कमलेश चंद्र जोशी

प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों को शुद्ध भाषा सिखाने के लिए बहुधा श्रुतलेख लिखवाया जाता है। श्रुतलेख लेखन का अभ्यास सभी विद्यालयों में होता है। इस अभ्यास के अंतर्गत शिक्षक का यह ज़ोर रहता है। कि बच्चे अपनी भाषा में शुद्धता लाएं। इसके लिए वे अपनी मात्रा व वर्तनी संबंधी त्रुटियों पर ध्यान दें तथा सुधार करें। इन त्रुटियों को सुधारने के लिए शिक्षक श्रुतलेख लिखवाने के बाद त्रुटियों को सुधारने के लिए उसी शब्द को पांच या सात बार लिखवाने का अभ्यास करवाते हैं। एक ही शब्द को बच्चों से बार-बार लिखवाना बच्चों की दृष्टि से नीरस अभ्यास है। इस अभ्यास पर अगर ध्यान दें तो हमें पता चलता है कि बच्चों के लिए इसमें कुछ भी रोचक नहीं है। हां, यह ज़रूर हो सकता है कि इस तरह से एक ही शब्द को लिखते-लिखते वे शब्दों से चिढ़ने लगें और उनकी भाषा सीखने के प्रति रुचि कम हो जाए।

अभिव्यक्ति की आज़ादी?
मन में हमेशा यह सवाल उठता है। कि अगर श्रुतलेख की त्रुटियों को कुछ रोचक-मनोरंजक ढंग से सुधारने के उपाय बच्चों को सुझाए जाएं जिनसे वे स्वयं जुड़ सकें, तो यह बच्चों के लिए भाषा सीखने का एक मनोरंजक तरीका हो सकता है। बच्चों को भाषा सिखाने के संदर्भ में यह भी देखने को मिलता है कि हमारे विद्यालयों में श्रुतलेख के अलावा बच्चों को भाषा सिखाने के लिए अन्य अभ्यासों पर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया जाता। अगर कोई अभ्यास करवाया भी जाएगा तो केवल वहीं अभ्यास होता है जिसे शिक्षक ठीक मान रहा है, चाहे ऐसे अभ्यास में रोचकता नाम मात्र भी न हो।

हम प्राथमिक विद्यालयों के निबंध को याद करें, जिसमें वही लिखना होता है जो शिक्षक ने लिखवाया है। इस मामले में सदैव यही लगता है कि निबंध लिखने में बच्चों को खुद लिखने का मौका क्यों नहीं दिया जाता, जिससे बच्चे का खुद का नज़रिया बने व लेखन में उनके अनुभव की झलक मिल सके। शिक्षक द्वारा लिखवाए गए निबंध को देखें जिनकी पंक्तियां कुछ इस प्रकार होती हैं - हमारे घर में एक गाय है। मेरी गाय का नाम श्यामा है। उसके चार पैर होते हैं। उसकी एक पूंछ होती है। गाय हमें मीठा दूध देती है आदि, आदि। अब आप ही सोचिए क्या इन वाक्यों में कोई भी सरल-सुलभ वाक्य दिखाई देता है? हमारी समझ में गाय के बारे में बच्चा स्वयं लिखे तो बेशक वह इससे कहीं बेहतर होगा। अलग-अलग बच्चों के अलग-अलग अनुभव होंगे। उनकी अपनी गाय की कल्पना, उसका रंग, उसका नाम निश्चित रूप से अलग होगा ही; वे कतई एक जैसी बातें नहीं लिखेंगे बल्कि बहुत सारे नए पहलुओं के बारे में लिखेंगे जिनकी शायद हम कल्पना ही न कर पाएं।
दूसरी बात है कि बच्चों को हम शुद्ध भाषा जरूर सिखाएं लेकिन इस बात का ख्याल रखने की आवश्यकता है कि बच्चों की शुद्ध भाषा पर कौन-सी कक्षा से ध्यान देना आवश्यक होगा? और उसके तरीके क्या होंगे? इन पर समझ बनाने की जरूरत है।

शिक्षकों के साथ मिलकर
आजकल मैं एक परियोजना के तहत चलाए जा रहे वैकल्पिक शिक्षण कार्यक्रम से जुड़ा हुआ हूं। इस कार्यक्रम के अंतर्गत केन्द्रों पर पढ़ाने वाले शिक्षकों (जिन्हें अनुदेशक कहा जाता है) के प्रशिक्षण में विभिन्न गतिविधियां करवाने का मौका मिलता है। एक बार हमें अनुदेशकों के लिए कक्षा तीन के स्तर का एक सात दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम बनाना था। इस कार्यक्रम को बनाते समय यह सोचा गया कि एक सत्र बच्चों की मात्रा में वर्तनी संबंधी त्रुटियों के निवारण को लेकर भी हो। इस पर आयोजित सत्र में सबसे पहले। अनुदेशकों के लिए एक श्रुतलेख बोला गया जो निम्नवत था।

एक कुत्ते की एक भेड़िये से दोस्ती हो गई। हुआ यह कि कुत्ता भेड़िये का पीछा कर रहा था। कुत्ता खुब तगड़ा था और भेड़िया कुछ कमज़ोर था। भेड़िया भागते-भागते थक गया और एक तालाब के किनारे सुस्ताने लगा। कुत्ता तालाब की दूसरी तरफ आकर रुक गया और भौंकने लगा। फिर दोनों की नज़र अपनी-अपनी परछाई पर पड़ी। दोनों को लगा कि उनकी शक्लें आपस में इतनी मिलती हैं। शायद उन दोनों के पुरखे एक ही रहे हों। इस तरह उनके बीच दोस्ती हो गई।"

दूसरा पैराग्राफ इस प्रकार थाः
"हमारे देश से बहुत दूर दक्षिण में न्यू-गिनी नाम की एक जगह है। यह एक बहुत बड़ा टापू है - चारों ओर समुद्र से घिरा हुआ। यहां पर साल भर बहुत गर्मी पड़ती है और पानी भी बहुत गिरता है। इस कारण से यहां के जंगल बहुत घने हैं। इतने घने कि दिन में भी नीचे जमीन तक रोशनी नहीं पहुंचती।”
अनुदेशकों को श्रुतलेख लिखवाने के बाद उनकी जांच की गई। इसके बाद अनुदेशकों को चार-चार के छः समूहों में बांटा गया और हर समूह को एक चौथाई चार्ट पेपर दिया गया जिस पर चार कॉलम बने थे। सभी अनुदेशकों को यह बताया गया कि वे अपने नाम, संबंधित समूह को मिले सादे चार्ट पेपर के स्तभों में लिख लें तथा अपने-अपने समूह में एक लिखित अंताक्षरी खेलें। पहला अनुदेशक जो शब्द बोले उसे उसके नाम के कॉलम में लिखें। फिर उस शब्द के अंतिम अक्षर से दूसरे अनुदेशक को नया शब्द बनाना है और अपने कॉलम में लिख लेना है। इस तरह खेल शुरू हो जाएगा और चलता रहेगा।

इसके बाद अनुदेशकों को एक और अभ्यास कराया गया। उनसे कहा गया कि वे अपनी कॉपी का एक पृष्ठ निकाल लें और उस पर इन चार विषयों - बरसात, पंचायत चुनाव, जीप से यात्रा और हमारा केन्द्र में से किसी एक विषय पर एक पैराग्राफ लिखें।
और अंत में इन तीनों अभ्यास से संबंधित पृष्ठों को अनुदेशकों से ले लिया गया तथा उनकी जांच की गई। इसके बाद हमने चर्चा शुरू की।

"अब आप लोग बताएं कि इन तीनों अभ्यासों में आपको कौन-सा अभ्यास सबसे ज्यादा रोचक लगा?" इस पर कई प्रतिभागियों ने कहा, "हमें अंताक्षरी वाला अभ्यास अच्छा लगा। इसमें बच्चों को भी आनंद आएगा।'' लेकिन कुछ अनुदेशक इस बात से सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा, "नहीं, हमें सबसे पहले वाला अभ्यास अच्छा लगा।" आम सहमति नहीं बन पा रही थी तब हमने पूरे समूह के सामने एक प्रश्न और रखा कि श्रुतलेख वाले अभ्यास की क्या विशेषता थी? इस पर उन्होंने जवाब दिया, "इस अभ्यास में हमारा ध्यान केन्द्रित था। हमारे लिखने की गति बनी हुई थी कि इसमें कुछ छूट न जाए। इसके साथ ही हमें आपके उच्चारण पर भी ध्यान देना पड़ रहा था।'' आदि।

हमने फिर सवाल किया, "जहां तक ध्यान केन्द्रित करने की बात है। तो क्या वह अंताक्षरी खेलते हुए या मन चाहे विषय पर अपने आप पैराग्राफ लिखते हुए केन्द्रित नहीं था?" इस पर पूरे हॉल में चुप्पी छा गई। किसी ने दबे हुए स्वर में कहा, "हां, उनमें भी था।"
तत्पश्चात मैंने थोड़ा विस्तार से बात शुरू की, “देखिए, श्रुतलेख बाले अभ्यास में क्या हुआ? वह अभ्यास शिक्षक केन्द्रित था। जो मैं बोल रहा था वही आपको लिखना था। इसके साथ यह भी ध्यान देने की बात है कि शब्द को सही लिखने के लिए आपको मेरे उच्चारणों पर भी ध्यान देना पड़ रहा था। अगर मैंने कुछ गलत उच्चारण कर दिए तो आप भी वैसा ही लिखेंगे। यह इस अभ्यास की सीमा थी। यहां यह भी समझना होगा कि हम अक्सर श, स, ष के उच्चारण में सही विभेद नहीं कर पाते।'' यहां मैंने यह भी बताया कि मैं भी इनके उच्चारण बहुत स्पष्टता से नहीं कर पाता हूं। इसी तरह से 'उ' या 'ऊ' की मात्रा तथा 'इ' या 'ई' की मात्रा आदि में भी त्रुटियां होती रहती हैं।

श्रुतलेखन : बच्चों का नज़रिया
कुल मिलाकर मैंने यह बताने की कोशिश की कि श्रुतलेखन बच्चों की नज़र में कोई बहुत रोचक गतिविधि नहीं है जिसमें उन्हें आनंद आए। इसमें जो आप बोल रहे हैं उस पर उन्हें ध्यान देना पड़ता है। इसके साथ अक्सर यह भी देखने में आया है कि हम भाषा पर बच्चों की अच्छी पकड़ बनाने के लिए कक्षा की पाठ्यपुस्तकों में से कठिन-से-कठिन हिस्से उन्हें बोलकर लिखाते हैं। इससे हम यह समझते हैं। कि बच्चों की मात्रा संबंधी समझ पक्की होगी और उनका शुद्ध लिखने का अभ्यास भी होगा। यहां पर हम बच्चों की अपनी अभिव्यक्ति, अपनी सोच की ज़रा भी चिंता नहीं करते। इस तरह कठिन शब्द सुनकर लिखना बच्चों की दृष्टि से काफी बोरियत पूर्ण कार्य होता है, क्योंकि आपके द्वारा बोले गए शब्दों का उनके लिए कोई अर्थ व संदर्भ नहीं होता। उन्हें उन शब्दों का अर्थ निकालने में भी काफी दिक्कत आती है। हमें यह समझना चाहिए कि बच्चे, शब्द संदर्भो में इस्तेमाल के ज़रिए ही अच्छे ढंग से सीखते हैं।

भाषा सिखाने के और अभ्यास
यहां मैं यह नहीं कह रहा कि आप अपने केन्द्रों पर बच्चों को श्रुतलेख ही न लिखवाएं। आप कभी-कभी अपने केन्द्रों पर ज़रूर श्रुतलेख भी लिखवा सकते हैं। लेकिन, इसके अलावा भी। बच्चों को भाषा सिखाने के लिए विविध अभ्यासों की जरूरत पड़ती है; जिससे बच्चों की रुचि बनी रहे और उन्हें स्वयं को अभिव्यक्त करने के मौके मिलें; जैसा कि दूसरे खेल अंताक्षरी में देखने को मिला कि आप सब अपने मन से नए-नए शब्द लिख रहे थे। इस कार्य में आपके साथ भी आपकी मदद कर रहे थे, और यहां तक कि मुझे आपको ज्यादा टोकने की ज़रूरत ही नहीं थी। कुल मिलाकर अंताक्षरी वाला अभ्यास आपको नए शब्द सोचने में सहायता कर रहा था। आप उसमें ध्यानमग्न थे। इस तरह के अभ्यास बच्चों के लिए रोचक हो सकते हैं। इतना ही नहीं आप बच्चों से कागज़ वापस लेकर उनकी मात्रा व वर्तनी संबंधी त्रुटियों को देख सकते हैं, उन पर नए अभ्यास बना सकते हैं। इसीलिए हमने कॉलम में सभी को अपना-अपना नाम लिखने को कहा था।

तीसरे अभ्यास को हम मौलिक अभिव्यक्ति वाला अभ्यास भी कह सकते हैं। यह अभ्यास पूरी तरह से आप पर यानी बच्चों पर केन्द्रित था। आप अपनी बातें व अपने अनुभव लिख रहे थे और मजेदार बात यह थी कि सभी के लेख अलग-अलग थे क्योंकि सभी की सोच व अनुभव अलग-अलग होते हैं। ऐसे अभ्यास भी आप बच्चों से करवा सकते हैं। उनसे उनकी मौलिक अभिव्यक्ति को मौका मिलेगा। लेकिन यह अभ्यास आपको बहुत अच्छा नहीं लगा। इसका कारण यह हो सकता है कि आपकी इस तरह के अभ्यास करने की आदत ही न रही हो। हो सकता है। कि आपको इस तरह लिखने के मौके पहले न मिले हों। ऐसी ही दिक्कत आपको पहले दिन प्रशिक्षण रिपोर्ट लिखने में भी आई थी।

इसके बाद हमने यह बताने की कोशिश की, कि बच्चों को भाषा सिखाने के लिए यह जरूरी नहीं है कि हम केवल श्रुतलेख पर ही आश्रित रहें; हम तरह-तरह के तरीके अपना सकते हैं व गतिविधियां बना सकते हैं। इन तरीकों के जरिए बच्चों को स्वयं को व्यक्त करने का मौका मिलता है। ऐसे और भी तरीके हो सकते हैं, जैसे - सरल वर्ग पहेली, अधूरी कहानी या कविता को पूरा करना, चित्र पर आधारित कहानी या कविता को पूरा करना आदि। कुल मिलाकर इन सबके ज़रिए बच्चे की भाषा का विकास खुद-ब-खुद होता चला जाता है। हमारा मूल उद्देश्य भी यह है कि बच्चे की अपनी भाषाई अभिव्यक्ति की क्षमता का विकास हो। इसमें कोई शक नहीं है कि बच्चे नए-नए अभ्यासों, नए-नए संदर्भो व नई-नई गतिविधियों से बहुत कुछ सीखते हैं।

कुछ सुझाब और नए अभ्यास
इस चर्चा के बाद फिर उनसे पूछा गया कि श्रुतलेखन व अन्य अभ्यास में मात्रा व वर्तनी संबंधी त्रुटियों के लिए आप क्या करते हैं? और क्या करेंगे? इस पर सभी ने एक मत से कहा, "हम इन गलतियों को सुधारकर उच्चारण करते हुए सही शब्द ब्लैकबोर्ड पर लिख देते हैं तथा बच्चों से इन्हें ब्लैक-बोर्ड से उतारकर लिखने को कहते हैं। उन शब्दों को और पक्का कराने के लिए हम अगले दिन इन्हीं शब्दों का फिर श्रुतलेख लिखवाते हैं।" इसपर मैंने पूछा, “एक शब्द को बारबार लिखना बच्चों के लिए कैसा अनुभव है? क्या इसमें बच्चे की दृष्टि से कुछ रोचकता है?" सभी ने कहा, "नहीं।” “तब हमें इसे रोचक बनाने के लिए क्या करना चाहिए?'' इस पर सब चुप हो गए। फिर संतोष कुमार ने कहा, "हम कोई बाक्य लिखकर उसमें गलत शब्द का सही रूप लिखवा सकते हैं।” राजकुमारी ने कहा, "गलत शब्दों के सही कार्ड बनाकर उन्हें बच्चों से कुंड़वा सकते हैं, और इसके द्वारा उनकी गलतियों को सुधार सकते हैं। फिर इसी तरह के और सुझाव भी आए। मैंने उन्हें बताया कि हम अपने केन्द्रों पर इस तरह के अभ्यास करवाएं तब पता चलेगा कि इनमें से कौन-कौनसी गतिविधियां ज्यादा कारगर हैं।

उसके बाद उनसे एक और गतिविधि करवाई। उनसे कहा कि श्रुतलेख में जो त्रुटियां आपने की हैं उन पर हमने निशान लगा दिए हैं। अब पूरी कक्षा को करना यह है कि वे चार समूहों में बंटकर इन गलतियों के सुधार के लिए कुछ रोचक अभ्यास बनाएं। इसके लिए पैंतालिस मिनट का समय दिया जा रहा है।
समूह के कार्य के बाद सभी समूहों ने बारी-बारी अपने अभ्यासों का प्रस्तुतिकरण किया। इसमें हम लोगों ने भी उनकी मदद की। इस प्रस्तुतिकरण में अनुदेशकों ने मात्रा में वर्तनी संबंधी सुधारों के कुछ अभ्यास सुझाए। शुद्ध ब अशुद्ध शब्दों का कॉलम बनाकर उनका मिलान करना; कुछ का पर अशुद्ध शब्द लिखकर ब्लैक-बोर्ड पर लिखे सही शब्दों से मिलान करवाना, आदि सुझाब आए।

एक अभ्यास यह भी था कि अगर कोई गलत मात्रा लगी हो तो उसे उसी मात्रा के तुक वाले शब्दों के द्वारा भी स्पष्ट कर सकते हैं जैसे - खूब, दूध, सूप, धूप, कूप, भूप आदि। शिक्षकों को यह भी बताया गया कि मात्राओं को स्पष्ट करने के लिए हमें सही उच्चारण का भी सहारा लेना होगा। इसके साथ ही अशुद्ध शब्दों को सुधारकर लिखे गए सही शब्दों का, नए वाक्यों में प्रयोग करना भी एक अभ्यास था। प्रस्तुतिकरण के दौरान यह भी देखा गया कि जो वाक्य प्रतिभागियों ने बनाए वे बड़ों के संदर्भ लिए हुए थे और अक्सर बेहद सतही थे। इसलिए चर्चा के दौरान उन्हें और रोचक बनाकर लिखा गया। अशुद्ध शब्दों में से कुछ थे - शक्लें, खूब, सुस्ताने, भेड़िया, दूसरी आदि। उनके अभ्यास के लिए जो वाक्य अंत में बने वे निम्नलिखित थे ---
1, डंगर धूप में चलते-चलते थक गया। वह पेड़ के नीचे बैठकर ... लगा।
2. सुखवती तीसरी कक्षा में पढ़ती है। वह ... कक्षा में प्रथम आई।
3. ललिता अपने मामा की शादी में गई। उसने वहां ... मिठाइयां खाई।
4. सोनू-मोनू जुड़वां भाई हैं। उनकी … आपस में मिलती हैं।
5. कुत्ते और भेड़िये में दोस्ती थी। … जंगल में रहता है।

यहां हमने स्थानीय संदर्भो का उपयोग किया। जैसे 'डंगर' प्रशिक्षण स्थल पर खाना बनाने-खिलाने में मदद करने वाले व्यक्ति का नाम था। ‘सुखवती और ललिता' प्रशिक्षण लेने वाली दो शिक्षिकाएं थीं। मामा की शादी वाला वाक्य भी इसलिए इस्तेमाल किया क्योंकि उस समय आसपास के गांवों में शादी का जोर था।
इस पूरी प्रक्रिया से यह निष्कर्ष निकलता है कि अगर हम बच्चों को पढ़ाने-सिखाने के लिए कुछ वैकल्पिक तरीके सोचें जो बच्चों का सीखना
आसान बनाते हों, तो हमें नए रास्ते मिल सकते हैं। अब आप भी इसी तरह के कुछ और तरीके सुझाएं और उन्हें अपनी कक्षा में भी अपनाएं।


कमलेश चंद्र जोशी: लखनऊ की नालंदा संस्था से जुड़े हैं। बच्चों के साथ काम करने में विशेष दिलचस्पी है।