दीपक वर्मा

श्‍वसन-1

अगर हाथी, केंचुए की तरह सांस लेता तो क्‍या होता? आखिर क्‍या बला है ये सांस .... ऑक्‍सीजन फेफड़ों से कहां जाती है . . . शरीर के आकर और श्‍वसन सतह का संबंध क्‍या है . . . ?

अचानक एक ख्‍याल दिमाग में कुदना शुरू हो गया है कि हाथी त्‍वचा से सांस क्‍यों नहीं लेता? हो सकता है कि आप कहें कि अजीब बेहूदा ख्‍याल है; अरे भई अच्‍छी भली नाक बनी है सांस लेने को तो कोई त्‍वचा से सांस क्‍यों ले भला। लेकि‍न मैं कहूंगा कि आप मेरी परेशानी समझ नहीं रहे।

अब देखिए न, अभी-अभी मुझे केंचुए के बारे में मालूम पड़ा है कि वो अपनी त्‍वचा से सांस लेता है। तो फिर मैं क्‍यों न सांचूं कि हाथी त्‍वचा से सांस क्‍यों नहीं लेता?

केंचुए में श्‍वसन
शायद आपने गौर किया होगा कि बरसात में कहीं भी रेंगता दिखने वाला केंचुआ गर्मी आते ही गायब हो जाता है। दरअसल उन दिनों यह ज़मीन में नीचे ऐसी जगहों में घुस जाता है जहां पर्याप्‍त रूप से नमी हो; क्‍योंकि यक सांस ले पाए इसलिए यह ज़रूरी है कि इसकी त्‍वचा नम बनी रहे। वातावरण की ऑक्‍सीजन त्‍वचा की नमी में घुलती है और विसरण द्वारा रक्‍त में पहुंच जाती है। त्‍वचार के नीचे खून की नलिकाओं का जाल बि‍छा रहता है। ये रक्‍त इस ऑक्‍सीजन को शरीर की कोशि‍काओं तक पहुंचा देता है।

क्‍यों चाहिए ऑक्‍सीजन
प्रकृति में कई तरह के जीव हैं कुछ एक कोशीय और बहुत बड़ी संख्‍या में बहुकोशीय। सभी को ऊर्जा की ज़रूरत होती है। ये ऊर्जा पैदा होती है हर कोशिका में। जिस रासायनिक में ऊर्जा का उत्‍पादन होता है उसमें ऑक्‍सीजन की ज़रूरत होती है। इस क्रिया में ऊर्जा तो पैदा होती ही है साथ ही कार्बन डाइऑक्‍साइड अंदर ही रह जाए तो शरीर के लिए यह ज़हर के सामन है।

विसरण का सीधा-सा मतलब है पदार्थ का सांद्रता अवस्था से तनु अवस्था की ओर चलना; एवं प्रयोग कीजिए - एक बीकर में थोड़ा-सा पार्न लेकर उसमें थोड़ा-सा स्याही का घोल मिलाइए देखिए क्या होता है? दरअसल कोशिका में ऑक्सीजन सिर्फ विसरण द्वारा ही प्रवेश कर सकती है। यानी जब कोशिक के अंदर ऑक्सीजन का अनुपात कम हुआ तो ऑक्सीजन अंदर चली गई; इसी तरह जब अंदर कार्बन डाइऑक्साइड का प्रतिशत अधिक हुअ तो वो विसरित होकर बाहर निकल आई। ये दोनो प्रक्रियाएं लगातार चलती रहती हैं।

चूंकि ये क्रियाएं लगातार चलती रहती हैं इसलिए कोशिका को लगातार ऑक्‍सीजन की ज़रूरत होती है,साथ ही कार्बन डाइऑक्‍साइड का निरन्‍तर बाहर निकलना भी इतना ही ज़रूरी है। तो कोशिका तक ऑक्‍सीजन का पहुंचना और वहां बनी कार्बन डाइऑक्‍साइड का बाहर निकलना यानी गैसों का ये आदान प्रदान ही श्‍वसन है। बस विभिन्‍न जंतुओं में इसी आदान प्रदान के लिए कई तरह के श्‍वसन के तरीके विकसित हुए हैं। जैसे कि केंचुए का उसकी त्‍वचा से सांस लेना, मछली का गलफड़ों के ज़रिए और हमारा यानी इंसान का फेफड़ों की मदद से सांस ले पाना। 

विसरण
ऊपर केंचुए के वर्णन में आपने विसरण शब्‍द पर गौर किया होगा। विसरण का सीधा-सा अर्थ है- पदार्थ का अधिक सांद्रता से कम सांद्रता की दिशा में चलना। दरअसल कोशिका में ऑक्‍सीजन केवल घुली हुई अवस्‍था में प्रवेश कर सकती है; वो भी सिर्फ विसरण द्वारा। इसलिए श्‍वसन हो पाए इसके लिए पहली शर्त है कि कोशिका के आसपास ऑक्‍सीजन घुली हुई अवस्‍था में हो।

लेकिन बात इतनी आसान भी नहीं है। दरअसल किसी भी श्‍वसन मेकेनिज्‍़म का विकास मूल रूप से तीन बातों पर निर्भर करता है:

1.जीव की ऑक्‍सीजन की खपत कितनी है; यानी वह कितना सक्रिय है 2. उसके आसपास का वातावरण कैसा है और 3. उसका आकार कैसा है।

आकार और विसरण
मान लो यह एक जीव है। अब हमने इसका आकार दुगुना कर दिया। ज़रा देखिए क्‍या हुआ – इसका आयतन तो दुगुना हो गया लेकिन इसकी सतह का क्षेत्रफल उतनी तेज़ी से नहीं बढ़ा, यानी कि दुगुना नहीं हुआ। अब अगर ऐसे ही और घन रखते जाएं तो आयतन तो बढ़ता जाएगा लेकिन क्षेत्रफल तेज़ी से नहीं बढ़ेगा।

इसलिए जब आकार बड़ा होता है तो सीधे विसरण द्वारा काम नहीं चलता। छोटी दूरी – एक मिलीमीटर तक – के लिए तो ये प्रक्रिया काफी तेज़ है लेकिन दूरी बढ़ने पर विसरण अत्‍यंत धीमा हो जाता है। इसलिए बड़े प्राणियों में - जहां ज्‍यादातर कोशिकाएं त्‍वचा से बहुत दूर हैं – तो ऑक्‍सीजन पहुंचना मुश्किल ही हो जाएगा और यही स्थिति कार्बन डाइऑक्‍साइड के निकलने को लेकर होगी।

लेकिन शरीर की ज़रूरत है कि हर कोशिका को लगातार ऑक्‍सीजन मिलती रहे। इसके लिए इसके लिए एक ऐसे माध्‍यम की ज़रूरत होती है जो ऑक्‍सीजन को श्‍वसन सतह से लेकर प्रत्‍येक कोशिका तक लगातार पहुंचाता रहे और वहां से कार्बन डाइऑक्‍साइड लेकर उसे श्‍वसन सतह पर लाकर छोड़ता रहे। शरीर में खून का एक प्रमुख काम यही है।

लेकिन अभी दो समस्‍याएं और खड़ी हैं। अगर कोई बड़ा प्राणी अपनी त्‍वचा हो नम रहना होगा। साथ ही रक्‍त कोशिकाओं और वातावरण के बीच विसरण तेज़ी से हो पाए इसलिए त्‍वचा को अच्‍छा खासा पतला भी होना पड़ेगा।

अब जैसा कि हम सोच रहे हैं कि हमारा हाथी त्‍वचा से सांस लेता होता . . .। हाथी तो पूरी तरह ज़मीन पर खुले बातावरण में रहने वाला जानवर है...  तो क्‍या होता... खुले में उसकी त्‍वचा की नमी काफी तेज़ी से वाष्पित होती रहती... यानी उसकी जि़ंदगी की सबसे बड़ी लड़ाई होती अपनी त्‍वचा की नमी बनाए रखने की ताकि ऑक्‍सीजन घुलती रहे; और इसी से जुड़ी लड़ाई होती अपनी नाजुक, पतली त्‍वचा को बचाए रखने की।

लेकिन शायद एक महत्‍वपूर्ण सवाल अभी भी बचा है – वो है क्रियाशीलता का। अगर आयतन की तुलना में सतह का क्षेत्रफल कम है तो खून कम ही ऑक्‍सीजन ले जा सकेगा; और इसका असर सीधे-सीधे जीव की क्रियाशील और बड़े बहुकोशीय जीव को गैसीय आदान प्रदान के लिए ऐसी सतह चाहिए जिसका खेत्रफल काफी बड़ा हो। ऐसे में हमारा तेज़ी से भागने दौड़ने वाला हाथी त्‍वचा से सांस ले रहा होता तो क्‍या होता सोचिए . . .।

वैसे एक वाक्‍य में कहें तो सभी श्‍वसन तंत्रों की कोशिश है कि अपने आसपास के वातावरण से कैसे अधिक-से-अधिक ऑक्‍सीजन हासिल की जा सके। चाहे वो हाथी का तंत्र हो या मछली का या फिर. . .।


दीपक वर्मा — संदर्भ में कार्यरत।

एक कोशीय या फिर बहुत छोटे जीवों का सतह और आयतन का संबंध पर्याप्त होता है इसलिए वे अपनी सतह से ही विसरण के द्वारा ऑक्सीजन ग्रहण कर लेते हैं।

एक बड़े जीव के पास उसके आयतन की तुलना में सतह का क्षेत्रफल कम होता है। इसलिए सिर्फ सतह से विसरण द्वारा पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन मिलना मुश्किल होता

इस वजह से इनमें ऐसे विशेष श्वसन सतह विकसित हुई हैं जिनका क्षेत्रफल काफी ज्यादा होता है। जैसे कि इंसान के फेफड़े।