लेखक :  आमोद कारखानिस
अनुवाद: मनीषा शर्मा

सूर्य ग्रहण पर विशेष  
तो 22 जुलाई को शहर से बाहर जा रहा हूँ। आपका क्या इरादा है?
आप सोच रहे होंगे कि 22 जुलाई के बारे में ऐसी क्या खास बात है कि मुझे इस लेख की शुरुआत इस कथन से करनी पड़ी कि मैं शहर से बाहर जा रहा हूँ - क्यों और कहाँ जा रहा हूँ?
मैं मुम्बई में रहता हूँ। मुम्बई में रहने के लिए जुलाई बहुत अच्छा समय नहीं है। मॉनसून अपने चरम पर रहता है, और मुम्बई में बस ऐसे ही बारिश नहीं होती, बल्कि मूसलाधार बारिश होती है; केवल एक दिन में कुछ सौ मिलीमीटर तक वर्षा हो सकती है।
लेकिन 22 जुलाई को मुम्बई से मेरे बाहर जाने का कारण बारिश नहीं है। मैं उस दिन मुम्बई में नहीं रहना चाहता हूँ....मैंने यह तय नहीं किया है कि कहाँ जाऊँगा, परन्तु वह सूरत, इन्दौर, भोपाल, विदिशा, वाराणसी, पटना या इन्हीं इलाकों के आस-पास कहीं होगा।
इन सब जगहों के बारे में क्या विशेष बात है, और 22 जुलाई के बारे में ऐसा क्या खास है? नक्शे को देखेंगे और आप समझ जाएँगे....।
ग्रहण एक दुर्लभ घटना
22 जुलाई को पूर्ण सूर्य ग्रहण होगा। पिछले पृष्ठ पर दिया गया चित्र उस क्षेत्र को दर्शाता है जहाँ ग्रहण की पूर्णता देखी जा सकेगी - सूरत, भोपाल, इन्दौर, वाराणसी, पटना, ये सभी ग्रहण की पूर्णता के मार्ग पर स्थित हैं। पूर्ण सूर्य ग्रहण एक दुर्लभ घटना है। अगला पूर्ण सूर्य ग्रहण, जो हम भारत में देख सकेंगे, 2034 में होगा। पिछला सूर्य ग्रहण जनवरी 2009 में हुआ था, पर वह पूर्ण नहीं था। मैं इस ग्रहण को देखने से चूकना नहीं चाहता, इसलिए मेरी ऐसी किसी जगह जाने और उपस्थित रहने की पूरी तैयारी है, जहाँ मैं इस खगोलीय नाटक का अनुभव कर सकूँ।

ग्रहण क्यों होते हैं? हम सभी इसका उत्तर जानते हैं; हमने स्कूल में पढ़ा है। सूर्य और पृथ्वी के बीच चन्द्रमा के आ जाने के कारण सूर्य ग्रहण होता है। उस समय सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी एक सीधी रेखा में होते हैं। और, बस शायद इस जानकारी के साथ ही स्कूल में खगोल-विज्ञान के साथ हमारा नाता खत्म हो जाता है। असल में, खगोल-विज्ञान बहुत पुराना विज्ञान है, और ग्रहण इतनी नाटकीय घटनाएँ हैं कि वे सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं।

सामान्य से ज़रा भी बदलाव भय पैदा करता है। सभी सभ्यताओं और संस्कृतियों में ग्रहण, अपशगुनों और बुरी चीज़ों के साथ जोड़ा जाता है। शुरुआती खगोलशास्त्री सम्पूर्ण संसार को पृथ्वी-केन्द्रित दृष्टि से देखते थे। उन्होंने पाया कि ग्रहण तभी होते हैं जब सूर्य (पृथ्वी के सापेक्ष) एक निश्चित स्थान पर होता है। आम लोगों में प्रचलित कहानी यह थी कि राहु और केतु नाम के दो राक्षस जब सूर्य को निगल लेते हैं तो ग्रहण होता है। खगोलशास्त्रियों की समझ यह थी कि चन्द्रमा दो बिन्दुओं पर पृथ्वी और सूर्य के बीच आता है। प्रश्न यह उठता है कि केवल इन दो बिन्दुओं पर ही क्यों ऐसा होता है, तथा हमें इन ग्रहणों की भविष्यवाणी करने के लिए किस प्रकार के गणित की आवश्यकता होती है?

कक्षीय तल में झुकाव
वास्तव में, यह बहुत मुश्किल नहीं है। हमें पता है कि पृथ्वी, सूर्य के चारों ओर करीब-करीब दीर्घ वृत्ताकार यानी इलिप्टिकल कक्षा में चक्कर लगाती है। यह कक्षा एक तल में रहती है जो ‘इक्लिप्टिक तल’ (कान्तिवृत्त) कहलाता है। यदि चन्द्रमा इसी तल में ही चक्कर लगाता तो हमें हर अमावस्या को सूर्य ग्रहण मिलता, और हर पूर्णिमा को चन्द्र ग्रहण।
परन्तु, जैसा कि चित्र में दर्शाया गया है, पृथ्वी के चारों ओर चन्द्रमा की कक्षा का तल, सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की कक्षा के तल के सम्पाती नहीं होता - दोनों के तल एक ही नहीं होते। इन दोनों तल के बीच लगभग पाँच डिग्री का कोण बनता है। वैसे तो पाँच डिग्री का कोण छोटा प्रतीत होता है लेकिन, पृथ्वी और चन्द्रमा के तुलनात्मक आकारों और उनके बीच की दूरी को ध्यान में रखते हुए, यह चन्द्रमा की परछाईं को पृथ्वी पर न पड़ने देने के लिए पर्याप्त है।

नीचे बना चित्र अतिरंजित है, परन्तु इससे परिस्थिति की त्रिकोणमिती को समझने में मदद मिलेगी।
चूँकि पृथ्वी की कक्षा और चन्द्रमा की कक्षा के बीच का कोण पाँच डिग्री है, इसलिए यहाँ त्रिकोण ABC में,
कोण CAB = 5 डिग्री,
CA = पृथ्वी-चन्द्रमा के बीच की दूरी = 3,84,400 किलोमीटर
sin è = ऊँचाई/कर्ण
in (50) = CB/CA
0.0871 = CB/3,84,400 कि.मी.
CB = 0.0871 x 3,84,400 कि.मी.
= 33,502 कि.मी.

हमें मालूम है कि पृथ्वी का व्यास 12,756 किलोमीटर है।
इसलिए पृथ्वी और चन्द्रमा के परिक्रमा पथ के तल में 5 डिग्री का हल्का-सा झुकाव होने पर चन्द्रमा की छाया बहुत दूर से निकल जाती है।
अत: सामान्य तौर पर ग्रहण लगने ही नहीं चाहिए। परन्तु पहले चित्र को फिर से देखें....जब पृथ्वी घ् स्थान पर थी, तब स्थिति वैसी है जैसी कि ऊपर वर्णित की गई है, और तब चन्द्रमा की परछाईं पृथ्वी से मिलने से चूक जाती है।
चन्द्रमा की कक्षा को दर्शाने वाला दीर्घ वृत्त पृथ्वी की कक्षा को दो बिन्दुओं पर काटता है। इन बिन्दुओं को कटान-बिन्दु (नोड्स) कहते हैं। जब पृथ्वी बिन्दु P पर हो, और यदि चन्द्रमा नोड बिन्दुओं पर भी हो तब अमावस्या का दिन नहीं होता - और ग्रहण नहीं होता।
पर जब पृथ्वी बिन्दु Q पर होती है तब क्या होता है?
यदि चन्द्रमा उस नोड बिन्दु पर है जो सूर्य के सामने है, तो सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी सभी एक ही रेखा में होंगे। इस समय चन्द्रमा की परछाईं पृथ्वी पर पड़ेगी, और हमें सूर्य ग्रहण देखने को मिलेगा।

इसी प्रकार की स्थिति हमें दूसरे अर्द्ध भाग में (बिन्दु R पर) मिलेगी। प्राचीन भारतीय खगोलशास्त्री इन बिन्दुओं को राहू और केतु कहते थे।
वास्तव में, पृथ्वी के राहु, केतु बिन्दुओं के आस-पास होने के दौरान (यानी कि ठीक उस बिन्दु पर न हो तो भी), यदि अमावस्या का दिन हो, तो भी हमें ग्रहण मिल सकता है, यद्यपि हो सकता है वह आंशिक ग्रहण ही हो। यदि अमावस्या, नोड बिन्दु के +/- 7.5 डिग्री के भीतर होती है तो हमें पूर्ण या वलयाकार (Annular) ग्रहण मिलेगा।
हर बार, जब पृथ्वी इन बिन्दुओं से गुज़रती है, तब एक ग्रहण की सम्भावना होती है। हम जानते हैं कि पृथ्वी, सूर्य का एक चक्र एक वर्ष में पूरा करती है, इसलिए हमें हर छह महीनों में एक ग्रहण मिलना चाहिए।
पर ऐसा नहीं होता...।
चीज़ें इतनी सीधी-सादी नहीं हैं.... चन्द्र माह 29.5 दिनों का होता है। एक वर्ष में 365 दिन होते हैं। 29.5 से 365 पूर्णत: विभाज्य नहीं है। इसका मतलब है कि हमें पूर्णिमा या अमावस्या हमेशा साल के उन्हीं निश्चित दिनों में नहीं मिलती। इसका मतलब है, कि यह भी हो सकता है कि जब पृथ्वी, राहू और केतु बिन्दुओं को पार कर रही हो, तब हमें अमावस का दिन न मिले।

ग्रहण नियमित अन्तराल से
अन्तरिक्ष में पृथ्वी के चारों ओर घूमते हुए चन्द्रमा की कक्षा के तल का झुकाव एक ही दिशा में नहीं रहता, अपितु दोनों तल के बीच पाँच डिग्री का कोण बरकरार रखते हुए वह इक्लिप्टिक (पृथ्वी की कक्षा का तल) के सापेक्ष चारों ओर घूमता रहता है। ऐसा करते हुए हर 18 वर्षों में वह एक पूरे चक्र से होकर गुज़रता है। यदि ठीक-ठीक कहें तो 18 वर्ष, 11 दिन और आठ घण्टे में वही स्थिति दोहराई जाती है।
यह अनुमान लगाने के लिए कि अगला ग्रहण कब होगा अब हमारे पास एक आसान तरीका है, हमें बस पिछले 18 वर्षों का रिकॉर्ड देखना है और मात्र उसे दोहराते चले जाना है। यह अन्तराल प्राचीन खगोलज्ञों को ज्ञात था। इस समयान्तराल को सारोस के नाम से जाना जाता है।

अभी लगभग छह महीने पहले ही 26 जनवरी 2009 को हमने आंशिक सूर्य ग्रहण देखा था। 18 वर्ष और 11 दिन जोड़ने पर हम अनुमान लगाते हैं कि 2009 + 18 = 2027, जनवरी 26 + 11 दिन = 6 फरवरी को सूर्य ग्रहण होगा। यानी कि हमें 6 फरवरी 2027 को ग्रहण होने की उम्मीद करनी चाहिए।
इसी प्रकार 22 जुलाई 2009 की स्थिति, 2009 + 18 = 2027, 22 जुलाई + 11 = 2 अगस्त ( 2 अगस्त 2027) को दोहराई जाएगी।
नासा के चार्ट हमारे परिणामों की पुष्टि करते हैं। परन्तु ये दोनों ही ग्रहण भारत में नहीं देखे जा सकेंगे।

सारोस चक्र

चन्द्रमा का पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाने का तल हर साल थोड़ा-थोड़ा खिसकता रहता है जिसके कारण (पाँच डिग्री का कोण बरकरार रखते हुए) वह इक्लिप्टिक के तल के सापेक्ष चारों ओर घूमता रहता है। इसके कारण राहु-केतु बिन्दु हर वर्ष 9.82 दिन से खिसक जाते हैं। खिसकते-खिसकते 18 साल बाद वे ठीक उसी स्थिति में आ जाते हैं जहाँ वे प्रथम सूर्य ग्रहण के समय थे। इसीलिए ठीक 18 साल 11 दिन 8 घण्टे बाद फिर से सूर्य ग्रहण होता है। इसे सारोस चक्र कहते हैं। हर समय ऐसे बहुत-से सारोस चक्र चल रहे होते हैं, प्रत्येक चक्र को पहचान के लिए एक विशेष नम्बर दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर 22 जुलाई 2009 को होने वाला सूर्य ग्रहण सारोस चक्र 136 का एक ग्रहण है।
परन्तु चूँकि यह दोहराव पूरे दिनों के बाद नहीं होता, उसमें आठ घण्टे जुड़े हैं, इसलिए सारोस चक्र का अगला सूर्य ग्रहण पृथ्वी पर जहाँ से पहला सूर्य ग्रहण शु डिग्री हुआ था उसके लगभग 120 डिग्री के बाद शु डिग्री होता है क्योंकि आठ घण्टे में पृथ्वी 120 डिग्री घूम जाती है। एक सारोस चक्र के कुछ ग्रहणों की शुरुआत और अन्त पुष्ठ 34 पर दिए गए चित्रों में दिखाए गए हैं।

चूँकि हम इस विषय पर बात कर ही रहे हैं, तो चलिए कुछ और आँकड़ों पर नज़र डाल लें और देखें कि क्या हम किसी रोचक बात का पता लगा सकते हैं?
सूर्य, चन्द्रमा के व्यास से 400 गुना बड़ा और उसकी तुलना में 400 गुना दूर है। इस संयोग का मतलब है कि पृथ्वी से देखने पर सूर्य और चन्द्रमा एक ही आकार के दिखते हैं। परन्तु चन्द्रमा की कक्षा एक दम गोलाकार नहीं है, वह थोड़ी-सी दीर्घ वृत्ताकार है। चन्द्रमा की उपभू (पेरीजी) 3,63,300 किलोमीटर है और अपभू (ऐपोजी) 4,05,500 किलोमीटर है। यदि सूर्य ग्रहण तब होता है जब चन्द्रमा अपभू पर हो (यानी जब वह हमसे सबसे अधिक दूर हो), तो हो सकता है कि हमें चन्द्रमा की परछाईं सूर्य को पूर्ण रूप से ढँकते हुए न दिखे, और हम एक वलयकार (छल्लेदार) सूर्य ग्रहण देखें। अगर ग्रहण उस समय पड़ता है, जब चन्द्रमा उपभू पर हो (जब वह हमसे सबसे पास हो) तब चन्द्रमा की परछाईं सूर्य को पूर्ण रूप से ढँक लेगी और हमें पूर्ण सूर्य ग्रहण देखने को मिलेगा।
वास्तव में, जब चन्द्रमा उपभू पर होता है, तब वह सूर्य से थोड़ा बड़ा दिखाई देता है। 22 जुलाई को चन्द्रमा ऐसी दूरी पर रहेगा कि वह सूर्य के प्रत्यक्ष आकार से 1.08 गुना होगा। अत: हमें पूर्ण सूर्य ग्रहण देखने को मिलेगा जो तीन से चार मिनट तक रहेगा। 

महाभारत में ग्रहण

आप जयद्रथ की कहानी जानते ही होंगे। अर्जुन ने यह कसम खाई थी कि सूरज ढलने से पहले जयद्रथ को मार देगा, नहीं तो खुद को मार लेगा, और यह पता लगने पर जयद्रथ जाकर छुप गया। दोपहर हो गई और जयद्रथ नहीं मिला। शाम हो चली थी और अब तक उसका कोई पता नहीं चल पाया था। अर्जुन स्वयं को मारने की तैयारियाँ करने लगा। रोशनी कम होने लगी थी, साँझ की पीली-सी छटा बिखरने लगी थी। जयद्रथ ने अपने छिपने वाले स्थान से रोशनी को मद्धम होते देखा और यह सोचते हुए कि अब वह सुरक्षित है बाहर आ गया। और तभी, सबके आश्चर्य की सीमा नहीं रही जब सूर्य फिर से चमकने लगा।
इस कहानी में सभी पौराणिक तत्वों, मिथ्यावर्णनों और अतिश्योक्तियों के होते हुए भी, यदि यह किसी ऐतिहासिक घटना पर आधारित है, तो पूरी सम्भावना है कि यह एक ऐसी घटना का वर्णन है जो पूर्ण सूर्य ग्रहण (या लगभग पूर्ण सूर्य ग्रहण) के दिन घटी थी।

 

ग्रहण की फोटो खींचने के लिए कुछ सुझाव

सूर्य को नंगी आँखों से कतई न देखें। और हाँ, अपना कैमरा ज़रूर साथ लेकर जाएँ। ज़्यादा अच्छा होगा अगर आपके पास डिजिटल कैमरा हो। आप उस कैमरे की एलसीडी स्क्रीन पर सूर्य को देख सकते हैं। यह नुकसानदायक नहीं है, लेकिन एसएलआर व्यूफाइंडर से सीधे देखना नुकसानदायक हो सकता है। ज़्यादा अच्छा होगा कि आप अपने डिजिटल कैमरे में ज़्यादा क्षमता का मेमोरी कार्ड लगाएँ। इस तरह आप का कैमरा लगातार तस्वीरें खींच सकता है, और अगर आपकी किस्मत अच्छी हुई तो आप डायमंड रिंग की कुछ बेहतरीन तस्वीरें खींच सकते हैं। लगातार तस्वीरें खींचे बिना डायमंड रिंग की फोटो लेना बेहद कठिन है, क्योंकि जब तक आप देखेंगे और क्लिक बटन दबाएँगे तब तक सूर्य की स्थिति बदल चुकी होगी।
अगर आपके कैमरे में अल्ट्रा-वॉयलेट (पराबैंगनी) फिल्टर है तो इसका इस्तेमाल करें, इससे सूर्य की छवि ज़्यादा स्पष्ट दिखेगी। अगर आपके कैमरे में यह फिल्टर नहीं है तो परेशान न हों, कैमरे का व्हाइट-बैलेंस इस तरह सेट करें कि ज़रूरत से ज़्यादा दिखने वाला लाल रंग छन जाए।
जहाँ तक फोकस का सवाल है, इसे अनन्त पर रखें, या फिर अगर ऑॅटो फोकस का इस्तेमाल कर रहे हैं तो सुदूर क्षितिज पर फोकस करें।
आजकल मिलने वाले अधिकांश कैमरों में बहुत अच्छा ऑॅटो मोड होता है जो शटर स्पीड, अपर्चर, और फिल्म की संवेदनशीलता को ठीक करता रहता है। आप इसकी सैटिंग को कम-से-कम 1.5 से 2 पॉइंट तक कम एक्सपोज़ करके रखें।

हम अपनी कहानी पर वापस आते हैं, 22 तारीख को पूर्ण सूर्य ग्रहण होगा और मैं इस अवसर को खोना नहीं चाहता। आप अपने बारे में क्या सोचते हैं?
और जो भी करें, एक चीज़ आप बिलकुल न करें, कि ग्रहण से डर जाएँ और घर बैठ कर जीवन में कभी-कभी मिलने वाले इस दुर्लभ अनुभव को हाथ से निकल जाने दें!!


आमोद कारखानिस: पेशे से कम्प्यूटर इंजीनियर। लेखन एवं चित्रकारी का शौक। मुम्बई में रहते हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: मनीषा शर्मा: शिक्षा और व्यवसाय से चिकित्सक हैं। विज्ञान और शिक्षा में गहरी दिलचस्पी। अनुवाद करने का शौक है। दिल्ली में रहती हैं।
सूर्य ग्रहण पर विस्तृत जानकारी के लिए निम्नलिखित वेबसाइट देख सकते हैं।
http://eclipse.gsfc.nasa.gov/solar.html