सुरेश अग्रवाल
प्रस्तुति - माधव केलकर

वायुमण्डल में ऑक्सीजन की मात्रा 20 प्रतिशत है यह दिखाने के लिए विज्ञान की पाठ्य पुस्तकों में एक प्रयोग दिया जाता है। प्रयोग यह है कि पानी से भरी तश्तरी में रखी एक जलती मोमबत्ती पर एक गिलास उलटाकर रखा जाता है। गिलास रखने के कुछ पल बाद मोमबत्ती बुझ जाती है और गिलास में पानी कुछ ऊँचाई तक चढ़ जाता है। यह अवलोकन तो एकदम सही है, मगर...।
इस प्रयोग की व्याख्या यह की जाती है कि मोमबत्ती जलने की वजह से गिलास की सारी ऑक्सीजन खत्म हो जाती है और गिलास में आंशिक शून्य पैदा हो जाता है। इस शून्य को भरने के लिए पानी ऊपर चढ़ता है।
क्या यह व्याख्या सही है? इसी प्रयोग को थोड़ा अलग ढंग से करने पर लगता है कि शायद यह सही नहीं है। संदर्भ के पिछले अंकों में ऐसे कई प्रयोगों के नतीजे प्रकाशित हुए हैं।

मसलन, इसी प्रयोग को एक की बजाय दो, तीन या चार मोमबत्तियाँ लेकर दोहराने पर यह देखा गया कि मोमबत्तियों की संख्या बढ़ाने पर तुलनात्मक रूप से पानी भी ज़्यादा ऊपर तक चढ़ता है। सवाल है कि ऐसा क्यों? ऑक्सीजन तो 20 प्रतिशत ही है ना?
इसी प्रयोग में एक बार मोमबत्ती के साथ गिलास के भीतर एक माचिस की तीली भी रखी गई। मोमबत्ती बुझ जाने के बाद लेन्स की मदद से माचिस की तीली को जलाने की कोशिश की गई, तो तीली जल उठी और गिलास में पानी थोड़ा और चढ़ गया। मतलब अभी ऑक्सीजन बाकी थी।
मोमबत्ती वाले इन प्रयोगों में एक और अवलोकन सामने आया था कि मोमबत्ती बुझते समय गिलास में से तश्तरी के पानी में से होकर बुलबुले निकलते हैं।

इन प्रयोगों से एक निष्कर्ष यह निकलता है कि पानी के ऊपर चढ़ने का सम्बन्ध मात्र इस बात से नहीं है कि गिलास में ऑक्सीजन खत्म हो गई है। तो पानी क्यों चढ़ता है? प्रयोगों से लगता है कि ऐसागर्मी पाकर हवा के प्रसार के कारण होता है।
आगे बढ़ने से पहले अच्छा होगा यदि आप उन पूर्व प्रयोगों पर एक नज़र डाल लें या उन्हें करके देख लें। ये प्रयोग संदर्भ के अंक - 4, 5, 10 और 14 में प्रकाशित हुए थे।

उन प्रयोगों के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए इस बार तीन नए प्रयोग प्रस्तुत हैं। इनसे बात और स्पष्ट होती है। एक प्रयोग में ऑक्सीजन खर्च होने की सम्भावना को निरस्त कर दिया गया है, फिर भी पानी चढ़ता है, तो दूसरे प्रयोग में मोमबत्ती तो जलती है मगर पानी चढ़ने की बजाय उतरता है। तीसरे प्रयोग में ऑक्सीजन को नापने की एक कोशिश है।
हों सकता है कि अधिकांश लोगों ने उक्त पाठ्य पुस्तकीय प्रयोग किया हो। वैसे यदि आप संदर्भ में प्रकाशित प्रयोग भी कर पाते तो आगे के तीन प्रयोगों की पृष्ठभूमि बन जाती। न किए हों, तो उपरोक्त परिचय से बात कुछ हद तक साफ हो ही गई होगी। तो आगे बढ़ते हैं।

प्रयोग 1: सिर्फ गर्मी का खेल है
इस प्रयोग को करने के लिए आपको पानी से भरी एक तश्तरी, संकरे मुँह वाली काँच की एक बोतल, एक बाल्टी खौलता पानी, एक पुराना कपड़ा चाहिए।
काँच की बोतल का मुँह ऊपर रखते हुए उसे खौलते हुए पानी में डुबो दीजिए। बोतल को इतना डुबोना है कि बोतल के भीतर पानी न जा पाए। बोतल को डुबोने से पहले आँच बुझा दें या पानी को आँच पर से उतार लें। एकाध मिनट में बोतल काफी गर्म हो जाएगी। इसे कपड़े की मदद से बाहर निकाल कर फुर्ती से पानी से भरी तश्तरी में उल्टी खड़ी कर दीजिए। बोतल का मुँह पानी में डूबा रहे। यदि बोतल को खड़ा करने में दिक्कत आ रही हो तो कपड़े से पकड़कर भी रख सकते हैं।

अब थोड़ा इन्तज़ार कीजिए। पानी बोतल में चढ़ता हुआ दिखाई देगा।
यदि पानी ऊपर चढ़ता न दिखे तो बोतल को कपड़े से पकड़ कर थोड़ा ऊपर उठाकर दोबारा तश्तरी से टिका दीजिए। बोतल को इतना ही ऊपर उठाएँ कि उसका मुँह पानी में डूबा रहे। अब पानी बोतल में चढ़ता हुआ दिखाई देगा।

यदि बोतल रंगहीन और पानी रंगीन हो, तो चढ़ता हुआ पानी आसानी से दिखेगा।
आपने गौर किया होगा कि इस प्रयोग में जलती हुई मोमबत्ती वगैरह कुछ भी नहीं था, यानी बोतल में मौजूद ऑक्सीजन को खत्म करने का कोई साधन नहीं था फिर भी पानी ऊपर चढ़ा।
तो बोतल में पानी चढ़ाने के लिए ऑक्सीजन के आह्वान की ज़रूरत नहीं लगती।

प्रयोग 2: चढ़ता-उतरता पानी
इस प्रयोग को करने के लिए तीन समान आकार की प्लास्टिक की कड़ी बोतलें, छनी और सनी हुई काली मिट्टी या सना हुआ आटा, प्लास्टिक का पाइप, चप्पल के सोल चिपकाने वाला सोल्यूशन आदि सामग्री की ज़रूरत होगी।
अगले पृष्ठ पर दिए गए चित्र के अनुसार बोतलों को आपस में जोड़ लीजिए। बोतल ‘ए’ और ‘बी’ पेन्दे के पास आपस में जुड़ी हैं और उनमें आधी ऊँचाई तक पानी भरा हुआ है। बोतल ‘बी’ को एक प्लास्टिक पाइप के ज़रिए बोतल ‘सी’ से जोड़ा गया है। काली मिट्टी (या सने हुए आटे) की गीली टिकिया पर मोमबत्ती को जलाकर रखना होगा।

जलती हुई मोमबत्ती पर अब बोतल ‘सी’ को फुर्ती से इस तरह रखना है कि बोतल का मुँह मिट्टी की टिकिया या आटे के लोन्दे में अच्छे से धँस जाए। बोतल को दबाकर रखिए। इसे मिट्टी या आटे पर इसलिए रखते हैं ताकि वहाँ से हवा न निकल सके।
आप देखेंगे, मोमबत्ती के बुझने के पहले ही बोतल ‘बी’ में पानी का तल कम होने लगता है और बोतल ‘ए’ में पानी का तल बढ़ता जाता है। मोमबत्ती बुझने के बाद बोतल ‘ए’ में पानी का तल नीचे गिरने लगता है और बोतल ‘बी’ में पानी का तल बढ़ने लगता है।

एक-दो मिनट में दोनों बोतलों में पानी का तल फिर से एक समान दिखने लगता है।
अब यदि मोमबत्ती जलने से बोतल ‘सी’ की ऑक्सीजन खर्च होती, तो बोतल ‘बी’ में पानी ऊपर उठना चाहिए था, नहीं? पानी दबने की सरल व्याख्या यही हो सकती है कि मोमबत्ती के जलने के कारण बोतल ‘सी’ की हवा गर्म होकर फैल रही है। चूँकि बोतल ‘सी’ का मुँह सीलबन्द है इसलिए एक ही रास्ता बच जाता है - बोतल ‘सी’ से हवा बोतल ‘बी’ की ओर ही जा सकती है। यह हवा बोतल ‘बी’ में पानी पर दबाव डालती है जिसकी वजह से बोतल ‘बी’ का पानी बोतल ‘ए’ में चढ़ जाता है और बोतल ‘ए’ में पानी का तल बढ़ जाता है।

मोमबत्ती बुझने के बाद बोतल ‘सी’ की हवा ठण्डी होकर फिर संकुचित होती है जिसकी वजह से बोतल ‘बी’ से हवा, बोतल ‘सी’ की ओर जाती है और बोतल ‘ए’ से पानी बोतल ‘बी’ में वापस आता है।

बोतलों को जोड़ना - पहले दो बोतलों में पेन्दे से बराबर ऊँचाई पर (लगभग पाँच सेन्टीमीटर) सूजे से छेद बनाकर उसमें प्लास्टिक का कड़ा पाइप लगाकर दोनों बोतल आपस में जोड़ लीजिए। इन दोनों जोड़ों को एयरटाइट करने के लिए रबर सोल्यूशन में थोड़ा-सा थर्मोकोल का महीन चूरा मिलाकर लगा दीजिए। इन बोतलों को हम ‘ए’ बोतल और ‘बी’ बोतल कहेंगे।
अब तीसरी बोतल (बोतल ‘सी’) में पेन्दे से तीन-चार सेन्टीमीटर की ऊँचाई पर सूजे से एक छेद बनाकर इस छेद से एक वाल्व ट्यूब लगाकर एयरटाइट कर लीजिए। वाल्व ट्यूब का दूसरा सिरा बोतल ‘बी’ के ढक्कन में छेद बनाकर फिट करके इसे भी एयरटाइट कर दीजिए। बोतल ‘ए’ का मुँह खुला ही रहेगा।

बोतल ‘ए’ के खुले मुँह से बोतल में इतना पानी भरेंगे कि दोनों बोतलें (‘ए’ और ‘बी’) लगभग आधी भर जाएँ।
पानी भरते हुए यह देख लीजिए कि दोनों बोतलों को जोड़ने वाले पाइप और छेद में किसी तरह का रिसाव तो नहीं है। पूरा प्रयोग एयरटाइट जोड़ों पर निर्भर है। यदि रिसाव है, तो बोतल में से पानी निकालकर फिर से सॉल्यूशन लगाना होगा।
और हाँ, प्रयोग शुरु  करने से पहले मिट्टी या आटे की एक टिकिया ज़रूर बना लीजिए।


वैसे एक बात कहना ज़रूरी है। इस प्रयोग के आधार पर यह कहना ठीक नहीं होगा कि मामला सिर्फ हवा के प्रसार और संकुचन से जुड़ा हुआ है। हो सकता है कि मोमबत्ती ने जलने के लिए थोड़ी ऑक्सीजन खर्च की हो। इस प्रयोग में बोतल ‘बी’ में पानी के शुरुआती स्तर और अन्तिम स्तर के बीच तुलना करके यह पता करना कठिन है कि क्या उनमें कोई अन्तर है। शायद बोतल की जगह पतली नली वगैरह का उपयोग करें तो खर्च की गई ऑक्सीजन की माप सम्भव है। 

मगर इन दो प्रयोगों और संदर्भ में पहले प्रकाशित प्रयोगों से इतना तो साफ है कि पाठ्य पुस्तकों में दिए गए प्रयोग में चढ़ने वाला पानी हमें यह नहीं बताता कि हवा में उतनी ऑक्सीजन थी।

इस मामले को इतना तूल देने का आशय सिर्फ यह है कि प्रयोग डिज़ाइन करते समय कई बातों का ध्यान रखना ज़रूरी होता है। सबसे ज़्यादा ध्यान इस बात का रखना होता है कि क्या वह प्रयोग वही दर्शाता है जो दर्शाना हमारा लक्ष्य है।
इससे भी बड़ी बात यह है कि यदि प्रयोग को वास्तव में किया जाए, तो कई बातें निकलती हैं और तब प्रयोग वास्तव में सीखने का एक माध्यम बन जाता है। और मज़ा तो आता ही है। यदि प्रयोग करने का उद्देश्य सिर्फ पूर्व निर्धारित निष्कर्षों तक पहुँचना ही है, तो प्रयोग करके देखने की ज़रूरत ही कहाँ रह जाती है।

खैर, अब यह देखना उपयोगी होगा कि क्या हम ऐसा प्रयोग कर सकते हैं जिससे वाकई हवा में ऑक्सीजन की उपस्थिति व मात्रा का एहसास मिल सके।
ऐसा एक प्रयोग यहाँ सुझाया जा रहा है। इस प्रयोग में यह मानकर चला जा रहा है और जो सही भी है कि जलना और ज़ंग लगना रासायनिक रूप से एक जैसी प्रक्रियाएँ हैं। प्रयोग 3 में हम ज़ंग लगने की प्रक्रिया की मदद से हवा में उपस्थित ऑक्सीजन को नापने का प्रयास करेंगे। इस प्रयोग में थोड़ा समय लगेगा क्योंकि ज़ंग लगना एक धीमी प्रक्रिया है।

प्रयोग 3: ऑक्सीजन की नाप
इस प्रयोग के लिए आपको थोड़ा पानी, एक गिलास, एक परखनली और लोहे की छीलन या लोहे के स्क्रबर (बर्तन साफ करने वाला) की ज़रूरत होगी।
सबसे पहले लोहे की छीलन या स्क्रबर को पानी से अच्छे से गीला करके परखनली की पेन्दी में ठूँसकर फँसा दीजिए। अब गिलास में थोड़ा पानी लीजिए और परखनली को औंधा करके उसमें खड़ा कर दीजिए। इस उपकरण को दो-तीन दिन तक रखना होगा।

कुछ ही समय बाद आप देखेंगे कि परखनली में रखे स्क्रबर पर ज़ंग लगना शुरु  हो गई है। करीब एक-दो घण्टे में परखनली में पानी भी चढ़ने लगेगा। दो दिन बाद स्क्रबर पर काफी मात्रा में ज़ंग लगी दिखाई देगी और परखनली में पानी भी काफी चढ़ा हुआ दिखाई देगा।

यहाँ स्क्रबर पर ज़ंग लगने का मतलब है कि परखनली की हवा में मौजूद ऑक्सीजन का उपयोग करते हुए लौह ऑक्साइड बन रहा है। परखनली की हवा में से ऑक्सीजन की खपत की वजह से अन्दर का दबाव कम हो जाता है और गिलास का पानी ऊपर चढ़ जाता है।

तब तक इन्तज़ार करें जब तक पानी और चढ़ना रुक न जाए। अब देखिए कि कितना पानी चढ़ा है। यह देखने के लिए करना यह होगा कि परखनली को पानी में डुबाए रखते हुए गिलास में इतना पानी और भरें कि परखनली में पानी का तल और बाहर गिलास में पानी का तल बराबर हो जाए। इस स्थिति में परखनली में पानी के तल पर निशान लगा दीजिए।

अगला कदम यह है कि पहले पूरी परखनली का आयतन निकाल लीजिए। इसके लिए परखनली को पानी से पूरी तरह से भर दीजिए। यह परखनली में कुल हवा का आयतन है। परखनली पर लगाए गए निशान तक पानी निकाल कर उसे नाप लीजिए। यह उस हवा का आयतन है जो ज़ंग लगने के दौरान खर्च हो गई।
उम्मीद है कि अब आप पता कर सकेंगे कि हवा में कितनी ऑक्सीजन है।


सुरेश अग्रवाल: स्कूली बच्चों और शिक्षकों के लिए कम लागत में प्रयोगों के मॉडल विकसित कर उन्हें लोगों के बीच प्रदर्शित करते हैं। नागपुर में निवास।
चित्रांकन: कैलाश दुबे: शौकिया चित्रकार हैं। भोपाल में निवास।