लेखक :  उमा सुधीर
अनुवाद - भरत त्रिपाठी

परमाणु सिद्धान्त एक ऐसी अमूर्त परिकल्पना है जो आधुनिक रसायन विज्ञान का केन्द्रीय तत्व है। आमतौर पर इस सिद्धान्त को माध्यमिक विद्यालय से लेकर उच्च विद्यालय तक बहुत ही संक्षिप्त रूप में लापरवाही से पढ़ा और पढ़ाया जाता है। उच्च कक्षाओं में भी इस सिद्धान्त के विकास की तह में जाने का कोई प्रयास नहीं दिखता। अध्ययनों ने दर्शाया है कि अधिकतर विद्यार्थियों को इस सिद्धान्त की बारीकियाँ व विज्ञान की अन्य शाखाओं पर इसके प्रभाव के महत्व समझ में नहीं आते; वे पाठ्यपुस्तक के विवरण सिर्फ तोते की तरह दोहरा देने में ही कुशल होते हैं। इसके अतिरिक्त, बहुत-सी ऐसी गलत अवधारणाएँ हैं जो भ्रमित करने वाले चित्रों से और ज़्यादा पुख्ता हो जाती हैं।
जून, 2007 में इन्दौर में, कक्षा आठवीं से लेकर दसवीं तक के विज्ञान शिक्षकों के लिए एकलव्य द्वारा एक कार्यशाला आयोजित की गई। इसमें शिक्षकों को परमाणु सिद्धान्त के विकास के इतिहास से शुरू करवाते हुए शुरू से आखिरी तक ले जाने का फैसला किया गया। परमाणु सिद्धान्त के विकास को समझाने के लिए शिक्षकों से पदार्थ के संरक्षण, स्थिर अनुपातों और व्युत्क्रम अनुपातों (reciprocal proportions) के नियमों से सम्बन्धित मात्रात्मक प्रश्नों को हल करवाया गया।

डाल्टन अपने सिद्धान्त के विभिन्न आधार-तत्व (postulate)पर कैसे पहुँचे, यह जानने के बाद शिक्षकों ने गुणित अनुपातों के नियम से सम्बन्धित प्रश्नों को हल किया, और फिर वे परमाणु भारों की गणना के लिए इस्तेमाल किए गए विभिन्न तरीकों से परिचित हुए। उन्होंने यह भी जाना कि इन तरीकों से उपजे विवादों को अन्तत: कैसे सुलझाया गया। चूँकि वे सब नियम जिनकी वजह से परमाणु सिद्धान्त स्थापित हुआ, उनमें जटिल मापन की आवश्यकता होती है, इसलिए किसी भी प्रयोग को दोहराने का प्रयास नहीं किया गया। इसकी बजाय, कोशिश यह थी कि शिक्षक दिए गए आँकड़ों के आधार पर निष्कर्ष निकालें।

परीक्षण
सत्र प्रारम्भ करने से पहले हमने शिक्षकों को एक छोटा-सा पर्चा हल करने के लिए दिया। इसका उद्देश्य शिक्षकों को इस बात का अहसास कराना था कि पाठ्यपुस्तकों में दिए गए कथनों और उनके साथ दिए गए त्रुटिपूर्ण चित्रों की वजह से बच्चे किस तरह की गलत अवधारणाएँ विकसित कर लेते हैं। इसके अलावा एक बड़ी समस्या यह भी है कि विभिन्न अवधारणाओं के बीच में कोई जुड़ाव विकसित नहीं किया जाता। इस वजह से अधिकतर विद्यार्थी इन उदाहरणों को नई परिस्थितियों में लागू करने या अनपेक्षित परिस्थितियों की वजह से आई समस्याओं का सामना करने में सक्षम नहीं होते।
परीक्षा के वक्त शिक्षक किसी भी तरह के दबाव में नहीं थे। उनसे यह भी कहा गया था कि वे किसी भी ऐसे प्रश्न में जिसमें उन्हें कोई दिक्कत आ रही हो, स्पष्टीकरण माँग सकते हैं। उन्होंने प्रश्नों को हल करने में लगभग बीस मिनिट लिए। जब उत्तर देखे तो हम चकित थे कि शिक्षकों की भी बिलकुल वही अवधारणाएँ गलत थीं जो अन्य अध्ययनों में माध्यमिक और उच्चतर विद्यालय के छात्रों में पाई गई थीं। शिक्षकों से पूछे गए प्रश्न और शिक्षकों द्वारा दिए गए उत्तरों के विश्लेषण यहाँ प्रस्तुत हैं।

पहला सवाल
ताम्बा और पारा, दोनों धातुएँ हैं। जहाँ कमरे के तापमान पर ताम्बा ठोस होता है, वहीं पारा द्रव होता है। पारे की तुलना में, ताम्बा ऊष्मा और विद्युत का बेहतर चालक है। ताम्बे और पारे के सम्बन्ध में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा सही है?
क. पारे के परमाणुओं की तुलना में, ताम्बे के परमाणु ज़्यादा लोचदार (malleable) होते हैं।
ख. पारे के परमाणु द्रव होते हैं जबकि ताम्बे के परमाणु ठोस होते हैं।
ग. पारे के परमाणु की तुलना में, ताम्बे का परमाणु विद्युत का बेहतर चालक होता है।
घ. उपर्युक्त में से कोई नहीं। तब इनमें दिखने वाले अन्तरों को आप कैसे समझाएँगे?

जवाबों का विश्लेषण
कुल 22 में से चार शिक्षकों ने इस प्रश्न को हल करने का कोई प्रयत्न नहीं किया। उत्तर देने वाले अठारह शिक्षकों में से सिर्फ आठ ने विकल्प (घ) चुना जो कि वास्तव में सही है। पर इन आठ में से तीन ने इस विकल्प को चुनने की कोई वजह नहीं बताई, और चार शिक्षकों ने इन अन्तरों के लिए एक-दूसरे से बिलकुल अलग और बेतुकी वजह बताईं। एक ही शिक्षक द्वारा सही उत्तर दिया गया, हालाँकि उत्तर बहुत ठीक ढंग से व्यक्त नहीं किया गया था। उसका उत्तर था; “क्योंकि ये गुणधर्म तत्वों के हैं, अर्थात् परमाणुओं के समूह के, न कि किसी एक परमाणु विशेष के”।

गलत जवाबों में कोई विशेष समानता देखने को नहीं मिली, सिवाय इसके कि किसी को भी ताम्बे के ठोस लेकिन लोचदार परमाणु द्वारा विद्युत संचालन की बात अटपटी नहीं लगी। मतलब कि शिक्षकों ने तीन में से एक या एक से ज़्यादा विकल्प चुनते समय इसकी ज़रा-सी भी समझ नहीं दर्शाई कि दिए गए गुणधर्म का एक-एक परमाणु में निहित होने का क्या अर्थ होगा।
ऐसा लगता है कि अधिकांश शिक्षक यह समझते हैं कि परमाणुओं में वे सभी गुणधर्म मौजूद होते हैं जो हम उनके स्थूल समूहों में देख सकते हैं। परमाणु को तत्व का सबसे छोटा कण माना जाता है जो तत्व के सभी भौतिक और रासायनिक गुणधर्मों को धारण करता है।
यह विचार कहाँ से आया है? अक्सर परमाणुओं का परिचय इस ख्याली प्रयोग द्वारा कराया जाता है जिसमें किसी ईंट या चॉक के टुकड़े को छोटे-छोटे टुकड़ों में तब तक तोड़ा जाता है जब तक कि उस आखिरी ‘परमाणु’ तक न पहुँच जाएँ जिसे और छोटे टुकड़ों में न तोड़ा जा सके। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि आकार को छोड़कर ‘परमाणु’ हर दृष्टि से उस स्थूल टुकड़े के समान है जिससे आपने शुरुआत की थी।
यह छवि इतनी हावी होती है कि वह सब कुछ जो हम बाद में धात्विक बन्ध और उसके गुणधर्मों के बारे में पढ़ते हैं (कि यह विशिष्ट बन्ध एक धातु में विद्युत संचालन के साथ-साथ उसे चमकदार, लोचदार आदि बनाने में कैसे समर्थ होता है), धरा-का-धरा रह जाता है। परमाणु की आधुनिक अवधारणा मात्रात्मक नियमों से बनी है और उसके इस पहलू को बिलकुल भी नहीं सिखाया जाता। इसलिए ऐसा लगता है कि अधिकतर लोगों को परमाणु सिद्धान्त के रसायन शास्त्र में अन्य अवधारणाओं के साथ सम्बन्ध व उसके प्रभाव के बारे में गलतफहमी है। ज्ञान का ये मानसिक विभाजन हमारी मूल्यांकन की शैली से प्रोत्साहित होता है जो विभिन्न अवधारणाओं के आपसी जुड़ाव की जाँच नहीं करती।

दूसरा सवाल
हाइड्रोजन के एक अलग किए गए (isolated) अणु का तापमान क्या होगा?

जवाबों का विश्लेषण
ग्यारह (50 प्रतिशत ) शिक्षकों ने यह प्रश्न हल करने का प्रयास ही नहीं किया। उन्हें शायद यह लग रहा था कि प्रश्न में कुछ ऐसी गहरी बात पूछी गई है जिसका वे अनुमान नहीं लगा पा रहे हैं।
चार शिक्षक कहते हैं - ‘सामान्य तापमान’। किसी ने इसका ज़्यादा विवरण दिया है, किसी ने कम। एक उत्तर है ‘0 डिग्री से.’ और एक अन्य उत्तर है ‘क्रान्तिक ताप।’ दो उत्तरों में घ्ज् उ दङच्र् का उपयोग करने की कोशिश की है, यानी कि गैसों के गतिज सिद्धान्त की तरफ इशारा किया है। एक उत्तर - ‘जिस तापमान पर गैस की सम्पूर्ण मात्रा रहती है, वही एक अलग रखे गए अणु का भी तापमान होगा’ - तापमान के बारे में फैली गलत समझ की वजह को दर्शाता प्रतीत होता है। 22 में से केवल दो शिक्षकों ने ही लगभग सही उत्तर दिया था। एक सही उत्तर है, ‘किसी अलग किए गए अणु के तापमान को मापना सम्भव नहीं है।’ और दूसरा उत्तर है, ‘पूर्वानुमान नहीं लगा सकती और न ही माप सकती हूँ।’ पर यहाँ भी, उनके विचार से समस्या मापन को लेकर ही थी। ज़ाहिर है कि इन में से किसी भी शिक्षक ने इस पहलू के बारे में कभी सोचा ही नहीं है कि जब किसी पदार्थ के तापमान की बात की जाती है, तो वास्तव में क्या मापा जा रहा है।

तापमान एक ऐसी व्युत्पन्न (derived) राशि होती है जो हमें ठोस, द्रव या गैसीय अवस्था वाले किसी स्थूल समूह के सभी अणुओं की औसत ऊर्जा (गतिज ऊर्जा अर्थात् वेग) के बारे में कुछ बताती है। पर यहाँ लगता है कि तापमान को पदार्थ का ऐसा अन्तर्निहित गुण मानने की भूल हुई है जिसे किसी मेज़ की लम्बाई की तरह सीधा मापा जा सकता हो।
क्या हम कभी इस गहराई में जाते हैं कि थर्मामीटर में पारा या एल्कोहोल का स्तर वास्तव में क्या नाप रहा है?
हम फिर से यह पाते हैं कि शिक्षक अपनी विविध अवधारणाओं के ज्ञान का आपस में सम्बन्ध देख पाने में अक्षम हैं। उनमें से बहुत-से शिक्षक गैसों के गतिज सिद्धान्त से परिचित हैं और शायद उसके समीकरणों को आसानी से हल कर लेंेगेे पर उन्हें यह पूछे जाने में कुछ गलत नहीं लगता कि हाइड्रोजन के एक अणु का तापमान क्या होगा।

तीसरा सवाल
सामने के पृष्ठ पर दिए गए चित्र को देखें झ्र्प्रश्न में दिया गया चित्र NCERT की नवीं कक्षा की मौजूदा पाठ्यपुस्तक से लिया गया है और उसमें “पदार्थ की तीनों अवस्थाओं के आवर्धित आरेखीय चित्र” को दर्शाया गया है। शीर्षक के अनुसार, इस चित्र में पदार्थ की तीनों अवस्थाओं में कणों की गति को देखा जा सकता है और उनकी तुलना की जा सकती है (आरेख 1.5)ट और निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें।
क दिए गए चित्र से जितनी जानकारी निकाल सकते हैं, निकालें।
ख इस चित्र में ठोस से द्रव और द्रव से गैसीय अवस्था में जाने पर घनत्व में आए बदलाव की तुलना करें।
ग इन तीन चित्रों में अणुओं या परमाणुओं के बीच में क्या है?
घ तीनों अवस्थाओं में कणों के विन्यास के स्तर (degree of order) की तुलना करें।

जवाबों का विश्लेषण
यह प्रश्न पाठ्यपुस्तक में दिए चित्रों की त्रुटियों की तरफ शिक्षकों का ध्यान खींचने के उद्देश्य से पूछा गया था। लेकिन उत्तरों से यह समझ में आया कि हमने इस प्रश्न को बहुत स्पष्टता के साथ नहीं पूछा था क्योंकि शिक्षकों को यह समझने में बड़ी परेशानी हुई कि उनसे क्या अपेक्षा थी। यह भी स्पष्ट था कि उनमें से किसी ने भी चित्रों को बारीकी से या समीक्षात्मक ढंग से देखा ही नहीं और न ये सोचा कि इन चित्रों की वजह से गलत अवधारणाएँ और मज़बूत हो जाएँगी। कुछ प्रश्नों के उत्तरों से स्वयं शिक्षकों के बीच के भ्रम भी उभरकर सामने आए।
प्रश्न 3 (क) -- इसके उत्तर में शिक्षकों ने वह सब कुछ लिख डाला जो उन्हें ठोस, द्रव और गैसीय पदार्थों के बारे में मालूम था, पर जो चित्र दिया गया था, उसे उन्होंने बारीकी से देखा ही नहीं।
प्रश्न 3 (ख) -- हमने शिक्षकों से यह अपेक्षा की थी कि वे इस बात को पकड़ेंगे कि ठोस के द्रव में बदलने पर घनत्व में होने वाली कमी को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया था जबकि द्रव के गैस में बदलने पर घनत्व में होने वाले विशाल अन्तर को पर्याप्त रूप से रेखांकित नहीं किया जाता। यानी कि ठोस (रवेदार पदार्थ) के द्रव में बदलने की प्रक्रिया में मुख्यत: कणों के विन्यास में अधिक परिवर्तन होता है; कणों के बीच की दूरी में वृद्धि उतनी ज़्यादा नहीं होती।

जब आप धातुओं की बात करते हैं तो यह एकदम स्पष्ट हो जाता है। पिघलने की प्रक्रिया में धात्विक बन्धन नष्ट नहीं होते और पिघली हुई धातुओं में चमक भी बनी रहती है और वे विद्युत की चालक भी बनी रहती हैं। आइए, हम द्रव के गैस में बदलने का एक उदाहरण लें। द्रव अवस्था में पानी का एक मोल 18 g होता है, और क्योंकि उसका घनत्व 1 g/cc होता है, पानी के एक मोल का आयतन 18 cc होता है। गैसीय अवस्था में (STP पर), यही एक मोल पानी का आयतन 22,400 cc होता है - अर्थात् इसके आयतन में हज़ार गुना से भी अधिक की वृद्धि हो जाती है। वैसे यह चित्र इस सामान्य अवलोकन का भी खण्डन करता है कि पानी के बर्फ में तब्दील होने पर उसका आयतन बढ़ जाता है।
हमें शिक्षकों से सीधे-सीधे घनत्व में होने वाले बदलाव को मात्रात्मक रूप में दर्शाने को कहना चाहिए था, जैसे - क्या यह चित्र द्रव के गैस में बदलने की प्रक्रिया में दस गुना/सौ गुना/हज़ार गुना बढ़ता हुआ दर्शाता है? यहाँ तो अधिकांश शिक्षकों ने सिर्फ यह बताया है कि घनत्व इस क्रम में घटता है - ठोस > द्रव > गैस।

हमें यह भी सोचना चाहिए कि क्या ऐसे चित्रों का उपयोग किया जाना चाहिए। क्या वे वास्तव में सम्बन्धित विषय को स्पष्ट करने में मदद करते हैं या और ज़्यादा भ्रम पैदा करते हैं?
प्रश्न 3 (ग) -- यह एक अच्छा प्रश्न प्रतीत होता है क्योंकि इसके उत्तर में कुछ भ्रान्ति और कुछ समझ प्रकट होती है। इस प्रश्न का आदर्श उत्तर है - कुछ नहीं। पर अधिकांश शिक्षक ऐसा कहने से झिझकते हैं कि अणुओं या परमाणुओं (या कणों) के बीच कुछ भी नहीं है। कुछ उत्तर इस प्रकार के हैं - अन्तरआण्विक बल (सात शिक्षक), अन्तर-आण्विक दूरियाँ (छ: शिक्षक), या फिर दोनों (दो शिक्षक)। ऐसा लगता है कि शिक्षक ऐसे शब्द जोड़कर, जो उनके अनुसार यहाँ ठीक बैठेंगे, यह कहने से बच रहे हैं कि कणों के बीच में कुछ भी नहीं होता!
विज्ञान की शिक्षा से सम्बन्धित शोधकार्यों के अध्ययन से हमें ज्ञात हुआ कि अधिकांश बच्चे यह समझते हैं कि गैस के अणुओं के बीच में वायु होती है। और यहाँ हमें तीन शिक्षकों से भी यही उत्तर मिला। क्या यह सारी भ्रान्ति अधूरे ढंग से पढ़ाए गए सिद्धान्त के बारे में कुछ बताती है?

प्रश्न 3 (घ) -- इस प्रश्न से यह नहीं पता चलता है कि शिक्षक खुद क्या सोचते हैं। उन्होंने मुख्यत: ठोस, द्रव और गैसीय पदार्थों में विन्यास के स्तर (degree of order) के विषय में पाठ्यपुस्तकों के विवरण को ही उड़ेल दिया है।
हम ठोस पदार्थ और द्रव के बीच में इस प्रमुख अन्तर को सामने लाना चाहते थे कि ठोस पदार्थ में कण (परमाणु/अणु/आयन) अत्यन्त नियमितता के साथ व्यवस्थित रहते हैं जबकि द्रवों में इस तरह के लम्बे विन्यास क्रम नहीं पाए जाते। गैसों में, स्पष्टत:, अत्यधिक अव्यवस्था होती है। ठोस, द्रवों और गैसों में कणों की गति की तुलना भी की जा सकती है, ठोस में सिर्फ कम्पनात्मक गति ही दिखती है जबकि द्रव और गैस, दोनों में स्थानान्तर गति होती है। पर शिक्षक इन सभी सूक्ष्म अन्तरों के आस-पास भी नहीं दिख रहे थे।

आगे की दिशाएँ
हमें पूरे पाठ्यक्रम का पुनरीक्षण करने की ज़रूरत है और साथ ही हमें यह जानने के लिए अध्ययन करवाने चाहिए कि दरअसल बच्चे कितना और क्या सीख पाते हैं। बहुत-से विषय ऐसे हैं जो ऊपरी कक्षाओं से माध्यमिक विद्यालय की ओर धकेल दिए गए हैं और बाद में उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया जाता। आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि बच्चे सही अवधारणाएँ चुन लेंगे और उन्हें सदैव के लिए याद रखेंगे। यह अध्ययन हमें अहसास दिलाता है कि किस-किस तरह के और किस पैमाने पर भ्रम फैले हुए हैं और ये कैसे साल-दर-साल बने रहते हैं। ऐसे मूल्यांकन से, जो पाठ्यपुस्तक में दिए विवरणों को शब्दश: जाँचने पर ज़ोर देते हैं, यह पता नहीं चलता है कि बच्चे दरअसल कितना समझ रहे हैं। इस प्रकार के अध्ययन और किस तरह किए जा सकते हैं, इसके बारे में अपने सुझाव ज़रूर भेजिए। लेकिन यह भी सोचने की ज़रूरत है कि हम इन अध्ययनों के परिणामों को, विभिन्न स्तरों पर विज्ञान की पढ़ाई व उसे पढ़ाने के तरीके को बदलनेे और अन्तत: एक अर्थपूर्ण तरीके से सीखने के मूल्यांकन को स्थापित करने के लिए कैसे इस्तेमाल करेंगे।


उमा सुधीर - एकलव्य के विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से जुड़ी हैं। इंदौर में निवास।
अँग्रेज़ी से अनुवाद - भरत त्रिपाठी - आई.आई.एम.सी., नई दिल्ली से पत्रकारिता में पी.जी. डिप्लोमा। स्वतंत्र लेखन और द्विभाषिक अनुवाद करते हैं। होशंगाबाद में निवास।