लेखक :  डेविड जरनेर मार्टिन
अनुवाद: ऊषा चौधरी

आमतौर पर यह माना जाता है कि कक्षा में बच्चों से सवाल पूछकर शिक्षक यह जानने की कोशिश करते हैं कि बच्चों के दिमाग में क्या चल रहा है या बच्चे क्या सोचते हैं। लेकिन पहले ज़रूरत इस बात की है कि शिक्षक कक्षा में बच्चों के घनिष्ट सहयोगी के रूप में रिश्ता कायम करें। साथ ही इस बात का ध्यान भी रखना होगा कि बच्चों से ऐसे सवाल पूछे जाएँ जो उन्हें सोचने, विचार करने और अपनी बात को अभिव्यक्त करने हेतु प्रोत्साहित करते हों। आखिर किसी सार्थक शिक्षा में बच्चों को भी अपने ज्ञान और विचारों के सृजन के मौके तो मिलने ही चाहिए न!

भी प्रकार की शिक्षा की तरह विज्ञान की शिक्षा को भी स्वतंत्र व स्वावलम्बी क्रियाओं को आगे बढ़ाना चाहिए। इसे व्यक्ति को ‘सोचने’ और ‘करने’ की शक्ति से युक्त करना चाहिए।

— डीबोअर

अपने को सशक्त बनाने के लिए बच्चों को चाहिए कि वे अपनी विचारशक्ति पर विश्वास विकसित करें। उन्हें अपने ज्ञान और अपने विचारों की जि़म्मेदारी लेनी चाहिए।
विद्यालय में प्रवेश लेने से पहले ही बच्चे बहुत-सा विज्ञान जानते हैं जैसे खिलौनों की खासियत, ऋतुओं की विशेषताएँ, गर्म और ठण्डे का अन्तर, खाने पर पकाने का प्रभाव आदि। उन्हें यह बोध करवाने की आवश्यकता है कि वे विज्ञान के बारे में बहुत कुछ जानते हैं जिससे उनमें अपनी सीखने की योग्यता के बारे में विश्वास बढ़ सके।

रहस्यमय डिब्बा
आगे बढ़ने से पहले रुकिए और यह गतिविधि कीजिए। एक ढक्कनदार छोटा डिब्बा लीजिए, इसमें दो या तीन छोटी-छोटी चीज़ें रख दीजिए। चीज़ें किसी भी आकार, आकृति या पदार्थ की बनी हो सकती हैं। किसी को न बताएँ कि डिब्बे में क्या है। डिब्बे का ढक्कन लगाकर, उसे टेप से बन्द कर दें। इस डिब्बे को 4-5 विद्यार्थियों के एक समूह को दे दें। उनसे कहें कि वे लिखकर, चित्र बनाकर या वर्णन करके बताएँ कि डिब्बे में क्या है। अगर आपने डिब्बे में कोई चुम्बकीय वस्तु रखी है तो उन्हें ढूँढ़ने में सहायता देने के लिए एक चुम्बक भी दे सकते हैं।

इस खास प्रकार के डिब्बे की तली में आप एक इंच का वाशर टेप से चिपका सकते हैं, धातु का बना एक स्क्रू और एक टेढ़ा-मेढ़ा पत्थर का टुकड़ा रख सकते हैं। चाहें तो कुछ सिक्के या कंचे डाल सकते हैं, किन्तु डिब्बे में बहुत सारी चीज़ें न रखें।

यह जानने के लिए कि डिब्बे में क्या है, आपको क्या करना होगा? आप शायद उसे हिलाएँगे, आप उसे झुकाएँगे - कभी तेज़ी से, कभी बहुत धीरे से, कभी अलग-अलग कोणों से। झुकाने पर आप अन्दर की आवाज़ पहचानने की कोशिश करेंगे। आप उसे सन्तुलित करने की कोशिश करेंगे। आप चुम्बक से यह जानने की कोशिश करेंगे कि अन्दर कोई चुम्बकीय वस्तु तो नहीं है। क्या आप चुम्बकीय आकर्षण अनुभव करते हैं? इस तरह आप स्पर्श (चुम्बकीय आकर्षण में), ध्वनि (तिरछा करने पर डिब्बे की आवाज़ सुनने पर) और दृष्टि (सन्तुलन बनाकर) के इन्द्रिय-ज्ञान का उपयोग कर रहे हैं।

आप अन्य किन इन्द्रियों का उपयोग कर सकते हैं? इसे सूँघने की कोशिश कीजिए। क्या कोई गन्ध है? जैसे-जैसे आप खोजबीन में आगे बढ़ते जाएँगे, आपकी सोच में परिपक्वता आती जाएगी। अपने समूह के अन्य सदस्यों से आप अपने विचारों के बारे में चर्चा करेंगे - कभी बहस, कभी अपने पक्ष का बचाव, कभी अन्य लोगों के विचार सुनकर अपने मत में बदलाव करेंगे आदि आदि।

ध्यान दीजिए कि इस गतिविधि में आपने कई विधियों का उपयोग किया है - देखना, वर्गीकरण करना (पदार्थों को चुम्बकीय या अचुम्बकीय के रूप में पहचानना), विचारों का आदान-प्रदान करना (समूह के अन्य सदस्यों से), शायद नापना (अन्दर स्थित वस्तुओं की स्थिति जानने के लिए या चुम्बकीय आकर्षण की तुलना करते हुए), भविष्यवाणी करना, परिकल्पनाएँ बनाना व उनका परीक्षण करना (परिचित वस्तुओं की चुम्बकीय शक्ति की तुलना डिब्बे में रखी चुम्बकीय वस्तु से करके), आँकड़ों का विश्लेषण और शायद मॉडल प्रस्तुत करना।

अब आप प्रारम्भिक रूप से सामान्य धारणा बना सकते हैं कि डिब्बे में क्या है। इन निष्कर्षों को अब और बारीकी से देखते हैं। प्रत्येक वस्तु कितनी बड़ी है? कैसी आकृति की है? कितनी मोटी? किस रंग की?

अपनी खोज को जारी रखें। विज्ञान की प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षिका इन डिब्बों को कई सप्ताह तक कक्षा में रख सकती है और बच्चों में लगातार जिज्ञासा जगाकर डिब्बे में रखी वस्तुओं के बारीक अध्ययन के लिए प्रोत्साहित कर सकती है। बच्चे सामूहिक रूप से एक-दूसरे के विचारों को तर्क देकर चुनौती देंगे और बताएँगे कि उन्होंने यह निष्कर्ष क्यों निकाला।

अन्तत: आप अपना सर्वश्रेष्ठ विचार बना लेंगे। क्या आप ‘सही’ हैं? आपको कितना यकीन है? आपके विश्वास का प्रतिशत क्या है? आप अपने विश्वास को कैसे बढ़ा सकते हैं? आप एक मॉडल भी बना सकते हैं। बिलकुल उसी जैसा एक डिब्बा बनाइए और उसमें वही चीज़ें रखिए जो आप समझते हैं कि रहस्यमय डिब्बे में रखी हैं - और फिर सावधानीपूर्वक दोनों डिब्बों की तुलना कीजिए कि क्या दोनों की विशेषताएँ एक-सी हैं।

सम्भवत: इस बात को लेकर कि डिब्बे में क्या है, आपकी कक्षा के साथियों के अलग-अलग विचार होंगे। कौन सही है? कौन गलत है? याद रखिए डिब्बा बन्द है। ऐसी स्थिति में ‘सही’ और ‘गलत’ देखने का नज़रिया ही बदल जाता है - उनकी तुलना किसी ‘सही’ उत्तर से नहीं हो सकती बल्कि वे केवल आपके सर्वोपरि विचार को दर्शाते हैं और इस बात को कि आप अवलोकन और सोच को जोड़कर अपने निष्कर्ष तक क्यों/कैसे पहुँच पाए।


इस रहस्यमय डिब्बे की क्रिया और बच्चों के दिमाग में समानता है। एक शिक्षक के रूप में आप निश्चयपूर्वक कभी नहीं जान सकते कि बच्चे के दिमाग में क्या है। आप सवाल पूछकर, सुनकर, स्पष्टीकरण माँगकर, उनके चित्रों के ज़रिए, तर्क सुनकर, अवलोकन करके और अपनी भावनाओं द्वारा केवल यह जानने का प्रयत्न कर सकते हैं कि बच्चे क्या और कैसे सोच रहे हैं।

इस रहस्यमय डिब्बे की क्रिया और बच्चों के दिमाग में समानता है। एक शिक्षक के रूप में आप निश्चयपूर्वक कभी नहीं जान सकते कि बच्चे के दिमाग में क्या है। आप सवाल पूछकर, सुनकर, स्पष्टीकरण माँगकर, उनके चित्रों के ज़रिए, तर्क सुनकर, अवलोकन करके और अपनी भावनाओं द्वारा केवल यह जानने का प्रयत्न कर सकते हैं कि बच्चे क्या और कैसे सोच रहे हैं। लेकिन आपका यह निष्कर्ष कि बच्चे के दिमाग में क्या चल रहा है - बस उतना ही सही होगा जैसे कि आपका वह निष्कर्ष कि रहस्यमय डिब्बे में क्या है। आप केवल अनुमान भर लगा सकते हैं।

स्वामित्व (Ownership)
क्या आपको डिब्बे खोल लेने चाहिए? मान लीजिए, डिब्बे सील कर दिए गए हैं और कभी खुलेंगे ही नहीं। तब आपको कैसा लगेगा? आप झुँझलाएँगे? लगेगा कि आपके साथ धोखा हुआ है? कभी पता ही नहीं चलेगा कि आप सही थे या गलत। अगर आप डिब्बे नहीं खोलते हैं तो आपको अपनी देखने की शक्ति, तर्कशक्ति, अनुमान लगाकर तथा स्वयं सोचकर व दूसरों द्वारा बताई गई सूचनाओं पर भरोसा करके ही निष्कर्ष निकालने होंगे और अपने द्वारा निकाले गए निष्कर्षों को वैध ठहराने के लिए आप विवश होंगे। आप स्वयं अपने प्रेक्षण, विचारों और निष्कर्षों की ज़िम्मेदारी लेने के लिए मजबूर होंगे।

और अगर आपको मालूम हो कि किसी समय आपको डिब्बा खोलने की अनुमति मिल जाएगी। यह जानते ही अचानक आपके सोचने की शक्ति का अवमूल्यन हो जाता है। देखने, तर्क करने और नतीजे निकालने के स्थान पर आप अनुमान लगाने लगते हैं। आपकी रुचि अपने निष्कर्ष निकालने में न रह कर अपने उत्तर की तुलना सही उत्तर से करने में हो जाती है। एक ‘सही’ उत्तर है और आप अपने उत्तर की तुलना उससे करते हैं। अगर आपका अनुमान सही निकलता है तो क्या कहने! अगर नहीं तो ....ठीक है!

क्या आपको डिब्बा खोल लेना चाहिए? आपने इस क्रिया से सर्वोत्तम उत्तर पाने के लिए जो प्रक्रियाएँ अपनाईं, क्या उन पर आपको भरोसा है? इस बात का हर कक्षा को अपने लिए निर्णय करना होगा। चूँकि आप यह निर्णय ले रहे हैं तो कृपया अपने तर्क भी दीजिए।

बच्चों के विचारों को महत्व देना
किसके ज्ञान को महत्व दिया जाता है? आपकी दिमागी कसरत के लिए एक प्रश्न है - प्राथमिक कक्षा के बच्चों को शिक्षक के ज्ञान को अधिक महत्व देना चाहिए या अपने स्वयं के ज्ञान को?
बहुत-से बच्चे अपने उत्तर खुद देते हैं। यह जवाब इस विश्वास से आता है कि शिक्षक का प्रमुख कार्य बच्चे को उसकी ‘सोच’ में मदद करना है। लेकिन फिर शिक्षक की भूमिका क्या रही? शिक्षक का ज्ञान बच्चों के ज्ञान से अधिक सही नहीं है? क्या शिक्षक के पास अनेक वर्षों की शिक्षा द्वारा अर्जित विचार करने की योग्यता का लाभ नहीं है? क्या शिक्षक को बच्चों को विचार करना नहीं सिखाना चाहिए? क्या शिक्षक को बच्चों को सही दिशा में सोचने के लिए प्रेरित नहीं करना चाहिए? इन प्रश्नों पर आप विचार करें।

यदि आप वास्तव में विश्वास करते हैं कि बच्चों के लिए स्वयं अपने ज्ञान का स्वामी होना ज़रूरी है तो आप पूछना चाहेंगे कि शिक्षक बच्चों के इस भरोसे को कैसे बढ़ाएँ कि उनके विचार महत्वपूर्ण हैं।
कुछ समय के लिए थोड़ा विषयान्तरण कर लें। एक अध्ययन के अनुसार प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ाने वाले शिक्षक प्रायमरी कक्षाओं में एक दिन में लगभग 64 से 348 के बीच प्रश्न पूछते हैं। कारण यह है कि सीखने-पढ़ाने की प्रक्रिया में प्रश्न पूछना विद्यार्थियों के सोचने की प्रक्रिया को बढ़ावा देता है और इससे शिक्षक अधिक अच्छी तरह यह जान पाता है कि बच्चे क्या सोच रहे हैं और कहाँ उन्हें अधिक स्पष्टीकरण की ज़रूरत है।

सामान्यत: एक किंडरगार्टन शिक्षक जीव-जन्तुओं का अध्याय पढ़ाते हुए इस तरह के सवाल पूछेगा :
“एक जानवर का नाम बताओ।”
“किसी दूसरे तरह के जानवर का नाम बताओ।”
“ऐसे जानवर का नाम बताओ जो उड़ सकता है।”
“एक ऐसे जानवर का नाम बताओ जिसके चार पैर होते हैं।”
“एक ऐसे जानवर का नाम बताओ जो घर में रहता है।”
“एक ऐसे जानवर का नाम बताओ जो जंगल में रहता है।”
“एक ऐसे जानवर का नाम बताओ जो पानी में रहता है।”
“एक ऐसे जानवर का नाम बताओ जिसके घने बाल (ढद्वद्ध) होते हैं।”
आसानी से देखा जा सकता है कि शिक्षक दिनभर में कैसे इस प्रकार के 348 प्रश्न पूछ सकता है। अब इन सवालों पर एक नज़र डालें। हरेक प्रश्न ऐसा है कि उसका एक या एकाधिक सही उत्तर है, अन्य सभी उत्तर गलत हैं। एक उदाहरण यहाँ पेश है।
“ऐसे जानवर का नाम बताओ जो उड़ता है।”

“चिड़िया?”
“ठीक!”
“बत्तख?”
“ठीक!”
“कुत्ता?”
“गलत!”
“चार टाँगों वाले जानवर का नाम बताओ।”
“कुत्ता?”
“ठीक!”
“मकड़ी?”
“गलत!”
“ऐसे जानवर का नाम बताओ जो घर में रहता है।”
“बिल्ली?”
“ठीक!”
“शेर?”
“गलत!”

आप समझ गए होंगे कि हरेक प्रश्न के सही उत्तर हैं और गलत उत्तर भी हैं। सही उत्तर किसे पता है? निश्चय ही - शिक्षक को। आप देखें कि उक्त प्रश्नों के परिदृश्य में बच्चों ने प्रश्नवाचक स्वर में उत्तर दिए और शिक्षक ने उन्हें सही या गलत बताया। शिक्षक ‘सही’ या ‘गलत’ को अनेक कुशल तरीकों से टीका-टिप्पणी द्वारा व्यक्त करते हैं जैसे - ‘ओह! सचमुच’, ‘ये अच्छा उत्तर है’, ‘उत्तर देने के लिए धन्यवाद’। इसी तरह की टिप्पणी चलती रहती है जब तक कि सही उत्तर नहीं मिल जाता। तब शिक्षक कहता है ‘सही है’ या ‘हाँ, मैं इसी उत्तर की अपेक्षा कर रहा था’ या ‘और जवाब भी अच्छे थे पर मैं तो यही जवाब सुनना चाहता था’।

इस प्रकार की स्थिति में ज्ञान का स्वामी शिक्षक होता है। शिक्षक बच्चों को उनके उत्तरों की तुलना (जो सही भी हो सकते हैं और गलत भी) अपने उत्तरों से करने के लिए प्रोत्साहित करता है; जिससे बच्चे निश्चित रूप से यह मान लेते हैं कि उनका काम केवल वह उत्तर देना है जो शिक्षक उनसे सुनना चाहता है। ज्ञान पर शिक्षक का अधिकार है। शिक्षक ही आज्ञा देने वाला है। महत्व केवल शिक्षक के विचारों का है।

इसी तरह बालकों से जो प्रयोग कराए जाते हैं, उनमें भी यही होता है। बच्चों को जो क्रियाएँ कराई जाती हैं, उनके परिणाम पहले से ही ज्ञात होते हैं, बच्चों का काम यही होता है कि वे वह उत्तर प्राप्त करें जिसकी अपेक्षा शिक्षक उनसे करता है। ऐसे समय में शिक्षक की टिप्पणी कि “मेरे ख्याल से यह पूरी तरह ठीक नहीं है, फिर से करके देखो कि क्या परिणाम आता है” का दरअसल अर्थ यह निकलता है कि “अभी तुम्हारा वह उत्तर नहीं आया है जिसकी मैं अपेक्षा कर रहा था।”

इस प्रक्रिया को कैसे पलटा जा सकता है? ब्लूम के एक अध्ययन के अनुसार ऊँचे स्तर के प्रश्नों से चर्चा की गुंजाइश बढ़ती है, जबकि निचले स्तर के प्रश्न सही-गलत की तरफ ले जाते हैं। अगर खुले प्रश्न इस्तेमाल किए जाएँ और अगर सोचने व जवाब देने के लिए पर्याप्त समय दिया जाए तो बच्चों का यह विश्वास बढ़ता है कि उनकी ‘सोच’ भी महत्वपूर्ण है। लेकिन ऐसी स्थिति में आप दिनभर में 348 प्रश्न नहीं पूछ पाएँगे।

विचारों का निर्माण - प्रश्न पूछना
कक्षा में किसी एक को शिक्षक की भूमिका दें, शेष विद्यार्थी बने रहेंगे। जो कोई भी शिक्षक बनेगा, वह तथ्यों पर आधारित पौधों से सम्बन्धित कुछ प्रश्न पूछेगा, जैसे - ‘पौधे के तीन प्रमुख भाग कौन-कौन से हैं?’, ‘कौन-सा भाग पौधे को ज़मीन में रोके रखता है?’, ‘कौन-सा भाग पौधे के लिए भोजन तैयार करता है?’, ‘कौन-सा भाग पौधे को सीधा खड़ा रखता है?’, ‘जीवित रहने के लिए पौधों को क्या चाहिए?’, ‘पेड़ उजाले में अधिक अच्छी तरह बढ़ते हैं, या अँधेरे में?’
इस तरह के प्रश्नों की  शृंखला लगभग आधे मिनट तक जारी रखिए। आप देखेंगे कि आपको लगातार उत्तर मिलते जाएँगे और ‘प्रश्न-उत्तर’, ‘प्रश्न-उत्तर’ की एक लय-सी बन जाएगी।
अब शिक्षक बीच में इस प्रकार का प्रश्न करता है, जैसे ‘अगर तुम पौधे को केवल लाल रंग के प्रकाश में रखोगे तो क्या होगा?’

अन्तिम प्रश्न का उत्तर आने में कुछ समय लगेगा। शुरू-शुरू में कुछ थोड़े ‘बेतुके’ से उत्तर आएँगे, ऐसा इसलिए कि प्रश्न-उत्तर के इस तारतम्य में वे व्यवधान नहीं चाहते थे। और इसलिए भी कि प्रश्न-उत्तर के बीच सोचने-समझने के लिए जो अनपेक्षित शान्ति आ गई थी, उसे वे किसी प्रकार की आवाज़ों से भरना चाहते थे। फिर भी बहुत-से विद्यार्थी शान्त रहेंगे क्योंकि वे अपने विचारों को एकत्रित करने के प्रयत्न में लगे रहेंगे। कुछ क्षणों के उचित विराम (लगभग 15 सेकेण्ड) के बाद शिक्षिका उत्तर पूछती है और बिना किसी टीका-टिप्पणी के उन्हें सुनती रहती है। विद्यार्थी विषय पर अपने सर्वोत्तम विचार प्रस्तुत करेंगे और इस तरह वे अपने उत्तरों का दायित्व और स्वामित्व स्वयं लेंगे।

बच्चों से प्रश्न पूछते समय शिक्षक यदि ‘विद्वता भरे बड़े-बड़े शब्द’ बताने का प्रलोभन रोक सके (और भी बेहतर हो अगर आपको सवाल का जवाब मालूम ही न हो) तो बच्चों को स्वयं ही अपने लिए उत्तर खोजने का काम करना होगा। इस प्रकार विचार प्रक्रिया भी उनकी अपनी होगी और निकाले गए निष्कर्ष भी। इससे वे अच्छी तरह जान जाएँगे कि उनका ज्ञान मूल्यवान है और शिक्षक उसे महत्व देते हैं।

बच्चे अपनी विचार प्रक्रिया और ज्ञान के स्वामी स्वयं बनें, इसे उत्साहित करने का दूसरा तरीका यह है कि ऐसी स्वीकारोक्तियाँ कम कर दी जाएँ जैसे, ‘ठीक’, ‘अच्छी कोशिश है’, ‘बहुत अच्छे’ आदि, क्योंकि इन प्रत्युत्तरों से बच्चा यह मानने लगता है कि यही शिक्षक का निर्णय है। बच्चे अपने विचारों के मालिक स्वयं बनें, इसे बढ़ावा देने के लिए आप इनकी जगह बच्चों को उनके उत्तरों के लिए धन्यवाद के सादगी भरे शब्द कह सकते हैं या बिना बोले ही मुस्कुराकर या सिर हिलाकर अपने आपको अभिव्यक्त कर सकते हैं। बच्चों के उत्तरों को ‘उनका’ बनाने में अधिकतम सहयोग देने वाले जवाब वे होते हैं जो बच्चों के विचारों को कुरेदते हैं, जैसे यह पूछना कि, ‘तुमने ऐसा क्यों कहा?’, ‘तुम्हें कैसे पता?’, ‘तुमने जो कहा उसका एक उदाहरण दो’, ‘जेन के उत्तर में कुछ और जोड़ना चाहोगे?’, ‘क्या तुम इससे सहमत हो?’, ‘क्या तुम इससे असहमत हो?’, ‘क्या होगा अगर.....’, ‘बताओ, तुम्हें यह विचार कैसे आया’, ‘क्या तुम अपने विचार को स्पष्ट कर सकते हो?’

ब्लासी, जो किंडरगार्टन कक्षाओं की शिक्षक हैं, ज़ोर देकर कहती हैं कि अगर हम बच्चों को यह दिखाना चाहते हैं कि हम उनके विचारों की कद्र करते हैं तो हमें उन्हें बोलने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। वे लिखती हैं, “कक्षा में बातचीत को महत्व देकर हम बच्चों के विचारों से अपने पाठ्यक्रम को समृद्ध बनाते हैं, सीखने की क्रियाओं के स्तर को ऊँचा व गरिमामय बनाते हैं और ऐसी मज़बूत और सहयोगी घनिष्टता कायम करते हैं जो बदले में हमारे विद्यार्थियों को स्वतंत्र विचारक, आजीवन सीखते रहने वाला इन्सान एवं एक सामाजिक-आर्थिक व्यक्ति बनाती है।” क्विनटेरो व रम्मैल का विचार है कि बच्चों से विचारात्मक प्रश्न पूछने के साथ-साथ बच्चों को सम्बन्धित शीर्षक के विषय में ‘कुछ कहने’ का आग्रह करें, इससे वे यह सन्देश देना चाहते हैं कि बच्चों के विचार मूल्यवान हैं।

शिक्षकों के मार्गदर्शन में बच्चे अपने प्रश्न पूछते हैं, अपने प्रश्नों के अनुसन्धान के लिए अपने तरीके निकालते हैं और अपने प्रश्नों के उत्तर स्वयं विकसित करते हैं। बच्चे कैसे सीखते हैं या कैसे असफल होते हैं - इसकी विस्तृत चर्चा इस लेख का क्षेत्र नहीं है, लेकिन यदि बच्चों को कुछ सीखना और उसे याद रखना है, तो उन्हें जो कुछ भी वे करते हैं, उसे अपना मानना होगा व उसे महत्व देना होगा न कि उसे जो हम कहते हैं। हमारा काम है कि हम उन्हें स्वतंत्र सोच बनाने के लिए प्रेरित करें। हमें कक्षा में ऐसा वातावरण बनाना है कि सारे बच्चे यह जान लें कि उनके उत्तर भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कि उनके शिक्षकों सहित अन्य लोगों के।


डेविड जरनेर मार्टिन: विज्ञान शिक्षण में पढ़ाई करने के बाद अमरीका में केनेसा स्टेट यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे हैं। उन्होंने कई पाठ्य पुस्तकें लिखी हैं।
ऐलिमेंट्री सायंस मेथड्स, प्रकाशक: वेड्स वर्थ, थामसन लर्निंग 2000 से साभार।
लेख इस किताब के पहले भाग - ‘प्राथमिक विज्ञान कार्यक्रम की संरचना’ के पहले अध्याय ‘विज्ञान शिक्षण की अनिवार्यताएँ’ से लिया गया है 
अँग्रेज़ी से अनुवाद: ऊषा चौधरी। पिछले पैंतीस वर्षों से विभिन्न शिक्षण संस्थाओं से सम्बद्ध व शिक्षा के नए आयामों के प्रति सजग। भोपाल में रहती हैं।