लेखक :  श्रीपर्णा
अनुवाद: अमिताष ओझा

हमारे आस-पास ऐसी बहुत-सी घटनाएँ घटती हैं जिनसे हम अक्सर अनजान रहते हैं। यह लेख ऐसी कुछ कोशिशों के बारे में है जो बच्चों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक पहलुओं का एहसास देने के लिए की गईं, ताकि बच्चे भविष्य में उनके सामने उपस्थित होने वाले द्वंद्वों एवं विकल्पों के बारे में सोच विचार कर निर्णय लेने में सक्षम बनें।

कृष्णमूर्ति विद्यालयों की शैक्षणिक गतिवधियों ने मुझे कई बार निर्धारित पाठ्यक्रम से बाहर जाने का मौका दिया है, जिससे पाठ्यक्रम और विद्यार्थियों के निजी जीवन के बीच सम्बन्ध स्थापित हो पाया - भौतिक और भावनात्मक, दोनों स्तर पर। यहाँ पर हमारे जीवन को प्रभावित करने वाली सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक शक्तियों के प्रति बच्चों को जागरूक करने का भी प्रयास किया जाता था। यह कोशिश भी की गई कि बच्चे जीवन्त घटनाओं का विश्लेषण करें, अपने आस-पास के वातावरण और लोगों के साथ अपने रिश्तों पर विचार करें। उनमें स्वतंत्र सोच-विचार की प्रक्रिया विकसित हो ताकि समय आने पर वे समझदारीपूर्ण ढंग से और स्वतंत्र रूप से विकल्प चुन पाएँ।

कई सामाजिक विषयों की समझ इतिहास और भूगोल की कक्षाओं के बाहर उभर कर आई क्योंकि प्राय: विभिन्न विषयों के बीच की सीमाएँ जीवन की एकीकृत व सम्पूर्ण समझ के मामलों में धूमिल हो जाती हैं। इस लेख का उद्देश्य मेरी ऐसी ही कुछ कोशिशों के अनुभवों को आप से बाँटना है।

पहला अनुभव
ऐसे प्रयासों से जुड़ी प्रारम्भिक घटनाओं में से एक राजघाट में घटी, लगभग एक दशक पुरानी घटना है। कृष्णमूर्ति फाउण्डेशन के इस आवासीय विद्यालय का प्रांगण गंगा और वरुणा नदी के संगम के दोनों किनारों पर लगभग 300 एकड़ में फैला है। कई बार मुझे ऐसा एहसास हुआ कि विद्यालय के बच्चों के जीवन, जो प्रमुखत: पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रतिष्ठित व्यवसायिक परिवारों से हैं और विद्यालयीन आवास में तुलनात्मक रूप से सुरक्षित और एकाकी जीवन जी रहे हैं, और वरुणा के ‘उस पार’ के जीवन के बीच काफी अन्तर है।

‘उस पार’ सराय मोहन नाम के गाँव में एक विद्यालय, एक ग्रामीण अस्पताल, बन्द पड़ा एक कृषि महाविद्यालय और पारम्परिक और प्रसिद्ध बनारसी साड़ी बुनने वाले बुनकरों का रहवास था। विद्यालय के विद्यार्थियों और बाँस के पुल के ‘उस पार’ के लोगों के बीच कोई विशेष सम्बन्ध नहीं था। बाँस का पुल भी लगभग हर बरसात के मौसम में टूट जाया करता था और लोगों को आने-जाने के लिए छोटी नावों के भरोसे रहना पड़ता था।

गाँव के लोगों के साथ सम्पर्क व बातचीत का मौका पत्रकारिता की एक कक्षा के दौरान मिला। इसमें विद्यार्थियों को अपनी रुचि या महत्व के किसी भी विषय की खोजबीन करने के लिए समय व मौका मिलता था। इस प्रकार प्राथमिक विद्यालय के बच्चों को ‘उस पार’ के लोगों के जीवन की एक झलक मिली जो कि न सिर्फ उनके पड़ोसी थे बल्कि उनके परिवारों से किसी-न-किसी प्रकार जुड़े थे। क्योंकि कई बच्चों के परिवार बनारसी साड़ी के व्यापारी थे।
गाँव आने-जाने और गाँववासियों के साथ सम्पर्क से उन्हें एक ऐसी कहानी समझ में आई जो दस-साल के, आसानी से प्रभावित हो जाने वाले बच्चों के लिए एकदम आँखें खोल देने वाली थी। उन्होंने हर साड़ी को बनाने के लिए ज़रूरी कुशलता और कठिन परिश्रम को देखा। साथ ही बुनकरों की गरीबी, दलालों पर निर्भर रहने की उनकी विवशता और उस प्रक्रिया में निहित शोषण को भी महसूस किया।

उदाहरण के लिए, बुनकर साड़ियों को मात्र 500 रुपए की दर पर दलालों के हाथ बेचते थे और वही साड़ियाँ बाज़ार में अन्तत: 5000-5000 रुपए में बिकती थीं! बुनकर साड़ियों को सीधे बाज़ार में नहीं बेच सकते थे, क्योंकि रेशम के धागों के लिए उन्हें दलालों पर ही निर्भर रहना पड़ता था। दलाल उसमें भी अच्छा खासा मुनाफा कमा लेते थे। इस में बाज़ार की शक्तियाँ और उनके अपने ही परिवारों की भूमिका स्पष्ट दिख रही थी - जो इस क्रिया-कलाप को करवाते वक्त बिलकुल भी नहीं सोचा गया था।

यही आशा की जा सकती थी कि आस-पास की इस सच्चाई की समझ इन बच्चों के हृदय के तारों को छुएगी, क्योंकि यही बच्चे आगे चलकर अपने जीवन से अन्तरंग रूप से जुड़ी इस आर्थिक सच्चाई के सहभागी बनने वाले हैं।

दूसरा अनुभव
इतिहास के एक अध्याय में दी गई कुछ जानकारी ने एक और ऐसा मौका दिया जिससे बच्चे अपनी ज़िन्दगी को सामाजिक-आर्थिक ताकतों के सन्दर्भ में देख पाएँ; और मौका आने पर समझदारी एवं सहानुभूतिपूर्वक अपना रास्ता चुन पाएँ।
यह अध्याय अलाउद्दीन खलजी की मूल्य नियंत्रण प्रणाली से सम्बन्धित था। सुल्तान राज्य की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए वस्तुओं की गुणवत्ता और मूल्य को नियंत्रित करता था। इस अध्याय ने मूल्य नियंत्रण की आवश्यकता, नियमों को लागू करने वाले अफसरों और मध्यकालीन गिल्ड (संगठन) की भूमिका जैसे कई प्रश्न खड़े किए। समकालीन स्थिति से तुलना करते हुए छात्रों को आज के समय में उत्पादों की गुणवत्ता और मूल्य नियंत्रण की आवश्यकता, संगठनों की भूमिका तथा इस पूरी प्रक्रिया में सरकार व जनता की भागीदारी और उनके उत्तरदायित्व से सम्बन्धित कई प्रश्न करने को प्रेरित किया गया।

इस खोजबीन ने बाज़ार में उपलब्ध वस्तुओं से सम्बन्धित कई और विषयों की ओर छात्रों का ध्यान खींचा: उत्पादों पर विभिन्न मानक चिन्ह (जैसे क्ष्च्क्ष्, एगमार्क, क्ष्च्ग्र्, ... आदि), उपभोक्ता संगठनों की भूमिका, अन्तर्राष्ट्रीय और स्वदेशी उत्पादों के मूल्य में अन्तर की जानकारी, किसी विशेष ब्राण्ड के प्रति हमारी आसक्ति आदि से सम्बन्धित कई प्रश्न बच्चों के सामने थे। छात्रों ने पूछा, क्या वस्तुओं की गुणवत्ता उनके मूल्य से आवश्यक रूप से सम्बन्धित है? इन में प्रयोग किए जाने वाले पदार्थ कहीं वातावरण को नुकसान तो नहीं पहुँचाते हैं? ऐसे पदार्थों की सूची में बिस्किट, अनाज, साबुन, रोज़मर्रा जीवन में उपयोग होने वाले प्रसाधन इत्यादि शामिल थे।

इन प्रश्नों ने छात्रों को ग्लोबलाइज़ेशन और अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनियों की भूमिका जैसे कई विषयों को समझने में सहायता प्रदान की। इस क्रिया-कलाप के अन्त में छात्रों ने विद्यालय को अपने सुझाव दिए और विद्यालय में मौजूद कई उत्पादों को सुरक्षित, सस्ती एवं पर्यावरण को नुकसान न पहुँचाने वाली वस्तुओं से बदलने के लिए प्रोत्साहित किया।

तीसरा अनुभव
कक्षा पाँच के बच्चे अपने आस-पास के पर्यावरण से जुड़ पाएँ इस सन्दर्भ में हाल ही में एक कोशिश उनकी अँग्रेज़ी की पुस्तक के एक अध्याय ‘नर्मदा’ के ज़रिए की गई। नर्मदा की पौराणिक पृष्ठभूमि और नदी की भौगोलिक यात्रा के अतिरिक्त अध्याय में नर्मदा बाँध और उससे सम्बन्धित विवाद का भी वर्णन था। बाँध की आवश्यकता व इसकी उपयोगिता के साथ-साथ स्थानीय लोगों पर पड़ने वाले इसके असर जैसे कई प्रश्न सामने आए।

इस अध्याय ने विद्यालय से 6-7 किलोमीटर दूर स्थित ‘चस्कामान’ बाँध को देखने का बेहतरीन मौका दिया। विद्यार्थियों ने बाँध की कार्यप्रणाली और उसके निर्माण से सम्बन्धित स्थानीय कारणों को जानने के अतिरिक्त कहानी के दोनों पहलुओं को सुना। एक वहाँ कार्यरत अफसरों से और दूसरा दुखद पहलू विद्यालय के कुछ कर्मचारियों से, जो वास्तव में उन प्रारम्भिक लोगों में से थे जिन्हें 10 साल तक बाँध का विरोध करने के बावजूद विस्थापित होना पड़ा था। उनमें से कुछ लोगों को आज तक मुआवज़ा नहीं मिला, जिसका सरकार ने वादा किया था। इस पूरी प्रक्रिया ने बच्चों को नर्मदा बाँध से सम्बन्धित विषयों को सहानुभूतिपूर्वक महसूस करने में सहायता की।

बुनियादी तौर पर बच्चे विकास के कई छुपे पहलुओं, राजनीतिक निर्णयों से जुड़े विवाद और उनके लिए किसी और के द्वारा चुकाई गई कीमत तथा अन्याय के विरुद्ध उठाई जाने वाली आवाज़ से अवगत हुए। इन सब से परे यह पूरी प्रक्रिया इन बच्चों को शायद यह अनुभव कराएगी कि आमतौर पर सुनने के लिए एक से अधिक आवाज़ें और जानने के लिए एक से अधिक सच्चाइयाँ होती हैं। साथ ही यह आवश्यक है कि हम न सिर्फ अतीत की घटनाओं को देखने के लिए अपितु अपने आस-पास की घटनाओं को समझने के लिए भी इस बात को याद रखें और वस्तुनिष्ठ सच्चाई तक पहुँचने की कोशिश करें।


श्रीपर्णा: कृष्णमूर्ति फाउण्डेशन के राजघाट स्कूल से शुरू करके लगभग बीस वर्षों तक विभिन्न तरह के नवाचारी स्कूलों में पढ़ाती रही हैं। वर्तमान में फाउण्डेशन के पुणे के पास स्थित सहयाद्री स्कूल में पढ़ा रही हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: अमिताष ओझा: इन्टरनेशनल इन्स्टिट्यूट ऑफ इन्फर्मेशन टेक्नोलॉजीे, हैदराबाद में संज्ञानात्मक विकास यानी कोग्निटिव डिवेलपमेन्ट को लेकर शोधरत।
चित्र: कनक एवं जीतेन्द्र।