टी.वी. वैंकटेश्वरन्

वैसे तो हमारे रोज़मर्रा के जीवन में एक सेकण्ड कोई खास मायने नहीं रखता। जिस मुल्क में ‘बस दो मिनट’ लोगों का तकिया कलाम हो, वहाँ एक सेकण्ड की क्या बिसात होगी!
फिर भी यह एक खगोलीय सच्चाई है कि हमारी धरती भी अपनी धुरी पर घूमते हुए थोड़ा सुस्ता लेती है, जिसकी वजह से साल 2009 एक सेकण्ड देर से आया। इस जोड़े गए सेकण्ड को लीप सेकण्ड कहा जाता है। लीप सेकण्ड के बारे में और भी कई रोचक पहलू हैं इस लेख में।

एकदम सच है। विश्वास नहीं होता मगर यह सच है। जो लोग बहुत ध्यान देते हैं, उन्होंने ज़रूर देखा होगा कि 1 जनवरी 2009 के दिन सुबह ठीक 5 बजकर 30 मिनट भारतीय मानक समय में एक अतिरिक्त सेकण्ड जुड़ गया था। 5:29:59 के बाद 5:29:60 आया और फिर 5:30:00 आया। आमतौर पर 5:29:59 के बाद 5:30:00 आता है; बीच में 5:29:60 नहीं होता।

इस तरह से जोड़े गए सेकण्ड को ‘लीप सेकण्ड’ कहते हैं। यह वैसा ही है जैसे लीप वर्ष में एक दिन जोड़ा जाता है। जब भारतीय मानक समय 5:30:00 बजा रहा था उस समय ग्रीनविच औसत समय के अनुसार 24:00:00 बजे थे। ग्रीनविच की घड़ी में 31 दिसम्बर के दिन 23:59:59 के बाद 23:59:60 आया था और उसके बाद 00:00:00 आया था। अर्थात् इंग्लैण्ड में ग्रीनविच की घड़ी में अर्ध-रात्रि के आने और नए साल की शुरुआत के बीच पूरे 1 सेकण्ड का फासला रहा।
लीप वर्ष क्यों ज़रूरी है?

तो सवाल है कि हमें ये लीप सेकेण्ड जोड़ने की ज़रूरत क्यों पड़ती है? उससे भी पहले सवाल आता है कि लीप वर्ष ही क्यों ज़रूरी है? ऐतिहासिक रूप से देखें तो समय का मापन आकाशीय पिण्डों (यानी तारों) के सापेक्ष पृथ्वी की गति के आधार पर किया जाता था। पृथ्वी को सूर्य का एक चक्कर पूरा करने में 365.2422 दिन का समय लगता है। इसे हम लगभग 365 दिन मानकर चलते हैं। मगर यह तो स्पष्ट है कि हर साल हम करीब 0.2422 दिन की गड़बड़ करते जाते हैं। इस गड़बड़ को ठीक करने के लिए हमें हर चौथे साल एक दिन जोड़ना पड़ता है। यह दिन फरवरी में जोड़ा जाता है, और जिस साल यह दिन जोड़ा जाता है उसे ‘लीप वर्ष’ कहते हैं।

मान लो हम यह अतिरिक्त दिन न जोड़ें और साल को 365 दिन का मानकर काम चलाते रहें। तो क्या होगा? यदि इस तरह किया तो 400 साल में करीब 100 दिन का अन्तर पड़ जाएगा। इसका मतलब यह होगा कि मौसम तयशुदा समय पर नहीं आएँगे। ठण्ड का मौसम दिसम्बर में न आकर सितम्बर में आने लगेगा। हर चौथे साल एक दिन जोड़कर हमारे कैलेण्डर और मौसम का तालमेल बना रहता है।

लीप सेकण्ड इसलिए जोड़ना पड़ता है क्योंकि पृथ्वी का घूर्णन एकदम एकरूप नहीं है। वास्तव में, पृथ्वी का घूर्णन धीमा पड़ता जा रहा है। पृथ्वी के केंद्र में पिघला हुआ पदार्थ है जो पृथ्वी की गति को धीमा करता है। यही असर समुद्र के ज्वार और ध्रुवीय बर्फ के पिघलने का भी होता है। हर साल चांद पृथ्वी से करीब 3 से.मी. दूर चला जाता है। इसकी वजह से भी पृथ्वी का घूर्णन धीमा होता है। इसके अलावा, चांद व पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण घर्षण की तरह काम करता है और यह पृथ्वी को करीब 3 माइक्रोसेकण्ड धीमा कर देता है।

समय का सूक्ष्मतम नापन
आजकल की परमाणु घड़ियाँ इतनी सटीक हैं कि समय मापन में होने वाली त्रुटि 20 करोड़ साल में 1 सेकण्ड के बराबर रह गई है। इतने सटीक मापन की वजह से ही हमें यह पता चल पाया है कि हमारी पृथ्वी का घूर्णन इस परमाणविक समय से प्रतिदिन 2 मिली सेकण्ड पिछड़ जाता है। इसकी वजह से परमाणु घड़ियों और पृथ्वी की स्थिति का तालमेल टूट जाता है और समय-समय पर परमाणु घड़ियों को एडजस्ट करना पड़ता है।

इतना सटीक मापन सिर्फ मज़े के लिए या प्रोफेसरों की ज़िद पूरी करने के लिए ज़रूरी नहीं है। यह तो आधुनिक दुनिया के लिए अनिवार्य है। इंटरनेट आधारित नेटवर्क टाइम प्रोटोकॉल और उपग्रह-आधारित जियो-पोज़िशनिंग सिस्टम परमाणु घड़ियों द्वारा सही समय मापन के भरोसे हैं। उपग्रह में समय का मापन परमाणु घड़ी से होता है। इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि इनका तालमेल पृथ्वी के घूर्णन से बना रहे। मतलब यदि परमाणु घड़ी के अनुसार किसी उपग्रह को 24:00:00 बजे ठीक चेन्नई के ऊपर होना चाहिए, तो होना ही पड़ेगा। यदि पृथ्वी का घूर्णन धीमा पड़ रहा है और उपग्रह आगे निकल रहा है, तो आपको समय-समय पर उसकी परमाणु घड़ी को ठीक करना पड़ेगा ताकि वह पृथ्वी के घूर्णन के साथ तालमेल से चले।

यदि ऐसा न किया गया तो उपग्रह गुम हो जाएगा।परमाणु घड़ियों से समय मापन 1972 में शु हुआ था। इस हेतु पेरिस में एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था - अर्थ रोटेशन एण्ड रेफरेंस सिस्टम्स सर्विसेज़ - स्थापित की गई थी। इस संस्था के पास एक मास्टर परमाणु घड़ी है जिससे सबको तालमेल रखना पड़ता है। समुद्री यात्रियों, संचार संगठनों और वैज्ञानिक संस्थाओं की ज़रूरतें पूरी करने हेतु दुनिया भर की 50 राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं में करीब 200 परमाणु घड़ियाँ स्थापित की गई हैं। ऐसी एक घड़ी दिल्ली में राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला में है। इन सारी घड़ियों को स्थानीय समयों से मिलाया गया है। इसके लिए ग्रीनविच में मध्य रात्रि के समय से तुलना का सहारा लिया गया था। 1972 से लेकर अब तक 24 बार घड़ियों में लीप सेकण्ड जोड़ा गया है। पिछली बार सन् 2005 में फेरबदल की गई थी (देखिए तालिका अगले पृष्ठ पर)।

लीप वर्ष और लीप सेकण्ड

आमतौर पर कौन-सा साल लीप वर्ष होगा यह हमें पहले से मालूम होता है। इसे तय करने का एक सामान्य तरीका है, जिसकी वजह से हम आसानी से बता पाते हैं कि 2010, 2012, 2030, 2040, 2100 में से कौन-सा वर्ष लीप वर्ष होगा, लेकिन लीप सेकण्ड के लिए ऐसा कोई तयशुदा साल मुकर्रर नहीं है।
हमने धरती के अपनी धुरी पर एक पूरा चक्कर करने में लगने वाले समय को दिन कहा है। एक दिन को 24 घण्टों में बांटा है। घण्टे को मिनट में और मिनट को सेकण्ड में। इस तरह एक दिन में 86,400 सेकण्ड होते हैं।

समय की नाप के लिए बनाई गई यांत्रिक या डिजिटल घड़ियाँ एक बार सेट कर देने के बाद अनेक वर्षों तक एक सेकण्ड जितने सूक्ष्म समय को बिना गलती के नाप सकती हैं। खगोलीय समय में चाहे बदलाव हो रहा हो लेकिन घड़ियों में एक दिन 86,400 सेकण्ड का ही होगा।
खगोलीय समय में होने वाले बदलाव के लिए लगातार पृथ्वी की अक्षीय गति पर नज़र बनाए रखनी होती है। इन सूक्ष्म अवलोकनों से जैसे ही यह समझ में आता है कि धरती की धुरी के घूमने और यांत्रिक घड़ियों के समय में लगभग एक सेकण्ड का अन्तर आ गया है तो यांत्रिक घड़ियों में एक सेकण्ड की घट-बढ़ की जाती है।

वैसे देखें तो यह सोचना स्वाभाविक है कि एक सेकण्ड जैसे मामूली अन्तर के लिए इतना क्यों परेशान हुआ जाए? लेकिन यह भी सोचिए आज आप एक सेकण्ड के सौवें हिस्से को भी आसानी से नाप पाते हैं तो एक सेकण्ड तो काफी बड़ा समय हुआ न!


36 सालों में 24 बार लीप सेकण्ड जोड़े गए हैं। ज़ाहिर है कि कोई स्पष्ट क्रम नहीं है। लगता है कि लगभग हर 18 माह में 1 लीप सेकण्ड जोड़ा जा रहा है मगर इसमें कोई निश्चित क्रम नहीं है। कारण यह है कि पृथ्वी का घूर्णन भी अपने-आप में बहुत सलीकेदार नहीं है। यह धीमा हो रहा है मगर हर साल समान रूप से धीमा नहीं होता। इसलिए वैज्ञानिकों ने निर्णय यह किया है कि सामान्य सौर समय और परमाणु घड़ी के समय में 0.9 सेकण्ड से ज़्यादा का अन्तर नहीं होना चाहिए। जब इनके बीच का अन्तर 0.6 सेकण्ड हो जाता है तब लीप सेकण्ड जोड़ने का निर्णय लिया जाता है और आमतौर पर जून या दिसम्बर के अन्त में एक सेकण्ड जोड़ा जाता है।

परमाणु घड़ियाँ
हम जानते ही हैं कि पेंडुलम घड़ी दोलन को गिनकर चलती है। यदि पेंडुलम की लम्बाई 1 मीटर हो, तो प्रत्येक आधे दोलन के लिए इसे ठीक 1 सेकण्ड लगता है। इसे अर्ध दोलन काल कहते हैं। इसी प्रकार से परमाणु घड़ी में समय का मापन परमाणुओं के कम्पन गिनकर होता है। परमाणु बहुत नियमित रूप से कम्पन करते हैं और इन कम्पनों को गिनकर समय का मापन बहुत सटीकता से किया जा सकता है। आमतौर पर परमाणु घड़ियों में सीज़ियम परमाणु का उपयोग किया जाता है। इसके परमाणु के 9192631770 कम्पनों की अवधि को एक सेकण्ड माना जाता है।

सभी जानते हैं कि दुनिया भर की घड़ियाँ एक ही समय नहीं बतातीं। जब भारत में सुबह होती है, तब अमेरिका में रात होती है। इसलिए वैज्ञानिक अपने कामकाज के लिए ग्रीनविच के स्थानीय समय को औसत समय के रूप में उपयोग करते हैं। इसे मानक या अन्तर्राष्ट्रीय समय भी कहते हैं। भारतीय मानक समय अ5:30 घण्टे है। यानी जब ग्रीनविच में 1:00:00 बजते हैं तो भारतीय मानक समय के अनुसार समय 6:30:00 बजे होते हैं।


टी.वी.वैंकटेश्वरन्: विज्ञान लेखन में रुचि। विज्ञान प्रसार में प्रधान वैज्ञानिक के रूप में कार्यरत हैं। तमिलनाडु साइंस फोरम से गहरा जुड़ाव।
सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान लेखन में रुचि।