वीणु कौल, ए. के. कौल एवं एम. सी. शर्मा
समपादन---किशोर पंवार 

ज़मीन के अंदर भी फूल लग सकते हैं क्या? अगर लग भी जाएं तो वहीं रहते हुए क्या वे परागित हो सकते हैं और क्या उनसे बीज बन सकते हैं?

दुनिया भर में तकरीबन ढाई लाख किस्म के फूल यानी फूलों वाले पौधे पाए जाते हैं। इनमें से लगभग सभी पौधों में फूल . जमीन के ऊपर खिलते हैं। परन्तु छत्तीस प्रजातियां ऐसी भी हैं। जिनमें भूमिगत तनों पर फूल लगते हैं।
जमीन के ऊपर लगने वाले फूल जिन्हें हवाई फूल कह सकते हैं, दो तरह के होते हैं - खिलने वाले और न खिलने वाले। पहले वाले वे सब आम फूल हैं जिनमें पर-परागण संभव है। दूसरी किस्म के फूल खिलते नहीं हैं और उनमें बंद अवस्था में ही परागण यानी स्व-परागण हो जाता है।
भूमिगत तनों पर लगने वाले फूल सदैव ‘न खिलने वाले' ही होते हैं। खिलने वाले फूल आकार में बड़े होते हैं, खूब सारे परागकण पैदा करते हैं और उनमें बहुत से छोटे-छोटे बीज बनते हैं। इसके विपरीत ‘न खिलने वाले फूल' आकार में छोटे होते हैं, उनमें बहुत कम परागकण होते हैं और थोड़े से परन्तु भारी बीज बनते हैं।

फूल पौधे का प्रजनन अंग है। कल्पना कीजिए कि यदि फूल तने पर हवा में लगने की बजाए जड़ की तरह जमीन में ही लगते तो कैसा होता। निश्चित ही यह दुनिया नाना किस्म के रंगों और सुगंधों से वंचित रह जाती। न ही हमें तरहतरह के फूल देखने को मिलते। परंतु पौधों के लिए तो शायद भूमिगत फूल ज्यादा लाभदायक होते। ऐसी स्थिति में उन्हें अपने ढेर सारे संसाधन रंगीन पदार्थों तथा बड़ी मात्रा में परागकण, मकरंद व गंध बनाने में नहीं लगाने पड़ते। इसके अतिरिक्त भूमिगत फूल में परागण सुनिश्चित होगा तथा ये फूल परभक्षियों और पर्यावरण के विपरीत प्रभावों से भी बचे रहेंगे। किन्तु सच तो यह है कि अधिकांश फूल जमीन के ऊपर तने पर लगते हैं और पौधे उपरोक्त सभी लाभों से वंचित रह जाते हैं। वैसे जमीन से ऊपर फूल आने के कई फायदे भी हैं:
1. इससे एक फूल के परागकण दूसरे फूल के बीजाण्ड का निषेचन कर पाते हैं। इस प्रकार आनुवंशिक लक्षणों में विविधता पैदा होती है जो प्राकृतिक चयन का एक आधार है।
2. परागकण व बीज दूर-दूर तक बिखर सकते हैं। जमीन के ऊपर खिलने वाले फूल परागकण और बीजों के बिखराव का काम संपन्न करते हैं।

कहाँ फूल और कहाँ फूल
क्र.  फूल का विकास परागण फल का विकास उदाहरण
1.  तने पर , बाहर हवा में हवा में हवा में अधिकांश पेड़ पोधे सूरजमुखी , कपास , सेमल आदि
2.  विकास ज़मीन में , फूल बाहर हवा में हवा में प्याज़ , लहसुन , ट्यूलिप , लीली
3. विकास तने पर , बाहर हवा में ज़मीन के अंदर मूँगफली एवं अन्य पोधे
4. ज़मीन में ज़मीन में भूमिगत कनकव्वा एवं खट्टी बूटी

यह बात प्याज, लहसुन, लिली तथा अन्य बल्बधारी पौधों के उदाहरण से स्पष्ट होती है। बल्ब दरअसल एक रूपांतरित भूमिगत तना है जिसके चारों ओर भोजन संग्रह करने वाली पत्तियां लगी होती हैं। प्याज़ इसका श्रेष्ठतम उदाहरण है। इन बल्बधारी पौधों में फूल का विकास बल्ब के अंदर ही भूमिगत रूप से होता है। छिपा हुआ फूल जमीन के बाहर परागण हेतु धकेला जाता है। इसके फल और बीज का विकासे ज़मीन के बाहर होता है।

जीओकाप - फूल हवा में फल जमीन के अंदर
कई पौधों में फूल जमीन के ऊपर खिलते हैं परन्तु फल का विकास जमीन के अंदर होता है। मूंगफली इसका एक आम उदाहरण है। मूंगफली में फूल जमीन के ऊपर खिलते हैं। ये फूल पीले रंग के तितलीनुमा होते हैं। परागण के तुरंत बाद इनकी पंखुड़ियां झड़ जाती हैं और फिर ये अंडाशय सहित जमीन की ओर झुकते हैं तथा अंततः जमीन में घुस जाते हैं। फल व बीज का विकास जमीन के अंदर ही होता


मूंगफली में भूमिगत तनों पर भी फूल लगते हैं। अलबत्ता यदि इन भूमिगत कलियों को जमीन के ऊपर लाकर रोशनी दिखाई जाए तो ये तत्काल खिल जाती हैं। यानी ये फूल सचमुच क्लिस्टोगेमस अर्थात, न खिलने वाले, नहीं हैं और ये पौधे सचमुच एम्फिकार्पिक नहीं हैं।


स्वपरागण परपरागण
1. जब परागण एक ही पौधे के द्विलिंगी फूल अथवा उसी पौधे के अन्य फूलों के बीच हो।।
2. इस विधि में नए पौधे बनाने में एक ही जनक लगता है।
3. किसी बाहरी साधन पर निर्भर नहीं रहना पड़ता।
4. लगातार स्वपरागण होने से नए पौधे कमजोर होने की संभावना होती है।
5. नए संयोग नहीं बनते, जिससे विभिन्नता नहीं आती।
6. संसाधन एवं ऊर्जा की खपत की दृष्टि से ज्यादा प्रभावी है
1. जब परागण एक ही जाति के दो अलग-अलग पौधों के द्विलिंगी या एकलिंगी फूलों के बीच हो।
2. इस विधि में दो विभिन्न जनक पौधे संपर्क में आते हैं।
3. बाहरी साधन जैसे कीट पतंगों एवं पक्षियों पर निर्भर रहना पड़ता है।
4. पर-परागण होने से जीन्स का आदान प्रदान होता है।
5. नए संयोग बनते हैं जिससे नई किस्म बनने की संभावना रहती है।
6. ऊर्जा की दृष्टि से ज्यादा खर्चीला है।

है। जमीन के अंदर फल का विकास होना जीओकाप कहलाता है। मूंगफली के अलावा जीओका के अन्य उदाहरण हैं ट्रायफोलियम सबटेरेनियम तथा बोएण्डजीया सबटेरेनिया यानी आडवर्क कुकुम्बर।

एम्फीकाप - फूल व फल दोनों जमीन में
विकास के क्रम में पौधों में कई बार सचमुच के भूमिगत फूलों का विकास भी हुआ। ढाई लाख फूलधारी वनस्पतियों में से मात्र 36 प्रजातियां ऐसी हैं जिनमें फूल व फल दोनों ज़मीन के अंदर विकसित होते हैं। ये प्रजातियां दस अलग-अलग फूलों की सदस्य हैं। सर्वाधिक एम्फीकार्पिक प्रजातियां मटर कुल यानी दलहन (10 प्रजातियां) तथा घास कुल (8 प्रजातियां) के पौधों में पाई जाती हैं। अधिकांश ऐसे पौधे


भूमिगत तनों पर भूमिगत फूल: अभी तक जिन छत्तीस प्रजातियों में भूमिगत फूल - पाए गए हैं उनमें से चार यहां दिखाई गई हैं। इनमें से दो तो कनकव्वे की किस्में हैं जो बारिश के मौसम में अक्सर देखने को मिल जाती हैं। आप भी उन्हें उखाड़कर भूमिगत फूल देख सकते हैं।
ऊपर वाले दोनों पौधों की खासियत यह है कि इनमें पाए जाने वाले हवाई तने, ज़मीनी तने और भूमिगत तने पर अलग-अलग तरह के फूल खिलते हैं।


एक वर्षीय होते हैं। समस्त एम्फीकार्पिक पौधों में कुछ गुण, समान होते ही हैं:
1. स्व-निषेचित भूमिगत फूल की उपस्थिति जो बड़े फल व बीज में विकसित होता है; तथा इनके बीजों का बिखराव सीमित होता है।
2. जमीन से ऊपर फूल जो परपरागण के लिए उपयुक्त होते हैं। ये फूल कई छोटे-छोटे फल और बीज बनाते हैं जिनका बिखराव दूर-दूर तक होता है।
अर्थात सभी एम्फीकार्पिक पौधों में हवाई तथा भूमिगत दोनों प्रकार के फूल मिलते हैं।
हवाई फूलों में पर-परागण की संभावना होती है। इससे प्रजाति में आनुवंशिक विविधता को बढ़ावा मिलता है। हवा के साथ उड़कर ये फल/बीज दूर-दूर तक पहुंचते हैं और प्रजाति का भौगोलिक विस्तार बढ़ता है।
दूसरी ओर भूमिगत फूल सदैव स्वपरागित होते हैं तथा ये मूल पौधे की जीन-संरचना को अक्षुण्ण रखते हैं। भूमिगत फल व बीज प्रजाति को एक सूक्ष्म आवास में सुरक्षित रखने में मददगार साबित होते हैं।

एंफीकार्पम पुर्शाई एक घास है। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है इसके

खट्टी बूटीः आमतौर पर बगीचों में पाया जाने वाला एक पौधा है जिसकी पत्तियों का स्वाद खट्टा होता है इसलिए यह अक्सर खट्टी बूटी (ऑक्सेलिस) नाम से जाना जाता है। इसके बैगनी हवाई फूल जितने दिलकश हैं उतने ही भूमिगत फूल भी। पहले चित्र में खट्टी बूटी का हवाई फूल और दूसरे में भूमिगत फूल दिखाया गया है।
 
फूल व फल दोनों का विकास व निर्माण जमीन के अंदर भी होता है। इसके एक ही पौधे पर हवाई तथा भूमिगत दोनों तरह के फूल लगते हैं। हवाई फूल छोटे व चेस्मोगेमस अर्थात खिलने वाले होते हैं, जबकि भूमिगत फूल बड़े व क्लिस्टोगेमस अर्थात कभी न खिलने वाले होते हैं। भूमिगत फूलों की तुलना में हवाई फूलों की संख्या बहुत ज्यादा होती है।

तीन तने, तीन फूल
कोमेलिनेसी कुल के वंश का कोमेलिना जिसे हिंदी में कनकव्वा व बंगाली में कनसीरा के नाम से जाना जाता है, एक सामान्य खरपतवार है जो आमतौर पर बरसात के मौसम में खेतों और घूरों पर पाई जाती है। इसे कान जैसे पतले और आसमानी रंग के छोटे-छोटे फूलों की मदद से आसानी से पहचाना जा सकता है। इस वंश की पांच प्रजातियों में भूमिगत अर्थात न खिलने वाले फूल देखे गए हैं।
कोमेलिना बेंगालेंसिस अर्थात चौड़ी पत्ती वाले कनकव्वा में फूल तीन तरह के तनों पर लगते हैं। पहला प्रकार है। हवाई यानी कि गुरुत्व के विपरीत दिशा में जाने वाले तने पर, दूसरा जमीन पर रेंगने वाले तने अर्थात गुरुत्व

खट्टी बूटी के भूमिगत फूल: खट्टी बूटी के भूमिगत तने और उन पर लगे हुए भूमिगत फूल यहां देखे जा सकते हैं।

असंवेदी तने पर तथा तीसरा जमीन के अंदर वाले तने पर जो गुरुत्व की तरफ संवेदी होता है। जमीन के अंदर वाले तने पर पत्तियां नहीं होतीं।
तीनों प्रकार के तनों पर लगने वाले फूलों की रचना भी अलग-अलग
कनकव्वे में भूमिगत फूल, हवाई फूल और स्पेथः पहले फोटो में सफेद रंग का भूमिगत तना दिखाई दे रहा है। तने पर फूल लगे हैं और नीचे की तरफ एक फल भी लगा है। दूसरे और तीसरे फोटो में कनकव्वे के हवाई फूल दिखाई दे रहे हैं। हवाई फूल हरे रंग की नावनुमा आकृति से ढंका हुआ है। इस नाव जैसी आकृति को स्पेथ कहते हैं। कनकव्वे हमारे आसपास भारी तादाद में देखे जाते हैं, इसलिए आप इस पौधे को सावधानी से ज़मीन से बाहर निकालकर इसके हवाई और भूमिगत फूलों की तुलना कर सकते हैं।

स्पेथ
यह एक बड़ी, कभी-कभी बहुत बड़ी, नाव के आकार की रचना होती है जो विशेष प्रकार का अनुपत्र (ब्रेक्ट) है। फूल का गुच्छा इससे ढंका रहता है। केला, अरबी, ताड़ व भुट्टे आदि का पुष्पक्रम स्पेथ से ढंका रहता है। केले में यह गहरे लाल रंग का होता है तथा भुट्टे व कनकव्वे में हरे रंग का होता है। स्पेथ आमतौर पर एकबीजपत्री पौधों में ही पाया जाता है।

होती है। हवाई फूलों का स्पेथ हरा होता है, जबकि भूमिगत फूल का स्पेथ रंगहीन होता है। इनमें लगने वाले फूलों की संख्या व रचना भी अलग होती है।
चौड़ी पत्ती वाले कनकव्वा में भूमिगत व सतही तने पर प्रत्येक स्पेथ में एक-एक द्विलिंगी फूल लगता है, जबकि हवाई तने पर एक स्पेथ में तीन-चार फूल लगते हैं।
हवाई तने पर लगने वाले फूलों में, पहला फूल एकलिंगी तथा चेस्मोगेमस यानी खिलनेवाला, दूसरा फूल द्विलिंगी तथा चेस्मोगेमस यानी खिलनेवाला, तथा तीसरा फूल द्विलिंगी तथा क्लिस्टोगेमस यानी न खिलने वाला होता है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि क्लिस्टोगेमस यानी न खिलने वाले फूल केवल भूमिगत ही नहीं बल्कि जमीन के ऊपर भी होते हैं।
सतह पर रेंगने वाले तने के फूल सदैव चेस्मोगेमस यानी खिलने वाले तथा भूमिगत फूल सदैव क्लिस्टोगेमस यानी न खिलने वाले होते हैं।

हवाई-भूमिगत फूलों की तुलना
भूमिगत फूलों में अनिवार्य रूप से स्वपरागण होता है। इन फूलों के विभिन्न अंग आकार में छोटे होते हैं। इनमें अनिवार्य अंगों (पुंकेसर व स्त्रीकेसर) में लगे संसाधनों और अतिरिक्त अंगों (अंखुड़ी व पंखुड़ी) में लगे संसाधनों का प्रतिशत 60:40 के अनुपात में होता है। इन फूलों में स्त्रीकेसर के निर्माण में पुंकेसर की अपेक्षा 20 फीसदी ज्यादा संसाधन लगते हैं क्योंकि पुंकेसर की तुलना में स्त्रीकेसर का बायोमास (जैवभार) ज्यादा होता है। इन न खिलने वाले फूलों में परागकणों की संख्या कम होती है किंतु बीज बड़े होते हैं।
इसके विपरीत हवाई फूलों में ज्यादा संसाधन तो फूल के विज्ञापन (कीटों को आकर्षित करने और उन्हें मकरंद व पराग के रूप में भोजन उपलब्ध कराने) पर खर्च होता है। विज्ञापन में खर्च हुए संसाधन नर फूल में 62 फीसदी और मादा फूल में 42-50 फीसदी तक होते हैं। हवाई द्विलिंगी

कैसे बनते हैं फूल

फूल वस्तुतः एक रूपांतरित तना है। इस बात के समर्थन में कई प्रमाण दिए गए हैं। जैसे तने की ही तरह कुछ फूलों में पर्व और पर्व संधियां (तनों की गांठे) पाई जाती हैं। फूल में पत्तियों जैसी चपटी रचनाएं जैसे अंखुड़ी और पंखुड़ी चक्र में पत्तियों की तरह लगी होती हैं जो कभी-कभी तो बिल्कुल पत्तियों जैसी ही होती हैं, जैसे गुलाब में। कभी-कभी तो ठीक संयुक्त पत्तियों जैसी। अर्थात वे कलिकाएं जहां से अक्सर पत्ते या शाखाएं निकलती हैं, वे ही पुष्प कलिका में बदलती हैं। परंतु ये कमाल होता कैसे है? आइए ज़रा देखें।
दरअसल पौधों में एक निश्चित सीमा तक वृद्धि होने के पश्चात ही वह फूलना-फलना शुरू करता है। पौधों का इस अवस्था । तक पहुंचना Ripe to flower यानी ‘फूलने के लिए तैयार' कहा जाता है। फूलने का समय आ गया है इसका पौधों को उचित प्रकाश अवधि, या बहुत कम ताप से गुजरने पर पता चलता है। कुछ पौधों को फूलने के लिए लंबी अंधेरी रातें चाहिए जैसे गुलदावदी, तो कुछ को लंबे बड़े दिन जैसे गेहूं और चना। ठंडे स्थानों पर उगने वाले पेड़ों व पौधों जैसे सेवफल को इसके लिए बर्फ जितने निम्न तापमान से गुजरना जरूरी होता है। रेगिस्तानी पौधों में फूल आना पर्याप्त मात्रा में बारिश होने पर निर्भर रहता है।

जब खिलते हैं फूल
कारण कुछ भी हो, फूलने के जैव-रासायनिक संकेत मिलते ही पौधा फूलने-फलने की रासायनिक तैयारी करना शुरू कर देता है जिसकी परिणति पुष्प कलिकाओं के रूप में होती है। ऐसे में पौधे के तने पर पत्तियों की कोख (कक्ष ) में जहां कुछ समय पूर्व, पर्ण कलिकाएं आ रही थीं उनके स्थान पर अब पुष्प कलिकाएं आने लगती हैं। माना गया है कि पौधे के फूलने का यह हरा सिग्नल हारमोन के रूप में मिलता है जिन्हें फ्लोरोजेन और वर्नेलिन नाम दिया गया है। एक बार यह तय हो जाने पर कि फूलने का समय आ गया है पौधों की कलिकाओं की कोशिकाओं में ऐसे जैव-रासायनिक परिवर्तन होते हैं जो फूलों के निर्माण में सहायक होते हैं। जैसे पंखुड़ियों को रंगीन बनाने के लिए विभिन्न रजक यानी एन्थोसायनिन, केरोटीनाइड्स और फ्लेवोनाइड्स; पुंकेसरों में परागकणों और अण्डाशय में बीजाण्डों को बनाने के लिए ढेर सारा नया आनुवंशिक पदार्थ, विशेष प्रकार के प्रोटीन; फूलों को सुगंधित करने हेतु विभिन्न प्रकार के वाष्पशील ऐरोमेटीक पदार्थ; कीटों, पतंगों, पक्षियों को आकर्षित करने के लिए ढेर सारा मीठा सुगंधित मकरंद।
ये सभी परिवर्तन एक पर्ण कलिका को पुष्प कलिका में बदल देते हैं। पुष्प कलिका में एक और विशेषता होती है - इसकी वृद्धि निश्चित होना। पुष्प कलिका में कोशिकाओं की पुनः विभाजन क्षमता पर रोक लग जाती है जो निषेचन के पश्चात भ्रूण बनने पर पुनः स्थापित हो जाती है।

---किशोर पंवार

फूल में प्रजनन कार्य पर जितने संसाधन लगते हैं उसमें से 56 से 61 फीसदी नर प्रजनन कार्य पर खर्च होते हैं। इससे जाहिर होता है कि हवाई फूलों में भूमिगत फूलों की तुलना में अतिरिक्त अंगों के द्वारा विज्ञापन पर ज्यादा संसाधन खर्च होते हैं।
द्विलिंगी हवाई फूलों में परागकोष से परागकण निकलना और अंडाशय का इन्हें स्वीकार करने हेतु तैयार होना साथ-साथ ही होता है। इसलिए ये फूल स्वपरागण के लिए उपयुक्त होते हैं किंतु इनमें पर-परागण की संभावना भी रहती है क्योंकि इन फूलों की पंखुड़ियां नीले रंग की एवं पुंकेसर पीले रंग के होते हैं। अतः इन फूलों पर कीट भी काफी संख्या में मंडराते हैं। हवाई फूलों में परागकणों की संख्या भी भूमिगत फूलों की तुलना में कहीं ज्यादा होती है।
उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि भूमिगत फूलों के ज़रिए संसाधनों की खपत के मान से प्रजनन काफी सस्ता है और ज्यादा सुनिश्चित भी। इस लिहाज से भूमिगत तौर पर उत्पन्न बीज सस्ते होते हैं। इसके बावजूद यदि प्राकृतिक चयन हवाई फूलों के विरुद्ध नहीं रहा है और आज भी इन पौधों पर हवाई फूल लगते हैं तो इसका कारण यह है कि ये हवाई फूल परपरागण के जरिए आनुवंशिक विविधता को बढ़ावा देते हैं।
कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि प्रजाति विशेष के लिए भूमिगत फूलों के महत्व की वजह से ये फूल, हवाई फूलों से काफी पहले लग जाते हैं। उनका कहना है कि अत्यन्त विपरीत व लगातार बदलने वाले माहौल के लिए शायद इन प्रजातियों में ‘निराशावादी' रणनीति का विकास हुआ है। विशेष तौर पर जब वृद्धि का एक वार्षिक चक्र पूरा कर पाने में भी अनिश्चितता हो। ऐसी स्थितियों में पौधे के लिए जल्दी फलं पैदा करना फायदेमंद होगा। इसके विपरीत हवाई फूल लगना एक 'आशावादी' रणनीति की तरह देखा जाना चाहिए जिसमें प्रजनन तब तक के लिए मुल्तवी रहता है जब तक कि वृद्धि के दौर से गुजरते हुए पौधे ने अपने आप में पर्याप्त संसाधन एकत्र न कर लिए हों।

भूमिगत फूलों का विकास  
एम्फीका के विकास को किन कारकों ने बढ़ावा दिया है, यह सवाल अनुत्तरित है। इस बारे में कई परिकल्पनाएं प्रस्तुत की गई हैं। यह स्पष्ट है कि एम्फीका विभिन्न परस्पर असंबंधी प्रजातियों में विकसित हुई है। अतः संभावना इस बात की है कि इसका विकास कई अलग-अलग कारकों की वजह से हुआ होगा।
1. एक परिकल्पना यह है कि भूमिगत बीजों का अनुकूलन की दृष्टि से यह महत्व है कि ये बीज व इनसे उत्पन्न पौधे उसी सूक्ष्म आवास में बने रहते हैं जो संभवतः इनके लिए उपयुक्त हैं, किंतु एक प्रयोग में एम्फीकार्पम पुर्शाई के भूमिगत बीजों के अंकुरण पर इस बात का कोई असर नहीं देखा गया कि उन्हें मूल पौधे के पास बोया गया या काफी दूर।
2. एक विचार यह भी है कि ये भूमिगत बीज बाहरी पर्यावरण के उतार-चढ़ाव से बचे रहते हैं। इस परिकल्पना के समर्थन में बताया जाता है कि एम्फीकार्पम पुर्शाई तथा कनकव्वा के भूमिगत बीजों को सतह पर बिखेरा जाए तो वे अंकुरित नहीं हो पाते। परंतु साधारण जलवायु के पौधों में, एम्फीका के विकास को समझाने में यह परिकल्पना नाकाम रहती है।
3. इस संदर्भ में एक विचार यह भी है कि चरने वाले जंतुओं के दबाव के चलते भूमिगत बीजों का विकास संभव है परंतु इस संबंध में तुलनात्मक जानकारी का अभाव है।
4. भूमिगत बीज उत्पादन से पौधे को एक फायदा यह हो सकता है कि समय-समय पर होने वाली पर्यावरणीय उथल-पुथल के खतरों से ये पौधे सुरक्षित रहते हैं। कुछ उदाहरणों में यह बताया गया है। कि एम्फीका का विकास संभवतः आग से बचाव प्रदान करता है।
 
उपरोक्त सभी परिकल्पनाएं इस विचार को बल देती हैं कि भूमिगत प्रजनन के लाभ हैं। सवाल यह है कि ऐसे एम्फीकार्पिक पौधे हवाई बीज उत्पन्न ही क्यों करते हैं? क्या भूमिगत प्रजनन की सीमाओं से बचने के लिए? इस संदर्भ में भूमिगत फूलों का महत्व समझने के लिए और जानकारी की आवश्यकता है।
यह भी गौरतलब है कि जिन 36 प्रजातियों में एम्फीकाप विकसित हुई वे मुख्यतः खरपतवार हैं। उल्लेखनीय है कि खरपतवार ऐसे पौधे हैं जिनका अत्यंत विषम आवासीय परिस्थितियों एवं पर्यावरण में विकास हुआ है। इनमें गजब की अनुकूलन क्षमता पाई जाती है। इसी कारण खेती में इनसे छुटकारा पाना भी मुश्किल होता है। अतः लगता है कि भूमिगत फूलों का विकास खरपतवारों की जीवटता एवं अनुकूलन का एक और शानदार उदाहरण है। इस दृष्टिकोण से भी भूमिगत फूलों के विकास एवं महत्व पर विचार किया जाना चाहिए।


वीणु कौल, ए. के. कौल एवं एम. सी. शर्मा: जम्मू विश्वविद्यालय में वनस्पतिशास्त्र विभाग में कार्यरत हैं।
किशोर पंवारः शासकीय महाविद्यालय, सेंधवा, म. प्र. में वनस्पतिशास्त्र पढाते हैं।
समस्त फोटो: के. आर. शर्मा द्वारा खींचे गए हैं। के. आर. शर्मा एकलव्य के होशंगाबाद विज्ञान कार्यक्रम से संबद्ध। उज्जैन में रहते हैं।
यह लेख करंट साइंस के 10 जनवरी, 2000 अंक में छपे लेख 'द अंडरग्राउंड फ्लॉवर' (वीणु कौल, ए. के. कौल और एम. सी. शर्मा) के आधार पर तैयार किया गया है।