रामकृष्ण भट्टाचार्य

प्राचीन भारत में रेखागणित                                                                                                                                                        भाग-4

बौधायन अपने शुल्व सूत्र का आरंभ रेखीय मापन संबंधी एक कथन से करते हैं और फिर वास्तविक निर्माण की समस्याओं पर जाते हैं। हम बौधायन के क्रम से ही चलेंगे और उनकी तालिकाओं की तुलना अन्य रचनाओं (जो बाद के काल की हैं तथा मूर्तिकला व वास्तुकला के ग्रंथों में प्राप्त हुई हैं) से करके चार शुल्व सूत्रों में वर्णित मापन की इकाइयों की एक सूची बनाएंगे। (बौधायन की तालिका अगले पृष्ठ पर दी गई है।)
मापन की इकाइयों पर सरसरी नज़र डालने से भी स्पष्ट हो जाता है कि इनकी जमावट में कोई क्रम नहीं है यद्यपि ये नाम बौधायन शुल्व सूत्र 1-4-21 व 78 में एक के बाद एक दिए गए हैं। एक बढ़ते क्रम में रखने की बजाए इकाइयां बेतरतीबी से जमाई गई हैं। इनमें दो किस्म के नाप साफ दिखाई पड़ते हैं---
एक मानव शरीर व उसके विभिन्न अंगों, खासकर हाथ व पैर के माप और दूसरा, बढ़ई या रथ निर्माता से संबंधित माप उत्तर युग, ईषा, अक्ष युग व शय्या। 
दूसरी बात यह है कि यद्यपि 1.9 से. मी. से बड़ी किसी भी इकाई को अंगुल में व्यक्त करना संभव है किन्तु कुछ इकाइयों को दर्शाने के लिए


बौधायन पाद व अरत्नि का उपयोग करते हैं। और व्यवस्था में कोई नियमितता भी नहीं है।
कौटिल्य अर्थशास्त्र (ईसा पूर्व चतुर्थ सदी) तथा भरत के नाट्यशास्त्र (500-700 ई. यद्यपि कुछ अंश काफी प्राचीन, संभवतः ईसापूर्व काल के हैं) में जो रैखीय माप मिलते हैं उनमें अंगुल के माप को प्रयुक्त किया गया है और हमें अरनि, डण्डा, पाद, हस्त और वितस्ती जैसे नाम मिलते हैं इनमें से कई नाम बौधायन शुल्व सूत्र में भी हैं। परंतु अर्थशास्त्र व नाट्यशास्त्र में आठ को मूल संख्या मानकर चलने की प्रवृत्ति है। उदाहरणार्थ, कौटिल्य के अर्थशास्त्र में 8 अंगुल से 1 धनुर्मुष्टि (बाण चलाने के लिए अंगूठा सीधा रखकर बनी मुट्ठी) बनने की बात है जबकि 8 यवमध्य (जौ के दाने का मध्य) मिलकर 1 अंगुल बनता है। नाट्यशास्त्र में भी 8 यव मिलकर 1 अंगुल बनाते हैं। किन्तु ये माप निश्चित नहीं हैं: कौटिल्य में 4 अंगुल मिलकर 1 धनुग्रह (चार उंगलियां धनुष को बीच में से पकड़े हुए) बनाते हैं। कौटिल्य में 14 अंगुल मिलकर 1 पाद बनता है जबकि बौधायन के शुल्वे सूत्र में 15 अंगुल से 1 पाद बनता है।

सूक्ष्म इकाइयां
मापों का एक और समुच्चय हमें महावीर के गणित सारसंग्रह (लगभग 850 ईस्वी) में मिलता है। इसमें भी ‘आठ के आधार पर कार्य होता है। और कौटिल्य और नाट्यशास्त्र की ही तरह यह भी अंगुल से पूर्व अत्यंत छोटे माप से शुरू होता है। उदाहरणार्थः
अनंत परमाणु = 1 अणु
8 अणु = 1 त्रसरेणु
8 त्रसरेणु = 1 रथरेणु (रथ की धूल)
8 रथरेणु = 1 शिरोरुह (बाल)
8 शिरोरुह = 1 लिक्ष (जू का माप)
8 लिक्ष = 1 तिल या 1 सर्शप (सरसों)
8 तिल = 1 यर (जौ का दाना)
8 यव = 1 अंगुल या व्यवहारांगुल

8 का क्रम इसके आगे जारी नहीं रहता।
अंगुल तक पहुंचने से पूर्व 8 का इस तरह का क्रम हमें खगोलशास्त्र की रचनाओं (जैसे आर्यभट्ट के गोलपद पर यल्लय की टीका, सन् 1480) में तथा वास्तुकला की पुस्तकों (जैसे मानसार) में भी मिलता है। जैसा कि हम देख सकते हैं कि खास इकाई अंगुल तक पहुंचने में कई चरण लगते हैं। अंगुल के आधार पर ही शेष इकाइयां परिभाषित होंगी। हमें ऐसी बारीक इकाइयां मिलती हैं जिनका किसी कारीगर, बढ़ई या मिस्त्री के लिए कोई उपयोग नहीं है। किन्तु कौटिल्य से प्रारंभ करके हमें परमाणु व अणु जैसी ‘पारभौतिक' इकाइयां मिलती हैं।
एक अर्थ में बौधायन शुल्व सूत्र में ‘इधर-उधर की बात नहीं' वाली प्रवृत्ति नजर आती है (किन्तु मनव में नज़र नहीं आती) और यह स्वयं को व्यावहारिक व प्रेक्षणीय इकाइयों तक ही सीमित रखता है।
यहां हम थोड़ा-सा अपने रास्ते से हटकर इस बात पर विचार कर सकते हैं कि इन संदर्भो में अणु व परमाणु शब्दों का अर्थ क्या है। बौधायन के टीकाकार बताते हैं कि अणु से तात्पर्य पैनिकम मिलिएशियम नामक वनस्पति के बीज से है। मूल रूप में इसका ‘एटम' से या ‘अणु' से कोई संबंध न था। वास्तुशास्त्र की पुस्तक (सुप्रभेदागम) से हमें पता चलता है कि परमाणु का अर्थ है ‘जो आकार में सबसे छोटा हो, जिससे छोटा कुछ न हो सके।' कुछ अन्य ग्रंथों में यह भी कहते हैं कि कोई मुनि और योगी, परमाणु को देख सकते हैं (मयमत, मानसार)। दूसरे शब्दों में, आम स्त्रीपुरुष परमाणु को कदापि नहीं देख सकते। परंतु गौरतलब बात यह है कि यद्यपि परमाणु कथित रूप से अत्यंत सूक्ष्म है मगर अप्रेक्षणीय नहीं है। इस शब्द का अर्थ एक अणु के अत्यंत सूक्ष्म भाग से भी है।

30 अणु मिलकर धूप की किरण में धूलकण के रूप में नजर आते हैं। परंतु यह भी कोई ऐसा मापे नहीं है जिसे वास्तव में नापा जाए या व्यवहार में उपयोग किया जाए। लगता यह है कि एक आकांक्षा थी कि सूक्ष्मतम वस्तु को पहली इकाई बनाया जाए। और फिर बढ़ते-बढ़ते सबसे लंबी दूरी योजन तक ले जाया जाए।
दूसरी ओर, बौधायन सूत्र अपने आपको उन्हीं इकाइयों तक सीमित रखता है जिनकी वास्तव में जरूरत है। यह पूरी तरह व्यवहारोमुखी है। अतः इसे ‘पारभौतिक' इकाइयों से कुछ लेना-देना नहीं है।

अंगुल के विभिन्न माप
यह भी गौरतलब है कि यद्यपि अंगुल का माप भारत में सबसे अधिक प्रचलित व नियमित रूप से प्रयुक्त माप रहा, किन्तु विभिन्न समयों पर देश के अलग-अलग हिस्सों में अन्य । इकाइयां भी रहीं। और अंगुल शब्द भी सदैव एक ही लंबाई के लिए इस्तेमाल नहीं हुआ है। कम-से-कम तीन माप तो थे ही - मानांगुल, मापन या अंगुल, 8 यव की लंबाई के बराबर; मात्रांगुल, ‘चित्र या भवन के स्वामि की मध्यमा से लिया गया'; और देहलब्धांगुल, यह वह नाप था जिसमें किसी मूर्ति को नाप जोख के लिए विभाजित किया जाता था।
मानांगुल को भी मानसार के मुताबिक 3 प्रकारों को बताया गया हैः सबसे बड़ा 8 यव, मध्यम 7 यव और सबसे छोटा 6 यव। अर्थात अंगुली का अर्थ अंगुष्ठा भी हो सकता है जो 3/4 इंच के बराबर है। 
और यह भी कहना होगा कि मूर्तिकला व वास्तुकला के कई कार्यग्रंथ भी परमाणु से शुरू होकर, कई इकाइयों का उल्लेख करते हुए अंगुल माप तक पहुंचते हैं।
कुछ अन्य इकाइयों का उल्लेख भी किया जा सकता है। ये इकाइयां 7 के क्रम में बढ़ती हैं। ये हमें गैर-गणितीय बौद्ध रचनाओं में मिलती हैं। हम शुरू कर सकते हैं ललित विस्तार नामक महायानी ग्रंथ से (रचनाकाल अज्ञात, किन्तु प्रथम सदी ईसा पूर्व या ईस्वी के लगभग हो सकता है)। इसमें इकाइयों की सूची निम्नानुसार है:
7 परमाणुरज = 1 रेणु या अणु (कण)
7 रेणु या अणु = 1 त्रुति (अणु)
7 श्रुति = 1 वातायनरज (खिड़की की धूल)
7 वातायनरज=1 शशरज (खरगोश की धूल)
7 शशरज = 1 एदुकरज (भेड़ की धूल)

और इसी प्रकार से आगे बढ़ते हुए गोरज, लिक्षरज (जू की धूल), से होते यह क्रम सर्सप (सरसों) और फिर यव (जौ) तथा अंगुलपर्व तक पहुंचता है। इसके बाद सात गुना के अंतर को छोड़कर वास्तविक इकाइयां आती हैं,
जैसेः
12 अंगुलपर्व = 1 वितस्ति
2 वितस्ति = 1 हस्त
4 हस्त = 1 धनु
1000 धनु = 1 क्रोश
4 क्रोश = 1 योजन

मापन का एक और तरीका वास्तुशास्त्र की एक रचना युक्तिकल्पतरु (काल अज्ञात) में मिलता है। इसमें परमाणु व शशरज जैसी सूक्ष्म काल्पनिक इकाइयों को तिलांजलि दे दी गई है किन्तु रस्सी के माप का इस्तेमाल किया गया है। जैसे,
9 तंतु (रेशे) = 1 सूत्र (धागा)
9 सूत्र = 1 गुण (रस्सी का एक रेशा)
9 गुण = 1 पाश (रस्सी)
9 पाश = 1 रश्मि (लगाम)
9 रश्मि = 1 रज्जु (रस्सा)

इस रचना में इकाइयों की एक और श्रृंखला मिलती है जो दाशमिक आधार पर बनी हुई है।
10 हस्त = 1 राजहस्त
10 राजहस्त = 1 राजदण्ड
10 राजदण्ड = 1 राजछत्र
10 राजछत्र = 1 राजकाण्ड
10 राजकाण्ड = 1 राजपुरुष
10 राजपुरुष = 1 राजप्रधानी
10 राजप्रधानी = 1 राजक्षेत्रम
(अंतिम चार इकाइयों के अर्थ संदिग्ध हैं)

ऐसा प्रतीत होता है कि इस तरह का पैमाना भूमि, खासकर राजा के अधीन भूमि के मापन के लिए बनाया गया था। इनमें से अधिकांश नाम किसी मानक संस्कृत शब्दकोश में नहीं मिलते तथा हम नहीं जानते कि यदि इन इकाइयों का उपयोग होता था तो कहां।
अब हम चार शुल्व सूत्रों में पाए जाने वाले रेखीय मापों की पूरी सूची प्रस्तुत करें। जैसा कि हमने पहले ही देखी अंगुल बुनियादी इकाई थी। इसके अतिरिक्त ग्रंथों में दो अन्य स्वतंत्र इकाइयों का जिक्र है: शरीर माप (या तो यज्ञ करवाने वाले यजमान को या करने वाले पुरोहित ‘अध्वर्यु' का) और रथ-माप। आइए अब संपूर्ण सूची पर नज़र डालें। (सूची अगले पृष्ठ पर)
अब हम इस सूची पर कुछ टिप्पणियां करना चाहेंगे।

क. चारों शुल्व सूत्रों में उल्लेखित इकाइयों में से (यदि अंगुल को छोड़ दें तो) मात्र 5 ऐसी हैं जो सब में समान हैं: अक्ष, अरलि, ईषा, पुरुष और युग। क्या यह अचरज की बात नहीं है कि कर्मकाण्ड के एक से नियमों का पालन करने के बावजूद चार शुल्व सूत्र इतनी अलग-अलग इकाइयों का उपयोग करते हैं अथवा कभीकभी एक ही माप की इकाई के लिए अलग-अलग नाम इस्तेमाल करते हैं (जैसे पिशिल/प्रादेश/ वितस्ति, अणुका/प्रक्रम, जानु/ शम्या, शय/व्यायाम/आस्य और पुरुष/व्याम)?
कभी एक ही इकाई को अलगअलग माप दिए गए हैं। और ऐसा एक ही शुल्व सूत्र में भी देखा गया है! उदाहरण के लिए, बौधायन शुल्वसूत्र में प्रक्रम 30 अंगुल का है जबकि मानव शुल्वसूत्र में इसे 24 अंगुलों का माना गया है। और आपस्तम्ब शुल्वसूत्र के अनुसार प्रक्रम आपकी इच्छानुसार (यथाकामी) 30 अंगुल का भी हो सकता है और 45 अंगुल का भी।

ख. आस्य, उर्वस्थि और नाभि, ये तीन इकाइयां सिर्फ आपस्तम्ब शुल्बसूत्र में ही मिलती हैं। ये समस्त पुरुष के नापों से संबंधित हैं (अंतिम इकाई रथ के माप से भी संबंधित हो सकती है)।

ग. रथ के माप पर आधारित इकाई शम्या मानव को छोड़ शेष तीनों शुल्बसूत्रों में मिलती है।

घ. अणूक नामक इकाई 30 अंगुल का माप है और सिर्फ आपस्तंब शुल्बसूत्र में मिलती है। यह एक विचित्र शब्द है और किसी मानक संस्कृत शब्दकोश में नहीं मिलता।

च. आपस्तंब और कात्यायन में अंगुल का अलग से उल्लेख नहीं किया गया है हालांकि अन्य समस्त इकाइयां इसी से बनती हैं।

छ. बौधायन में शम्या व बाहु दोनों का जिक्र है जबकि मानव में सिर्फ बाहु का (जबकि ये दोनों 30 अंगुल के माप हैं)। इसके विपरीत आपस्तंब और कात्यायन में मात्र शम्या है, बाहु नहीं। (यह भी उल्लेखनीय है कि कात्यायन में शम्या 32 अंगुल के बराबर है। जबकि आपस्तंब व बौधायन में यह 36 अंगुल है।)

ज. तीन इकाइयां, क्षुद्रपद, पृथोत्तर - युग और विराट मात्र बौधायन शुल्वसूत्र में ही मिलती हैं। झ. प्रादेश और व्यायाम, ये दो इकाइयां कात्यायन को छोड़कर शेष तीनों ग्रंथों में मिलती हैं।

ट. व्याम सिर्फ बौधायन में है, अन्यत्र नहीं।

ठ. आठ इकाइयां, अर्व, कृष्णन, मान, निष्क, प्रपदोत्थानपुरुष, यव, वत्सतांर्यावाल और सर्षप सिर्फ मानव में हैं। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि मान और निष्क को छोड़ दें तो इनमें से शेष समस्त इकाइयां अत्यंत सूक्ष्म हैं और शुल्व की दृष्टि से किसी काम की नहीं हैं। इनमें से कई का उपयोग सुनार व जौहरी वजन तौलने के लिए करते हैं।

चिति निर्माण की इकाइयां
सार रूप में बारह से ज्यादा इकाइयों का उपयोग चिति निर्माण में नहीं किया जाता। इनमें से मात्र छः ऐसी हैं जो चारों ग्रंथों में समान हैं। मापन की दो समांतर इकाइयां यजमान या अध्वर्यु मात्रा और रथ सम्मित या रथमात्रा साथ-साथ चलती हैं। कुछ इकाइयों के माप निश्चित नहीं हैं। शुल्व के दो ग्रंथ एक समान नहीं हैं। एक मामले में तो एक ही ग्रंथ, आपस्तंब शुल्व सूत्र एक ही इकाई के दो अलगअलग माप बताता है। और बौधायन सुत्र, जो वास्तव में नपाई में उपयोगी सर्वाधिक इकाइयों (उन्नीस) का उल्लेख करता है, वह भी व्यवहार में नौ से अधिक इकाइयां नहीं बताता। ये नौ इकाइयां हैं: अंगुल, अरनि, जानु, पद, पुरुष, प्रक्रम, प्रादेश, व्याम और व्यायाम। (यह सही है कि सबसे अधिक इकाइयों के नाम मानव में हैं किन्तु इन 22 में से 6 किसी काम की नहीं हैं) अपस्तंब और कात्यायन में क्रमशः सोलह और नौ इकाइयों का उल्लेख है जो लगभग सभी वास्तविक मान में उपयोगी हैं।

एक सवाल उठना स्वाभाविक है - न सिर्फ अलग-अलग ग्रंथों में बल्कि एक ही ग्रंथ के अंदर मापों में इतनी विसंगति कैसे हो सकती है? हम इसका एक ही जवाब दे सकते हैं कि भारत के अलग-अलग भागों में अलग-अलग समय पर मापन की इकाइयों में अंतर रहे होंगे। यही अंतर शुल्बसूत्रों में भी झलकते हैं। इससे परंपरा में एक व्यवधान का संकेत भी मिलता है। शुल्वसूत्र के रचनाकारों को पता नहीं था कि प्राचीन काल में किस परिपाटी का वास्तव में पालन होता था। हो सकता है कि रीति-रिवाज प्रचलन में रह गए हों।

अत: कुछ मामलों में शुल्वसूत्रों के लेखक निश्चित नहीं रह पाए होंगे कि क्या कुछ मापों को लेकर दो मत प्रचलित थे, उदाहरण के लिए आपस्तंब शुल्बसूत्र में वर्णित प्रक्रम का माप या पद कात्यायन में 12 अंगुल, बौधायन व आपस्तम्ब दोनों में 15 अंगुल है। जब उन्हें दो मत मिले होंगे तो उन्होंने दोनों का उल्लेख कर दिया होगा।
कभी-कभी माप को किसी एक इकाई के सापेक्ष दिया गया है तो कभी किसी अन्य इकाई के सापेक्ष। उदाहरण के लिए हमें यजमानमातृ (बौधायन, आपस्तम्ब), अध्वर्युमातृ (अपस्तम्ब), रथमातृ (आपस्तम्ब), और शम्यामातृ (बौधायन) व व्यायाममातृ (बौधायन) का भी उल्लेख मिलता है।
यहां एक और प्रश्न उठ सकता है, वहां किस शरीर को मानक माना जाए -- यज्ञ करवाने वाले यजमान, का अथवा यज्ञ करने वाले पुरोहित अध्वर्यु का? आपस्तम्ब शुल्वसूत्र का मत है कि इनमें से किसी को भी चुना जा सकता है क्योंकि दोनों ही बलि के कर्ता हैं। किन्तु फिर भी दोनों के रूप में अंतर तो अवश्य होगा। और दूसरा प्रश्न यह भी है कि यदि यजमान कद में बहुत छोटा हो, तो?

इस वजह से कुछ मानकीकरण तो आवश्यक था। अतः मनुष्य शरीर या उसके अंगों (हाथ, पैर, बित्ते, भुजा, हथेली वगैरह) के अलावा किसी एक वस्तुनिष्ठ इकाई की जरूरत थी। इसलिए मानव शुल्व सूत्र प्रश्न करता है: “यदि यजमान रोगग्रस्त हो या जन्म से ही कद में छोटा हो, तो इस स्थिति में अध्वर्यु को किस माप का उपयोग करना चाहिए?'' इसके बाद यह अंगुल जैसी अपेक्षाकृत वस्तुनिष्ठ इकाइयों का वर्णन करता है। यद्यपि शुरुआत तुण्ड, पुष्करनाल जैसी अतिसूक्ष्म इकाइयों से होती है। अंगुल का मान वस्तुनिष्ठ है (अर्थात् यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर नहीं है) क्योंकि इसका माप अणु नामक पौधे के 14 बीजों को परस्पर चौड़ाई में सटाकर रखकर नापा जाता है। इसी माप की एक और परिभाषा बौधायन में इस तरह की गई है कि तिल के 34 दानों को चौड़ाई में सटाकर रखने पर जो नाप आती है।
यह गौरतलब है कि पुरुष कोई मनमाना माप न होकर 120 अंगुलों का निश्चित माप है। वास्तविक व्यवहार में सर्वप्रथम यजमान को नाप लिया जाता है और फिर बढ़ई यजमान के रूप के अनुसार उपयुक्त आकार की ईंटें बनाने हेतु लकड़ी के सांचे बनाते। हैं। अंततः ईंट बनाने वाले इन सांचों का उपयोग करके ईंटें बनाते हैं।

रेखीय मापों के उपरोक्त अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि शुल्वसूत्रों की विशिष्ट इकाइयों में निरंतरता भी नहीं रही है। स्वाभाविक रूप से यजमानमात्रा मूलतः चिति निर्माण तक सीमित रही। यह देश के किसी भी हिस्से में आमतौर पर स्वीकृत माप नहीं बना। दूसरी ओर रेखीय, मापन की कुछ अन्य इकाइयां (जैसे अंगुल, हथेली, बित्ता, पैर वगैरह) अपनी उत्पत्ति से ही ज्यादा लोकप्रिय थीं और पूर्णतः सेक्युलर थीं (इनकी उत्पत्ति ताक मिस्त्रियों, बढ़इयों आदि की व्यावहारिक जरूरतों में से हुई थी)। ये इकाइयां काफी लंबे समय तक उपयोग में रहीं। आज भी, मुगल व ब्रिटिश काल में लागू की गई विभिन्न इकाइयों तथा वर्तमान मीट्रिक प्रणाली के बावजूद, देश के कुछ हिस्सों में मिस्त्री, बढ़ई और यहां तक कि दर्जी भी अपना काम बित्ते, अंगुल, हाथ वगैरह से चलाते हैं।
बड़े मापों के संदर्भ में पुरोहित लोग रथसम्मित (रथ निर्माताओं की इकाइयां) का भी उपयोग करते थे। अतः हम कह सकते हैं कि शुल्व सूत्र इन इकाइयों के स्रोत न होकर ईंट बनाने वालों , बढ़इयों आदि के क्रियाकलापों का परिणाम हैं। इस बात को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से शुल्बसूत्रों के रचयिता भी स्वीकार करते हैं।

"मर्गर फिर ज्यामिति कहां है?" कोई पाठक बेचैन होकर यह सवाल पूछ सकता है, “यह सब तो सिर्फ मापन की बातें हैं। जी हां, यही शुल्बसूत्र ज्यामिति की विशिष्टता है। इसमें अमूर्त रूपों पर नहीं, ठोस आकृतियों पर काम किया जाता है। इसमें अवधारणाओं पर नहीं बल्कि सचमुच की त्रिआयामी ईंटों और चितियों पर काम किया जाता है। इसकी समस्त ज्यामिति ईंटों की आकृति व आकार से संबंधित है। इनको बनाने व जमाने के कार्य में से ही सारी ज्यामिति उभरती है।
अगले अंक में हम यह बात करेंगे कि शुल्व ज्यामिति के रचयिताओं के सामने कौन-सी समस्याएं थीं और उन्होंने अपनी क्षमता के सर्वोत्तम उपयोग से इन समस्याओं को कैसे सुलझाया।


रामकृष्ण भट्टाचार्यः आनंद मोहन कॉलेज, कलकत्ता के अंग्रेजी विभाग में रीडर तथा कलकत्ता विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी पाठ्यक्रम में अतिथि लेक्चरर। विज्ञान लेखन में रुचि।
अनुवादः सुशील जोशी। एकलव्य के होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम एवं स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। साथ ही स्वतंत्र विज्ञान लेखन एवं अनुवाद करते हैं।