कहानी

सैम मॅक्‍ब्रैट्नी

दैत्‍यों को लेकर मैट्ट की उलझन उसके दादाजी के घर पर सोमवार की एक दुपहरी में शुरू हुई थी।
स्‍कूल से घर लौटते हुए वह अक्‍सर दादाजी से मिलने चले जाया करता। अक्‍सर वे उसे उस कमरे में अकेले बैठे मिलते, जिसमें एक खिड़़की रहती थी; वे या तो अपना पाइप पीते मिलते या कभी अपने कम्प्‍यूटर को थपथपाते, लेकिन ज्‍़यादा बार, बस यूँ ही अपने खयालों में गुम-सुम मिलते। मैट्ट कुछ समझ न पाता कि वे क्‍या सोच रहे हैं; अब किसी के भेजे में क्‍या कुछ चल रहा है, यह भला कोई कैसे जान सकता है। माँ मानतीं कि कभी-कभार वे दादी के बारे में सोचा करते हैं, जो पाँच या छह बरस पहले गुज़र चुकी थीं। बरसों पहले।
मैट्ट के आने पर, दादा सबसे पहले उसके लिए एक बड़ा-सा सैंडविच बनाते। इसके लिए वे एक पूरा केला लेते या पके हैम के तीन या चार स्‍लाइस या मुलायम मीठी खजूरों का आधा डिब्‍बा इस्‍तेमाल में लाते। अक्‍सर, ब्रेड के स्‍लाइस बड़े करीने से त्रिभुजाकार कटे होते, लेकिन दादाजी ब्रेड की बाहरी सख्‍त परत अलग कर देने में यकीन नहीं रखते थे। कहते, इसे चबाना तुम्‍हारे लिए अच्‍छा है।
सोमवार की उस दुपहरी किचन टेबल के नीचे रेंगते समय मैट्ट के सामने दादाजी के खाली वॉकिंग बूट्स आन पड़े। वे इतने बड़े थे कि मैट्ट को समझ ही नहीं आया कि उसका बित्ता-सा पैर भला कभी किसी दिन इत्ती बड़ी इस चीज़ में फिट बैठेगा भी! उन जूतों को देखने भर से ही वह खुद को बहुत छोटा महसूस करने लगा। किसी दैत्‍य/राक्षस के जूते बिलकुल ऐसे ही होते होंगे, उसने सोचा, और तो और, और बड़े। एक दैत्‍य का पाँव, एक घर जितना बड़ा हो सकता है। यूँ तो वो एक फुटबॉल मैदान से भी बड़ा हो सकता है।

बस तभी से उसने दैत्‍यों के बारे में सोचना शुरू कर दिया था। असल में वे कितने असल होते होंगे? दादाजी के वहाँ से घर लौटते वक्‍त रास्‍ते भर वह यही सोचता रहा। क्‍या दैत्‍य वाकई होते हैं, जैसे कि ... पाण्डा? वह नहीं जानता था। उसने तो जो भी दैत्‍य देखे थे, टीवी पर ही देखे थे या किताबों में, लेकिन यह बात तो पाण्डाओं के बारे में भी कही जा सकती है। और अगर वह खुद बहुत ज्‍़यादा न बढ़े और छोटा ही रहा आए दुनिया में तो?
इस सबके बावजूद कुछ न बिगड़ता, अगर उसने रात में वह बुरा सपना न देखा होता जिसने उसे डरा दिया था। उस सपने में, दो दानव एक खुले मैदान में आपस में लड़ने के लिए एक-दूसरे की तरफ बढ़े चले आ रहे थे। उनके पाँवों की धम्‍मक-धम्‍मक से धरती डोले जा रही थी। उनके पाँव बोरों में बँधे हुए थे, और उनके टखनों पर रस्सियाँ बँधी थीं। वह सब उसे एकदम साफ-साफ दिख रहा था! उन दो घिनौने चेहरों की एक-एक झुर्री वह देख पा रहा था। यही नहीं, उसे उनकी दाढ़ियों का अदरकी रंग भी दिख रहा था। दोनों का डील-डौल इतना ऊँचा था कि वहाँ उमड़ते-घुमड़ते बादलों तक में जब-तब वे गुम हो जाते, और उनमें से वे बर्फीले तीर निकाल लाते; और फिर तो वे दोनों एक-दूसरे पर तब तक वे तीर चलाते रहे, जब तक मैट्ट जग न गया, अपनी चादर पकड़े-पकड़े, अजीब-सी सुबकियाँ लेते लेते। तिस पर तड़ाक से उसकी माँ कमरे में आईं, और बोलीं, “अपनी सूरत तो देखो, आईने में!”

मैट्ट ने हल्‍के-हल्‍के साँसें छोड़ और ले, अपने चेहरे पर मुस्‍कान लाने की कोशिश की। उसने माँ को दैत्‍यों को लेकर अपनी उस छोटी-सी उलझन के बारे में बताया। क्‍या वे सचमुच में होते हैं? एक पाण्डा की तुलना में एक दैत्‍य भला कितना कम असली होता है? उसने तो न तो पाण्डा देखा था, न ही कोई दैत्‍य!
“पाण्डा की तुलना में?” उसे भींचते हुए, माँ ने दोहराया। “मेरे प्‍यारे बच्‍चे, मैं नहीं जानती तुम यह क्‍या बकबक कर रहे हो। ओफ्फो! तुम बड़ी जल्‍दी उन चीज़ों से डर जाते हो, जो सच नहीं होतीं।”
फिर मैं उन्‍हें इतना साफ-साफ देख कैसे पाता हूँ, भला? और उन बर्फानी तीरों का क्‍या?
 ठण्डी साँस लेते वक्‍त उसकी माँ ने अपना सिर हिलाते हुए कहा, “अब तो रात भर तुम्‍हारे कमरे की लाइट जलती रहेगी। असल में, बर्फों के तीर कोई नहीं बनाता...”
अगले दिन स्‍कूल में, मैट्ट ने अपने दोस्‍तों, डॅनिएल और ह्यू से पूछा कि क्‍या वे लोग दैत्‍यों से थोड़ा भी डरते हैं। कद में अच्‍छी-खासी लम्बी डॅनिएल ने कहा कि वह तो नहीं डरती। “हो सकता है कि कोई सचमुच का दैत्‍य देखने पर मैं डर जाऊँ,” ह्यू बोला। “मैंने तो दो-दो देखे हैं,” मैट्ट ने उन्‍हें बताया। “वे दोनों एक-दूसरे पर तीर बरसा रहे थे - तीर, वो भी बर्फ के बने। यह एक सपना था।” “सपने सच नहीं होते!” डॅनिएल बोली; ह्यू ने भी हौले-से सिर हिलाया, मानो वह इस बात की हामी भर रहा हो कि सपने वाला दैत्‍य सच्‍च‍ी-मुच्‍ची वाला तो नहीं ही माना जाएगा।

उस मंगल की दोपहर मैट्ट फिर से अपने दादा के घर गया, और इस बार के सैंडविच, सार्डीन सैंडविच थे। दादाजी एक गोल पीठ वाली कुर्सी पर बैठे खा रहे थे; उस कुर्सी को कप्‍तानी कुर्सी कहा जाता था। कुछ देर उन दोनों के बीच सार्डीनों की बातें होती रहीं, अब चूँकि सार्डीनें मछलियाँ होती हैं, दादाजी ने उस ‘सामन दानव’ की बात छेड़ी जिसे उन्‍होंने एक बार ली नदी में लगभग पकड़ ही लिया था समझो; वे उसे जकड़ नहीं पाए, कारण कि ऐन मौके पर वो मछला उनके काँटे से छूट गया और साफ बच निकला।
“अगर उस वक्‍त मेरे पास जाल होता,” दादाजी बोले, “तो मैं उसे धर लेता अन्दर।”
तिस पर मैट्ट ने उनसे पूछा, “वो मछली जिसे आप धर न सके उस दिन, क्‍या वह आज भी ज़िन्दा होगी?”
“नहीं, मुझे नहीं लगता। उन दिनों मैं जवान हुआ करता था। और देखो, सामन मछली बहुत कम ही जी पाती है, बेचारी।”
कुछ देर की चुप्‍पी के बाद, मैट्ट बोला, “मम्‍मी कहती है मैं बड़ी आसानी-से डर जाता हूँ।”
“अच्‍छा?”

मैट्ट ने तब उन्‍हें दैत्‍यों के बारे में बताया। अपने सपने के बारे में बताया, और कभी-कभी ज़िन्दगी भर छोटा रह जाने के अपने उस अजीब-से डर के बारे में भी बताया। उसने उन बर्फाने तीरों का भी ज़िक्र किया। दादाजी अबोले सुनते रहे।
“क्‍या आपको किसी चीज़ से डर लगता है?”
“मुझे? लगता तो है।”
किसका? मैट्ट विस्मित हो सोचता रहा। बुढ़ापे का, हो सकता है। यह तो वह खुद ही देख सकता था कि उसके दादा अब जवान नहीं रहे, और थोड़ी देर को वह सोचता रहा, कितना अजीब है न लोगों के हाथ से समय का यूँ फिसलना, जैसे उस एग-टाइमर के अन्दर, रेत का फिसलना।
“क्‍या आप दादी की तरह मर जाने से डरते हैं?”
दादाजी खी-खी करके हँस पड़े। मैट्ट ने सोचा, लो इसमें हँसने की क्‍या बात हुई भला। “मुझे इसकी कोई खास चिन्ता नहीं होती। खैर, मैं तो यह सोचता ही नहीं।”
“फिर क्‍या?”
“समझाना आसान नहीं। देखो, हम अपनी ज़िन्दगी में अलग-अलग समय पर अलग-अलग चीज़ों से डरते हैं।”
“जैसे?” मैट्ट ने पूछा।
“कोई भी चीज़।”
“आपका मतलब पैसे से है?”

“नहीं, ज़रूरी नहीं कि वह पैसा ही हो; छोटी-छोटी चीज़ें! अब अगर तुम्‍हें यह पता होता कि मुझे इस वक्‍त किस चीज़ से डर लग रहा है, तो तुम बोलते लो, यह भी कोई डरने की बात हुई भला!”
“लेकिन ऐसी कौन-सी चीज़ है?” मैट्ट भी छोड़ने वालों में नहीं था।
दादाजी गुर्राते हुए कप्‍तानी कुर्सी में इधर-उधर डोले ताकि वे एकदम से तनकर बैठें। “तो चलो, बताता हूँ तुम्‍हें कि वह कौन-सी चीज़ है जो मुझे इस उम्र में डराती है। फूल खरीदना। लेकिन यह एक सीक्रेट है, तुम्‍हारे-मेरे बीच। मैं अपनी एक दोस्‍त के लिए कुछ गुलाब खरीदना चाहता हूँ, पर यह आसान नहीं है। समझे!”
“मुझे नहीं समझ आता कि फूल खरीदने में ऐसी डरने वाली बात भला क्‍या है?”
“हो सकता है वह उन्‍हें पसन्द न करे। फिर तो मैं एक मूर्ख जैसा महसूस करूँगा, एक खूसट बुड्ढा।”
“वो कैसे?”

“इसे समझाना मुश्किल है,” अपनी आवाज़ की लौ बढ़ाते हुए, दादा बोले। “मैंने तुमसे कहा था, कहा था न, कि डर एक अजीब-सी बला है और तुम नहीं समझोगे? चलो कुछ और बात करें।” यह कहकर उन्‍होंने मैट्ट की तरफ एक उंगली उठाई। “याद रहे कि हर किसी को किसी-न-किसी चीज़ से डर लगता है - तुम्‍हारा काम है, इस डर को अपने ऊपर हावी न होने देना, बस। अब आओ, डिशवॉशर भरने का टाइम है यह।” दादाजी इसे ‘डिशवॉशर भरना' कहते, लेकिन उनके पास ले दे के इतने कम बर्तन होते कि डिशवॉशर क्‍या खाक भरता!
और मैट्ट जब घर जाने की रवानगी डाल ही रहा था कि उसके दादाजी ने खींसें निपोरते हुए कहा, “मालूम है, आयरलैंड पर भी दैत्‍यों का हमला होने वाला है।”
“आपको कैसे पता?”
“मैंने देखा है उन्‍हें।”
“क्‍या?”

“ओ, हाँ। इन आँखों से, देखे हैं मैंने, सूरज के दैत्‍य, और यह भी देखा है कि कितने तगड़े होते हैं वे। इतने तगड़े कि मुझसे भी पाँच, छह, दस गुने लम्बे।” वे नीचे झुके और मानो फुसफुसाकर बोले, “तुम भी तो देख चुके हो उन्‍हें।”
“मैंने कहाँ देखा है उन्‍हें, दादाजी।”
“मैं कहता हूँ तुम्‍हें - कल दोपहर में आओ, फिर मैं तुम्‍हें उनके बारे में बताऊँगा। ठीक?”
“ओके, दादाजी।”
उस रात मैट्ट के डैड ने अपने कन्धे पर बिठा उसे सीढ़ियाँ चढ़ाईं, और उसे अच्‍छा-खासा ऊपर उछाल बिस्‍तर पर दे पटका, और फिर उसे बिस्‍तर के अन्दर अच्‍छे से ठूँस दिया। “आज की रात, ऑन या ऑफ?” बत्ती के स्विच पर उंगली रखते हुए उन्‍होंने पूछा।
“प्‍लीज़ ऑन ही रहने दें। डैडी, दादाजी कहते हैं कि उन्‍होंने दैत्‍य देखे हैं।”
“उन्‍होंने देखे हैं? मैं तो कहूँगा कि तुम्‍हारे दादाजी ने उतने ही भूत देखे हैं, जितने कि हम बाकियों ने।”
“भूत नहीं, दैत्‍य, राक्षस। सूरज के दैत्‍य। वे हम इन्सानों से बीस गुने बड़े हैं, डैड, वे सचमुच बहुत बड़े होते हैं। आपने उन्‍हें कभी नहीं देखा?”
“न ही मैंने देखे हैं और न ही उनने। भूत, प्रेत, दैत्‍य, सब-के-सब झूठ-मूठ हैं, उनमें से कुछ भी सच्‍चा नहीं, न पिशाच और न ही कोई ज़ॉम्‍बी, तोओ, जाओ सोओ!”
मैट्ट के दिमाग ने कहा कि शायद उसके डैडी सही हैं - किसी कारण से ऐसे मनगढ़न्त किस्‍सों की भरमार हो चली है जिनका सच्‍चाई से कोई वास्‍ता ही नहीं है, और दैत्‍य भी उन्‍हीं किस्‍सों की सन्तानें हैं। फिर भी उनके वे बर्फानी तीर उसे चुभते रहे।

वे भला आए किधर से? अपने जीवन भर, उसने ऐसी चीज़ों के बारे में कुछ नहीं सुना था, फिर भला उसके सपनों में वे कहाँ से चले आए?
यही नहीं, वह इस गुंताड़े में भी रहा आया कि ये सूरज के दैत्‍य भला क्‍या बला हो सकते हैं ...
बुधवार को जब मैट्ट अपने दादाजी के घर पहुँचा तो वहाँ कोई और भी था, ओह! थीं - एक महिला मेहमान। वह और दादाजी सुनहरी किनार वाली छोटी-छोटी प्‍यालियों से चाय सुड़क रहे थे। मेज़ पर एक बढि़या हरे रंग का कपड़ा बिछा था, और उस कपड़े पर तीन सतहों वाली एक चीज़ रखी थी - सबसे ऊपर की प्‍लेट, पाव रोटियों के लिए, बीच की प्‍लेट पर छोटी ब्रेड, और सबसे नीचे, एक बड़ी प्‍लेट, सैंडविचों के लिए। सैंडविच जो थे तिकोनों में काटे जा चुके थे, लेकिन, मैट्ट ने देखा, अरे! इनकी तो परतें ही गायब हैं।
“मिसेज़ कनिन्‍घम, ये हैं मेरे पोते, मैट्ट। मिसेज़ कनिन्‍घम से हेलो कहो, मैट्ट।”
मैट्ट ने हेलो कहा, और मिसेज़ कनिन्‍घम ने भी हेलो किया। उस कमरे में वह काफी खुश-खुश और चमकदार दिख रही थीं, शायद इसलिए कि उनके कपड़े, उनके होंठों की तरह लाल सुर्ख थे।
“तुमसे मिलकर बहुत अच्‍छा लगा, मैट्ट,” वे बोलीं। “मैं तुम्‍हारे दादा की दोस्‍त हूँ।”

फिर कुछ देर तो मिसेज़ कनिन्‍घम उससे यह सुनती रहीं कि मैट्ट ने आज स्‍कूल में क्‍या-क्‍या किया; उसके बाद वे दादाजी से अगले शनिवार को चर्च हॉल में लगने वाले जंबल सेल (दान आदि के लिए पुराने सामान की बिक्री) के बारे में बात करने लगीं - क्‍या उनके पास काफी चीज़ें होंगी, क्‍या वे चीज़ें किसी काम की भी होंगी और उन चीज़ों के दाम वे क्‍या रखेंगे?      
दादाजी का अन्दाज़ ही आज कुछ निराला था। आज उनकी बतियों के फूल खूब झर रहे थे, और वे, और दिनों से कहीं ज्‍़यादा हँस रहे थे। वो तो कुछ देर बाद जाकर ही, मैट्ट को सम्पट्ट पड़ी कि मिसेज़ कनिन्‍घम अभी तो न टलने वाली, सो बेहतर है अपन ही खसक लें यहाँ से!
“मैं कल आऊँगा दादाजी, और आपसे दैत्‍यों के बारे में सुनूँगा।” इधर मैट्ट यह कहकर चलता बना, उधर मिसेज़ कनिन्‍घम की भौंहें तनीं।
“दैत्‍य?” वह ऊँचे सुर में यूँ बोलीं, मानो हक्‍का-बक्‍का हों। जाते हुए मैट्ट के कानों में उन दोनों की हँसियाँ गूंज रही थीं।
उस रात का होमवर्क जल्‍दी निपट गया था, सो मैट्ट को आते शनिवार को होने वाली चर्च सेल के लिए चीज़ें कबाड़ने में अपनी माँ का हाथ बँटाने का समय मिल गया। उसे कुछ अच्‍छी किताबें मिलीं जो शायद बच्‍चों को पसन्द आएँ, और हाँ, कुछ ऐसे खिलौने भी जिनसे वह अब न खेलता था।
“इन्‍हें चलाने के लिए बस कुछ बैटरियाँ ही लगेंगी।” वह बोला

“मैं बैटरियाँ नहीं खरीदने वाली, मैट्ट,” माँ बोलीं। “तुम्‍हारे दादा को उनकी ज़रूरत पड़ेगी तो वे बैटरियाँ खरीद लेंगे, यह सब उनके लिए है।”
“और मिसेज़ कनिन्‍घम भी,” मैट्ट बोला। यह सुन उसकी माँ ने सहसा उस काले वाले प्‍लास्टिक बैग में चीज़ों को भरना रोक दिया। “क्‍या... क्‍या... क्‍या...? ज़रा फिर से कहो तो। मिसेज़ कनिन्‍घम को तुम भला कैसे जानते हो?”

“मैं उनसे दादाजी के घर पर मिला, जब वे वहाँ चाय पी रही थीं। वे उन्‍हें जिम कहकर बुलाती हैं।”
अब तो उसकी माँ अपनी एडि़यों पर टिककर बैठ गईं; इसे तो ध्‍यान से सुनना होगा। “ईथल कनिन्‍घम तुम्‍हारे दादाजी के यहाँ, चाय पी रही थीं?”
“उन खूबसूरत नन्‍हे-नन्‍हे प्‍यालों में जिन्‍हें वे उस कैबिनेट में प्‍यार-से सजाकर रखते हैं। वे दादाजी की दोस्‍त हैं।”
“वो तो मैं जानती हूँ,” कुछ तिखाई में उसकी माँ ने कहा।
“मम्‍मी, दादाजी अगर कुछ गुलाब खरीदेंगे तो वे बूढ़े बुद्धू क्‍यों लगेंगे?”
“गुलाब के फूल?”
थोड़ी देर तक तो मैट्ट को लगा कि अब उसकी माँ कुछ और न कहेंगी, चुप रहेंगी। उनकी नाक की त्‍योरी कुछ ज्‍़यादा ही चढ़ आई थी, जो अक्‍सर तब चढ़ती, जब वे कुछ ज्‍़यादा ही सोचतीं। या फिर गुस्‍सा होतीं। हो सकता है उन्‍हें मिसेज़ कनिन्‍घम से दादाजी की दोस्‍ती न पसन्द हो। यह बात अलग है कि मैट्ट सोचता हो, क्‍यों नहीं।

“लेकिन वे यह क्‍यों बोले कि वे किसी के लिए गुलाब खरीदने जा रहे हैं?”
“नहीं, वे बोले कि अगर मैं उनकी उम्र का होता तो यह वह चीज़ है जिसे करने में मुझे वाकई डर लगता। बल्कि, वे फूल खरीदने की बजाय किसी दैत्‍य से मिलना पसन्द करते।”
“हाँ, वे सही हैं, तुम जिसके लिए चाहो, उसके लिए फूल नहीं खरीद सकते, सो फूल खरीदने के बाद बौड़म लगना मुमकिन तो है।” यह कहकर उसकी माँ ने अपनी आँखें मूंद लीं, और बुदबुदाईं, “अब और क्‍या ...?”
गुरुवार के दिन, मैट्ट की टीचर ने एक कहानी पढ़कर सुनाई, इत्तफाक से, कहानी किसी दैत्‍य के बारे में थी। वह दैत्‍य ऊँचे तन्‍हा पहाड़ों पर रहता था और कोई सौ बरसों में एक बार उसकी नींद खुलती थी। सो, बहुत कम लोगों को उसकी जानकारी थी। कहानी खत्‍म होने के बाद, मैट्ट ने अपनी टीचर से पूछा कि क्‍या उन्‍होंने कभी किसी दैत्‍य को अपनी आँखों से देखा है। वे बोलीं, “नहीं।”
“मेरे दादा ने लेकिन दैत्‍य देखे हैं, मिस मॅक्‍क्रैकन।”
“ओह! अभी हाल की बात है?”
“हाँ, मुझे ऐसा लगता है, वे कहते हैं आयरलैंड उनसे भरा पड़ा है, और जल्‍द ही वे मुझे भी दिखाने वाले हैं।”
थोड़ा ठहरकर, मिस मॅक्‍क्रैकन मुस्‍करा दीं। “जब तुम देख चुको तो हमें बताना न भूलना।” इसके बाद उन्‍होंने सबसे अपनी-अपनी पाठ्य-पुस्‍तकें खोल लेने के लिए कहा, इस प्रकार दैत्‍य पाठ समाप्‍त हुआ।

स्‍कूल-बाद, घर-वापसी में, डॅनिएल बोली कि मिस मॅक्‍क्रैकन को शायद मैट्ट के दादाजी पागल लगते हैं। “क्‍या ह्यू और मैं तुम्‍हारे दादाजी से मिल सकते हैं?” उसने थोड़ा होशियारी से पूछा।
तिस पर ह्यू बोला, “फिर हम लोगों से बोल सकेंगे कि हम ऐसे आदमी को जानते हैं जिसने दैत्‍य देखे हैं।”
“नहीं,” मैट्ट बोला। “और वे पागल नहीं हैं।”
मैट्ट जब दादाजी के घर पहुँचा तो उसने पाया कि वहाँ सबकुछ नॉर्मल था, पहले जैसा - न कोई हरा कपड़ा था, न ही वे फैशनी कप, न मिसेज़ कनिन्‍घम। दादाजी ने उसके लिए चीज़ सैंडविच बनाए थे, जो चौकोर कटे थे और उन पर उनकी परतें बदस्‍तूर सजी थीं, चबाने के लिए, सब-के-सब उस ऊँचे गिलास में से गिरते दूध में नहाए-धुले।
सैंडविचें खा चुकने के बाद मैट्ट ने पूछा, “दादाजान, क्‍या अब आप मुझे सूरज के दैत्‍यों के बारे में बताएँगे?”
“बल्कि उससे भी बेहतर। मुझे लगता है कि उनके बारे में कुछ बताने की बजाय मैं तुम्‍हें उनके दर्शन करा सकता हूँ। ज़रा पीछे की तरफ आओ।”
दिन उजला और हवाई था। खटका ताले के दरवाज़े से मैट्ट और उसके दादा ने बगिया के पार उन गॅराजों की चूना-पुती दीवारों को देखा। बगीचे में कोई ज्‍़यादा उगाहट न थी, क्‍योंकि अभी तो वसन्त की शुरुआत ही थी और कभी-कभार तो रात के अँधेरे में कुम्‍हलाने वाला पाला भी दबे पाँव आ पड़ता था। रसभरी की बेंतें ठण्ठ डण्डियों की भाँति तनीं थीं। अभी तो यकीन न आता था कि गर्मियाँ आएँगीं और एक बार फिर उन्‍हें रसीले फलों से भर-भर जाएँगी।

“वे रहे वहाँ,” अपना एक हाथ लहराते हुए दादाजी बोले, “सूरज के दैत्‍य। इक तेरा, इक मेरा, हम दोनों का एक-एक। उनकी लम्बाई तो देखो!”
लेकिन मैट्ट को तो कुछ दिखाई ही नहीं दिया, अपने और उन परले गॅराजों के बीच। फिर उसने देखा एक बड़े काले सिर का हिलना-डुलना - सिर खुद उसका - उस दूर की सफेद दीवार पर, और समझ तो खैर वह गया ही।

“आपका मतलब है वे परछाइयाँ," वह चिल्‍लाया। “यह तो सरासर धोखेबाज़ी है!”
“यह धोखेबाज़ी नहीं है। तुम दैत्‍य देख सकते हो, और वो भी सूरज से बने। तुम मना नहीं कर सकते कि मैंने तुम्‍हें सूरज के दैत्‍य नहीं दिखाए, अब बोलो?”
ये तो बिलकुल भी डरावने दैत्‍य नहीं हैं, मैट्ट ने सोचा। अब वह सोचने लगा कि क्‍या यह तरकीब मिस मॅक्‍क्रैकन पर चलेगी। “समझ जाओ,” उसके दादाजी कह रहे थे, “सभी दैत्‍य एक-सरीखे होते हैं। यहाँ अन्दर झाँको।” मैट्ट के माथे को थपथपाते हुए वे बोले। “इसी के अन्दर तो रहते हैं, सारे।”
“यानी आप यह कह रहे हैं कि वे असली नहीं होते।”
“एक भी नहीं। न कभी थे, न कभी होंगे। हाँ, यह बात अलग है कि वे कहीं दूर गैब में किसी और ग्रह पर रहते हों।”
“लेकिन दादाजी, बर्फ से बने उन तीरों का क्‍या?”
“वे सब तुम्‍हारे इस सिर में बनते हैं। वैसे आइडिया बड़ा ज़ोरदार है – ‘बर्फ के तीर'। वाह!”
उस वक्‍त मैट्ट के दद्दू लैच वाले दरवाज़े के वहीं खड़े थे, धूप में सूखते अपने कपड़ों के उस चरखी-झूले को हवा में हौले-हौले घूमता देखते हुए - कमीज़ों के पल्‍लों और उनकी परछाइयों को देखते हुए। आज उनका मन बहुत हल्‍का-हल्‍का-सा लगता था, वे गुनगुना जो रहे थे।
“तुम्‍हें पता है आज सुबह मैंने क्‍या किया? तुम बूझ ही नहीं सकते जो मैंने किया। आज मैंने कुछ खरीदा।”
“आज आपने फूल खरीदे?” मैट्ट ने पूछा।
मैट्ट का अन्दाज़ा सही था। दादाजी ने हैरत भरी निगाहों से उसे देखा, और फिर वे मुस्‍करा दिए।
“बच्‍चू, तुम बड़े उस्‍ताद निकले!” वे बोले, और चपाक-से मैट्ट को ऊपर उठा लिया उनने, और फिर हवा में उसे यूँ ही लहराते रहे।


सैम मॅक्‍ब्रैट्नी: उत्तरी आयरलैंड की ऍण्ट्रिम काउंटी में पले-बढ़े और आज भी वहीं रहते और काम करते हैं। अध्‍यापक रह चुके सैम, पिछले तीस सालों से भी ज्‍़यादा समय से लिखते रहे हैं। उन्‍होंने तमाम उम्र के बच्‍चों के लिए किताबें लिखीं हैं और उनका काम सारी दुनिया में जाना जाता है। उनके अन्तर्राष्‍ट्रीय पुरस्‍कारों में ऍबी (अमेरिका), सिल्‍वरेनग्रिफल (हॉलैंड) और बिस्‍टो (आयरलैंड) शामिल हैं। उनकी चित्र-पुस्‍तक गेस हाउ मच आइ लव यू  समूचे बाल-साहित्‍य की सबसे ज्‍़यादा कामयाब किताबों में शुमार है।
सैम और उनकी पत्‍नी अपने बच्‍चों और उनके भी बच्‍चों, तिस पर, उन सबके कछुए, मॅबल के साथ रहते हैं, जिसकी साइज़ एक डिनर प्‍लेट जितनी है।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: मनोहर नोतानी: शिक्षा से स्नातकोत्तर इंजीनियर। पिछले कई वर्षों से अनुवाद व सम्पादन उद्यम से स्वतंत्र रूप से जुड़े हैं। भोपाल में रहते हैं।
सभी चित्र: राही डे रॉय: चित्रकार हैं। महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी ऑफ बरोडा, वडोदरा, गुजरात से फाइन आर्ट्स (चित्रकारी) में स्नातक।