शुभदा जोशी

बच्चों में अक्सर फौजियों को लेकर जबरदस्त आकर्षण होता है। कारगिल युद्ध के समय तो ये आकर्षण अपनी चरम सीमा पर था। हमारे खेलघर में बच्चों ने कई बार कहा, "मैं सैनिक बनूंगा, चाची।' हालांकि हमने बच्चों से ऐसा कुछ भी नहीं पूछा था। आमतौर पर अपने आसपास घटने वाली घटनाओं के प्रति उदासीन रहने वाले बच्चे युद्ध के इस दौर में जंग की खबरों के प्रति खासे उत्सुक रहते थे। 'चाची, हमें ठीक से समझाकर बताइए न, हम जीत रहे हैं न?' बच्चों के ऐसे सवालों के बारे में हम हमेशा आपस में चर्चा करते थे।

'फौजी बनने के लिए क्या-क्या पढ़ना पड़ता है?' इस सवाल का जवाब पाने के लिए एक बार हम बच्चों को पुणे में ही स्थित नेशनल डिफेंस एकेडमी (एन. डी. ए.) लेकर गए। बच्चों ने बेहद चाव के साथ वहां का जायजा लिया - वहां की इमारतें, फिल्में, अनुशासन, जीवन शैली आदि। इस सब का उन पर काफी प्रभाव पड़ा और काफी दिनों तक यह प्रभाव देखा गया; और साथ ही अपने देश के प्रति अभिमान की भावना भी।
हमारी गतिविधियों में दिलचस्पी रखने वाले हमारे एक जर्मन दोस्त पीटर अर्लनवाइन भी बीच-बीच में बच्चों से मिलने आते रहते हैं। इस घटना के कुछ दिन बाद जब एक बार वे हम लोगों से मिलने आए थे तो बातों-ही-बातों में मैंने पीटर को बताया कि हम लोग बच्चों को लेकर एन. डी. ए. गए थे। यह बताना था कि पीटर का चेहरा थोड़ा बुझ गया।
बच्चों के साथ बातचीत के अनुभव से मैंने कहा, "ऐसा लगता है कि सैनिक बनना हमारे कई बच्चों के जीवन का लक्ष्य है।''
"ऐसा उन्हें क्यों लगता है?", पीटर ने पूछा। फिर बातचीत को यहीं रोककर पीटर बच्चों से गप-शप करने लगे।

कौन दोस्त - कौन दुश्मन
दो बड़े कागज़ बीच में रखकर उन्होंने बच्चों से उस पर भारत का
नक्शा बनाने के लिए कहा।
“भारत के बारे में जो मुझे पता है वह मैं तुम लोगों को बताता हूं और तुम लोगों को जो पता है वह मुझे बताओ', पीटर बच्चों से काफी सरल अंग्रेजी में बातें कर रहे थे। जो बच्चे पीटर की बात समझ रहे थे वे अपने साथियों को मराठी में बताते जा रहे थे। साथ ही मैं भी बच्चों की मदद कर रही थी।
पीटर भारत में देखी जगहों व शहरों के नाम बताते और फिर बच्चे उन जगहों को नक्शे में दिखाकर उनके बारे में जानकारी देते। जब ज़रूरी लगता तो पीटर भी उसमें कुछ जोड़ देते थे।
थोड़ी देर बाद पीटर ने उन जगहों के बारे में चर्चा शुरू की जो बच्चों ने देखी नहीं थी। धीरे-धीरे चर्चा पड़ोसी देशों तर्क जा पहुंची। पीटर चाचा का देश, जर्मनी भी ग्लोब पर देख लिया। चीन, भुटान, नेपाल के बाद पाकिस्तान की बारी आई। तुरंत ही कुछ बच्चों ने कहा 'हमारा दुश्मन'।
ऐसा क्यों कह रहे हो?" पीटर चाचा ने सवाल किया।

"वो हमें परेशान करते हैं, हम पर हमला बोलते हैं।"
पीटर, "पाकिस्तान में कौन रहता है?"
"मुसलमान।"
पीटर, "क्या भारत में मुसलमान नहीं रहते?"
हां, लेकिन बहुत थोड़े। वहां तो सभी मुसलमान हैं।''
पीटर, "क्या वहां और कोई लोग नहीं रहते?"
खामोशी छा गई।
पीटर, “क्या तुम लोगों को पता है पहले भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग देश नहीं थे। सिर्फ एक ही बड़ा देश था। और आज जिन्हें हम दुश्मन कह रहे हैं वे हज़ारों साल हमारे साथ इसी देश में रहते आए हैं।"

बच्चे खामोश हो गए लेकिन उनके चेहरे पर तनाव दिखाई दे रहा था। फिर पीटर ने बच्चों से पूछा, “अच्छा मुझे क्या कहोगे? मैं तो काफी सालों से भारत में रह रहा हूं।”
"लेकिन आप जर्मन ही हैं। बच्चों ने कहा।।
“और मेरी बेटी? वो तो भारत में ही पैदा हुई है।'' पीटर ने पूछा।
"वो भारतीय है।" “अच्छा, अब मैं तुम्हें एक और मजेदार बात बताता हूं। मेरी एक दोस्त है। वो जर्मनी में पैदा हुई। उसे जर्मनी और वहां के लोग बेहद पसंद हैं। फिर बह किसी काम के सिलसिले में इटली गई और उसे इटली श्री मा गया। वह अब काफी सालों से इटली में ही है। बीच-बीच में वो जर्मनी भी आती है। अब मेरी उस दोस्त को किस देश का कहा जाएगा?"
बच्चों ने थोड़ा विचार-विमर्श किया और फैसला सुनाया, "दोनों ही देश उसके हैं।"

पीटर ने बच्चों से पूछा, “और शिवेन के बारे में तुम लोगों की क्या राय है?" (शिवेन पीटर का दोस्त है। जो बच्चों को हंसाने के लिए विदूषक का काम करता है। इस बातचीत से कुछ दिन पहले बच्चों ने शिवेन का खेल/शो देखा था)
पीटर ने बच्चों को फिर से कुरेदा, शिवेन तो तुम जैसे बच्चों को हंसाने के लिए कई सारे मुल्कों में घूमता-फिरता है, है न?
बच्चे खामोश थे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बोलें। फिर भी बच्चों ने कहा, "लेकिन पाकिस्तान हमें जान-बूझकर परेशान कर रहा है। तो हमें उन्हें सबक क्यों नहीं सिखाना चाहिए?"
बच्चों को यदि बहुत ही आसान बनाकर बताया जाए तब भी यह सारा मसला काफी गुत्थियों से भरा है। परन्तु पीटर ने कोशिश जारी रखी।

"तुम लोगों ने थोड़ा-बहुत इतिहास तो पड़ा ही है। अंग्रेजों ने लगभग डेढ़ सौ साल भारत पर शासन किया। जब वे भारत छोड़कर जा रहे थे तब यहां एक हिन्दुओं का और दूसरा मुसलमानों का देश बनाया जाए ऐसी मांग उठी और भारत के दो हिस्से कर दिए गए।''
पीटर ने जारी रखा, "देखा जाए। तो इस किस्म का बंटवारा कर पाना खासा कठिन काम था क्योंकि उस समय सभी हिस्सों में हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ रहते थे। इस अलग देश के मुद्दे पर काफी झगड़े हुए, विवाद हुए। आखिरकार जिन हिस्सों में मुसलमान आबादी ज्यादा थी उन्हें भारत से अलग कर दिया गया और वो बन गया - पाकिस्तान। फिर भी काफी सारे मुसलमान भारत में रह गए और इसी तरह काफी सारे हिन्दू पाकिस्तान में रह गए। आज भी पाकिस्तान में रहने वालों के काफी सारे दोस्त, रिश्तेदार, गांव वाले भारत में रहते हैं और भारत में रहने वालों के दोस्त, रिश्तेदार पाकिस्तान में रहते
"लेकिन फिर झगड़ा किसलिए है?", बच्चों ने पूछा।

बीच में टोककर मैंने बच्चों को बताने की कोशिश की, “झगड़े के कई कारण हैं। जैसे भारत का एक राज्य है कश्मीर उसे पाकिस्तानी लोग अपने में मिलाना चाहते हैं...'' लेकिन पीटर ने मुझे बीच में ही रोक दिया और बच्चों को बताने लगा, "किसी से झगड़ा करना हो तो झगड़े के लिए किसी खास वजह की ज़रूरत नहीं होती। झगड़ा खत्म करना सबसे कठिन होता है। फिर कुछ लोगों का फायदा इसी में होता है कि झगड़ा चलता रहे, इसलिए वे हमेशा आग में घी डालने का काम करते रहते हैं।"
पीटर गंभीरता के साथ बता रहा था, ''कभी-कभी हम लोगों को भी अपने दोस्त पर बेहद गुस्सा आता है। उसे मार डालने का मन करता है। लेकिन हम लोग क्या करते हैं? क्या अपने दोस्त को सचमुच मार डालते हैं? दोस्त को खत्म करके क्या हम सुख से रह सकेंगे?"
बच्चे एकदम चुप हो गए। उनके पास कोई जवाब नहीं था। वे पीटर की सभी बातों या तर्को से सहमत हों ऐसा जरूरी नहीं, लेकिन अपनी राय को लेकर उनके दिलो-दिमाग में कई सवाल उठने लगे थे। उनके इन सवालों को यदि जिंदा रखना है तो एक खुली बातचीत और चर्चा का वातावरण आगे भी बनाए रखना होगा।

चर्चा का सार
आज हमारे परिवेश में मीडिया द्वारा, इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में वर्णित युद्धों के ज़रिए, वीरों की शौर्यगाथाओं आदि के द्वारा बच्चों को जो दिया जा रहा है उसकी वजह से ही बच्चों में युद्ध, सैनिकों और हथियारों के प्रति एक विशेष लगाव दिखाई देता है। लेकिन इंसानियत के पन्नों पर कालिख पोतने वाला युद्ध का दूसरा पक्ष भी तो है - मृत्यु का तांडव, अनाथ होने वाले बच्चे और परिवार; इसके साथ-साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों के दिलो-दिमाग में बना रहने वाला ईष्र्या और बैर भाव। क्या इन सबके बारे में बच्चों से बातचीत नहीं करनी चाहिए? ।
पीटर ने बच्चों के साथ इस विषय में जो चर्चा की उससे बच्चों को यह तो समझ में आया कि 'युद्ध' कभी भी किसी के लिए खुशी की बात नहीं हो सकती और किन्हीं खास हालातों में ही युद्ध जैसी घटना घटित होती है। ये सब बातें बच्चों तक एक हद तक पहुंचाने से उनके साथ एक सार्थक संवाद बन सका है, ऐसा समझ में आया।


शुभदा जोशी: पालक नीति पत्रिका के संपादक मंडल की सदस्य है। विविध सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय।
पालक नीति अप्रैल 2000 से साभार/ पालक नीति पुणे से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका है जिसका मुख्य फोकस शिक्षा एवं विविध सामाजिक मुद्दों पर होता है।