लेखक :  सोनाली बिस्वास
अनुवाद: प्रेमपाल शर्मा

महत्वपूर्ण यह भी है कि बच्चों की किताब बच्चों की कल्पना को खूब उड़ने दे। तभी वे इस दुनिया की बेहतर झलक से परिचित होंगे। इस तरह से मिली खुशी बच्चों को वैसी ही दुनिया बनाने को प्रेरित करेगी।

बच्चों को कहानियों में मज़ा आता है। कहानियाँ उन्हें दुनिया को समझने में मदद करती हैं, उसे ज़्यादा रोचक बनाती हैं। लेकिन बच्चे शब्दों को तो बाद में समझते हैं, पहले वे उस भाषा से सम्बन्ध बनाते हैं जो उन्हें नज़र आती है। इसलिए बच्चों द्वारा अपने आस-पास की दुनिया को जानने-समझने के लिए चित्रों की किताबें बहुत महत्वपूर्ण हैं।

बच्चों की किताबों में चित्रांकन का उद्देश्य कहानी को पूरा करना मात्र नहीं है और न ही उसकी जगह लेना है। कहानी और चित्रांकन दोनों का अपना स्थान है और बच्चे दोनों का लुत्फ उठाते हैं। इसीलिए एक अच्छा चित्रकार कहानी के वर्णन तक सीमित नहीं रहता बल्कि उसमें चित्रों से इज़ाफा करता है। कहानी में जो कुछ भी है उसकी तस्वीरें तो बच्चे के ज़ेहन में बनेंगी ही। इसलिए चित्रकार का काम बच्चों की कल्पना को कोई विरोधी दिशा देना नहीं है बल्कि एक माहौल पैदा करना है और बच्चों के लिए एक समानान्तर अनुभव बनाना है। लिखित शब्दों के साथ मिलकर ऐसे चित्र आनन्द की अद्भुत सृष्टि करते हैं।

वैसे भी चित्रों की किताब में शब्द और चित्र कभी भी एक-सा अहसास नहीं दे सकते। विशेषकर, जब चित्रकार और लेखक अलग-अलग हों। चित्रकार किताब पढ़ता है और उसे अपने ढंग से समझता है। यदि किताब का लेखक उसका चित्रकार भी है, तब भी दोनों का अनुभव एक-सा नहीं हो सकता। मैं जब चित्रांकन करती हूँ तो मन में किसी चमत्कार का इन्तज़ार भी रहता है और पहले से ही सब कुछ सोच लेने की बजाय मैं चित्रों को खुद-ब-खुद रास्ता बनाने देती हूँ।

कॉमिक्स और बच्चों की इन किताबों के चित्रांकन में यह अन्तर है कि जहाँ कॉमिक्स की पूरी कहानी का चित्रांकन किया जाता है, वहीं चित्रों की किताब में उसके कुछ हिस्सों का ही चित्रांकन होता है। यानी कहानी की हर बात, हर अनुभव का चित्रांकन करने की ज़रूरत नहीं है। इसकी बजाय बहुत धीरे-से बच्चे की रचनात्मकता को जगाने की ज़रूरत है, जहाँ से उड़ान लेकर वह बच्चे की कल्पना को पकड़ सके। ऐसे चित्रों की वजह से किताब एक गहरे और निजी अनुभव में तब्दील हो जाती है। जैसे बड़े अपनी पसन्दीदा किताब का चुनाव इस बात से करते हैं कि वह उनके अनुभवों से जुड़ती हो, इसी तरह बच्चे भी उन किताबों को ज़्यादा पसन्द करते हैं जो उनसे लेन-देन करती हों।

यह बहुत महत्वपूर्ण है कि बच्चों की किताब में चित्रांकन ऊँचे स्तर का हो। चित्रांकन करते वक्त बच्चों की प्रतिभा को कम करके नहीं आँकना चाहिए। बच्चे अच्छी और बुरी कला में फर्क को समझते हैं। कहने का मतलब यह नहीं कि वे संरचना या तथ्यों के आधार पर गलत-सही का फैसला कर सकते हैं। परन्तु कोई चित्र रंग, रूप या अभिव्यक्ति के आधार पर अच्छा असर पैदा कर सकता है या नहीं, यह वे बखूबी समझते हैं।

कुछ चित्रकार चित्रों को ज़्यादा प्रातिनिधिक और प्रकृति-विषयक बनाने की कोशिश करते हैं। वे उन्हें आकार-प्रकार और दृष्टिकोण में बाहरी दुनिया के करीब लाना चाहते हैं। चित्रकार के पास इस तरह का ज्ञान होना अच्छी बात है, लेकिन छोटे बच्चों के सन्दर्भ में चित्रकार को इस सीमा में बँधने की बजाय उससे आगे जाने की ज़रूरत है। छोटे बच्चे तथ्यात्मक गलत-सही की परवाह ज़्यादा नहीं करते। पर बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं उन्हें इसकी ज़रूरत महसूस होने लगती है और वे चीज़ों को उनके बाहरी रूप-रंग से पहचानने लगते हैं। बड़े बच्चों की किताबों में इसीलिए चित्र तथ्यात्मक रूप से ज़्यादा सही बनाए जाते हैं। वयस्कों की किताबों में चित्र नहीं दिए जाते क्योंकि वयस्क बनने की प्रक्रिया में बच्चे बाहरी दुनिया के इतने अनुभवों से गुज़र चुके होते हैं कि उन्हें किसी विचार या स्थिति को समझने के लिए चित्रों की ज़रूरत नहीं रह जाती।
मेरी जानकारी में कुछ सर्वश्रेष्ठ चित्रकार वे हैं जिन्हें कोई विधिवत प्रशिक्षण नहीं मिला। ये किसी नियम या तकनीक के गुलाम न होकर अपने विवेक या आनन्द की अपनी अनुभूति पर ज़्यादा यकीन करते हैं।

बच्चों की किताब में चित्र सुरुचि और सौन्दर्यबोध की उनकी शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बड़े होकर वे बेहतर ढंग से अच्छी या बुरी कला को पहचान सकते हैं। और यह बात पूरे परिवेश को प्रभावित करती है। एक नागरिक के रूप में सौन्दर्यबोध की अच्छी समझ लेकर वे पूरे परिवेश को ज़्यादा सुन्दर और सद्भावपूर्ण बनाएँगे और ऐसी ही अपेक्षा दूसरों से भी करेंगे।

महत्वपूर्ण यह भी है कि बच्चों की किताब बच्चों की कल्पना को खूब उड़ने दे। तभी वे इस दुनिया की बेहतर झलक से परिचित होंगे। इस तरह से मिली खुशी बच्चों को वैसी ही दुनिया बनाने को प्रेरित करेगी। मुझे याद है, बचपन में किसी किताब के खूबसूरत चित्र मेरे ज़ेहन में अटक जाते थे। मुझे वे चित्र या उनके अंश अभी भी याद हैं जबकि किताबों को मैं भूल चुकी हूँ। कभी-कभी मैं उन अनुभवों के पुनर्सृजन की कोशिश करती हँू। अब वे किताबें या सन्दर्भ मेरे पास नहीं हैं, इसलिए मैं खुशी की उस अनुभूति पर निर्भर करती हूँ जो उस वक्त मुझे हुई थी। इस प्रक्रिया में बहुत नई चीज़ें बन जाती हैं जो मुझे सुकून और खुशी देती हैं। चित्रकार को अपनी रचनात्मकता को खुला छोड़ने की ज़रूरत है जिससे कि दुनिया की सम्भावनाएँ बच्चे के सामने खुल सकें।

कला और सौन्दर्य के बारे में बात करते हुए यह जोड़ना चाहूँगी कि ज़्यादातर ललित कलाओं की शुरुआत मन्दिरों, गिरजाघरों या न्यायालयों में बनाए गए चित्रों से हुई है। इनमें से ज़्यादातर चित्र धार्मिक आख्यानों के थे। इनका उद्देश्य आम आदमी को ईश्वर, देवी-देवताओं, राजाओं, धर्म गुरुओं, उनके जीवन और उपदेशों आदि से परिचित कराना था। इनमें उन घटनाओं को चित्रित किया जाता था जो किन्हीं नैतिक मूल्यों को दर्शाती थीं। लेकिन इनके पीछे कोई-न-कोई कहानी ज़रूर होती थी। चित्र, मूर्तियाँ, स्थापत्य, सभी लोगों की कल्पना को बढ़ावा देते थे और उनमें डर, श्रद्धा, भक्ति या दया पैदा करते थे। लेकिन इन सबके पीछे मनुष्य का अनुभव हर हालत में होता था।
मैंने लोगों को इस बात पर हैरान होते देखा है कि जब बच्चे किसी चित्र को देखकर पूछते हैं कि यह सचमुच के प्राणी से अलग क्यों है, तो क्या जबाव दें। मेरी समझ से चित्रों की ज़रूरत ही इसलिए है ताकि उनके माध्यम से बच्चे उस अनुभव से गुज़रें जिसके बारे में पहले उन्होंने सोचा भी नहीं था, वरना फोटो से ही काम चल जाता। परन्तु कभी-कभी सच कहानी से भी ज़्यादा विचित्र लगता है। दुनिया में समुद्री ड्रेगन जैसे न जाने कितने जीव-जन्तु और अन्य वस्तुएँ हैं, जिन्हें देखकर यकीन नहीं होता। ऐसी अनजान, अजूबी चीज़ों के बारे में खुशी-खुशी बताकर हम बच्चों को कई अन्य अनोखी चीज़ों को स्वीकार करने की शिक्षा दे सकते हैं।

जब किताबें खरीदने की बारी आती है तो ज़्यादातर यह अभिभावक या माँ-बाप ही करते हैं। इसीलिए बच्चों की बहुत-सी किताबें इन वयस्क खरीददारों को लक्षित होती हैं। नतीजतन महाकाव्यों, आख्यानों और लोक कथाओं पर आधारित बच्चों की कई किताबों में प्रकृतिवादी चित्र होते हैं। सम्भवत: इसका कारण यह है कि पश्चिमी संस्कृति और मूल्यों से आक्रान्त माँ-बाप अपने बच्चों को अपनी परम्पराओं और मूल्यों की याद दिलाना चाहते हैं। हालाँकि इनमें से ज़्यादातर किताबें सूझ-बूझ वाली और मज़ेदार हैं, जानवरों से सम्बन्धित कई कथाएँ ऐसी भी हैं जो पुराने और दकियानूसी मूल्यों से भरी हैं। बच्चों को और भ्रमित होने से बचाने के लिए हमें दोनों ही संस्कृतियों की अति से बचते हुए एक सन्तुलन स्थापित करने की ज़रूरत है।

भारत लोक कलाओं की दृष्टि से भी बहुत सम्पन्न है। इनमें वह भोलापन और सहजता है जैसी बच्चों के चित्रों में होनी चाहिए। इन्हें लेकर कुछ प्रयोग किए जाएँ तो ये भी बच्चों की किताबों में चित्रांकन का महत्वपूर्ण स्रोत बन सकती हैं।
मैं यह कहकर अपनी बात समाप्त करूँगी कि बच्चों के लिए लाजवाब किताबें बनाने के लिए हमारे पास सभी साधन हैं -- ऐसी किताबें जो दुनिया भर के और सभी तरह के बच्चों से सम्बन्ध बना सकें, और जो अपनी खासियतों के साथ इतनी मौलिक हों कि उन्हें अलग से पहचाना जा सके।


सोनाली बिस्वास: चित्र कला (कला का इतिहास) में कला भवन विश्वविद्यालय, शान्तिनिकेतन से स्नातक और एम. एस. विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर। दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट में कुछ समय अध्यापन के बाद सन् 2000 से बच्चों की पुस्तकों के लिए स्वतंत्र रूप से चित्रकारी कर रही हैं। दिल्ली में रहती हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: प्रेमपाल शर्मा: रेलवे बोर्ड में संयुक्त सचिव हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लम्बे समय से लेखन। शिक्षा के प्रचार-प्रसार में गहरी रुचि। दिल्ली में निवास।
सभी चित्र: सोनाली बिस्वास
यह लेख दिसम्बर 2006 में एकलव्य द्वारा भोपाल में आयोजित ‘इलस्ट्रेशन्स इन चिल्ड्रन्स बुक्स’ सेमिनार में सोनाली बिस्वास द्वारा दिए गए व्याख्यान पर आधारित है। इस सेमीनार की रिपोर्ट के लिए एकलव्य, भोपाल से सम्पर्क करें।