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सवाल: जीव बूढ़े क्यों होते हैं? क्या बुढ़ापे को रोका जा सकता है?

जवाब: यह हमेशा से ही लोगों की जिज्ञासा का विषय रहा है कि आखिर जीव बूढ़े क्यों होते हैं। इसके साथ ही हर काल-समय के लोगों ने अपने स्तर पर इसके कारण और हल जानने की कोशिश भी की है। यहाँ हम खास तौर पर इन्सानों के बारे में बात करेंगे।
बुढ़ापे के बारे में बात हो इससे पहले हम इन्सानों की उम्र की विभिन्न अवस्थाओं की पहचान कर लें। पहले तो हम यह समझ लें कि आखिर किस उम्र को हम युवा की श्रेणी में रखें और किसे उसके पार। इस पर लोगों के अलग-अलग विचार हैं। कई सारे वैज्ञानिकों का मानना है कि 13 से 20 साल की उम्र को किशोरावस्था और 20 से 40 साल के बीच की उम्र को युवावस्था के दायरे में रखा जाना चाहिए।
हमारा जीवन महज़ कुछ किलोग्राम वज़न के शिशु से शु डिग्री होता है। फिर साल दर साल हम बड़े होते जाते हैं। उम्र के लगातार बढ़ने की यह प्रक्रिया हर जीव को बुढ़ापे की ओर ले जाती है। इस बात की शुरुआत करने से पहले यह जान लेना भी ज़रूरी है कि आखिर वे कौन-कौन-से लक्षण हैं जिनके आधार पर हम इन्सानों में बुढ़ापे को पहचानते हैं।

वैसे तो उम्र बढ़ने के कई सारे आन्तरिक और बाह्य लक्षण होते हैं पर अगर आन्तरिक लक्षणों की बात करें तो उनमें निम्न प्रमुख हैं।
उम्र बढ़ने के साथ हृदय के काम करने की क्षमता घटती जाती है। रक्त की ऑक्सीजन धारण करने की क्षमता घटने लगती है। अस्थि मज्जा (bone marrow) में लाल रुधिर कणिकाओं के बनने की क्षमता कम होने लगती है। फेफड़े कम ऑक्सीजन जमा कर पाते हैं। जीभ में स्वाद कलिकाओं की संख्या कम होने लगती है। शरीर से स्रावित होने वाला पाचक रस कम होने लगता है। नज़र और याद्दाश्त का कमज़ोर होना। नींद में बदलाव आना भी उम्र बढ़ने के साथ होता है। ये सभी लक्षण व्यक्ति-व्यक्ति पर अलग-अलग तरह से लागू होते हैं। वैसे तो ये सभी लक्षण कई सारी बीमारियों के चलते कम उम्र में भी उभर सकते हैं पर हम यहाँ उम्र बढ़ने से उभरने वाले लक्षणों की बात कर रहे हैं।
उम्र बढ़ने के साथ बाहर से साफ दिखाई देने वाले कुछ लक्षण इस प्रकार हैं।

त्वचा में होने वाली कसावट में कमी यानी त्वचा का शिथिल होना और उस पर झुर्रियाँ आना। हड्डियाँ सिकुड़ने लगती हैं। कमर झुक जाती है और हमारा शरीर आगे की ओर झुकने लगता है। इस सबके लिए बाहरी तौर पर ज़िम्मेदार है पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल। पृथ्वी का गुरुत्व हर वस्तु को नीचे की ओर खींचता है फिर चाहे वो हमारी त्वचा हो या हड्डियाँ। जब तक हम जवान होते हैं इस गुरुत्वाकर्षण बल के विरुद्ध खुद को सीधा खड़ा रख पाते हैं और त्वचा को कड़ा रख पाते हैं पर उम्र के साथ जैसे-जैसे शरीर और उसके अंग, हड्डियाँ आदि कमज़ोर पड़ने लगती हैं हम उस ताकत से गुरुत्वबल का विरोध नहीं कर पाते जितना लड़कपन और युवावस्था में कर रहे थे। पर अब सवाल यह उठता है कि उम्र के साथ हमारे शरीर के अंग कमज़ोर क्यों पड़ने लगते हैं।

जीवन का आधार कोशिका
हमारी शारीरिक संरचना का मूल आधार कोशिका है। वे छोटी कोशिकाएँ जिन्हें हम नंगी आँखों से नहीं देख पाते और जिनसे हमारा शरीर बना होता है। हमारे शरीर में तरह-तरह की कोशिकाएँ होती हैं: रुधिर कोशिकाएँ, त्वचा की कोशिकाएँ, बालों की कोशिकाएँ और इसी तरह हर अंग की अलग-अलग कोशिकाएँ।
कोशिकाओं और उनके कोशिकांगों के ठीक तरह से काम करते रहने की बदौलत ही शरीर के सारे अंग अपना काम अपेक्षित तरीके से कर पाते हैं।

बचपन से युवावस्था के दौरान जब हमारा विकास हो रहा होता है उन दिनों हम अधिक संख्या में कोशिकाओं का निर्माण करते हैं और ये सारी कोशिकाएँ तेज़ी से अपनी प्रतिलिपियाँ भी बना रही होती हैं। कभी-कभी ये कोशिकाएँ बीमार पड़ जाती हैं। और कभी तो काम करना बन्द कर देती हैं या यूँ कहें कि कोशिकाएँ मर भी जाती हैं। वैसे तो यह किसी खास चिन्ता का विषय नहीं है क्योंकि ऐसा तो अक्सर ही होता रहता है और उनकी कमी नई कोशिकाएँ पूरी भी करती रहती हैं। अगर हम अपनी त्वचा की कोशिकाओं पर ही गौर करें तो उनकी उमर महज़ कुछ हफ्तों की होती है। उसके बाद वे हमारे शरीर से धूल की तरह झड़ती रहती हैं और हमें पता भी नहीं चलता; और उनकी जगह नई कोशिकाएँ ले लेती हैं।

क्या सभी की उम्र एक-सी दर से बढ़ती है?

पुराने ज़माने का यह स्वयंसिद्ध सत्य अब जाता रहा कि “समय किसी इन्सान के लिए नहीं रुकता।” आधुनिक शोधों के ज़रिए वैज्ञानिकों ने यह पाया कि अलग-अलग व्यक्तियों में उम्र बढ़ने की दर भी अलग-अलग होती है। कोशिका-विज्ञानियों के अनुसार व्यक्तियों की अलग-अलग कोशिकाओं की उम्र बढ़ने की दर भी अलग-अलग होती है और जो इस बात की ताकीद करता है कि लोगों की कालानुक्रम सम्बन्धी उम्र और जैविक उम्र में अन्तर होता है। इसका मतलब है कि हो सकता है कि शारीरिक रूप से देखने पर कोई व्यक्ति 50 साल का दिखता हो पर उसकी उम्र वास्तव में 40 साल ही हो या फिर इससे उलट वह दिख तो 50 साल का रहा हो पर हो वह 60 का। पर आखिर ऐसा होता क्यों है इस बात का पूरा खुलासा नहीं हो पाया है। पर हाँ, इसके लिए उत्तरदाई कुछ तथ्यों और कारकों की पहचान कर ली गई है जिनमें शामिल है वहाँ का वातावरण जहाँ आप रहते हैं, हमारी जीवन शैली, तनाव, नियमित व्यायाम और धूम्रपान आदि जिन का हमारी कोशिकाओं की उम्र बढ़ने की दर पर खासा प्रभाव पड़ता है।

किन्तु जैसे-जैसे हमारी उमर बढ़ती जाती है, हमारे शरीर की नई कोशिकाएँ बनाने की क्षमता कम होती जाती है। बिना नई कोशिकाओं के हमारा शरीर कमज़ोर पड़ने लगता है। मांसपेशियाँ और हड्डियाँ उस तेज़ी से नहीं बढ़तीं और न उनकी मरम्मत उस रफ्तार से हो पाती है जितना ये सब जवान होने पर सम्भव हो पा रहा था। नई कोशिकाओं के बनने की प्रक्रिया धीमी पड़ने के कारण ही अधिक उम्र में जब व्यक्ति बीमार पड़ता है तो उसे ठीक होने में युवाओं की तुलना में अधिक समय लगता है।

यानी उम्र बढ़ने के साथ होने वाली समस्याओं और बुढ़ापे का सारा दारोमदार कोशिकाओं पर आकर टिक जाता है। कोशिकाएँ पहले तेज़ी से नई कोशिकाएँ बना रही थीं, लगातार विभाजन कर रही थीं और शरीर की हर टूट-फूट की मरम्मत हो रही थी, तब तक हम जवान बने रहे। कोशिकाओं की क्षमताएँ कम हुईं, नई कोशिकाओं के निर्माण और विभाजन की दर कम हुई और हम चल दिए बुढ़ापे की ओर। तो अब हमें जानना होगा कि आखिर कोशिकाओं की कार्य शैली और क्षमताओं में इस प्रकार के परिवर्तन या सीधे तौर पर कहें तो उम्र के साथ कोशिकाओं की विभाजन क्षमता में यह गिरावट क्यों या किन कारणों से आती है। वैसे तो उम्र बढ़ने को समझने और समझाने के लिए 300 से अधिक सिद्धान्त मौजूद हैं पर हम वर्तमान में चर्चित दो सिद्धान्तों के आधार पर इसे समझने की कोशिश करेंगे।

उम्र का ‘फ्री रेडिकल्स’ सिद्धान्त
उम्र बढ़ने के जैविक सिद्धान्तों में पिछले कुछ दशकों में जो एक सिद्धान्त खासा प्रभावकारी रहा है वह है - फ्री रेडिकल्स सिद्धान्त।
फ्री रेडिकल्स वास्तव में कोशिकाओं के भीतर बनते हैं और ये ऑक्सी-श्वसन का परिणाम हैं। कोशिका में पाए जाने वाले कोशिकांग माइटो-कॉण्ड्रिया में होने वाली क्रियाओं से ऐसे रसायन बनते हैं जिसका उपयोग कोशिका ऊर्जा के रूप में करती है। माइटोकॉण्ड्रिया के भीतर होने वाली उपापचय की प्रक्रिया मुक्त इलेक्ट्रॉनों के आदान-प्रदान पर आधारित होती है। ये मुक्त इलेक्ट्रॉन पहले ऑक्सीजन से आकर जुड़ते हैं फिर यह ऑक्सीजन हाइड्रोजन से मिलकर पानी बनाता है और ऊर्जा मुक्त होती है। इसे ही ऑक्सी-श्वसन कहते हैं। पर कभी-कभीयह प्रक्रिया बीच में ही बाधित हो जाती है। कई बार ये इलेक्ट्रॉन ऑक्सीजन के सम्पर्क में आने की जगह ऑक्सीजन की किसी अन्य प्रजाति (oxygen species) के सम्पर्क में आ जाते हैं और एक ऐसा अणु बनाते हैं जिसके पास एक अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन होता है। ये फ्री रेडिकल्स कहलाते हैं जैसे हाइड्रॉक्सिल, सुपर आक्सॉइड और परऑक्साइड। सामूहिक तौर पर इन्हें रिएक्टिव ऑक्सीजन स्पीशीज़ (ROS) कहते हैं। ये बहुत ही सक्रिय होते हैं और अपने रास्ते में आने वाले प्रोटीन, वसा, आरएनए या डीएनए किसी को भी क्षतिग्रस्त कर सकते हैं। ऐसा कर ये एक कोशिका को निष्क्रिय तक बना देते हैं।
फ्री रेडिकल्स के निर्माण में हमारा खान-पान, वातावरण का प्रदूषण और हमारी जीवन शैली का भी असर होता है।

जेनेटिक कारक
उम्र बढ़ने के कुछ आनुवांशिक कारक भी होंगे ऐसा मानकर चलते हुए वैज्ञानिकों ने कोशिका की उम्र बढ़ने का जेनेटिक सम्बन्ध पता लगाने की कोशिश की है। कोशिकाओं में पाया जाने वाला क्रोमोसोम आनुवांशिकता के लिए ज़िम्मेदार होता है। कोशिका के भीतर पाए वाले डीएनए और प्रोटीन से बनी संगठित संरचना है क्रोमोसोम जिसके डीएनए में ही जीव की समस्त आनुवांशिक जानकारियाँ समाहित रहती हैं। क्रोमोसोम के एक सिरे पर ढक्कन की तरह की संरचना टीलोमियर होती है। प्रत्येक कोशिका अपनी एक प्रतिलिपि तैयार करती है या कहें कि उनमें लगातार विभाजन होता रहता है। हर बार विभाजन के बाद टीलोमियर का आकार छोटा होता जाता है। मानो जैसे कोई प्लास्टिक का कॉर्क बार-बार इस्तेमाल से घिसता जाता हो। लगातार घिसते जाने से वह कमज़ोर और छोटा होता जाता है और इसी के साथ ही कोशिका की नई कोशिकाएँ बनाने या विभाजित होने की क्षमता लगातार कम से कमतर होती जाती है। नई कोशिकाएँ न बन पाने के कारण शरीर के टूट-फूट की मरम्मत उस गति से नहीं हो पाती जैसे बचपन और युवावस्था में हो पाती थी और यही कारण है जिसके चलते उम्र के साथ हमारा शरीर कमज़ोर होता जाता है।

क्या टीलोमियर है कोशिकीय घड़ी?
एक अध्ययन के दौरान यह पाया गया कि ज़्यादा उम्र के लोगों की कोशिका के टीलोमियर का आकार अपेक्षाकृत रूप से छोटा था। इस तरह हम देखते हैं कि टीलोमियर हमारे लिए कोशिकीय घड़ी की भूमिका निभाता-सा नज़र आता है। कोशिकीय घड़ी इन मायनों में कि टीलोमियर के कमज़ोर होते जाने से हमें कोशिका की बढ़ती उमर और घटती कार्यक्षमता का अन्दाजा लगता है। और साथ ही साथ इसका कमज़ोर होना हमें बुढ़ापे की ओर ले जाता है। अगर इसे दूसरी तरफ से देखें तो हम शायद टीलोमियर के ज़रिए उम्र की बढ़ती रफ्तार पर काबू पा सकते हैं। और इससे भी आगे बढ़कर हम उम्र को शायद वापस भी मोड़ सकते हैं पर इसके लिए हमें टीलोमियर की मरम्मत करनी होगी। यहाँ तक की सारी बातें अभी सिर्फ सिद्धान्त के रूप में ही विकसित हो पाई हैं और अभी भी इस पर अध्ययन जारी हैं।

फाउण्टेन ऑफ यूथ
लगभग हर देश में एक-न-एक ऐसी किंवदन्ती ज़रूर है कि एक ऐसा भी समय था जब लोग बूढ़े हुआ ही नहीं करते थे, सदा जवान ही रहते थे। ऐसी ही एक किंवदन्ती के अनुसार उस समय युवापन का एक झरना हुआ करता था जिसके पानी का एक घूँट पीते ही लोग वापस खूबसूरत और जवान हो जाते थे। ऐसी किंवदन्तियाँ वास्तव में इस बात का सबूत हैं कि हर देश और काल में लोग युवा बने रहने की चाहत रखते थे। और वही चाहत आज भी लोगों में विद्यमान है। हम अगर आज की बात करें तो वह युवापन का झरना ढेर सारी कॉस्मेटिक्स और सर्जरी के रूप में मौजूद भी है जो बाहर से हमें जवान होने का एहसास दिलाने में सक्षम है। वहीं टीलोमरेज़, टीलोमियर की मरम्मत करने के लिए ज़िम्मेदार एंज़ाइम शायद आगे चलकर ‘फाउण्टेन ऑफ यूथ’ की कमी भी पूरी कर दे।


इस जवाब को अम्बरीष सोनी ने तैयार किया है।
अम्बरीष सोनी: ‘संदर्भ’ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।