रोहित नेमा

मार्च 2020 में कोविड के पहले दौर में जिस तरह अचानक बिना किसी व्यवस्थित योजना के तीन हफ्ते का लॉकडाउन लगा दिया गया और फिर लॉकडाउन का यह सिलसिला बढ़ते-बढ़ते लगभग दस हफ्ते चलता रहा, उसका हिन्दुस्तान के लोगों पर जो भयावह असर पड़ा, उससे हम सब परिचित हैं ही। विशष तौर पर अनगिनत प्रवासी मज़दूरों की ज़िन्दगियाँ तो तहस-नहस हो गईं। उन सबकी अपनी-अपनी त्रासदी की लाखों-करोड़ों कहानियाँ होंगी।

उनमें से एक सच्ची कहानी आपके साथ साझा कर रहे हैं। हमारे एक मित्र रोहित नेमा पिछले कुछ सालों से ‘टीच फॉर इंडिया' की फैलोशिप के तहत पुणे के एक सरकारी स्कूल में पढ़ाते रहे हैं। उनके स्कूल में पढ़ने वाले बहुत-से विद्यार्थी महाराष्ट्र व आसपास के राज्यों से मेहनत-मज़दूरी-रोज़गार के लिए आकर पुणे में बसे परिवारों से आते हैं।
5 मई 2020 को रोहित ने अपने दो दोस्तों को एक विस्तृत ईमेल लिखकर अपने एक छात्र गणेश का इस सरकारी स्कूल में 8वीं में दाखिला लेकर तीन साल का सफर बयान किया। गणेश तरह-तरह के संघर्ष करते हुए दसवीं की बोर्ड की परीक्षा की दहलीज़ पर पहुँच गया था और 21 मार्च तक भूगोल को छोड़कर समस्त विषयों के पेपर उसने अच्छे से दे दिए थे। परन्तु 23 मार्च का भूगोल का बोर्ड का आखिरी पर्चा जनता कर्फ्यू और उसके बाद के लॉकडाउन लील गए।

गणेश कर्नाटक के यादगीर ज़िले से काम और पढ़ाई की तलाश में पुणे आया हआ एक अल्प-वय प्रवासी मज़दूर था, जिसकी जद्दोजहद और एक शिक्षक-छात्र-दोस्त के रिश्ते का द्वन्द्व और दर्द रोहित ने मई महीने में एक-के-बाद-एक लिखे अपने ईमेल पत्रों में बयान किया, जिसका अन्त अगस्त में केवल विषय के माध्यम से लिखी मेल में होता है। रोहित की अनुमति से कोविडकाल का यह गहन एवं भावुक प्रसंग आपसे साझा कर रहे हैं।

Sent: Tue, 5 May 2020 15:17:21 GMT+0530
अपने जीवन में 10वीं कक्षा की परीक्षा पास करने के अलावा उसका और कोई सपना नहीं था। केवल इसी उम्मीद के साथ वह पुणे आया था और कक्षा-8 में प्रवेश लिया जिसे मैं 2017 में पढ़ा रहा था। गणेश एक प्रवासी मज़दूर है, जो कर्नाटक के यादगीर का रहने वाला है। आश्चर्य की बात यह है कि वह अकेला ही आया था। उसका परिवार आज भी यादगीर में ही इस उम्मीद के साथ रहता है कि वह पैसा कमाएगा और कुछ पैसे घर भेजेगा। गणेश के कार्यों में सुबह स्कूल जाने से लेकर शाम को फूल वाले की दुकान, रात में एक चाय की दुकान, समय मिलने पर लकड़ी काटना और क्या-क्या शामिल नहीं है। यह कल्पना करना मुश्किल है कि ऐसा बच्चा जीने के लिए आवश्यक विभिन्न गतिविधियों में लगने वाले श्रम और समय को किस तरह सम्भालता होगा। फिर भी ऐसे कुछ लोग हैं, जो इस प्रकार काम कर सकते हैं। इस प्रकार की बहुमुखी प्रतिभा की सही मायने में प्रशंसा और सराहना एक ऐसे संसार में की जाती होगी जहाँ विभिन्न कार्यों और उनसे जुड़े श्रम को उचित रूप से सम्मानित किया जाता होगा।

उसका सपना और चुनौतियाँ
साल 2020 मेरे और गणेश, दोनों के लिए बहुत खुशी का साल था – आखिरकार वह अपने सपनों की परीक्षा, कक्षा 10वीं की बोर्ड परीक्षा देने (ऐसा लग रहा था मानो हम दोनों देने जा रहे हैं) जा रहा था! ‘4 मार्च 2020’ को गणेश का 10वीं बोर्ड का मराठी विषय का पहला पेपर था। परीक्षा की पूर्व संध्या पर मैं गणेश के इस सफर के बारे में सोच रहा था। केवल तीन साल के छोटे समय में ही वह कहाँ-से-कहाँ आ गया था। केवल कन्नड़ में बात करने वाले और अधिकांश समय कक्षा में स्वयं को अलग-थलग महसूस करने वाले एक शर्मीले और डरपोक लड़के से आत्मविश्वास से भरे एक व्यक्तित्व के रूप में जिसने हिन्दी भाषा में अपनी पकड़ बना ली है और जो अब स्कूल में सभी के पसन्दीदा विद्यार्थियों में से एक बन चुका है। गणेश, एक दृढ़-निश्चयी लड़का।  

मुझे याद है, जब गणेश अपने सम्पर्क में आने वाली अलग-अलग भाषाओं के साथ संघर्ष कर रहा था, तो वह किस प्रकार एक भाषा को दूसरी भाषा से जोड़ने का प्रयास कर रहा था।  केवल कन्नड़ में सहज होने के कारण, गणेश को एक ही साथ हिन्दी, मराठी और अँग्रेज़ी का सामना करना पड़ता था। इसका, गणित, विज्ञान और सामाजिक विज्ञान जैसे मुख्य रूप से अँग्रेज़ी में डिज़ाइन किए गए अन्य विषयों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। परन्तु, गणेश तो गणेश था, उसने इन सभी चुनौतियों को पार किया और हिन्दी भाषा में विशेष रूप से अपनी पकड़ बनाना शुरू किया। इस उपलब्धि से उसके लिए बहुत-से दरवाज़े खुलने लगे। अब वह स्वयं को बेहतर तरीके से व्यक्त कर सकता था। इसने मुझे भी गणेश को और अच्छी तरह से समझने और उसकी विशिष्ट आवश्यकताओं के बारे में जानने में मदद की। हमने लगातार तीन वर्षों तक एक साथ काम किया और एक ऐसे मुकाम पर पहुँचे जहाँ गणेश ने घोषणा की कि गणित अब उसका पसन्दीदा विषय है। आश्चर्यचकित, उत्साहित, मंत्रमुग्ध होते हुए, मैंने अपनी फेलोशिप की यात्रा में अपना पहला मील का पत्थर हासिल किया था!

दूरदर्शी गणेश
21 मार्च 2020 को गणेश ने इतिहास और राजनीति शास्त्र विषय की तकनीकी रूप से अन्तिम परीक्षा दी। इसके बाद कोविड-19 का प्रभाव पूरे इलाके पर पड़ने लगा था। अब केवल 23 मार्च को होने वाली भूगोल की एक परीक्षा ही बची थी। 22 मार्च को सरकार ने जनता कर्फ्यू की घोषणा की और उसके बाद महाराष्ट्र सरकार ने बिना किसी निश्चित तिथि के आखिरी परीक्षा स्थगित कर दी। अन्त में, 24 मार्च 2020 को लॉकडाउन लगा दिया गया। इन सबके बीच अन्तिम परीक्षा के रद्द होने, 10वीं कक्षा के सभी विद्यार्थियों को बिना उत्तर पुस्तिकाओं की जाँच के पास करने, परीक्षा के 30 अप्रैल को होने जैसी अफवाहों का विद्यार्थियों को सामना करना पड़ा। अचानक ही परिस्थिति चिन्ताजनक हो गई और मेरे पास अभिभावकों और विद्यार्थियों के फोन आने लगे कि यह सब क्या हो रहा है। स्वयं अनिश्चितता के साथ काम करते हुए मैंने स्थिति को स्पष्ट करने के लिए वह सब कुछ किया जो मैं कर सकता था।

27 मार्च को मेरे पास गणेश का फोन आया। दूरदर्शी गणेश ने कहा कि वह घर जाना चाहता है। मैंने उससे परीक्षा के बारे में पूछा। इस पर उसने मुझे बताया कि परीक्षा की कोई निश्चित तिथि की घोषणा नहीं की गई है और किसी को नहीं पता कि वास्तव में कब और क्या होने वाला है। उसने कहा कि वह अकेला है और पूरे महीने के लिए उसके पास पैसे नहीं हैं, और वह इस समय अपने परिवार के साथ रहना चाहता है। मैंने उसे परीक्षा पूरी होने तक इन्तज़ार करने के लिए कहकर टाल दिया क्योंकि वैसे भी लॉकडाउन 14 अप्रैल को खत्म होने जा रहा था। मैंने उसे लॉकडाउन के बाद घर जा कर लम्बे समय तक रुकने की सम्भावना के बारे में बताया। इस पर वह बहुत ही स्पष्टता से परिस्थिति का विश्लेषण और संश्लेषण करता है और मुझे समझाता है कि जब भी लॉकडाउन हटाया जाएगा, वह सभी क्षेत्रों के लिए हटाया जाएगा और बोर्ड अन्तिम परीक्षा आयोजित करने से पहले कम-से-कम 10 दिनों का समय देगा। इतने समय में वह आसानी-से वापस आ सकता है। इस पूरी परिस्थिति में मुझे इस बात की चिन्ता सता रही थी कि यात्रा के दौरान वह वायरस से संक्रमित न हो जाए। तब मैंने सोचा कि उसे घर तक पहुँचने में आने वाली दिक्कतों के बारे में समझाकर उलझन में डाल देता हूँ और रुकने के लिए मना लेता हूँ।

कुछ दिनों के बाद गणेश ने मुझे बताया कि पुणे में रहने वाले उसके गाँव के बहुत-से लोग पुलिस से अनुमति लेकर सुरक्षित अपने घर पहुँच गए हैं। उन्होंने एक गाड़ी किराए पर ली थी और उसमें अपने घर तक की यात्रा की। भोला-भाला मैं, अभी भी इस बात का समर्थन कर रहा था कि उसके लिए यहीं रुकना अच्छा है। हालाँकि, मेरा विश्वास अधिक समय तक नहीं टिक सका; जल्द ही धुँधला पड़ गया जब लॉकडाउन पहली बार आगे बढ़ाया गया। मैंने गणेश को फोन कर यह जानना चाहा कि वह कैसा है और उसका जवाब मुझे डराने के लिए काफी था। गणेश के पास केवल दो दिन का राशन बचा था, उसका गैस सिलेंडर करीब तीन दिनों में खत्म होने को था, उसके पास केवल 50 रुपये बचे थे। 9 गुणा 7 फुट के छोटे-से कमरे में उसके साथ रहने वाले सभी लोग गाँव जा चुके थे, उसके आसपास रहने वाले 17 लोगों को पुलिस ने क्वारंटाइन किया था क्योंकि उनमें कोविड-19 के लक्षण दिखाई दिए थे। मैं इसके आगे बात नहीं कर पाया, मैंने कहा, “गणेश, मुझे माफ कर दो” और मैंने फोन रख दिया।

अपराधबोध बढ़ता गया...
अगले दिन मैंने उसे फोन किया और एक ऐसे व्यक्ति से सम्पर्क करने का अनुरोध किया जो उसके पास रहता है और जिसके पास डेबिट कार्ड की सुविधा के साथ बैंक का खाता हो ताकि मैं उसे कुछ पैसे भेज सकूँ (गणेश का कोई बैंक खाता नहीं था)। गणेश ने मुझसे मदद लेने से मना कर दिया और कहा कि वह अपना काम चला सकता है। उसने मुझसे कहा कि शाम को वह काम करने जाएगा। अपने जीवन में पहली बार अपनी कक्षा के विद्यार्थियों के साथ हुए संवाद से मैं नफरत करने लगा था जहाँ मैंने आत्मनिर्भरता, स्वयं पर भरोसा और आत्मसम्मान की बातें की थीं। मुझे अपने विद्यार्थियों के साथ साझा किए हर शब्द से नफरत होने लगी थी जहाँ मैंने इन सभी शब्दों को बढ़ा-चढ़ाकर बताया था। मैं बहुत नाराज़गी महसूस कर रहा था। मैंने एक क्षण के लिए अपने विचारों को अलग किया और गणेश पर लगभग चिल्लाते हुए वैसा करने को कहा जैसा मैं कह रहा था। उसने भी मुझे किसी बात पर इतना गुस्सा करते नहीं देखा था। उसे मेरी मदद स्वीकार करनी पड़ी। अब उसके पास पैसा तो था, पर अब भी वह कई मायनों में असहाय था। उसका एलपीजी सिलेंडर खाली हो चुका था और खाना बनाने के लिए उसे लकड़ियाँ इकठ्ठा करने के लिए बाहर जाना पड़ता था। उसने लगातार चार दिनों तक ऐसा किया और आखिरकार भगवान जाने कहाँ से उसने गैस सिलेंडर भरवाया।

कल से तीसरा लॉकडाउन शुरू हो गया। बीतने वाला हर दिन मुझे उस निर्णय के लिए अपराध के बोध से भर देता था जो ‘मैंने गणेश के लिए लिया था’। मैंने उन चुनौतियों की गम्भीरता के बारे में सोचा जिनका वह और ऐसे ही कई बच्चे जिन्हें मैंने पढ़ाया है और उनके परिवार और उससे भी आगे दुनिया भर के सबसे गरीब लोग, अभी सामना कर रहे हैं। मैं यह अच्छे से जानता हूँ कि भले ही मैं गणेश की आर्थिक रूप से मदद करने की कोशिश कर रहा हूँ, पर उसके अन्दर आत्मसम्मान की भावना इतनी गहरी हो गई है कि वह अभी भी अपने और अपने परिवार की मदद करने के लिए काम पर जाता है। मैं यह भी निश्चित रूप से जानता हूँ कि वह पूरी तरह से टूट भी जाएगा तब भी वह मुझे नहीं बताएगा क्योंकि वह जानता है कि मैं उसकी मदद के लिए आगे ज़रूर आऊँगा, और यह उसे कतई पसन्द नहीं है। अपने जीवन में उसने डटकर चुनौतियों का सामना किया है और वह इसे बदलना नहीं चाहता है। जबकि मैं यहाँ उसके लिए और मेरे बहुत-से अन्य विद्यार्थियों के लिए बहुत चिन्तित हूँ जो किसी तरह इस परिस्थिति से जूझ रहे हैं। हर बार, जब गणेश काम के लिए बाहर निकलता है, मेरे डरावने सपने मुझ पर हावी हो जाते, क्या होगा यदि वह कहीं वायरस के सम्पर्क में आ जाए? यदि वह अपने गृहनगर के लिए निकल जाता तो हालात कैसे होते? क्या उसके यहाँ रुकने के लिए मुझे निर्णय लेना चाहिए था? क्या अगली बार ज़रूरत पड़ने पर वह मुझे फोन करेगा?...

कौन क्या जानता है...
मेरे कई विद्यार्थी हैं जो इस समय गणेश के समान स्थिति का सामना कर रहे हैं। न चाहते हुए भी वास्तव में मुझे अपने विद्यार्थियों के परिवारों की ज़रूरतों के आधार पर मदद करने के लिए अपने तरीकों को चुनने की आवश्यकता है। मैं वर्तमान स्थिति को पसन्द नहीं कर रहा हूँ और एक तरह से मदद के तरीकों के इस प्रकार के चुनाव के लिए खुद को भी पसन्द नहीं कर रहा हूँ। मुझे नहीं पता कि यह कितना सही है, परन्तु मुझे ऐसा करना होगा। मैं बस इतना कर सकता हूँ कि यह समय मेरे सभी बच्चों और सभी ज़रूरतमन्द लोगों के लिए शान्ति से बीत जाए और उन्हें कम-से-कम परेशानी का सामना करना पड़े। अगर उनमें से किसी को कुछ हो जाता है, तो मुझे उनकी मदद करने के अपने तरीकों का चयन करने के लिए ताउम्र अपराधबोध के साथ जीना होगा।
यह लिखना शुरु करने से ठीक पहले, मैंने गणेश से यह पता करने के लिए फोन लगाया कि वह कैसा है। उसने बताया कि वह आज चाय की एक दुकान में काम करने के लिए आया है क्योंकि वह घर में बेकार बैठे-बैठे बहुत निराश और चिड़चिड़ा हो गया है। असली कारण छिपाने के लिए वह कुछ भी कहे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, फिर भी मुझे पता है वह इतनी मेहनत क्यों कर रहा है! क्यों वह आज फिर रात को थककर चूर होकर देरी से आएगा! क्यों वह मुझसे मदद नहीं माँगेगा! उसने यह भी कहा कि उसने ‘गुटखा’ खाना छोड़ दिया है, इस बार कक्षा में और व्यक्तिगत रूप से उसे उपदेश देने के कारण नहीं, बल्कि इसलिए कि अब 70 रुपए का एक पाउच मिलता है। मैं यह तय नहीं कर पा रहा था कि क्या मुझे इसके बारे में अच्छा महसूस करना चाहिए। कम-से-कम यह एक ऐसी चीज़ थी जो मेरी उससे और कक्षा के अन्य विद्यार्थियों के साथ हुए संवाद के कारण उसमें स्थापित नहीं हुई थी…


-रोहित

Sent: Saturday, May 9, 2020, 07:18:11 PM GMT+5:30
गणेश ने आज मुझे फोन किया और पूछा, क्या उसे सड़क के रास्ते अपने घर जाना चाहिए क्योंकि वहाँ रहने वाले अन्य लोग भी ऐसा करने का सोच रहे हैं।
बिखरी हुई व्यवस्था, टूटते मूल्य, टूटती ज़िन्दगियाँ!
बहुत दु:खद है!


-रोहित

Sent: Wednesday, May 13, 2020, 11:25:26 AM GMT+5:30
गणेश आज रात अपने घर के लिए निकल रहा है। उसने और उसके शहर के कुछ लोगों ने मिलकर एक टेम्पो तय किया है जो उन्हें यादगीर तक छोड़ेगा। इस यात्रा के लिए मैंने उसे और उसके दोस्तों को कुछ पैसे दिए। उसके अनुसार वे लोग आज रात 10.30-11.00 के करीब रवाना होंगे और यदि सब कुछ ठीक रहा तो उन्हें कल सुबह 8 बजे तक यादगीर पहुँचने की उम्मीद है। वे लोग कुल 12 हैं जो एक साथ यात्रा करेंगे। कुछ के साथ बच्चे भी हैं। अपने घर पहुँचने से पहले उन्हें कुछ दिनों के लिए अस्पताल (यादगीर में ही) में क्वारंटाइन किया जाएगा।
मैं उम्मीद करता हूँ कि सब कुछ ठीक होगा और वह और अन्य लोग सुरक्षित अपने घर पहुँच जाएँगे।
-रोहित

Sent: Saturday, August 1, 2020, 02:59:11 PM GMT+5:30

-रोहित


अँग्रज़ी से अनुवाद: संजय गुलाटी: मेकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक। 25 वर्षों से शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। बस्तर, छत्तीसगढ़ की धुरवा जनजाति के लिए बहुभाषी शिक्षा लागू की। लेंग्वेज एंड लर्निंग फाउण्डेशन, नई दिल्ली के अन्तर्गत छत्तीसगढ़ के राज्य समन्वयक के रूप में काम किया। वर्तमान में स्वतंत्र रूप से काम कर रहे हैं।
सभी चित्र: निधिन डोनाल्ड: सेंटर फॉर दी स्टडी ऑफ सोशल एक्सक्लूज़न एंड इंक्लूज़िव पॉलिसी, जवाहर लाल यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली में पीएच.डी. स्कॉलर हैं।