा पाना मुश्किल है कि अगली उलट-फेर कब होगी। पर जिस दर से पृथ्‍वी का चुंबकीय बल घट रहा है (करीब पांच प्रिशित प्रति सौ साल) वह अगर कायम रहा तो आगामी दो हजार सालों के अंदर आप चुंबकीय बल में एक और उलट-फेर की उम्‍मीद कर सकते हैं।

पर घबराइए नहीं यह ज़रूरी नहीं कि ऐसा हो ही। दर असल यह पूरा मसला बेहद पेचीदा है। भूगर्भ शास्‍त्री तो अभी तक यह ही समझ नहीं पाए हैं कि चुंबकीय बल में यह बदलाव आखिर आते क्‍यों हैं।

चूंकि हम पृथ्‍वी की तुलना एक विशालकाय छड़ चुंबक से कर रहे हैं, मुमकिन है आप इस चुंबकीय बल को काफी प्रबल मान बैठें।पर आपको यह जान कर शायद आश्‍चर्य हो कि प्रयोगशालाओं में उपयोग में आए जाने वाले आम चुंबकों की तुलना में यह चुंबकीय बल काफी कमज़ोंर है। पर फिर भी जीवन इस बल के प्रति संवेदनशील है, इससे प्रभावित है। कैसे, आइए समझें।

पृथ्‍वी के चुंबक का इस्‍तेमाल
जीवों में पृथ्‍वी के चुंबकीय वल के प्रति संवेदनशीलता का सबसे सरल, सीधा और अहम उदाहरण (प्रक्रिया और अवलोकनके हिसासब से) मैग्‍नेटोटेक्टिक जीवाणुओं मे देखने को मिलता है।

इन जीवाणुओं में एक ऐसा चुंबकीय मार्गदर्शन यंत्र पया जाता है जिसका उपयोग यह जीव हलन-चलन में करते हैं। यह तंत्र (पृथ्‍वी के चुबकीय बल की मदद लेते हुए, इन जीवाणुओं को चलने के लिए सही दिशा की ओर उन्‍मुख करता है। अब इसे आप शायद जैव-विकास की अद्भुत जटिलता की एक ओर मिससाल ही कहेंगे कि जहां पृथ्‍वी के चुंबकत्‍व का इस तरह उपयोग करने का मानव इतिहास मात्र एक हजार साल ही पुराना है, वहीं दूसरी ओर मेग्‍नेटोटेक्टिक बेक्‍टीरिया जैसे सरलतम जीव ने यह महारत अरबों साल पहले ही हासिल कर ली थी।

मैग्‍नेटोटेक्टिक जीवाणु उन जीवाणुओं की जमात में आते हैं जिन्‍हें श्‍वसन करने के लिए ऑक्‍सीजन गैसे की ज़रूरत नहीं पड़ती। उल्‍टे ऑक्‍सीजन तो इनके लिए एक विष के समान होती है। इसलिए यह जीवाणु ऐसी जगहों पर ही रहना पसंदकरते हैं जहों ऑक्‍सीजन न हो (या बहुत ही कम मात्रा में हो), जैसे तालाबों और दलदलों के तल में जहां का पानी रूका रहता है।

इन जीवावणुओं की सर्वप्रथम खोज, जो कि महज एक संयोग थी, ऐसे ही एक तालाब के तल की कीचड़ में हुई थी। यह बात सन 1975 की है। और इस खोज का श्रेय जाता है रिचर्ड ब्‍लेकमोर को, जो दरअसल उस समय किसी ओर ही चीज़ पर अपनी पी. एच. डी. पूरी करने में जुटे हुए थे। किस तरह तुक्‍के से यह खोज हो गई, यह अपने आप में काफी दिलचस्‍प वाकया है। पर उसका यहां वर्णन शायद अपने संदर्भ से परे होगा। इसलिए फिलहाल हम मेग्नेटोटेक्टि जीवाणुओं की चुंबकीय संवेदनशीलता पर ही चर्चा को आगे बढ़ाते हैं।

दरअसल ये जीवाणु अपने संचलन के लिए पृथ्‍वी के चुंबकीय बल का उपयोग एक बड़ी ही सरल प्रक्रिया के द्वारा करते हैं। इनमें मैगनेटाइट या लोडस्‍टोन नाम के प्रकृतिक चुंबकीय पत्‍थर के छोटे-छोटे टुकडे (एक से ज्‍़यादा) श्रृंखलाओं में कतारबद्ध जमे हुए पाए जाते हैं। पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र इन पत्‍थरों पर चुंबकीय बल लगाता है। पृथ्‍वी की भूमध्‍य रेखा के आसपास के इलाकों में पाए जाने वाले मैगनेटोटेक्टिक जीवाणुओं को छोड़कर, अन्‍य सभी जगहों के जीवाणुओं पर यह बल हमेशा नीचे की ओर लगता है। बल के नीचे की ओर लगने के कारण इन जीवाणुओं को तालाबों के तलों तक पहुंचने में काफी मदद मिलती है। अब चूंकि पृथ्‍वी के उत्‍तरी और दक्षिणी गोलार्द्धों में पृथ्‍वी के चुंबकीय बल की दिशा विपरीत होती है, इसलिए यह देखा गया है कि दक्षिणी गोलार्द्ध में पाए जाने वाले जीवाणुओं के चुंबकीय पत्‍थरों के ध्रुव भी उत्‍तरी गोलार्द्ध में पाए जाने वाले जीवाणुओं के ध्रुवों के विपरीत होते हैं।

वैसे, जीवाणुओं में पत्‍थरों के टुकड़ों का पया जाना कोई खास बात नहीं है। गुण तो है इन टुकड़ों का चुंबकीय होना।

आपको यह जानकर शायद थोड़ा अचरज हो कि कीचड़ में पाए जाने वाले अधिकांश जीवावणुओं के अग्रिम हिस्‍सों में ठोस क्रिसटल्‍स पाए जाते हैं। इन टुकड़ों के वज़न की वजह से इन जीवाणुओं का अगला सिरा नीचे की ओर उन्‍मुख हो जाता है। इससे इनको तालाबों के तल की ओर तैरने में सुगमता हो जाती है। चूंकि मैगनेटाइट पत्‍थर जीवों द्वारा प्राकृतिक रूप से बनाया गया सबसे भारी पदार्थ है, इसलिए मात्र वज़न की तरह से भी यह पत्‍थर इन जीवाणुओं के लिए काफी उपयुक्‍त रहता। इन पत्‍थरों का चुंबकीय गुण, मैगनेटोटेक्टिक जीवाणुओं के संचलन को अधि‍क सफल और आसान बना देता है। है न यह सोने पर सुहागे वाली एक मिसाल।

जीव वैज्ञानिकों ने इन जीवाणुओं के अलावा कई और ऐसे जीव-जन्‍तुओं का पता लागाया है जिनमें पृथ्‍वी के चुंबकीय बल के प्रति संवेदन शीलता होती है। इनमें, शोध की दृष्टि से कुछ प्रवासी पक्षी और अपना ठौर ढूंढ लेने वाले कबूतर प्रमुख हैं।

इस कबूतर की खासियत यह है कि अगर उन्‍हें उनके निवास स्‍थल से सैकड़ों किलोमीटर दूर छोड़ दिया जाए, तो वे किसी प्रकार से अपने घर वापस पहुंच जाते हैं। वैज्ञानिकों के लिए शोध का विशेष मुद्दा रहा है कि यह परिन्‍दे आखिर किन दिशा-सूचक चिन्‍हों क मदद से और किस मार्गदर्शन प्रक्रिया को अपना कर अपना घर पुन: ढूंढ पाते हैं। प्रक्रिया के बारे में तो फिलहाल कोई स्‍पष्‍टता नहीं है। पर शोध के परिणामों से ऐसा ज़रूर प्रतीत होता है कि ये कबूतर अपना रास्‍ता ढूंढने के लिए कई सारे दिशा-सूचक चिन्‍हों और व्‍यवस्‍थाओं का सहारा लेते हैं। पृथ्‍वी का चुंबकीय बल उनमें से एक है।

अमेरिका के प्रिंसटन विश्‍व विद्यालय के गोल्‍ड और वॉलकॉट द्वारा प्रतिपादित संकल्‍पना के अुसार कबूतरों में किसी जगह पर पृथ्‍वी के चुंबकीय बल की मात्रा को आंक सकने की क्षमता होती है।

चूंकि‍ यह चुंबकीय बल आक्षांश के साथ घटता-बढ़ता है, इसलिए इस क्षमता के आधार पर कबूतरों को कम-से-कम किसी जगह के अक्षांश का पता तो लग ही जाता है। इस संकल्‍पना की पुष्टि में कई प्रमाण मिले हैं कि पृथ्‍वी के चुंबकीय बल में छोटे-मोटे बदलाव से भी कबूतरों की अपने घर तक पहुंचने की क्षमता प्रभावित हो जाती है।

प्रवासी पक्षियों के अलावा कई और जीव-जंतु जैसे मधुमक्‍खी, ट्यूना और सॅमन मछलियां आदि पृथ्‍वी के चुंबकीय बल के प्रति संवेदनशील पाई जाती हैं। ऐसा भी माना जाता है कि शार्क और अधिकांश रे मछलियां अपनी विद्युतीय संवेदनशीलता का आधार क्‍या है, यह तो अभी तक ठीक से मालूम नहीं पड़ सका है। पर इतना ज़रूर है कि इन सभी जावों में, तंत्रिका तंत्र से जुड़े हुए मेगनेटाइट पत्‍थर के बारीक टुकड़े पाए गए हैं।

अब जहां तक हम इंसानों का सवाल है, प्राप्‍त जानकारी के आधार पर तो यही प्रतीत होता है कि इंसान इस क्षमता से वंचित है। पर जैसा कि आपको आभास हो चला होगा, चुंबकीय संवेदनशीलता को लेकर हमारी समझ अभी आधी-अधूरी ही है।

इस विषय पर शोध से नित नए आश्‍चर्यनजक तथ्‍य उभर कर आ रहे हैं। मिसाल के तौर पर, गत वर्ष घोंघों पर शोध के आधार पर कनाडा के कुछ वैज्ञानिकों ने यह दावा किया था कि दर्द से पीडि़त जीव-जंतुओं को अगर एक खास किस्‍म के चुंबकीय क्षेत्र में रखकर दर्द निवारक दवा दी जाए तो उन्‍हें ज्‍़यादा आराम मिलेगा।

इस बात के कई प्रमाण मिले हैं कि चुंबकीय बल जानवरों के दिमाग में पाए जाने वाले ओपिओइड नामक रसायनों की रासायनिक क्रियाओं को प्रभावित करता है। पर इन सभी परिणामों को अभी एक ठोस आधार की ज़रूरत है तब तक मैगनेटो थेरेपी के इलाजों को मजबूरन विज्ञान की हद से परे ही रहना होगा।


अजय शर्मा – एकलव्‍य के होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से संबद्ध हैं।

*ओपिओइड प्राकृतिक दर्द निवारक पदार्थ होते हैं।