अरविन्द गुप्ता

1946 में पहली बार छपी पुस्तक ‘माय कंट्री-स्कूल डायरी’ आज भी एक शैक्षणिक क्लासिक है। एक संस्करण छपने के बाद यह पुस्तक बहुत सालों तक दोबारा नहीं छपी। अमरीकी शिक्षाविद् जॉन होल्ट के प्रयासों से वो पुन:जीवित हुई।

1940 के दौरान अमरीकी स्कूलों की हालत लगभग हमारे वर्तमान स्कूलों जैसी ही थी। दूर-दराज़ स्थित ग्रामीण स्कूलों में साधनों का अभाव था। अधिकांश स्कूल ‘सिंगल टीचर’ स्कूल होते थे। यह कहानी एक उत्साहित और प्रेरक शिक्षिका जूलिया वेबर गॉर्डन के बारे में है। उन्हें एक गरीब ग्रामीण स्कूल में ‘पनिशमेंट पोस्टिंग’ पर भेजा गया। पर जूलिया उससे बिलकुल निराश नहीं हुईं। उन्होंने तुरन्त स्थिति का जायज़ा लिया और अपनी निष्ठा व होशियारी से कुछ ही समय में स्कूल का कायाकल्प कर दिया। उन्होंने अनेक समृद्ध अनुभवों से छात्रों का हौंसला बढ़ाने के साथ-साथ, अलग-अलग कामों में उनकी रुचि भी जगाई। उन्होंने अपने प्रयासों से स्कूल को ग्रामीण परिवेश और उसके समुदाय से जोड़ा। धीरे-धीरे बच्चों को लगने लगा कि स्कूल एक अर्थहीन पाठ्यक्रम सीखने की जगह नहीं, बल्कि असली दुनिया को समझने की जगह है।

इस पुस्तक की तुलना अपने देश के महान शिक्षाविद् गिजुभाई बधेका की पुस्तक ‘दिवास्वप्न’ से की जा सकती है। नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित ‘दिवास्वप्न’ का मूल सन्देश है कि एक प्रेरित शिक्षक तमाम विषम परिस्थितियों, कठिनाइयों, अड़चनों और अभावों के बावजूद अगर चाहे तो बहुत कुछ सार्थक कर सकता है।

स्टोनी ग्रोव स्कूल में बिताए सालों के दौरान मैंने एक डायरी लिखी। खास, इस मकसद से कि मैं एक अच्छी टीचर बनना सीखूँ क्योंकि मुझे लगा कि जो कुछ घट रहा है उसे लिखने पर मेरा चिन्तन और साफ होगा।


महंगी इमारतों, प्रयोगशालाओं, कम्पयूटरों और एअर-कंडीशंड बसों से अच्छे स्कूल नहीं बनते। अच्छे स्कूल के लिए सबसे अच्छा निवेष शिक्षक ही हो सकता है। ‘माय कंट्री-स्कूल डायरी’ इस विश्वास की बखूबी पुष्टि करती है। 1940 में मिस वेबर को अमरीका के एक दूर-दराज़ इलाके में भेजा गया। स्कूल में 30 बच्चे थे और मिस वेबर उनकी एक मात्र टीचर थीं। उन्हें पहली से आठवीं कक्षा तक के सभी विषय पढ़ाने थे। मौका और आज़ादी मिलने पर एक प्रेरित शिक्षक क्या कर सकता है, यह पुस्तक यही बयाँ करती है। पैसों और साधनों के अभाव में मिस वेबर ने उन्हीं शैक्षणिक साधनों पर अधिक ध्यान दिया जो वो खुद, अपने छात्रों और स्थानीय लोगों की मदद से कम-लागत में बना सकती थीं।

मिस वेबर की कक्षा में कई विकलांग और मानसिक रूप से अस्वस्थ्य बच्चे भी थे। परन्तु मिस वेबर ने इसके बारे में कभी शिकायत नहीं की। इसकी परवाह किए बिना कि उनकी कक्षा में अलग-अलग उम्र और क्षमताओं के बच्चे थे, उन्होंने पढ़ाई को रोचक बनाया। मिस वेबर के लिए हरेक बच्चा महत्वपूर्ण था और मायने रखता था। उनकी कक्षा में हरेक बच्चा सीखता था और आगे बढ़ता था।

एक महीने के अन्दर ही मिस वेबर ने उस गरीब, साधन-विहीन स्कूल का हुलिया बदल डाला। स्कूल अब पहले से कहीं अधिक सुन्दर और साफ-सुथरा था। अब वहाँ बच्चों के सीखने, खेलने, पढ़ने और सोचने के तमाम आयाम खुल गए थे। आज साधनों का काफी बोलबाला है - मोबाइल पुस्तकालय, चलती-फिरती प्रयोग-शालाएँ, इंटरनेट आदि जिसका उपयोग कोई भी उत्साही शिक्षक कर सकता है। लेकिन इन संसाधनों के अभाव में भी मिस वेबर ने बच्चों के लिए सीखने का एक समृद्ध और रोचक माहौल विकसित किया।

मुझे लगता है कि सिखाते समय हमें कुछ सामाजिक लक्ष्य अपने समक्ष रखने चाहिए, और ये लक्ष्य इस तथ्य से उपजने चाहिए कि हम किस प्रकार का समाज चाहते हैं। हम शिक्षकों के मन में एक चित्र होना चाहिए, जो हमारे अनुभवों के व्यापक होते जाने के साथ विस्तृत हो, कि आखिर लोगों के लिए जीवन जीने का एक अच्छा तरीका क्या है। तब इन मूल्यों के प्रकाश में हमें अपने बच्चों का अध्ययन करना चाहिए ताकि यह समझ आए कि उनके जीवन इन वांछनीय दिशाओं में किस प्रकार सुधारे जा सकते हैं। जैसे-जैसे यह स्पष्ट होने लगे कि हमारे बच्चों को किन चीज़ों की आवश्यकता है, हमें ऐसे कार्यक्रम रचने चाहिए जिनसे उन ज़रूरतों की पूर्ति हो।


जब कभी छात्रों को किसी उपकरण, पुस्तक आदि की ज़रूरत पड़ती तो मिस वेबर तुरन्त उसकी तलाश करतीं और वो वस्तु जहाँ कहीं, जिसके पास होती वो उससे उधार माँग लातीं। उन्होंने अन्य स्कूलों, राज्य के कृषि विभाग, स्थानीय कॉलेज और अन्य सहकारी संस्थाओं के साधनों का समुचित उपयोग किया। एक स्थानीय बढ़ई ने बड़े बच्चों को खिलौने और लकड़ी का खेल-घर बनाना सिखाया। यह छोटे बच्चों के लिए बहुत उपयोगी साबित हुआ। स्कूल में अच्छी किताबों का अभाव था। इसलिए एक साल में मिस वेबर के छात्रों ने स्थानीय लाइब्रेरी से 700 पुस्तकें उधार लीं - यानी हर बच्चे ने 20 से अधिक पुस्तकें पढ़ीं।

इस पुस्तक में एक और महत्वपूर्ण सीख है। स्कूल स्थानीय समुदाय से कटा न हो। बच्चों को लगे कि वे एक ऐसे जीवन्त समुदाय का अंग हैं जिसे वे देख सकते हैं, महसूस कर सकते हैं और समझ कर बदल सकते हैं। बच्चे तभी सबसे अच्छा सीखते हैं जब उनके समुदाय के लोग स्कूल में आते हैं, जब पढ़ाई बच्चों के स्कूल के बाहर की ज़रूरतों, सपनों, आकांक्षाओं और समस्याओं को छूती है। यह सब कुछ मिस वेबर ने कहाँ से सीखा?

वो छात्रों से गाँव में जाकर वहाँ के जीवन और इतिहास पर जानकारी इकट्ठी करने को कहतीं, जैसे लोग अपनी आजीविका के लिए क्या करते हैं? वो गाँववासियों को स्कूल में लातीं और उनका स्वागत करतीं। धीरे-धीरे स्कूल गाँववालों के जीवन का एक अंग बन गया। मिस वेबर ने स्कूल को समुदाय का एक अभिन्न हिस्सा बना दिया।

मेरा पक्का विश्वास है कि शिक्षा जीवन की गुणवत्ता में खासा सुधार कर सकती है। पर ऐसा बदलाव पुराने तौर-तरीकों से नहीं लाया जा सकता। हमें किताबी ज्ञान से कुछ अधिक की ज़्ारूरत है। हमें बच्चों को जानना-समझना होगा, वे दरअसल, कैसे हैं और उनकी क्या आवश्यकताएँ हैं? इन आवश्यकताओं की पूर्ति का सबसे माकूल तरीका होगा उनकी रुचियों का फायदा उठाना, उनके परिवेश में आस-पास उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करना, और जहाँ दरकार हो पूरक साधन जोड़ने होंगे। यों हम बच्चों की उनके समग्र व्यक्तित्व का विकास करने में मदद कर सकेंगे और हमारी अनिश्चित-सी दुनिया की चुनौतियों का रचनात्मक तरीकों से सामना करने के वास्ते उन्हें तैयार कर सकेंगे।


मिस वेबर तमाम चीज़ों में कुशल थीं। वो इनकी विशेषज्ञ भले ही न हों पर वो तमाम कलाओं में बच्चों की रुचि जगाने में दक्ष थीं। वो कितनी चीज़ें जानती थीं उसकी फेहरिस्त अपने आप में बहुत कुछ बयाँ करती है। वो पियानो और माउथ-ऑर्गन बजातीं, लोक-नृत्य, गीत-संगीत, खेल-घर बनाना, कठपुतलियाँ बनाना और चलाना, भिन्न प्रकार के खेल, कागज़ की घूमने वाली चरखियाँ, कला, पेड़-पौधों के नाम, फूलों की क्यारियाँ बनाना, भिन्न पत्थरों की पहचान और उनके नाम, आदिवासी कहानियाँ, सिलाई, भोजन बनाना, नमक के क्रिस्टल बनाना, चिथड़ों से गमले लटकाने के हैंगर बनाना, खेल-घर के लिए फर्नीचर बनाना, जानवरों के पैरों के निशानों के साँचे बनाना और उनमें से कई को पहचानना, सूत कातना और खड्डी पर बुनाई करना जैसे बहुत से हुनर उन्हें आते थे। उन्होंने क्रियाओं और गतिविधियों के माध्यम से बच्चों को यह सब करने के लिए प्रेरित किया।

बहुत-से सुझाव मिस वेबर को बच्चों से ही मिलते जिन्हें वे बस आगे बढ़ातीं। इसलिए वे एक बोझिल पाठ्यक्रम को अपनाने से मुक्त थीं। स्कूल में हर रोज़ कुछ नया होता जिसमें बच्चों को बहुत आनन्द आता।

मेरा पक्का विश्वास है कि लोकतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था ही सर्वश्रेष्ठ है, तमाम बाधाओं के बावजूद मैंने हमारे सामूहिक दैनिक जीवन में लोकतांत्रिक तरीके से सोचने और काम करने की कोशिश की है। लगता है हम इस दिशा में कामयाब भी रहे हैं। विगत साल के हमारे काम पर नज़र डालने पर लगा कि हममें सामूहिकता की भावना पनपी है। लोकतांत्रिक भागीदारी की भावना भी लगातार सुदृढ़ हुई है। बच्चे यथासम्भव स्कूली जीवन के तमाम दायित्वों और ज़िम्मेदारियों को निभाने लगे हैं। हार्प ने जिसे“दुनिया के काम को सहकार के साथ करने की क्षमता व रुचि तलाश पाना और उसमें आनन्द लेना कहा था, मुझे लगता है कि हम वास्तव में उस दिशा में बढ़ रहे हैं।


अरविन्द गुप्ता : आई.आई.टी., कानपुर से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में स्नातक। विज्ञान गतिविधियों पर दस से अधिक पुस्तकों का लेखन एवं अस्सी से अधिक पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद किया है। आपकी पहली पुस्तक ‘मैचस्टिक मॉडल्स एंड अदर साइंस एक्सपेरीमेंट्स’ का अब तक 12 भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। वर्तमान में आई.यू.सी.ए.ए., चिल्ड्रन्स साइंस सेंटर, पुणे में कार्यरत।

इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा ने किया है और एकलव्य इसे जल्द ही प्रकाशित करने वाला है। अँग्रेज़ी में इस पुस्तक को अरविन्द गुप्ता की वेबसाईट से डाउनलोड किया जा सकता है: http://www.arvindguptatoys.com

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