स्‍टीवन मिलर

10 अक्‍टूबर 1996 को दुनिया भर के अखबारों में यह खबर छपी थी कि सर हैरी क्रोटो, बॉब कर्ल और रिक स्‍मैली को 1996 के लिए रसायन शास्‍त्र का नोबल पुरस्‍कार दिया गया है। इन वैज्ञानिकों को यह पुरस्‍कार कार्बन के एक नए रूप की खोज के लिए मिला था। इन्‍होंने न सिर्फ कार्बन के इस नए रूप की खोज की थी, बल्कि इसकी संरचना भी पता लगाई थी। सर हैरी क्रोटो इंग्‍लैंड के ससेक्‍स विश्‍वविद्यालय में थे तथ बॉब कर्ल और रिक स्‍मैली टेक्‍सॉस (अमेरिका) के राइस विश्‍वविद्यालय में। कार्बन के इस तीसरे रूप को या ‘ बकमिनस्‍टर- फुलेरिन’ या फुटबॉल कार्बन कहा जाता है। अमेरिका में इसे सॉकरीन के नाम से भी पुकारा जाता है। पहला नाम तो इस पदार्थ के रासायनिक संघटन का घोतक है जबकि बकमिन्‍स्‍टर-फुलेरिन नाम एक वास्‍तुविद् बकमिन्‍स्‍टर फुलर के नाम पर रखा गया है। फुलर ने एक जियोडेसिक गुम्‍बद बनाया था। नए कार्बन की संरचना इसी गुम्‍बद से मेल खाती है। इसका फुटबॉल या सॉकरीन नाम इस आधार पर पड़ा कि फुटबॉल की तरह उछाले जाने पर भी यह कार्बन टूटता-फूटता नहीं है।

जियोडेसिक गुंबद की संरचना: इस संरचना को एक अमेरिकन आर्किटेक्‍ट आर. बकमिन्‍स्‍टर फुलर ने 1947 में पेटेंट कराया। इसक निर्माण में काफी हल्‍की सामग्री का इस्‍तेमाल किया जाता है। इसकी खासियत यह है कि इससे एक बड़े इलाके को घेरा जा सकता है भीतर से बिना कोई सहारा दिए- चाहें तो इसे दीवारों पर रख लें या फिर सीधे ही ज़मीन पर। अपनी विशेष संरचना के कारण यह काफी मज़बूत होता है। ऐसे ही एक गुंबद का प्रदर्शन 1967 में मांट्रियल में एक मेले में किया गया था। हैरी क्रोटो को फुटबॉल कार्बन की संरचना की प्रेरणा ही जियोडेसिक गुंबद से मिली।

फुटबाल अणु पर दो किताबें लिखी गई: ‘द मोस्‍ट ब्‍युटीफुल मॉलीक्‍यूल’ – जिसके लेखक हग एल्‍डस्रले-विलियम्‍स हैं और ‘पर्फेक्‍ट सिमेट्री’ – जिसके लेखक हैं जिम बैगॉट। इनके अलावा पर बी.बी.सी. टेलीविजन ने 1992 में एक कार्यक्रम भी बनाया जिसका शीर्षक था ‘मॉलीक्‍यूल्‍स विदसनग्‍लासेज’ (ऐनक लगा अणु)। क्रोटो द्वारा विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए स्‍थापित एक कम्‍पनी ने पर फिल्‍म भी बनाई है।

आम लोगों में विज्ञान की समझ के संदर्भ में अक्‍सर इस मुद्दे पर चर्चा होती है कि विज्ञान की आखि‍र कौन-सी कहानियां लोगों को पसन्‍द आती हैं और कौन-सी नहीं। इस संदर्भ में एक मापदण्‍ड यह बताय जाता है कि किसी भी विषय में दो गुण एक साथ होने चाहिए।

पहला तो यह कि यह विषय वैज्ञानिक तौर पर पेश हो सके और दूसरा कि इसमें किस्‍सागोई की गुंजाइश होनी चाहिए। मसलन यदि किसी वैज्ञानिक अनुसंधान का एक ‘एडवेंचर’ के रूप में पेश किया जा सके तो वह फौरन लोगों के मन को भा जाता है। या यदि कोई विषय, विज्ञान और उसके तौर-तरीकों के बारे में गहरे ज्ञान की मांग न करे और लोकप्रिय मिथकों व छवि से जुड़ा हो, तो वह भी आम लोगों को आकर्षक लगता है। लिहाजा हम के बारे में भी यह सवाल कर सकते हैं। यह पूरा मामला नोबल पुरस्‍कार समिति को तो भाया ही मगर सबसे बड़ी बात यह रही कि लोगों के बीच इसे कुछ इस ढंग से पेश किया गया कि लोगों ने इसे हाथों हाथ लिया। सवाल यह है कि वे कौन-सी बातें थीं जिन्‍होंने को इतना दिलकश बना दिया? उपरोक्‍त किताबों की समीक्षा के बहाने हम इन्‍हीं बातों को समझने की कोशिश करेंगे।

सितारों की दुनिया
कम से कम हैरी क्रोटो का कहना हैं कि की खोज जिस अनुसंधान से हुई, उसे उन्‍होंने खगोलशास्‍त्र की एक गुत्‍थी सुलझाने के लिए शुरू किया था। दरअसल क्रोटो सुदूर अंतरिक्ष की रासायनिक घटनाओं को समझना चाहते थे। उनकी रूचि लम्‍बी–लम्‍बी कार्बन श्रृंखलाओं वाले यौगिकों में थी। खसतौर से वे यह देखना चाहते थे कि विशाल सितारों और अंतरिक्ष्‍ा में मौजूद गैसीय पदार्थों (जहां नए-नए तारे और सौर मंडल बनते रहते हैं) में क्‍या कुछ घटता रहता है।

पिछले कई दशकों से एक मुद्दा खगोलशास्‍त्र के लिए एक अनसुलझी पहेली बना हुआ है। वह अनसुलझी पहेली यह है कि आप आकाश में किसी भी दिशा में देखें, सितारों से आने वाले प्रकाश के वर्णक्रम में कुछ विशिष्‍ट तरंग-लंबाइयों का प्रकाश अवशोषित हुआ नज़र आता है। यह अवशोषित विद्युत चुम्‍बकीय वर्णक्रम में पराबैंगनी से लेकर अवरक्‍त तरंगों तक होता है। अवशोषित विकिरण की इन पट्टियों के पूरे समूह को ‘डिफ्यूज इन्‍टर स्‍टैलर बैण्‍डस’ (डी.आई.बी.) यानी विसरित अन्‍तरिक्षीय पट्टियां कहते हैं। समस्‍या यह है कि आखिर यह अवशोषण किन पदार्थो की वजह से होता है? जितने खगोल-रसायनज्ञ हैं उतने ही ऐसे पदार्थो की चर्चाए चलती हैं। परन्‍तु आज तक कोई भी वैज्ञानिक खगोलशास्त्रियों को यकीनी तौर पर भरोसा नहीं दिला पाया है कि यह अवशोषण किस वजह से और क्‍यों हो रहा है।

जो वैज्ञानिक इस लुका-छिपी करते रसायन को खोज निकालेगा वह अवश्‍य नोबल पुरस्‍कार का पात्र होगा। दरअसल क्रोटो इसी पदार्थ का उपयुक्‍त उम्‍मीदवार खोज निकालने की टोह में सबसे पहले राइस विश्‍वविद्यालय पहुंचा था। वह वहां अपने सहयोगी बॉब कर्ल के साथ इसी समस्‍या पर काम करना चाहता था। वहां पहुंचकर क्रोटो को पता चला कि राइस विश्‍वविद्यालय में एक और रसायनशास्‍त्री है, रिक स्‍मैली। रिक स्‍मैली ने एक नई तकनीक विकसित की थी; जिसमें वह लेज़र का उपयोग करके सिलिकॉन जैसे अत्‍यंत अवाष्‍पशील पदार्थों को भी वाष्‍पीकृत कर देता था। इस तकनीक से हव परमाणुओं के बड़े-बड़े समूह बना लेता था, जिन्‍हें क्‍लस्‍टर कहते हैं। ये क्‍लस्‍टर ठोस व गैसीय अवस्‍था के बीच होते हैं। स्‍मैली की तकनीक की विशेषता यह थी कि इन क्‍लस्‍टरों को मास स्‍पेक्‍ट्रोमीटर के ज़रिए तौला जा सकता था, अर्थात इनका अणु भार पता लगाया जा सकता था। क्रोटो ने सोचा कि क्‍या इस तकनीक का उपयोग कार्बन के ऐसे यौगिकों को बनाने और उनका अणु भार निकालने के लिए किया जा सकता है जो डी.आई.बी. के लिए जि़म्‍मेदार हों? लिहाजा क्रोटो व कर्ल, स्‍मैली का पटाने में जुट गए कि वह अपने बेशकीमती मास स्‍पेक्‍ट्रोमीटर में कार्बन रखकर उसे वाष्पित करने की अनुमति दे। उसे यह समझाया गया कि यह खगोलशास्‍त्र की एक महान सेवा होगी।

किसी वजह से खगोलशास्‍त्र के प्रति ‘प्रेस’ बहुत मेहरबान रहती है। वैसे तो ग्रहों, तारों और ब्रह्माण्‍ड जैसी चीज़ों का दैनिक जीवन में कोई महत्‍व नहीं है परन्तु न जाने क्‍यों ये विषय लोगों को बहुत आकर्षित करते हैं कि डी.आई.बी. ‘खगोलशास्‍त्र की अन्तिम बड़ी गुत्‍थी है।‘ जबकि हकीकत यह है कि कई खगोलशास्‍त्री आपको दर्जनों ऐसी अन्‍य गुत्थियां गिनवा देंगे जो डी.आई.बी. से ज्‍़यादा महत्‍व रखती हैं।

संयोग का खेल
जब क्रोटो ने राइस विश्‍वविद्यालय का रूख किया था, तब डी.आई.बी. के लिए उनका पसन्‍दीदा पदार्थ ऐसा था जिसमें कार्बन परमाणुओं की एक लम्‍बी श्रृंखला होगी और एक सिरे पर हाइड्रोजन व एक सिरे पर नाइट्रोजन होगी- क्रोटो ने उस अणु का सूत्र सोचा था।

उसे उम्‍मीद थी कि स्‍मैली के उपकरण मं इस यौगिक को तैयार किया जा सकेगा। लेकिन 1984 में स्‍मैली कइ्र अन्‍य चीजों में व्‍यस्‍त था और उसे क्रोटो की खोज बहुत दिलचस्‍प नहीं लगीं। परिणाम यह हुआ कि पूरे एक साल बाद ही स्‍मैली की इस टीम ने क्रोटो के अनुरोध पर ध्‍यान दिया और वे अपने उपकरण में ग्रेफाइट की छड़ें रखकर कार्बन के यौगिक बनाने को तैयार हुए। जब उत्‍साहित क्रोटो की उपस्थिति में अगस्‍त 1985 में यह प्रयोग किया गया तो तरह-तरह से कई बार परिस्थितियां बदलने के बाद ही कुछ रोचक नतीजे हासिल हुए। परिणाम यह था कि स्‍पेक्‍ट्रोमीटर से की काफी मात्रा तथा की थोड़ी बहुत मात्रा की उपस्थिति के संकेत प्राप्‍त हुए।

किसी भी दिलचस्‍प किस्‍से में यदि नायक, सोने के खजाने की तलाश में निकले और उसे हीनों की खदान मिल जाए, तो अक्‍सर कोई फर्क नहीं पड़ता। यह सही है कि जनता ऐसी वैज्ञानिक कथाएं भी पसन्‍द करती है जिनमें कोई वैज्ञानिक एक पूर्व-निर्धारित व अपरिहार्य लक्ष्‍य की ओर सधे हुए कदमों से बढ़ता है। परन्‍तु आश्‍चर्यजनक घटनाओं से भरपूर किस्‍से भी खूब चलते हैं। लिहाज़ा दोनों किताबों के लेखक, अपनी-अपनी किताबों में संयोग के खेल को भरपूर महत्‍व देते हैं तथा बताते हैं कि जब वैज्ञानिक इस नई खोज से रूबरू हुए तो वे कितने आल्‍हादित थे। खास तौर से बेगॉट तो अपनी किताब में इस बात को बखूबी उभारते हैं कि कैसे शुरूआत में यह टीम की अहमियत को पहचान ही नहीं पाई क्‍योंकि यह सोचा गया कि ये नतीजे तो बिल्‍कुल वैसे ही हैं जैसे कि ‘एक्‍सॉन ऑइल कंपनी’ में कार्यरत एक अन्‍य टीम पहले ही प्रकाशित कर चुकी है। परन्‍तु अन्‍तत: लड़खड़ाते हुए क्रोटो व उनकी टीम लक्ष्‍य त‍क पहुंच ही गई।

पदार्थ का एक नया रूप
सदियों से हम जानते हैं कि शुद्ध कार्बन मात्र दो रूपों में उपस्थित रहता है- काला ग्रेफाइट काला और मुलायम कार्बन होता है, पेंसिल की लीड इसी की बनी होती है। दूसरी ओर हीरा अल्‍प-पारदर्शी होता है तथा अत्‍यंत कठोर होता है। पूरी टीम यह जानती थी कि स्‍मैली के उपकरण क वाष्‍पीकरण प्रकोष्‍ठ में मात्र कार्बन ही रखा गया था, इसलिए जो कुछ बना है वह शुद्ध कार्बन ही हो सकता है। तथ्‍य एक बड़े झटके के रूप में उभरा कि वाष्‍पीकरण के बाद जो कुछ बना है वह कार्बन का एक नया रूप है। ‘पर्फेक्‍ट सिमेट्री’ के लेखक जिम बेगॉट के मुताबिक यह मूल मान्‍यता में परिवर्तन की एक आहट थी। यदि इनका निष्‍कर्ष सही था, तो भविष्‍य की स्‍कूली पाठ्य पुस्‍तकों में कार्बन के दो की बजाए तीन रूप बताए जाएंगे। इसके अलावा यह प्रयोग ऐसे पदार्थ के साथ हुआ था जो क्‍लस्‍टर की श्रेणी में आते हैं, जिनमें बड़ी संख्‍या में परमाणु येनकेन प्रकारेण आपस में जुड़े होते हैं। इन पदार्थों का गुण यह होता है कि ठोस व गैस के बीच की अवस्‍था में होते हैं।

हीरे और ग्रेफाइट की संरचना: दोनों ही कार्बन के रूप हैं लेकिन एक दुनिया का सबसे कठोर तत्‍व है तो दूसरा इसकी तुलना में काफी मुलायम। ऐसा क्‍यों ? इसका राज छुपा है दोनों की संरचना में- यानी कार्बन के परमाणु हीरे और ग्रेफाइट में जिस तरह जमे हुए हैं।

हीरे में कार्बन का प्रत्‍येक परमाणु चार अन्‍य परमाणुओं से चतुष्‍फलकीय पिरामिड के रूप में जुड़ा हुआ है। यह आकृति त्रिअयामी है और एक मजबूत जाले का निर्माण करती हे। इस जाले की मज़बूती ही हीरे की मज़बूती का कारण होती है।

बेगॉट बताते हैं कि ऐसे महौल में पूरी टीम जोशो-खरोश से काम में जुटी थी। यूं कहें तो गलत न होगा कि वे सब हरदम प्रयोगों के साथ जी रहे थे, कभी-कभी देर रात तक काम में भिड़े रहते थे .... प्रयोगशाला में कभी रात 2-3 बजे तक काम करते रहने के बाद क्रोटो, हीथ तथा ओ ब्राएन एक रेस्‍तरां में पहुंच जाते... वहां दर्जनों कॉफियां पीते हुए कला, पुस्‍तकों, विज्ञान और धर्म की बातें करते। (हीथ व ओ ब्राएन स्‍मैली की टीम के सदस्‍य थे।)

सहज सौन्‍दर्य
खैर, यह तो ठीक है कि कार्बन के एक नए रूप की खोज हो गई मगर सवाल यह था कि वह रूप दिखता कैसा है? ग्रेफाइट की सूक्ष्‍म बनावट में कार्बन के परमाणु षट्कोण के रूप में जमे होते हैं; दूसरी ओर हीरे में कार्बन के परमाणु चतुष्‍फलक पिरामिड के रूप में जमे होते हैं। सहज अहसास यह था कि नया रूप एक अत्‍यंत सरल और स्थिर बनावट होगी। विभिन्‍न आकृतियां आजमाई गई। अन्‍तत: जो आकृति फिट हुई वह फुटबॉलनुमा थी। यह आकृति पंचभुजों और षट्भुजों से मिलकर इस तरह बनी थी कि प्रत्‍येक पंचभुज चारों ओर से (माफ कीजिए, पांचों ओर से) षट्भुजों से घिरा हुआ था। यह आकृति पूरी तरह फिट साबित हुई। इस आकृति की विशेषता है कि यह एक पूरी तरह बन्‍द और दृढ़ पिंजड़े जैसी है।

वहीं ग्रेफाइट में प्रत्‍येक कार्बन एक ही तल में तीन अन्‍य कार्बन परमाणुओं से जुड़ा होता हे। यह रचना षटकोणीय होती है और एक ही तल में आगे बढ़ती हुई एक परत या शीट का निर्माण करती है। एक परत के भीतर कार्बन परमाणुओं के बीच बंधन काफी मज़बूत होता है। इसलिए ग्रेफाइट की एक परत अपने आप में काफी मज़बूत संरचना है। परन्‍तु ये सभी परतें एक दूसरे पर कमजोर बलों द्वारा टिकी रहती हैं और एक दूसरे पर से फिसल सकती हैं। इसकी यही विशेषता इसे हीरे की तुलना में नरम व कमज़ोर बनाती है।

आखिर यह टीम इस फुटबॉलनुमा संरचना तक कैसे पहुंची? टीम का प्रत्‍येक सदस्‍य अलग-अलग कहानी बताता है। पुस्‍तक के लेखक एल्‍डर्सले-विलियम्‍स लिखते हैं ‘’यह बताना आसान नहीं है कि सितम्‍बर 1985 के उन तीव्रता भरे दिनों में क्‍या कुछ घटा था। लेकिन यह मुश्किल इसलिए नहीं हे कि इसमें विज्ञान का कोई पेचीदा मामला हैं। जी नहीं ... ऐसा कतई नहीं है। मुश्किलें नाटक के साथ नहीं, पात्रों के साथ है।‘’ क्रोटो का कहना हे कि उसे इस आकृति की प्रेरणा बकमिन्‍स्‍टर फुलर द्वारा बनाए गए जियोडेसिक गुम्‍बद से मिली थी। क्रोटो ने इस गुम्‍बद का मॉन्ट्रियल विश्‍व मेले में देखा था और उसने अपने बच्‍चों के लिए एक छोटा-सा गुम्‍बद बनाने की कोशिश भी की थी।

वहीं स्‍मैली का कहना है कि वह अपने रसोईघर के फर्श पर पंचभुजों व षट्भुजों को परस्‍पर जोड़ने की कोशिश करता रहा था, अज तक कि वे सही तौर पर जुड़ न गए। बहरहाल, इस टीम ने अन्‍तत: जो आकृति सुझाई उसमें एक कुदरती खूबसूरती थी और वास्‍तुकला की एक महान रचना की झलक थी।

जो जूझते रहे
कोई नहीं चाहता कि उसके सहेजे हुए विश्‍वास तार-तार हो जाएं। रसायन शास्‍त्री तो इस मामले में अत्‍यंत रूढि़वादी होते हैं। अत: इस टीम ने जब अन्‍य वैज्ञानिकों को अपनी खोज की सत्‍यता बतलाने की कोशिश की, तो उसे तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ा। वास्‍तव में वे अपने साथी वैज्ञानिकों को एक ऐसी बात समझाने का प्रयास कर रहे थे, जो कार्बन के बारे में उनके विचारों को पूरी तरह बदल देने जैसा था। अलबत्‍ता उसका वैज्ञानिक पर्चा 14 नवम्‍बर 1985 के दिन ब्रिटेन से प्रकाशित होने वाली ‘नेचर’ नाम की प्रतिष्ठित पत्रिका के पन्‍नों पर स्‍थान पा गया। नेचर के उस अंक के मुख-पृष्‍ठ पर की पिंजड़ेनुमा रचना को स्‍थान मिला। ज़रा सोचिए, अटकलों के आधार पर शुरू किए गए प्रयोगों से लेकर ‘नेचर’ में प्रकाशन तक कुल चार माह का समय लगा। इसी से पता चलता है कि इस शोध के परिणामों को विज्ञान के लिहाज़ से कितना महत्‍वपूर्ण माना गया था।

एच.डबलू.क्रोटो, जे.आर.हीथ, एस.सी. ओ ब्राएन, आर.एफ. कर्ल तथा आर.ई.स्‍मैली द्वारा लिखे गए इस दो-पेजी शोध पर्चे का शीर्षक था: बकमिन्‍स्‍टरफुलेरिन। यह पर्चा वैज्ञानिक लफ्फाज़ी का एक श्रेष्‍ठ उदाहरण है। एल्‍डर्सले-विलियम्‍स इस पर्चे का बारीकी से विश्‍लेषण करते हैं। उनका कहना है कि इस शोध –पत्र का संक्षिप्‍त शीर्षक भी इसी रणनीति का हिस्‍सा है – "इस पर्चे में वह सब कुछ कहा गया हे जो कहा जाना चाहिए, मगर यह सब कुछ इतने रहस्‍यमयी अंदाज से कहा गया है कि एक सामान्‍य पाठक, खासतौर से नेचर जैसी सामान्‍य विज्ञान पत्रिका का गैर रसायनविद् पाठक भी इसकी ओर आकर्षित होता है, कुछ और जानने की इच्‍छा लेकर इसे पढ़ने को प्रेरित होता है।"

C60 की संरचना और फुलबॉल: इसमें कार्बन के 60 परमाणु एक फुटबॉल के आकार में जमे हैं- यह आकार 12 पंचभुज और 20 षटभुज से मिलकर बना हे। क्रोटो को इस आकार की प्रेरणा जहां जियोडेसिक गुंबद से मिली वहीं स्‍मैली ने इस आकार को अपनी रसोई के फर्श पर जमाया। इसके बाद उसने राइस विश्‍वविद्यालय के गणित विभाग में फोन करके पूछा कि उसने जो आकार बनाया है उसे क्‍या कहते हैं – तो उसे बताया गया कि उसने तो फुटबॉल बना डाली है। इसीलिए C60 को फुटबॉल अणु भी कहते हैं। आप भी किसी फुटबॉल का उठाकर गिन सकते हैं कि वह भी इसी तरह बारह पंचभुजों और बीस षट्भुजों से बना है। इसकी इसी संरचना की वजह से वैज्ञानिक उत्‍साहित हैं और इसके उपयोग खोजने की दिशा में लगे हुए हैं।

बाधाओं से मुकाबला
इण्डियाना जोन्‍स की फिल्‍मों की शुरूआत अक्‍सर इस तरह से होती है कि हीरो कोई बेशकीमती पुरातात्विक धरोहर खोज लेता है। अब रोमांच इस बात में होता है कि इस खज़ाने को तमाम बाधाओं से लड़कर घर तक कैसे लाया जाता है। इसी प्रकार से नवम्‍बर 1985 में नेचर में प्रकाशित पर्चा इस मसले का अन्‍त नही है। जहां तक वैज्ञानिक जगत का सवाल हे, मामला प्रकाशन के बाद शुरू होता है।

वैसे तो स्‍मैली के उपकरण में सबसे ज्‍़यादा मात्रा में बनता है मगर फिर भी साथ में कई अन्‍य कार्बन क्‍लस्‍टर भी बनते हैं। यानी शुद्ध प्राप्‍त नहीं होता। इस अशुद्ध नमूने के आधार पर ऐसा विश्‍लेषण करना नामुमकिन हो जाता है जिससे की पिंजड़ेनुमा संरचना का अकाट्य प्रमाण मिल सके।

प्रथम प्रकाशन के पांच साल बाद तक, यदि चन्‍द श्रद्धालुओं को छोड़ दिया जाए, तो शेष वैज्ञानिकों के लिए एक सनक से ज्‍़यादा कुछ नहीं था। क्रोटो का दल जब अंतर्राष्‍ट्रीय सम्‍मेलनों में अपनी बात प्रस्‍तुत करता, तो चित्रात्‍मक कल्‍पना व सौन्‍दर्य के लिए उनकी भरपूर तारीफ होती थी मगर औपचारिक सत्र के बाद चाय की चुस्कियां लेते हुए लोग दबी जुबान से ऐसी अटकलबाजी पर छीटाकशी भी करते थे।

उपरोक्‍त दोनो पुस्‍तकों में इस बात को बहुत विस्‍तार से पेश किया गया है कि कैसे वैज्ञानकि जगत की स्‍वीकृति पाने के लिए क्रोटो व स्‍मैली को कड़ा संघर्ष करना पड़ा। क्रोटो के मामले में तो बात यहां तक बढ़ गई थी कि उसके शोध-अनुदान पर भी असर पड़ने लगा था।

लेकिन नोबल पुरस्‍कार की घोषणा होते ही स्थिति बदल गई। गार्जियन नामक अखबार क मुताबिक, ‘’यह विडंबना ही थी कि नोबल पुरस्‍कार की घोषणा से चन्‍द घण्‍टों पहले ही क्रोटो को इसी विषय पर आगे अनुसंधान करने हेतु सरकारी अनुदान देना नामंजूर कर दिया गया था।‘’ नोबल पुरस्‍कार की घोषणा के बाद अनुसंधान परिषद बहुत शर्मिदा हुई तथा उसने अपना फैसला बदला।

प्रतिद्वन्‍द्वी
इण्डियाना जोन्‍स की कहानियों में ऐसा अवश्‍य होता है कि खज़ाना घर पहुंचने से पहले जोन्‍स का अपने किसी पार्टनर से झगड़ा हो जाता है। क्रोटो और स्‍मैली के बीच भी यही हुआ। बेगॉट बताते है- ‘’अप्रैल 1987 से पहले अठारह महीनों में क्रोटो ने हयूस्‍टन के कुल आठ दौरे किए। ये दौरे राइस विश्‍वविद्यालय समूह के साथ फुलेरिन कार्य के संदर्भ में थे। क्रोटो का आठवां दौरा 29 अप्रैल को समाप्‍त हुआ। राइस का यह उसका आखिरी दौरा साबित हुआ। क्रोटो व स्‍मैली के बीच बढ़ते तनाव ने अन्‍तत: टकराव का रूप ले लिया। ऊपर से तो कहते थे कि ‘बकमिन्‍स्‍टर फुलरिन’ की खोज एक अभ्‍म की उपलब्धि है मगर अंदर-अंदर इसकी बारीकियों को लेकर तीखे विवाद थे। ...क्रोटो हताश होकर ससेक्‍स लौटा, मगर वह मानता था कि उस पर एक अन्‍यायपूर्ण हमला हुआ है और इस हमले के खिलाफ वह अपने हितों की रक्षा के लिए कटिबद्ध था...।

यही एकमात्र प्रतिद्वन्द्विता हो, ऐसा नहीं था। जैसा कि रोमांचक कथाओं में होता है, खज़ाने की भनक अन्‍य लोगों को भी लग चुकी थी। सबसे आगे तो एक्‍सॉन तेल कम्‍पनी के वैज्ञानिक थे। ये औद्योगिक राजा भोज थे जो हमारे अकादमिक गंगू तेलियों के खिलाफ खड़े थे। ‘पर्फेक्‍ट सिमेट्री’ ‘द मोस्‍ट ब्‍यूटीफुल मॉलीक्‍यूल’ ‘बी. बी.सी. कार्यक्रम’ सभी मे डॉन हुफमैन और वोल्‍फगैंग क्राट्शमर की टीम भी लगातार होड़ में नज़र आती है। इस टीम ने सबसे पहले C60 का वर्णक्रम मापन किया था- क्रोटो कर्ल समैली की टीम से भी तीन साल पहले। परन्‍तु हुफमैन व क्राट्शमर की बदकिस्‍मती थी कि उन्‍हें इसका महत्‍व पता ही नहीं चला। यह भी गौरतलब है कि अन्‍तत: इसी टीम ने शुद्ध बकमिन्‍स्‍टर-फुलरिन प्राप्‍त किया तथा वह वर्णक्रम हासिल किया जिससे वैज्ञानिक जगत में इसे मान्‍यता मिली। मज़ेदार बात यह है कि अपने इन प्रतिद्वन्द्वियों के शोध-पर्चे को नेचर पत्रिका हेतु 1990 में क्रोटो ने ही प्रस्‍तावित किया था। क्रोटो इसे लेकर प्रसन्‍न भी थे और हताश भी।

सबके लिए C60
सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण रासायनिक पदार्थ, खासकर जिन्‍हें रसायनज्ञ महत्‍वपूर्ण मानते हैं, आमतौर पर दर्लभ होते हैं। इन्‍हें काफी सहेज कर रखा जाता है। हर-किसी की पहुंच नहीं होती इन रसायनों तक। परन्‍तु C60 ऐसा नहीं था। बेगॉट के शब्‍दों में: "C60 की कोई कमी नहीं है।" पहले तो इसका एक शुद्ध नमूना प्राप्‍त करने के लिए वर्षो जूझना पड़ा था। उच्‍च वोल्‍टेज के करन्‍ट और शक्तिशाली लेज़र का इस्‍तेमाल करना पड़ा था। परन्‍तु अन्‍तत: जब वैज्ञानिकों को यह पता चला कि मात्र कार्बन का वाष्‍पीकरण करके आसानी से बकमिन्‍स्‍टरफुलेरिन प्राप्‍त किया जा सकता है, तो सभी खिसिया गए। यह तकनीक हुफमैन और क्राट्शमर ने विकसित की थी। उन्‍होंने यह भी दिखाया था कि उपरोक्‍त तकनीक से बनाने के बाद C60  थोड़ी-सी बेन्‍ज़ीन में घोलकर शुद्ध किया जा सकता है। उन्‍होंने तो यहां तक दिखा दिया कि मोमबत्‍ती का काजल भी C60 का स्रोत है।

तो C60 सचमुच एक प्रजातांत्रिक अणु है। युगोस्‍लाविया में एक वैज्ञानिक सम्‍मेलन के दौरान क्रोटो ने एक परखनली में C60 का गहरा लाल या बैगनी घोल सारे सहभागियों के हाथ में थमा दिया। यह सितम्‍बर 1990 की बात है। इससे कुछ ही दिनों पहले क्रोटो फुलेरिन का पहला शुद्ध नमूना प्राप्‍त करने में सफल हुए थे। सम्‍मेलन में मौजूद वैज्ञानि‍कों ने तालियां बजाकर इसका स्‍वागत किया। C60 की सुलभता का नतीजा यह हुआ कि हर इंसान जिस के पास कार्बन का वाष्‍पीकृत करने और वर्णक्रम विश्‍लेषण की सुविधा थी, वह तुरन्‍त इस काम में जुट गया। प्रत्‍येक शख्‍स को यह उम्‍मीद थी कि वह इस अवि‍श्वसनीय अणु के बारे में अगली महत्‍वपूर्ण बात पता लगाने का श्रेय प्राप्‍त कर लेगा।

पैसा, पैसा, पैसा ? 
साहसिक पुरातत्‍ववेत्‍ता की दृष्टि में खजाने का हासिल कर लेने का महत्‍व यह होता है कि देखो हमने एक और महत्‍वपूर्ण चीज़ खोज निकाली है, जिससे हमें प्राचीन सभ्‍यता को समझने में मदद मिलेगी। परन्‍तु ऐसें अभियानों के प्रायोजकों के लिए तो महत्‍व इस बात का होता है कि इससे कुछ मुनाफा हो। जब विज्ञान का बुनियादी काम पूरा हो गया और यह स्‍थापित हो गया कि C60 को बनाना आसान व सस्‍ता काम है, तब यह विचार शुरू हुआ कि कार्बन के अन्‍य दो रूपों की तरह इसक भी मुनाफादायक कैसे बनाया जाए। अब दुनिया भर की प्रयोगशालाएं यही खोज कर रही हैं कि फुलेरिन का औद्योगिक उपयोग क्‍या हो सकता है।

इस संदर्भ में दो श्रेत्रों की चर्चाए चल रही हैं- सुपरकन्‍डक्‍टर तथा अतिसूक्ष्‍म देक्‍नॉलाजी (नैनोटेक्‍नॉलॉजी)। यदि फुलेरिन के लम्‍बे तार बनाए जा सकें और प्रत्‍येक तार एक अटूट अणु से बना हो और यदि इस तरह बने कार्बन क पिंजड़े के अन्‍दर धातु के परमाणु फंसाए जा सकें, तो इलेक्‍ट्रॉनिक्‍स के क्षेत्र में एक बार फिर क्रान्ति आ जाएगी। ऐसा होने पर नैनोटेक्‍नॉलॉजी सचमुच हमारे हाथ में होगी। फुलेरिन के इस्‍तेमाल का एक और क्षेत्र लुब्रिकेन्‍ट (स्‍नेहकों) का बताया जा रहा है। अलबत्‍ता अभी तक कोई भी इसे व्‍यापारिक उपयोग हेतु उपयुक्‍त साबित नहीं कर पाया है। इस सबसे क्रोटो चिन्तित नहीं हैं। रोमांच की सच्‍ची भावना के अनुरूप ही क्रोटो का कहना है, "क्‍या ज़रूरी है कि इसका कोई उपयोग हो? हम तो प्रकृति के बारे में अपनी समझ में बुनियादी परिवर्तन की बात कर रहे हैं। हमने ग्रेफाइट व हीरे के साथ कार्बन का एक तीसरा रूप जोड़ दिया है। अब कार्बनिक रसायन के नए व्‍यापक क्षेत्र खुल गए हें जो पूर्व से बिलकुल भिन्‍न्‍ हैं। कहानी जारी है – कम से कम कहानी का यह पहलू तो अभी जारी है।

सौम्‍य रसायन
आजकल रसायन शास्‍त्री थोड़ा दबकर रहते हैं। स्थिति यह हैं कि संचार माध्‍यमों में रसायन शास्त्रियों का नाम आता भी है तो किसी न किसी महाभयानक प्रदूषण काण्‍ड के सिलसिले में। परन्‍तु हमेशा से ऐसी स्थिति नहीं रही है। पिछली सदी में रसायन शास्‍त्र का सुनहरा दौर रहा। हम्‍फ्री डेवी और माइकल फैराडे जैसे लोग इस विषय की भूमि पर विचरते थे। 1849 में फैराडे की ‘केमिकल हिस्‍ट्री ऑफ द कैण्‍डल’ (मोमबत्‍ती का रासायनिक इतिहास) के बाद से आज तक रसायन शास्त्रियों को C60 जैसी अच्‍छी कहानी हाथ नहीं लगी थी। फुलेरिन के काम में जुट जाइए, तो रसायनशास्‍त्री होना उतनी ही शान की बात होगी जितनी अनुवांशिकी के वैज्ञानिक होना।

यह सही है कि क्रोटो ने डी.आई.बी. की समस्‍या हल नहीं की परन्‍तु उनके ही विचारों के विभिन्‍न संस्‍करणों पर कुछ लोग काम कर रहे हैं।

अंतिम शब्‍द 
तीन वर्ष पहले, C60 का काम पूरा नहीं हुआ था। परन्‍तु जब काई प्रतिद्वन्‍द्वी सामने हो, ता पर्चा प्रकाशित करना ज़रूरी हो जाता है। यह बात शोध पर्चो पर ही नहीं लोकप्रिय विज्ञान पुस्‍तकों पर भी लागू होती है। इसी की वजह से ‘पर्फेक्‍ट सिमेट्री’ छपकर दुकानों पर पहुंच गई। यह कहना मुश्किल है कि नोबल पुरस्‍कार की घोषणा स इन किताबों की बिक्री पर कोई असर पड़ेगा या नहीं। विज्ञान की किताबों तो ठीक-ठाक बिक जाती हैं मगर वैज्ञानिकों उनकी उपलब्धियों क सार्वजनिक सम्‍मान का स्‍तर नीचा ही रहता है।

मैं लगभग रोज़ाना लंदन की भूमिगत रेल में सफर करता हूं। एक दिन टी.वी. पर काम करने वाला एक साइड कलाकार मेरे ही डिब्‍बे मे चढ़ा। मैंने देखा कि सारी निगाहें उसकी ओर मुड़ गईं, हालांकि सच्‍चाई यह थी कि वह कलाकार कई दिनों से किसी सीरियल में नहीं आया था। अगले दिन संयोग से मैं चिल्‍लाकर कहना चाहता था, "यह शख्‍स हैरी क्रोटो है। इसने अभी-अभी नोबल पुरस्‍कार जीता है.. यह आदमी जीनियस है।" परन्‍तु मैंने अपने आपको रोक लिया। किसी ने भी दुबारा मुड़कर क्रोटो की ओर नहीं देखा।


डॉ स्‍टीवन मिलर: लंदन क यूनिवर्सिटी कॉलेज में ‘विज्ञान संचार और प्‍लेनेटरी साइंसेज़’ पढ़ाते हैं। मूल लेख ब्रिटेन से प्रकाशित पत्रिका ‘पब्लिक अंडरस्‍टैंडिग ऑफ साइंस’ मं प्रकाशित। अनुवाद: सुशील जोशी; विज्ञान लेखन में सक्रिय, होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से संबद्ध।