आमोद कारखानिस

किसी भी प्रकृति प्रेमी के लिए पजाड़े के दिनों में सुबह खुले में घूमने जाना अक्सर खुशगवार साबित होता है। अगर रात काफी ठण्डी गुज़री हो तो आपको ओस की बूंदें दिखेंगी जो सूर्य की रोशनी में मोतियों की तरह चमकती नज़र आती हैं। यदि आपके पास कैमेरा हो तो आप ऐसा मौका नहीं चुकेंगे।
पिछले दिनों मैं मकड़ी के जाले का एक ऐसा फोटो खींचने की कोशिश कर रहा था जिस पर ओस की बूंदें हों। ओस की बूंदों के साथ उनके फोटो बहुत ही बढ़िया आते हैं क्योंकि वैसे जाला इतना महीन होता है कि स्पष्टतः दिखाई ही नहीं देता और आसपास की बैकग्राउंड में गुम हो जाता है। मुझे अचानक समझ में आया कि पूरा जाला ही मोतियों की माला की तरह चमक रहा था, मानो हजारों एक ही
 
चिपचिपे द्रव की बूंदें: मकड़ी अपने जाल को बुनते समय ही चिपचिपे द्रव की बूंदों को बिछाते जाने का काम भी करती जाती है। ऊपर चित्र में 'ब्लैक-विडो' मकड़ी को जाला बुनते हुए दिखाया गया है जिसमें देखा जा सकता है कि मकड़ी जाला तो बन ही रही है, साथ-साथ उम पर बूंदों की जमावट भी होती जा रही है। नीचे वाले चित्र में जाले के एक ताने का क्लोज-अप है जिसमें चिपचिपे द्रव की व्यवस्थित जमी हुई बूंदें दिख रही हैं।
आकार के मोती उसमें टंगे हों और ये सब मोती जाले के तानों पर समान अंतराल पर लटकाए गए हों। मैं सोच में पड़ गया कि ये सब इस तरह अत्यन्त व्यवस्थित रूप से क्यों टंगे हुए हैं? ।
इससे अपने आपको बुरा भी लगा कि मैं इतने वर्षों से नियमित रूप से प्रकृति का अवलोकन और अध्ययन करता रहा हूं और आज कहीं जाकर मुझे मकड़ी के जाले पर टंगी ओस की बूंदों की यह व्यवस्था नज़र आई। पर फिर भी सवाल तो वहीं का वहीं मौजूद था कि आखिर यह पैटर्न क्यों?
जासूसों की तरह हम लोग इस पहेली को हल करने में जुट गए। पहला कदम तो यही था कि ध्यान से देखकर सुराग खोजने की कोशिश करें। जुट जाने पर पहला सुराग हाथ लग ही गया। सब ओस की बूंदें जाले के गोलाकार (स्पायरल) धागों पर होती हैं, बीच से निकलने वाले लम्बवत धागों पर नहीं। यानी कि इन दो तरह के धागों में कुछ फर्क जरूर होना चाहिए।

स्पष्ट था कि फर्क उनकी दिशा की वजह से नहीं है क्योंकि ओस की बूंदें गोलाकार धागों पर हर जगह मौजूद होती हैं। इसलिए हमें यह खोजना होगा कि आखिर दोनों तरह के धागे कैसे बनाए जाते हैं। गोलाकार ताने शिकार को फंसाने के काम आते हैं। जबकि सीधे-लम्बवत (रेडियल) धागे चिपचिपे नहीं होते, मकड़ी उनका इस्तेमाल चलने-फिरने के लिए करती है। जाला बनाने के लिए मकड़ी गाढ़ा द्रव बाहर निकालती है जो हवा से सम्पर्क में आने पर जल्दी से सूख कर सख्त हो जाता है। गोलाकार हिस्सों के लिए वो एक और पदार्थ स्रावित करती है जो चिपचिपा बना रहता है और जिसे सूखने में बहुत समय लगता है।

अगर ये गोंदनुमा चिपचिपा पदार्थ जल्दी सूख जाए तो वो शिकार फंसा नहीं पाएगी और उसे बार-बार जाले पर चिपचिपा पदार्थ पोतते रहना पड़ेगा। गोंदनुमा पदार्थ के सूखने की दर धीमी हो जाए इसलिए मकड़ी एक विशेष तरीका अपनाती है। जब मकड़ी जाले पर चिपचिपा पदार्थ स्रावित करती है तो यह ताने पर समान रूप से फैला होता है - ताने के ऊपर गोंद की एक नलाकार परत के रूप में। गोंद लगाते वक्त मकड़ी इस नलाकार को खींचकर जितना संभव हो उतना बारीक बनाने की कोशिश करती है ताकि कम-से-कम पदार्थ इस्तेमाल हो। वो इस चिपचिपे नलाकार को इस पदार्थ की टूटने की सीमा तक खींचती है, और फिर थोड़ा और खींचती है ताकि वो परत/झिल्ली टूट जाए। ऐसा करने पर गोंदनुमा पदार्थ की वो परत धागे के ऊपर एकदम महीन बूंदों में टूट जाती है।

गोंद की नलाकार सतह टूटने पर छोटे-छोटे मोतीनुमा गोले बन जाएंगे। अगर आयतन बराबर रखा जाए तो गोलाकार की सतह का क्षेत्रफल सबसे कम होता है। पृष्ठ तनाव (सतह के तनाव) की वजह से कोई भी द्रव गोले का आकार प्राप्त करने की कोशिश करता है। चूंकि गोले की सतह का क्षेत्रफल न्यूनतम होता है इसलिए यह बो आकार है जिसमें गोंद का वाष्पीकरण सबसे धीमा होगा; इसलिए उसे सूखने में अधिकतम समय लगेगा।
इसीलिए अगर गोंद की यह नलाकार परत छोटे-छोटे गोलों में बिखर जाए तो स्वाभाविक है कि मकड़ी को फायदा होगा। कुछ प्रजातियों में एक खंड पर चिपचिपा पदार्थ लगाने के बाद दूसरा खंड शुरू करने से पहले मकड़ी धागे को हल्का-सा झटका देती है (जैसे हम सितार की तार को खींचते हैं) ताकि धागे में पैदा होने वाले कंपन से गोले बनने की प्रक्रिया में मदद मिले। चूंकि चिपचिपे पदार्थ के ये महीन गोले काफी पास-पास होते हैं इसलिए चिपचिपे नलाकार के गोलों में टूट जाने के बावजूद जाले की शिकार को फंसाने की क्षमता कतई कम नहीं होती।

जाड़े की सुबह जैसे-जैसे तापमान कम होता जाता है संतृप्त वाष्प दाब भी कम होता जाता है। इस वक्त हवा जितनी वाष्प संभाल सकती है उससे ज्यादा वाष्प हवा में होती है इसलिए वो संघनित (कंडेस) होने लगती है। संघनित होने के लिए वाष्प को कोई सहारा चाहिए होता है (शुरुआती बिन्दु की जरूरत होती है), चाहे वो कोई धूल का कण हो या मकड़ी के जाले पर बना गोंद का गोला। वातावरण का पानी गोंद के गोले के इर्द-गिर्द जमा हो जाता है। यानी कि जाले पर बनी ओस की बूंदें, दरअसल जाले पर बने अत्यंत बारीक गोंद के गोलों का ही विस्तृत रूप हैं। जाले पर टंगे ये गोंद के गोले इतने छोटे होते हैं कि हमें नंगी आंखों से आसानी से दिखते भी नहीं हैं परन्तु ओस की बूंदें बन जाने के बाद वही मोतियों की माला की तरह नज़र आने लगते हैं।
एक साधारण-सा अवलोकन और उसके लिए भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र और गणित के इतने सारे नियमों की ज़रूरत। परन्तु सुन्दरता इसी में है कि ये सब आसान नियम हैं और बिना किन्हीं विशेष शोध उपकरणों के केवल सूक्ष्म अवलोकनों के ज़रिए हमें ऐसी घटनाओं के पीछे छिपा कारण समझ में आ जाता है। कुदरत ऐसी घटनाओं से भरी पड़ी है, बस ज़रूरत है एक खोजी नज़र की।


आमोद कारखानिसः पेशे से कम्प्यूटर इंजीनियर। शौकिया चित्रकार। प्रकृति प्रेमी हैं और विज्ञान लेखन में रुचि रखते हैं। बम्बई में रहते हैं। टिटहरी जमीन पर ही रहती है और वहीं अंडे देती है, परन्तु ऐसी जगह चुनकर कि आप पास मे निकल जाएं और फिर भी अंडे दिखाई न दें।
फोटो - के. आर. शर्मा