लेखक :  अजय शर्मा
अनुवाद: सत्येन्द्र त्रिपाठी

नवीं कक्षा के लिए एनसीईआरटी की विज्ञान की नई पाठ्य-पुस्तक (2006) के ‘ध्वनि’ अध्याय पर कुछ विचार।

इस अध्याय को पढ़कर मिले-जुले भाव जगे। मुझे यह तो लगा कि लेखकों ने अपनी ओर से ऐसा अध्याय लिखने की भरपूर कोशिश की है जो विज्ञान की प्रचलित पुस्तकों में ध्वनि की अवधारणा के प्रस्तुतिकरण से बेहतर हो (उनकी दृष्टि में)। उनके प्रयास निश्चित ही सराहनीय हैं। तथापि, मुझे ऐसा भी लगा कि मुख्यधारा की शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत विज्ञान पाठ्यक्रमों को सुधारने की जो कवायद चल रही है, उस का हिस्सा होने के कारण, इन लेखकों की बड़े सुधार सोच पाने की और उन्हें क्रियान्वित कर पाने, तथा पाठ्यसामग्री पर वैकल्पिक सोच की क्षमताओं की एक सीमा है। इन सीमाओं के लिए उन्हें दोष देना उचित नहीं होगा। किन्तु हाशिए पर खड़े हम लोग ऐसे प्रयास की सीमाओं को उजागर करते हुए उसकी समालोचना तो कर ही सकते हैं ताकि यह समझ बने कि चीज़ें वाकई में कैसे सुधर सकती हैं।

इस विवेचना में मेरी कोशिश इस अध्याय को सीखने के औज़ार के रूप में परखने की और यह देखने की है कि विद्यार्थियों को इससे क्या हासिल हो सकता है।1 अर्थात, सीखने की दृष्टि से मैंने इसमें यह तलाशा कि यह अध्याय पढ़ाए जाने के बाद विद्यार्थी में (क) ध्वनि की अवधारणा के सम्बन्ध में विशेष रूप से और (ख) विज्ञान तथा उसकी प्रकृति के सम्बन्ध में सामान्य रूप से, क्या समझ विकसित होगी; उसके मन पर यह पाठ क्या छाप छोड़ेगा।

तो, इसमें विद्यार्थी के लिए क्या है?
इससे पहले कि मैं आगे बढ़ूँ, एक चेतावनी ज़रूरी लगती है। सीखने की दृष्टि से इस अध्याय की विवेचना करने में सीखने वाले विद्यार्थी की सरलीकृत और एक हद तक भ्रामक कल्पना का सहारा लेना पड़ता है।
हम सब जानते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर पाठ्यसामग्री और पुस्तकें तैयार करने के प्रयासों में एक बड़ी खामी यह है कि उसमें छात्र समुदाय को एक ही साँचे में ढला मान लिया जाता है। पर ऐसा लेखकों की कल्पना में ही होता है। वास्तविक छात्रों का समुदाय अत्यन्त विविधतापूर्ण होता है। खासकर, ग्रामीण और शहरी विद्यार्थियों के बीच तो खासी चौड़ी और गहरी खाई है। पर काल्पनिक छात्रों के लिए लिखे गए इस अध्याय की आलोचना करने में मुझे भी मजबूरन छात्रों की इस काल्पनिक एकरूपता को स्वीकार करना ही पड़ेगा।

(क) विद्यार्थी इस अध्याय से ‘ध्वनि’ की प्रकृति के बारे में क्या सीख सकता है?

इस अध्याय में सीखने के तीन लक्ष्य रखे गए हैं जो प्रारम्भिक पैराग्राफ से स्पष्ट हैं: ध्वनि कैसे उत्पन्न होती है और किसी माध्यम में यह किस प्रकार संचरित होकर हमारे कानों द्वारा ग्रहण की जाती है। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अध्याय में ढेर सारी विवरण सामग्री (लगभग 11-12 पृष्ठ) और उससे जुड़ी कुछ सुझाई गई गतिविधियों का सहारा लिया गया है। आदर्श स्थिति में तो किसी अवधारणा को कम-से-कम तीन भिन्न प्रकार की पाठ्यसामग्री की मदद से पढ़ाया जाना चाहिए - शिक्षक की मार्गदर्शिका, विद्यार्थियों के लिए कार्यपुस्तिका (जिसमें गतिविधियों और प्रयोगों और आँकड़ों को दर्ज करने तथा उनका विश्लेषण करने सम्बन्धी विवरण हो) और पाठ्यपुस्तक जो उदाहरण सहित अवधारणाओं का वर्णन करती हो तथा उन्हें अन्य अवधारणाओं से, अनुभवों से, निरीक्षित आँकड़ों से और व्यापक संसार से जोड़ती हो।
तीनों प्रकार की इन पाठ्य सामग्रियों की भूमिकाएँ भी भिन्न होती हैं, इसलिए उन्हें एक-दूसरे से अलग रखा जाना चाहिए। चूँकि एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में इन्हें एक ही किताब में मिला दिया जाता है, इसलिए इनमें से हरेक प्रकार की सामग्री की ग्राह्यता भी बहुत सीमित हो जाती है।

गतिविधियों का औचित्य
मिसाल के लिए, अध्याय की शुरुआत में दो बढ़िया गतिविधियाँ (12.1 और 12.2) सुझाई गई हैं जिनसे ध्वनि को समझने के लिए उपयुक्त ज़मीन तैयार हो जाए। मुझे यह देखकर खुशी हुई कि ये दोनों गतिविधियाँ विद्यार्थियों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करती हैं कि वे इनमें होने वाले क्रियाकलापों के सम्भावित कारणों पर आपस में चर्चा करें। पर, इसके तुरन्त बाद इन क्रियाकलापों को समझाते हुए जवाब देने से इन गतिविधियों की सार्थकता खत्म हो जाती है।

मैं जानता हूँ कि इस अध्याय (और शायद अन्य अध्यायों) के सभी अन्य प्रयोगों के सन्दर्भ में यह एक आम समस्या है। फिर भी, ये दो गतिविधियाँ इस तरह से दूसरों से भिन्न हैं कि यहाँ व्याख्या और समाधान गतिविधि करने के बाद आते हैं न कि पहले। इस अध्याय की अन्य सभी गतिविधियों में, सम्बन्धित घटना का विवरण और व्याख्या सुझाई गई गतिविधि के पहले ही दे दिए गए हैं। इस प्रकार या तो जानकर, या मजबूरी में (सभी उद्देश्यों के लिए एक ही पाठ्यपुस्तक होने से), ये गतिविधियाँ पाठ में पहले आ चुकी अवधारणाओं के उदाहरण मात्र बनकर रह जाती हैं। दूसरी ओर, ये गतिविधियाँ विद्यार्थियों को ध्वनि की अवधारणा को जाँच-परख कर अपनी स्वतंत्र (तथापि वैज्ञानिक दृष्टि से सही) समझ निर्मित करने के लिए अपनी प्रेरक भूमिका निभाने से वंचित रह जाती हैं। अत: सम्भव है कि इन प्रयोगों को करने से विद्यार्थियों की स्मृति में ये घटनाएँ (phenomena) ज़्यादा अच्छे से अंकित हो जाएँ और उन्हें यह भी लगे कि विज्ञान, ऐसे आधिकारिक (पुस्तकीय) ज्ञान का पिटारा है जिसे प्रयोग करके परखा जा सकता है।

यहाँ मैं यह साफ कर दूँ कि मैं पहले बता दिए गए वैज्ञानिक वक्तव्यों (पाठ्यपुस्तकों में निहित वैज्ञानिक जानकारी) की सत्यता परखने के लिए प्रयोगों के उपयोग के खिलाफ नहीं हूँ। पर मेरी समझ से प्रयोगों का एक अन्य और शैक्षणिक दृष्टि से कहीं अधिक महत्वपूर्ण उपयोग परिकल्पनाओं को जाँचना और प्रायोगिक आधार पर वैज्ञानिक स्थापनाएँ गढ़ना है; अर्थात् (विद्यार्थियों के लिए) नए ज्ञान के सृजन की प्रक्रिया। एनसीईआरटी की पुस्तक में, और विशेषकर इस अध्याय में, यह दोष है कि प्रयोगों का उपयोग केवल पहली दृष्टि से ही किया गया है।

चूँकि इस अध्याय में गतिविधियों की कोई खास शैक्षणिक भूमिका नहीं है, इसलिए शायद यही उचित होगा कि मैं ध्वनि सम्बन्धी पाठ्य सामग्री की विवेचना पर ध्यान दूँ। पर आगे बढ़ने से पहले मुझे इस अध्याय की तीन अन्य गतिविधियों पर संक्षिप्त टिप्पणी करना ज़रूरी लगता है। गतिविधि 12.3 में विद्यार्थियों से वाद्य यंत्रों की सूची बनाकर अपने मित्रों के साथ इस बात पर विचार करने को कहा गया है कि इन यंत्रों का कौन-सा अंग ध्वनि उत्पन्न करने के लिए कम्पन करता है। ज़ाहिर है कि इस प्रायोगिक कार्य को गढ़ने में लेखक अपनी ज़िम्मेदारी से कतरा गए हैं। शायद उनका आदर्श तो यही होगा कि विद्यार्थी वास्तव में इन वाद्य यंत्रों को बजाकर स्वयं देखें कि हरेक में कैसे कम्पनों से ध्वनि उत्पन्न होती है। पर उन्हें यह भरोसा नहीं होगा कि शिक्षक विद्यार्थियों को कक्षा में शोरगुल मचाने देंगे, इसलिए उन्होंने अपनी इच्छा दबाकर, इस कार्य को बस सूची बनाने तक सीमित कर दिया। यदि सचमुच में ऐसा है तो यह विद्यार्थियों को आनन्दपूर्वक तथा सार्थक ढंग से विज्ञान सिखाने में हमारे स्कूलों की असमर्थता की दुखद स्थिति का सूचक है।

मुझे थोड़ी आशंका यह भी है कि इस गतिविधि से विद्यार्थी इस गलतफहमी में न पड़ जाएँ कि हर वाद्य यंत्र का केवल एक अंग ही कम्पित होकर ध्वनि उत्पन्न करता है। अध्याय में इस गतिविधि के विवरण से कुछ ऐसा ही अर्थ निकलता है। जबकि कितने ही ऐसे वाद्य यंत्र होते हैं जिनके एक से अधिक अंगों के कम्पन से उनकी विशिष्ट ध्वनि निकलती है।

मुझे पाठ में (पृष्ठ 162) उस प्रदर्शन को शामिल किए जाने के औचित्य पर भी शंका है जिसका उद्देश्य ध्वनि का, किसी माध्यम में संचरण दर्शाना है। मुझे भारत में ऐसे स्कूलों के होने पर सन्देह है जहाँ यह प्रयोग (एक वार्षिक प्रथा की तरह) कक्षा में किया जा सके। शायद लेखकों को भी इस बात का भान रहा होगा इसलिए उन्होंने इस प्रदर्शन को अलग गतिविधि की तरह न देकर उसे पाठ का ही हिस्सा बना दिया है। फिर भी इसे इस ढंग से लिखा गया है जैसे शिक्षकों से इस प्रयोग को कक्षा में करने की अपेक्षा की जा रही हो2। इस गतिविधि को शामिल करने का ज़्यादा ईमानदार तरीका यह होता कि लेखक इसे एक वैचारिक मन्थन के प्रयोग की तरह प्रस्तुत करते जिसमें किसी बेलजार (मर्तबान) से धीरे-धीरे हवा निकाले जाने पर उसमें ध्वनि के उत्पन्न होने के सम्बन्ध में विद्यार्थियों से अनुमान लगाने के लिए कहा जाता।

जहाँ तक गतिविधि 12.4 (पृष्ठ 163) की बात है जिसका उद्देश्य स्प्रिंगदार चूड़ी स्लिंकी की मदद से ध्वनि का संचरण समझाना है, उसमें भी मुझे हल्की-सी खामी नज़र आती है। मुझे भरोसा नहीं होता कि इसे हवा में पकड़े रखकर (जैसा कि पाठ्यपुस्तक का सुझाव है) यह प्रयोग सन्तोषजनक ढंग से किया जा सकेगा। कारण यह है कि यदि स्लिंकी को बिना झोल खाए (जैसा कि सम्बद्ध चित्रों में दिखाया गया है), कसके तानकर रखा जाएगा, तो यह संकुचन और विस्तारण (फैलाव) की प्रक्रिया उतने अच्छे से नहीं दिखा पाएगी। यदि इसे कसके नहीं ताना गया, तो इसमें झोल आ जाएगा; लेकिन ध्वनि की लहरें झोल नहीं खातीं। इसका एक बेहतर विकल्प यह हो सकता है कि स्लिंकी को समतल मेज़ पर रखा जाए।

विवरण कैसे?
तो चलिए अब ध्वनि सम्बन्धी प्रस्तुत पाठ्यसामग्री की चर्चा की जाए (क्योंकि यह अध्याय वास्तव में लिखित सामग्री के ज़रिए जानकारी देने का प्रयास करता है)। हमें नहीं मालूम कि पुस्तक के लेखकों को क्या निर्देश दिए गए थे3 और न ही हम यह जान सकते हैं कि इसे लिखने में खुद लेखकों के इरादे क्या थे। पर मुझे अध्याय की बुनावट (संरचना) और पाठ्यसामग्री से अन्दाज़ लगता है कि लेखक इसके द्वारा बच्चों तक ध्वनि सम्बन्धी वैज्ञानिक समझ को पहुँचाना चाहते थे। इसलिए विज्ञान को पाठ्यसामग्री की तरह पेश किए जाने और पढ़ाए जाने पर हमें चाहे जो भी आपत्तियाँ हों, यदि इस अध्याय के लेखक इसे प्रमुख रूप से इसी तरह लिखना चाहते थे तो हमें उनके परिश्रम के परिणाम (यानी अध्याय) की विवेचना भी उनके ही मान-दण्डों और दृष्टि के अनुसार करनी चाहिए।

अब, मैं मानता हूँ कि कथा साहित्य से इतर विषयों पर स्पष्ट, सुगठित और सुगम गद्य लिखने के कुछ मोटे नियम हैं। इसके अलावा गैर-जानकारों के लिए (और नवीं कक्षा के विद्यार्थी निश्चित ही इसी श्रेणी में आएँगे) विज्ञान की पाठ्यसामग्री लिखने के लिए कुछ उपयोगी दिशानिर्देश भी सुलभ हैं। पर इस अध्याय में - जिसका उद्देश्य है एक प्राकृतिक घटना का वर्णन करना और उसे समझाना - दोनों की कमी दिखाई देती है। पहले हम गैर-साहित्यिक गद्य की दृष्टि से इस पाठ का मूल्यांकन करें।4

मैं मानता हूँ कि सबसे पहले तो ऐसा गद्य विभिन्न तत्वों - जैसे तथ्य, परिभाषाएँ, व्याख्याएँ, समीकरण, सूत्र, चित्र और उदाहरणों - को पिरोकर रचा गया ऐसा सहज स्वीकार्य वृतान्त होना चाहिए ताकि एक समूची तस्वीर बने जो शिक्षाप्रद भी हो और प्रेरणादायी भी। इस विवरण के केन्द्र में एक प्रमुख विचार (और थोड़े से अन्य सम्बद्ध विचार) होता है जिसे शुरुआत में ही स्पष्टतापूर्वक प्रस्तुत कर दिया जाता है। फिर पूरे पाठ में उसका विस्तार और व्याख्या होती है। साथ ही पाठ को रोचक बनाना भी ज़रूरी है ताकि पढ़नेवाला उसे स्वेच्छा से पढ़ने और समझने का प्रयास करे न कि किन्हीं इतर दबावों और प्रलोभनों के कारण ऐसा करे।

पाठक को बाँधने के लिए लेखक कई लेखकीय युक्तियों का प्रयोग करते हैं, जैसे कि पूरे वृतान्त को एक ऐसे बड़े केन्द्रीय प्रश्न के इर्द-गिर्द गढ़ना जिससे सामान्य पाठक जुड़ सकता हो और फिर वह पाठक से वास्तविक संवाद बना पाए। यह भी ज़रूरी है कि मुख्य विचार को सुगम शब्दावली और आम उदाहरणों के द्वारा समझाया जाए। पाठ में प्रस्तुत तर्क  ाृंखला की कड़ियाँ भी स्पष्ट और सुसंगत होना चाहिए। एक ही अवधारणा अथवा क्रियाकलाप के अलग-अलग स्थानों और सन्दर्भों में आए विवरणों में भी आन्तरिक सामंजस्य होना चाहिए। और, आखिरी बात यह कि महत्वपूर्ण परन्तु अधूरे ढंग से विकसित विचारों का ढेर लगाने की बजाय कुछ थोड़े से विचार लेकर उन्हें पूरी तरह विकसित करना अक्सर बेहतर होता है।

यह अच्छा है कि अध्याय के तीन प्रमुख सवालों से पाठक का परिचय उसकी शुरुआत में (वस्तुत: पहले पैराग्राफ में) ही हो जाता है। ये हैं - ध्वनि कैसे उत्पन्न होती है और किसी माध्यम में यह किस प्रकार संचरित होकर हमारे कानों द्वारा ग्रहण की जाती है। पर पाठक के मन में यह बात बिठाने की कोशिश अध्याय में ज़रा भी नहीं दिखती कि पाठ को पढ़ने और समझने में श्रम और समय लगाना उसके लिए सार्थक होगा। मिसाल के लिए, विवरण को ऐसे केन्द्रीय प्रश्नों के इर्द-गिर्द नहीं बुना गया है जो पाठक की रुचि जगा दें और उसे पाठ पढ़कर उनका उत्तर ढूँढ़ने के लिए उकसाएँ। सिर्फ एक गतिविधि (12.3) को छोड़कर, यह कहीं भी पढ़ने वालों को प्रोत्साहित नहीं करता कि वे विज्ञान सम्बन्धी अपने अनुभव अन्य विद्यार्थियों तथा शिक्षकों के साथ बाँटें। अनुभवों के अतिरिक्त, विद्यार्थियों के अपने खुद के विचार भी होते हैं। यह अच्छी बात है कि दो गतिविधियाँ (12.1 और 12.2) विद्यार्थियों से ध्वनि के पैदा होने के बारे में उनके खुद के विचारों पर चर्चा करने को कहती हैं। पर थोड़ा ही आगे जाकर यह महत्वपूर्ण शैक्षणिक तरकीब बिसरा दी जाती है। संक्षेप में कहें तो पाठ विद्यार्थियों से संवाद न होकर उन्हें दी जा रही सिखावन की खुराक जैसा लगता है। यह वही रवैया है जो भारत में आमतौर पर वरिष्ठ और विशेषज्ञगण अपनाते हैं, जब वे उम्र, पद या ज्ञान में अपने से छोटों से बात करते हैं। अत: मुझे यकीन नहीं होता कि बाहरी दबावों और प्रलोभनों के बिना विद्यार्थी स्वरुचि से यह अध्याय पढ़ना चाहेंगे।

पाठ में मज़बूत और सुसंगत विवरण का अभाव दिखता है। जैसे कि उपविषय झटके से बदल जाते हैं और उनका पारस्परिक सम्बन्ध समझाया नहीं जाता बल्कि मान लिया जाता है। किसी खण्ड को पढ़ते समय पाठक के मन में यह पूर्वाभास बनने लगना चाहिए कि आगे क्या आएगा। इस अध्याय में मैं कभी भी यह अनुमान नहीं लगा सका कि अगला उपविषय क्या होगा। कोई पाठक कैसे अनुमान लगा सकता है कि ‘विभिन्न माध्यमों में ध्वनि की चाल’ (खण्ड 12.2.4) पर चर्चा के बाद उसका सामना ‘ध्वनि का परावर्तन’ सम्बन्धी अनुच्छेद (खण्ड 12.3) से होगा या कि ‘ध्वनि के बहुल परावर्तन के उपयोग’(खण्ड 12.3.3) के बाद उसे ‘श्रव्यता का परिसर’ (खण्ड 12.4) के बारे में पढ़ना होगा।

दूसरी बात कि उपविषयों की प्रस्तुति का क्रम मेरी समझ में नहीं आया। उदाहरण के लिए, ‘ध्वनि का संचरण’ का विवरण (खण्ड 12.2) उस खण्ड (12.2.1) के पहले आ गया है जो पाठक को इस बात की प्रतीति कराता है कि ‘ध्वनि संचरण के लिए माध्यम की आवश्यकता होती है’। क्या इनका क्रम उल्टा नहीं होना चाहिए? इसी प्रकार ‘श्रव्यता का परिसर’ सम्बन्धी खण्ड (12.4) ‘ध्वनि के बहुल परावर्तन के उपयोग’ (खण्ड 12.3.3) तथा ‘पराध्वनि के अनुप्रयोग’ (खण्ड 12.5) के बीच में फँसा हुआ है। क्या अच्छा न होता यदि इसे आखिरी खण्ड (12.6) में शामिल कर दिया जाता जो समझाता है कि हम कैसे सुनते हैं? लेखकों के लिए दूसरा विकल्प यह हो सकता था कि वे इस आखिरी खण्ड को ‘श्रव्यता का परिसर’ के साथ जोड़कर उसे पराध्वनि और ध्वनि परावर्तन के उपयोगों के पहले रखते। पाठ में सिलसिलेवार विवरण का अभाव होने के कारण वह ध्वनि सम्बन्धी विषयों की अलग-अलग जानकारी का बेतरतीब गठजोड़ मालूम पड़ता है। यदि लेखक यह सोचते हैं कि विद्यार्थियों को पाठ में सिलसिलेवार ब्यौरे की कमी पकड़ में नहीं आती तो वे निश्चित ही भ्रम में हैं।

प्रवाहपूर्ण वृतान्त के अभाव को छोड़ भी दें तो विभिन्न खण्डों में अवधारणाओं के प्रस्तुतिकरण में ऐसी विसंगतियाँ हैं जिनके कारण बहुत उत्साही पाठकों का हौसला भी पस्त हो सकता है। मिसाल के लिए, शु डिग्री में ध्वनि को ऊर्जा के एक रूप की तरह दर्शाया गया है। फिर, ऊर्जा की धारणा को विकसित करने की बजाय, ध्वनि को एक हलचल की तरह या माध्यम में गति करने वाले घनत्व/दबाव के परिवर्तनों के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाता है। इस अचानक बदलाव का कोई कारण भी नहीं बताया जाता और अन्त में ध्वनि को लेखाचित्रित रूप में पेश कर दिया गया है। यह सही है कि ध्वनि के दोनों रूपों में (घनत्व/दबाव के अनुलम्ब/आड़ा परिवर्तन की तरह तथा चित्रात्मक स्वरूप जहाँ यह अनुप्रस्थ तरंग की शक्ल ले लेती है) अन्तर्सम्बन्ध समझाया गया है और उस बारे में मुझे कोई शिकायत नहीं है। परन्तु फिर भी जहाँ ध्वनि को चित्रात्मक रूप में प्रदर्शित किया गया है वहाँ एक दिक्कत ज़रूर है मुझे। कारण यह है कि ध्वनि को चित्रात्मक रूप में बार-बार दर्शाने से कई विद्यार्थी उसे अनुप्रस्थ (transverse) तरंग की तरह ही याद रखते हैं।

इसके अलावा ऊर्जा के रूप में ध्वनि के चित्रण को पाठ में आगे फिर नहीं उठाया जाता। एक जगह (पृ.165) ध्वनि और ऊर्जा में सम्बन्ध जोड़ा भी गया है तो कुछ इस ढंग से कि उससे भ्रम पैदा होता है। यहाँ कहा गया है कि “प्रबल ध्वनि अधिक दूरी तक चल सकती है क्योंकि यह अधिक ऊर्जा से सम्बद्ध है”। पहली बात तो ‘सम्बद्ध’ अस्पष्ट शब्द है जिसके कई अर्थ हो सकते हैं। दूसरे, इससे पाठक को लगता है कि ध्वनि और ऊर्जा दो अलग-अलग (यद्यपि सम्बन्धित) अवधारणाएँ हैं। यह निश्चित ही अध्याय में पहले कही जा चुकी इस बात को काटता है कि ‘ध्वनि ऊर्जा का एक रूप है’ (पृष्ठ 160)। इसी तरह पृष्ठ 165 पर कहा गया है कि ‘ध्वनि की प्रबलता अथवा मृदुता मूलत: इसके आयाम से ज्ञात की जाती है,’ जबकि अगले ही पेज पर हम पढ़ते हैं कि तीव्रता एक तरह से ध्वनि के प्रति कान की संवेदी प्रतिक्रिया की मात्रा दर्शाती है। अब कौन विद्यार्थी इन अन्तर्विरोधी प्रतीत होने वाले वक्तव्यों को पढ़कर भ्रमित नहीं होगा? कभी-कभी वैचारिक भ्रम मज़ेदार स्थिति पैदा कर देता है। जैसे यह पुनरुक्तिपूर्ण वक्तव्य पढ़कर कि ‘आवृत्ति से हमें ज्ञात होता है कि कोई घटना कितनी जल्दी-जल्दी घटित होती है’ (पृष्ठ 164) मैं अपनी मुस्कान नहीं रोक पाया।

गागर में सागर?
जब इस अध्याय में सीखने के तीन प्रमुख लक्ष्य थे तो क्या पाठ में विस्तार से उन्हीं का विकास करना बेहतर न होता? पर इसकी बजाय इसमें अन्य विषयों की चर्चा भी ठूँस दी गई, जैसे ‘ध्वनि का परावर्तन’, ‘ध्वनि विस्फोट’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘अनुरणन’, ‘ध्वनि के बहुल परावर्तन के उपयोग’ और ‘पराध्वनि के अनुप्रयोग’ एवं ‘सोनार’। ज़रा कल्पना कीजिए कि सिर्फ 16 पृष्ठों में लेखकों को न केवल अपने तीन प्रमुख लक्ष्यों को हासिल करने की बल्कि विद्यार्थियों को 7 अन्य सम्बन्धित विषय सिखाने की जगह भी मिल गई! ध्वनि का उत्पादन, सम्प्रेषण और उसका श्रवण, ऐसे बड़े और महत्वपूर्ण विषय हैं कि सिर्फ उनके लिए ही एक पूरा अध्याय चाहिए, उसमें अन्य विषयों की चर्चा करने की बात तो छोड़ ही दीजिए। पर इस अध्याय ने कुछ ऐसी ही कोशिश की है।

आखिर में विज्ञान के रहस्यों को उजागर करने और बोधगम्य बनाने की दृष्टि से इस अध्याय की बुनियादी भूल, जो प्राय: दिखाई देती है, यह है कि इसमें नए ज्ञान को अपरिचित भाषा में पढ़ाया गया है। इसे थोड़ा समझा कर कहना चाहूँगा। वैज्ञानिक भाषा का विकास वैज्ञानिकों के आपसी संवाद को अधिक कारगर और कुशल बनाने के लिए हुआ है न कि वैज्ञानिकों के आम आदमी से संवाद के लिए। यह भाषा, संसार को एक विशेष (विशेषज्ञ के) ढंग से देखती है जिससे आम आदमी (जिनमें विद्यार्थी शामिल हैं) अधिक परिचित नहीं होता। इस कारण सामान्य दैनिक जीवन में उपयोग की जानेवाली भाषा से वैज्ञानिक भाषा बहुत भिन्न हो जाती है। सामान्यत: हम ऐसे व्यक्ति से, जिसे स्पेनिश भाषा न आती हो, स्पेन के बारे में जानने के लिए कोई स्पेनिश में लिखी गई पुस्तक पढ़ने को नहीं कहेंगे। पर यह अध्याय विद्यार्थियों से कुछ ऐसी ही अपेक्षा करता है। कहने को मैं और भी कह सकता हूँ, पर अब तक यह काफी साफ हो गया होगा कि विज्ञान-लेखन के नमूने के रूप में इस अध्याय में अनेक खामियाँ हैं। इसलिए मेरे प्रारम्भिक प्रश्न (कि विद्यार्थी ध्वनि की अवधारणा के बारे में इस अध्याय से क्या सीख सकता है?) के उत्तर में मैं यही कह सकता हूँ कि बहुत हुआ तो विद्यार्थी को इससे ढीले-ढाले ढंग से जुड़े ध्वनि सम्बन्धी कुछ वैज्ञानिक तथ्यों, परिभाषाओं, व्याख्याओं और सूत्रों की आधी-अधूरी समझ ही हासिल होगी। हो सकता है उसे लगे कि ‘ध्वनि’, विज्ञान का कोई खास रोचक विषय नहीं है।
दूसरे, इस अध्याय से हासिल ज्ञान उनके रोज़मर्रा के अनुभवों से सार्थक रूप से नहीं जुड़ता क्योंकि यह उन्हें ध्वनि की वैज्ञानिक समझ की सहायता से दैनिक जीवन की ध्वनि सम्बन्धी घटनाओं और क्रियाकलापों को समझना नहीं सिखाता।

(ख) इस अध्याय से विद्यार्थी विज्ञान के बारे में क्या सीख सकता है?

इस अध्याय का उद्देश्य ध्वनि की अवधारणा पढ़ाने में शिक्षक की मदद करने के साथ-साथ पूरे विज्ञान के बारे में उसकी समझ और मानसिक छवि को विकसित करना भी है। अब इस अध्याय को पढ़ने या इसकी मदद से ध्वनि के बारे में पढ़ाए जाने के बाद बनने वाली समझ और तस्वीर पर एक सरसरी नज़र डालें।

सरलीकरण का जोखिम उठाते हुए हम कह सकते हैं कि सामान्य जन को विज्ञान समझाने के दो बुनियादी तरीके हैं।5 पहला है, उसे ऐसी सहयोगी (Associated) गतिविधियों के जुट की तरह पेश करना जिनका लक्ष्य संसार के बारे में नया ज्ञान विकसित करना और उसे बाँटना हो। दूसरा, उसे ऐसे ज्ञान संग्रह की तरह देखना जो निर्विवाद वैज्ञानिक वक्तव्यों के रूप में साकार हुआ है।

वैज्ञानिकों का वास्ता विज्ञान के दोनों रूपों से पड़ता है। पर जब विज्ञान को प्रयोगशाला से कक्षा तक लाने के लिए उसे कृत्रिम ढंग से फिर सन्दर्भों से जोड़ा जाता है तो उसका रूपान्तरण कुछ इस तरह होता है कि वह विद्यार्थी तक उपरोक्त दूसरे रूप में ही पहुँचता है, अर्थात् जीवन से कटे जड़ ज्ञान के संग्रह की तरह (यह शायद शाला-आधारित शिक्षण की ‘वास्तविकताओं’ को ध्यान में रखकर किया जाता है)। यह अध्याय इस प्रवृत्ति का एक बढ़िया उदाहरण है।

यह सब पढ़कर शायद आप भी सहमत होंगे कि यह अध्याय विद्यार्थियों के लिए विज्ञान का बेहद त्रुटिपूर्ण चित्रण प्रस्तुत करता है, इसलिए मैं इस पर और ज़ोर नहीं दूँगा। परन्तु मैं यह ज़रूर जोड़ना चाहूँगा कि विज्ञान भले ही विद्यार्थियों के सामने पाठ के रूप में आए, पर इससे वे विज्ञान सम्बन्धी कुछ अन्य आदतों के जाल में फँस जाते हैं जिनका वास्तव में विज्ञान ‘करने’ (प्रयोगों और अन्य साधनों से वैज्ञानिक ज्ञान अर्जित करने) से कोई सम्बन्ध नहीं होता। इन मानसिक आदतों में से कुछ हैं-
अ. आधिकारिक पाठ्यपुस्तकों में संकलित ज्ञान के प्रति श्रद्धा;
ब. सत्ता और अधिकारी (जैसे विशेषज्ञ) के प्रति आदर;
स. प्रश्न पूछने की अपेक्षा प्रश्न हल करने को अधिक महत्व देना; तथा
द. अपने को सिर्फ विज्ञान पढ़ने के काबिल समझना, उसे करने योग्य नहीं।

मुझे सीखने के लिए ज़्ज्ञ्क़्ज़्ज्ञ्ख्र् दृष्टि काफी सारगर्भित मालूम देती है। यह मेरे पूर्व गाइड द्वारा सुझाए गए इस सूत्र का संक्षिप्तीकरण है कि ‘जो आप करते हैं वही आप सीखते हैं’(What-You-Do-is-What-You-Learn)।
प्राय: विद्यार्थी स्कूल में सीखा अधिकांश ज्ञान तो भूल जाते हैं पर विज्ञान की या अन्य कक्षाओं की वे यांत्रिक गतिविधियाँ जिनमें उन्होंने साल-दर-साल भाग लिया था उनकी स्मृति में बनी रहती हैं। आखिरकार, वही उन्होंने कक्षाओं में सचमुच में किया था इसलिए वही उन्होंने अन्त में सीखा।

मेरा इस अध्याय की विवेचना में कुछ अन्य बिन्दु भी शामिल करने का इरादा था पर अब मैं एक सचमुच के सवाल के साथ इसका अन्त करूँगा। पृष्ठ 166 पर एक अभ्यास प्रश्न है, ‘अनुमान लगाइए कि निम्न में से किस ध्वनि का तारत्व अधिक है?’
(क) गिटार (ब) कार का हॉर्न।
यह देखते हुए कि गिटार से भाँति-भाँति के स्वर छेड़े जा सकते हैं, और कार के भोंपू भी सभी प्रकार के आते हैं। उत्तर का सुविचारित अनुमान लगा पाना मेरे बस का नहीं है। कोई इसका उत्तर देगा?


अजय शर्मा - भौतिक शास्त्र व वन प्रबन्धन की पढ़ाई के बाद सात साल तक होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से जुड़े रहे। पिछले छह साल से विज्ञान शिक्षण पर शोधकार्य कर रहे हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: सत्येन्द्र त्रिपाठी - पिछले बीस साल से होशंगाबाद में अँग्रेज़ी भाषा पढ़ा रहे हैं। कुछ साल पत्रकारिता भी की। उनकी शिक्षा विज्ञान, टेक्नोलॉजी और दर्शनशास्त्र में हुई है।
अध्याय की समीक्षा में उल्लेखित सभी पृष्ठ क्रमांक पुन: मुद्रित अँग्रेज़ी संस्करण, नवम्बर 2006 के अनुसार हैं।