सुशील जोशी

हमारी रोज़मर्रा कि ज़िंदगी मे बहुत से कोलॉयड हमारे आसपास मौज़ूद हैं झिर्री मे से झांक रही सूरज कि किरण हो या स्याही कि दवात। यही नहीं हम बहुत-सी क्रियाएं भी इसलिए करते हैं क्योंकि हमारा पाला कोलॉयड से पड़ जाता है। बताइए भला, दवाई की बोतलों को अक्सर अच्छी तरह हिलाने के लिए के लिए क्यों कहा जाता है?

हरिशंकर परसाई ने इंस्पेक्टर मातादीन के साथ-साथ घिसना पत्थर को भी अमर कर दिया। मगर उन्हें शायद मालूम नहीं था कि यह घिसना पत्थर एक वैज्ञानिक जिज्ञासा का भी विषय है। उन्हें मालूम होने की ज़रूरत भी नहीं थी। मगर मुझे भी मालूम नहीं था और यह ठीक नहीं है। कई विषयों को हमें इस तरह पढ़ाया गया है कि हम उन विस्तृत विषयों की एक संकीर्ण छवि बनाकर उसी को दिलो-दिमाग में रख लेते हैं। यहां प्रसंग कोलॉयड्स का है। कोलॉयड्स यानी कलिल।

आपसे या मुझसे कहा जाए कि कुछ कोलॉयड तंत्रों के नाम बताओ तो मैं समझता हूं हम दूध, गोंद, स्याही, मांड आदि का नाम फौरन ले लेंगे और उसके बाद बगलें झांकने लगेंगे। लिहाजा यहां मैं कोलॉयड अवस्था की पेचीदा बारीकियों में जाने की बजाए वे बातें करना चाहता हूं जो मैंने हाल में पढ़ी हैं।

कोलॉयड यानी विषमांग मिश्रण
आपने देखा होगा कि हम सदैव कोलॉयड की चर्चा को तरल पदार्थों से जोड़ते हैं। उनमें भी हम उन्हीं कोलॉयड्स की चर्चा करते हैं जिनमें एक अवस्था (Phase) तरल और दूसरी तरल या ठोस हो। यहां मैं स्पष्ट कर दें कि कोलॉयड दरअसल विषमांग
मिश्रण होते हैं। इनमें दो या दो से ज्यादा अवस्थाएं होती हैं। हम यहां दो अवस्था वाले कोलॉयड्स की बात करेंगे। कोलॉयड में मौजूद दो अवस्थाओं को छिन्न-भिन्न अवस्था (Dispersed phase) और छिन्न-भिन्न माध्यम (Dispersion medium) कहते हैं। और समझने की सबसे पहली बात यह है कि छिन्न-भिन्न अवस्था और छिन्न भिन्न माध्यम की विविधता के आधार पर कोलॉयड्स कई किस्म के होते हैं

उपरोक्त तालिका में आपने ध्यान दिया होगा (न दिया हो, तो दें) कि गैस में गैस का कोलॉयड़ नहीं होता। क्यों? यह सवाल आपके लिए। मगर कहानी थोड़ी इंटरवल से शुरू हो गई है। फिर से शुरू करता हूं।

सबसे पहले तो यही सवाल करना होगा कि कोलॉयड होते क्या हैं। सरल तौर पर कहें तो कोलॉयड दो या दो से अधिक पदार्थों का विषमांग मिश्रण है - अर्थात घोल नहीं है (घोल समांग यानी Homogeneous होते हैं)। मगर क्या कंकड़-पत्थरों को मिलाकर रख दें, तो कोलॉयड कहलाएगा? नहीं, हमें अपनी परिभाषा को थोड़ा और सीमित बनाना होगा। कोलॉयड एक ऐसा विषमांग मिश्रण है जिसमें कणों का आकार बहुत सूक्ष्म होता है* - इतना सूक्ष्म कि वे सूक्ष्मदर्शी से दिखाई न पड़े।


* सामान्यतः कोलॉयड में कणों का आकार 10- से 10-6 मिलीमीटर होता है। इसलिए इन्हें दृश्य माइक्रोस्कोप से नहीं देखा जा सकता।


यहां बात छिन्न-भिन्न अवस्था की हो रही है। मगर माध्यम में ये कण आण्विक या आयनिक स्तर पर नहीं बल्कि संकुल रूप में होते हैं। दरअसल एक पदार्थ, दूसरे पदार्थ में आण्विक या आयनिक स्तर पर फैल जाए तो घोल बनता है।

कोलॉयड की पहचान
1840 के आसपास एक इतालवी वैज्ञानिक फ्रान्सेस्को सेल्मी ने सबसे पहले इस बात की ओर ध्यान दिलाया था कि कुछ ‘घोलों' के लक्षण असामान्य होते हैं। सबसे पहली बात तो यह थी कि ये 'घोल' प्रकाश का बिखराव (Scatter) करते थे। दूसरी बात यह थी कि लवण डालने पर इनका

अवक्षेपण (Precipitation) हो जाता था। और सबसे बड़ी बात यह थी कि इन पदाथों को ‘घोलने' या ‘अवक्षेपण के दौरान तापमान में कोई परिवर्तन नहीं होता था (जबकि क्रिस्टलीय पदार्थों को घोलें तो तापमान घटता-बढ़ता है)। सेल्मी ने इन्हें ‘छद्म

टिण्डाल प्रभावः किसी परखनली में पानी लेकर उसमें दूध की आठ-दस बूंदें डालिए। अब किसी अंधेरी जगह परखनली को सीधा रखकर उस पर टॉर्च की रोशनी डालिए। रोशनी की दिशा के समकोण पर अपनी आंखें रखने पर परखनली के भीतर रखे तरल में चमक दिखाई देगी।

कोलॉयड के कण इतने सूक्ष्म होते हैं कि उन्हें दृश्य माइक्रोस्कोप से नहीं देखा जा सकता। इसलिए उन्हें देखने के उपकरण अल्ट्रा-माइक्रोस्कोप में टिण्डाल प्रभाव इस्तेमाल किया जाता है। अल्ट्रा-माइक्रोस्कोप में प्रकाश की खूब तेज़ किरणों को कोलॉयड पर केन्द्रित किया जाता है और उसके पीछे काला पर्दा रखा जाता है। कोलॉयड में उपस्थित कण प्रकाश की किरणों को बिखेर देते हैं और चमकने लगते हैं।

घोल' कहा था। कोलॉयड शब्द का श्रेय थॉमस ग्राहम को जाता है। थॉमस ग्राहम ने इन पदार्थों का गहन अध्ययन किया था - यह उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध की बात है।

तो कोलॉयड्स ऐसे घोल हैं जिनमें दो या दो से अधिक अवस्थाएं होती हैं; सामान्य घोल में एकाधिक पदार्थ (घटक) हो सकते हैं मगर अवस्था एक ही होती है। कोलॉयड में दो अवस्थाओं से हमारा मतलब है कि दो ऐसे घटक जिनके बीच संपर्क सतह स्पष्ट रूप से परिभाषित की जा सके। जबकि घोल में घुलित पदार्थ - आण्विक/आयनिक रूप में होता है। अणु/आयन की सतह' जैसी कोई चीज़ सतह के सामान्य अर्थों में नहीं होती।

बहरहाल, इन सतही पेचीदगियों में न जाकर हम कोलॉयड़ीय घोलों के कुछ लाक्षणिक गुणों की बात कर सकते हैं:

1. आपने ज़रूर ध्यान दिया होगा कि यदि खिड़की के किसी सुराख या कबेलू की छत में से यदि रोशनी का कतरा कमरे में आए तो हमें हवा में धूल के कण साफ नजर आने लगते हैं। यह प्रकाश के बिखरने (Scattering) की वजह से होता है। यह कोलॉयड घोलों का एक लक्षण है। इसे टिण्डाल प्रभाव कहते हैं। सच्चे घोलों में यह गुण नहीं होता। पानी में दूध की आठ-दस बूंदें डालकर उसे किसी पारदर्शी कांच के गिलास या परखनली में ले लीजिए। अब इस पर टॉर्च चमकाइए। टॉर्च की रोशनी की दिशा से समकोण पर बैठकर इसे देखिए। टिण्डाल प्रभाव के दर्शन होंगे। यानी परखनली में मौजूद घोल तरल नहीं है बल्कि कोलॉयड है।

2. कोलॉयडल घोलों में कणों का विसरण बहुत धीमे-धीमे होता है। जैसे, यदि मण्ड का गाढ़ा घोल बना लें और उसके ऊपर पानी डाल दें तो इस मण्ड को पूरे पानी में फैलने में बहुत समय लगेगा। यानी परखनली में मौजूद तरल घोल नहीं है बल्कि कोलॉयड है।

एक दूसरा उदाहरण लेकर भी इसे समझ सकते हैं। शक्कर पानी में घुल जाती है यानी घोल बनाती है परन्तु स्याही की इंडिया इंक की टिकिया पानी में कोलॉयड बनाती है। अगर एक ही आकार के मिश्री के डल्ले और इंडिया इंक की टिकिया को पानी की बराबर मात्रा में रखें तो - स्याही की टिकिया को पानी में फैलने में कहीं ज्यादा समय लगेगा।

3. आपने किशमिश को पानी में डालकर फूलते जरूर देखा होगा। पानी में डालने पर किशमिश इसलिए फूल जाती है क्योंकि पानी उसमें घुस जाता है। पानी अंदर घुसता है परासरण (Osmosis) क्रिया के कारण। यदि इसी किशमिश को आप शक्कर के गाढ़े घोल में रख दें तो फूलने की बजाए और सिकुड़ जाएगी। यह भी परासरण की वजह से होता है।

मोटेतौर पर, यदि दो घोलों को एक खास किस्म की झिल्ली (अर्द्धपारगम्य झिल्ली) के दो तरफ रख दें तो विलायक इस झिल्ली के आर पार निकल जाता है। विलायक की गति पतले से गाढ़े घोल की ओर होती है - इस क्रिया को परासरण कहते हैं। ऐसा कहते हैं कि प्रत्येक घोल का एक परासरण दाब होता है - गाढ़े घोल का ज़्यादा और पतले घोल का कम

ऐसा बताते हैं कि कोलॉयड घोलों का परासरण दाब अपेक्षाकृत कम होता है। इस बात का मतलब यह है कि घुलित पदार्थ की मात्रा के आधार पर जितने परासरण दाब की उम्मीद की जाती है, उससे कम दाब कोलॉयड घोल का होता है।

4. डाएलिसिस का नाम आपने जरूर सुना होगा। लोकनायक जयप्रकाश ने इसका नाम प्रसिद्ध कर दिया था। मान लीजिए आपके पास एक मिश्रण है जिसमें कुछ पदार्थ तो कोलॉयड अवस्था में हैं। और कुछ पदार्थ घुलित अवस्था में। यदि इस मिश्रण को एक झिल्ली के

डाएलिसिसः आमतौर पर जिनकी किडनियां काम करना बंद कर देती हैं उन मरीजों के खून के के लिए डाएलिसिस यादी कृत्रिम किडनी की मदद ली जाती है। डाएलिसिस में मरीज़ का खून सेलोफेन की बनी अर्द्धपारगम्य झिल्लियों के संपर्क में रखा जाता है। अशुद्ध पदार्थ झिल्ली से बाहर निकल जाते हैं और शुद्ध खून रोगी के शरीर में दुबारा दाखिल किया जाता है।

एक ओर रख दिया जाए तो घुलित पदार्थ तो दूसरी ओर निकल जाएंगे मगर कोलॉयड़ नहीं निकल पाएंगे। डाएलिसिस में ठीक यही प्रक्रिया की जाती है। चूंकि मनुष्य की किडनियां काम नहीं कर रही इसलिए खून को शरीर से बाहर निकालकर अर्द्धपारगम्य झिल्ली के संपर्क में लाते हैं। यूरिया और अन्य जहरीले पदार्थ जो खून में घुलनशील अवस्था में होते। हैं; वे सब इस झिल्ली में से होकर दूसरी ओर बाहर निकल जाते हैं जबकि कोलॉयड खून अंदर बना रहता है। इस तरह से खून साफ होता रहता और फिर इस साफ खून को शरीर में वापस दाखिल कर देते हैं।

5. सच्चे घोल के विपरीत कोलॉयड़ीय मिश्रण में अवक्षेपण का गुण होता है। यदि किसी कोलॉयडीय मिश्रण को वैसे ही छोड़ दें तो समय के साथ उसमें से छिन्न-भिन्न अवस्था अलग हो जाती है - इसे स्कंदन (Coagulation) कहते हैं। वैसे तो यह क्रिया रखे-रखे भी होती है मगर यदि मिश्रण को गरम करें, बहुत ठण्डा करें, तेज़ी से हिलाएं या उसमें कोई लवण डाल दें तो क्रिया तेज़ हो जाती है।

कोलॉयड का अवक्षेपण का गुण चूने के घोल में बहुत ही आसानी से दिख जाता है। अगर परखनली में चुने का घोल लेकर उसे हिलाकर दो-चार मिनट स्थिर रख दें तो चूने के कण तुरंत नीचे बैठने लगते हैं। इसी वजह से वार्निश रखा रहे तो तले पर बैठ जाता है और दवाई पीने से पहले शीशी को अच्छी तरह से हिलाना पड़ता है।

आप यह सोचेंगे कि अगर ऐसा ही है तो फिर सब स्याहियां नीचे क्यों नहीं बैठ जातीं? ऐसा इसलिए नहीं होता क्योंकि इनमें ऐसे रसायन मिलाए जाते हैं जो कोलॉयड के छिन्न-भिन्न पदार्थ को आसानी से अलग होकर नीचे नहीं बैठने देते।

6. और अंतिम बात यह है कि प्रायः कोलॉयडीय पदार्थ का इलेक्ट्रोफोरेसिस होता है। (हमेशा नहीं होता)। यदि किसी कोलॉयडीय मिश्रण में इलेक्ट्रोड रखे जाएं तो सारे कोलॉयडीय कण एक ही इलेक्ट्रोड की ओर गति करते हैं। यह क्रिया विद्युत अपघटन से भिन्न है। विद्युत अपघटन में आयनों की गति दोनों इलेक्ट्रोडों की ओर होती है क्योंकि ऐसे घोल में धन वे ऋण आयन बराबर मात्रा में होते हैं तथा संबंधित इलेक्ट्रोड की ओर गति करते हैं। कोलॉयड के सभी कणों पर एक ही प्रकार का आवेश होता है इसलिए सारे कोलॉयड़ीय कण एक ही इलेक्ट्रोड की ओर गति करते हैं।

कोलॉयडीय तंत्र
अब शायद यह सवाल उठ सकता है कि कोलॉयड आखिर होते क्या हैं और इनकी बात क्यों की जाए। कोलॉयड दरअसल पदार्थ की एक अवस्था होती है। लगभग किसी भी पदार्थ को इस अवस्था में प्राप्त किया जा सकता है, बशर्ते कि सही परिस्थितियां निर्मित कर दी जाएं। मसलन साधारण नमक अर्थात् सोडियम क्लोराइड पानी में घुल जाता है। मगर एक अन्य विलायक बेंजीन में इसका कोलॉयड़ीय घोल प्राप्त हो जाता है। वैसे बेंज़ीन में नमक अघुलनशील है। इसलिए किसी पदार्थ को कोलॉयड कहना उचित नहीं है, ज्यादा सही यह होगा कि हम ‘कोलॉयडीय तंत्र' शब्द का प्रयोग करें। नमक र बेंजीन एक कोलॉयडीय तंत्र बनाते हैं - नमक कोलॉयडीय पदार्थ नहीं है।

कोलॉयडीय अवस्था का अध्ययन करना इसलिए महत्व रखती है क्योंकि प्रकृति में तमाम कोलॉयडीय तंत्र मिलते हैं। इनके व्यवहार को कोलॉयडीय रसायन के तहत समझा जा सकता है। दूसरी ओर कई सारी औद्योगिक प्रक्रियाएं और कई सारे उत्पाद भी कोलॉयडीय अवस्था में ही होते हैं।

हम देख ही चुके हैं कि सामान्यतः कोलॉयडीय तंत्र रखे-रखे अवक्षेपण या स्कंदन का शिकार होते रहते हैं। मसलन ऑइल पेंट प्रायः कोलॉयडीय होते हैं। कई दवाइयां भी कोलॉयडीय अवस्था में मिलती हैं। इन्हें स्थिरता प्रदान करना एक अहम मुद्दा होता है। इस तरह के अध्ययन कोलॉयड़ीय रसायन के अंतर्गत किए जाते हैं। दूध पाउडर को इस तरह बनाना कि पानी में डालने पर वह पुनः कोलॉयड़ीय अवस्था में आ जाए, एक टेढ़ा मसला है। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां कोलॉयडीय अवस्था का अध्ययन काम आता है।


सुशील जोशी: एकलव्य के होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम तथा स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। साथ ही स्वतंत्र विज्ञान लेखन व अनुवाद करते हैं।