गीता जोशी

यदि बच्चों से साँस लेने में इस्तेमाल होने वाली गैसों के बारे में बातचीत की जाती है तो वे अक्सर एक ही बात बोलते हैं, “हम साँस लेते समय ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं और साँस छोड़ते वक्त कार्बन डाईऑक्साइड गैस निकालते हैं|” हाल ही में, मैं एक विद्यालय गई तो अध्यापक बच्चों से इसी विषय पर बात कर रहे थे| उन्होंने भी बच्चों को यही बात बताई कि हम साँस लेते वक्त ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं और साँस छोड़ते हुए कार्बन डाईऑक्साइड गैस उत्सर्जित करते हैं, व ऑक्सीजन प्राण वायु है जो हमें जीवित रखती है|
बच्चों के साथ-साथ शिक्षक साथी भी इस कथन पर बहुत अच्छे से जम चुके होते हैं जिसकी एक वजह है कि हमारी पाठ्यपुस्तकों में भी यह बात बहुत बड़े-बड़े शब्दों में लिखी जाती है, जो बुनियादी रूप से यकीनन गलत तो है परन्तु सम्पूर्ण रूप से नहीं| मुझे लगा कि जब ऑक्सीजन पर शिक्षक द्वारा बात की ही जा रही है तो क्यूँ न मैं भी बच्चों के साथ इसी विषय पर कुछ बातचीत कर लूँ|
 
बच्चों से ऑक्सीजन पर चर्चा
मैंने सबसे पहले बच्चों के सामने यह प्रश्न रखा कि क्या हमें ऑक्सीजन दिखाई देती है? बच्चों ने जवाब दिया, “नहीं|” मैंने फिर पूछा, “तो फिर हम यह कैसे कह सकते हैं कि हमने श्वसन प्रक्रिया के दौरान जो गैस ग्रहण की है, वह ऑक्सीजन गैस ही है?” इस पर एक बच्ची बोली, “दीदी, हमारे फेफड़े सिर्फ ऑक्सीजन गैस ही ग्रहण कर सकते हैं और कोई गैस नहीं|”
मैंने एक बार फिर अपने सवाल को थोड़ा सरल करने की कोशिश की और कहा, “यह बात तो मुझे समझ आ गई कि हमारे फेफड़े सिर्फ ऑक्सीजन गैस ही ले सकते हैं पर मैं यह जानना चाह रही हूँ कि जब हम साँस लेते हैं तो हमें कैसे पता कि जो गैस हम ग्रहण कर रहे हैं, वह सिर्फ ऑक्सीजन ही है क्योंकि अभी आप सभी ने बोला कि ऑक्सीजन गैस तो दिखती ही नहीं है?”
अब बच्चे शायद मेरी बात समझ चुके थे| एक बच्चा बोला, “दीदी, जब हम साँस लेते हैं तो सारी गैसें ही अन्दर लेते हैं और ऑक्सीजन गैस हमें दिखाई थोड़ी देती है। इसलिए जो बात कुसुम (पहली बच्ची) कह रही थी, वह सही है कि हमारे फेफड़े ऑक्सीजन गैस को रख लेते हैं और बाकी गैस बाहर निकाल देते हैं|” मैंने बोला, “लेकिन अभी तो तुम सब बोल रहे थे कि सिर्फ कार्बन डाईऑक्साइड गैस निकालते हैं|”

इस पर एक बच्चे (अरमान) ने कहा, “दीदी, क्या मैं एक प्रश्न पूछ सकता हूँ?” मैंने बोला, “हाँ, क्यों नहीं|” उसने पूछा, “हमें यह कैसे पता चलेगा कि जो गैस हमारे फेफड़ों ने अन्दर ली है, वह ऑक्सीजन गैस ही है?” दरअसल, यह प्रश्न आना बहुत ही स्वभाविक है और मुझे खुशी हुई कि बारह बच्चों की कक्षा में से एक बच्चा इस प्रश्न तक पहुँच पाया| मैंने उस बच्चे को थोड़ा रुकने के लिए बोला क्योंकि इस प्रश्न का जवाब आगे होने वाली बातचीत से अपेक्षित था|
मैंने बच्चों से कहा, “क्या एक बात तुम मुझे समझा सकते हो?” बच्चे बोले, “हाँ दीदी, ज़रूर, अगर हमें पता हो तो|” मैंने कहा, “मैंने बहुत-सी फिल्मों में देखा है और बहुत-से डॉक्टर भी मानते हैं कि यदि कोई व्यक्ति पानी में डूब जाता है और कोई दूसरा व्यक्ति उसे बाहर निकालकर माउथ-टू-माउथ साँस दे तो वह डूबा हुआ व्यक्ति ठीक भी हो जाता है। क्या तुमने भी कभी ऐसा देखा है?” बच्चे मुस्कुराते हुए बोले, “हाँ दीदी, हमने भी देखा है|” मैंने फिर पूछा, “मुझे यह समझ नहीं आता कि अगर हम सिर्फ कार्बन डाईऑक्साइड गैस छोड़ते हैं तो फिर हम किसी दूसरे व्यक्ति की जान बचाने के लिए उसे ऑक्सीजन कैसे दे सकते हैं?”

इस पर शिक्षक भी सोचने लगे और उन्होंने कहा, “इस बात को तो मैंने भी इस तरीके से कभी नहीं सोचा|” बच्चे बोले, “हो सकता है कि जो गैस हम छोड़ रहे हैं उसमें कुछ मात्रा ऑक्सीजन की भी हो|” अब बच्चे धीरे-धीरे उस बिन्दु पर पहुँच रहे थे जहाँ मैं उनको पहुँचाना चाह रही थी| अब यह प्रश्न बनता है कि ऑक्सीजन की यह मात्रा कहाँ से आई होगी और क्या हम ऑक्सीजन के अलावा कोई और गैस भी छोड़ते हैं|
बच्चों ने जवाब दिया, “जब हम साँस लेते हैं तो हवा में मौजूद सारी गैसों को ग्रहण करते हैं जिसमें ऑक्सीजन की कुछ मात्रा फेफड़े द्वारा सोख ली जाती है और कुछ मात्रा बाकी गैसों के साथ बाहर निकाल दी जाती है|” एक बच्चे ने कहा, “जब हम साँस लेते हैं, उस समय बहुत प्रकार की गैसें हम अन्दर लेते हैं, तो शायद कुछ गैसों के आपस में मिलने से ऑक्सीजन या कोई अन्य गैस बनती हो|” तब एक और बच्चा बोला, “चूँकि कार्बन डाईऑक्साइड गैस फेफड़े द्वारा ग्रहण नहीं की जा सकती है तो वह पूरी-की-पूरी बाहर निकाल दी जाती है और उसकी मात्रा ऑक्सीजन गैस से ज़्यादा होती होगी|” यहाँ पर मैंने बच्चों से एक और प्रश्न किया, “छोड़ी गई गैस में कार्बन डाईऑक्साइड गैस ज़्यादा है, इस बात की पुष्टि कैसे कर सकते हैं?” इस बात का बच्चों के पास जवाब नहीं था|

एक प्रयोग
मैंने बच्चों से एक प्रयोग करने को कहा, “हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि श्वसन के दौरान छोड़ी गई गैस में कार्बन डाईऑक्साइड गैस की मात्रा ज़्यादा होती है क्या।” सभी बच्चे तैयार हो गए| बच्चों को सबसे पहले चूने के पानी का घोल बनाना था जिसके लिए बच्चों ने विद्यालय की रंगाई-पुताई के लिए आए चूने का उपयोग किया| उन्होंने आधा चम्मच चूने को आधे गिलास से थोड़े ज़्यादा पानी में डालकर उसे अच्छे तरीके से घोल लिया| उसके बाद चूने के घोल को कुछ समय के लिए छोड़ दिया| कुछ समय के बाद निथारकर चूने के पानी की कुछ मात्रा को बच्चों ने परखनली में भर लिया और एक स्ट्रॉ की सहायता से साँस को उस परखनली में छोड़ना शुरू किया| बच्चों को यह अवलोकन करना था कि चूने के पानी के साथ क्या होगा।

बच्चों के अवलोकनों में यह बात सामने आई कि चूने का पानी सफेद यानी दूधिया रंग का हो गया| शिक्षक ने कहा, “यह अवलोकन इस बात की पुष्टि करता है कि साँस छोड़ते वक्त कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा काफी होती है क्योंकि जो प्रयोग अभी आप सभी ने किया, वह कार्बन डाईऑक्साइड गैस की उपस्थिति को सिद्ध करने का प्रयोग था|”
इस पर एक बच्चा बोला, “क्या हम इस चूने के पानी को पेड़ के पत्तों पर बाँधकर देख सकते हैं कि वे अभी कौन-सी गैस छोड़ रहे होंगे?” बच्चों ने ऐसा ही किया और उनके अवलोकनों में यह आया कि चूने का पानी जैसा था, वैसा ही बना रहा, कुछ भी नहीं बदला। इसका मतलब पेड़ अभी कार्बन डाईऑक्साइड गैस नहीं छोड़ रहे हैं और अगर छोड़ भी रहे हैं तो उसकी मात्रा काफी कम है|

मैंने अरमान से जानना चाहा कि उसे प्रश्न का जवाब मिला या नहीं। उसने कहा, “दीदी, मुझे मेरे प्रश्न का जवाब मिल गया|” मैंने बात जारी रखते हुए कहा, “क्या तुम बाकी बच्चों को समझा सकते हो?” अरमान बोला, “हाँ, जब हमने साँस लेते वक्त हवा ग्रहण की तो उसमें सभी प्रकार की गैसें उपस्थित थीं और जो गैसें हमने बाहर निकालीं, उसमें कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा कुछ अधिक थी| इसका मतलब तो यही हुआ न कि अन्दर ली गई साँस में से जो गैस हमारे फेफड़ों ने ग्रहण की, वह ऑक्सीजन ही है और बढ़ी हुई कार्बन डाईऑक्साइड के साथ अन्य गैसें व कुछ मात्रा ऑक्सीजन की भी बाहर निकाल दी गई|”
बच्चों ने एक बहुत ही शानदार अवलोकन और किया जो मैंने भी नहीं सोचा था। उन्होंने बोला, “दीदी, पत्तियों पर बाँधे चूने के पानी में पानी की मात्रा पहले से कुछ बढ़ गई है, ऐसा क्यूँ?” मैंने बच्चों को इस प्रश्न (वाष्पोत्सर्जन प्रक्रिया) के साथ छोड़ा और इस पर सोचने को कहा और बोला, “जब हम अगली बार मिलेंगे तो इस पर बात करेंगे|”

गीता जोशी की बच्चों के साथ चर्चा पर आधारित इस लेख में एक महत्वपूर्ण आयाम और जुड़ा हुआ है कि चाहे छोड़ी हुई साँस का चूने के निथरे हुए पानी पर असर देखना हो या फिर पेड़ों की पत्तियों पर पॉलीथीन बैग में चूने का पानी भरकर बाँधने का प्रयोग हो – इन सबमें तुलना का प्रावधान (कन्ट्रोल) रखना बहुत ही ज़रूरी है। यानी कि जब छोड़ी हुई साँस को स्ट्रॉ के ज़रिए निथरे हुए चूने के पानी में से गुज़ारें, तो साथ ही यह भी करना होगा कि सामान्य वातावरण की हवा को भी एक दूसरे गिलास में चूने का पानी भरकर उतने ही समय के लिए गुज़ारें। तभी हम पक्के तौर पर कह सकते हैं कि आसपास की हवा की तुलना में, साँस से छोड़ी हुई हवा में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा ज़्यादा है।

साथ ही, ये प्रयोग साँस में छोड़ी गई हवा में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा के बारे में ज़रूर कुछ संकेत देते हैं, परन्तु साँस में अन्दर ली गई एवं छोड़ी गई हवा में ऑक्सीजन की मात्रा में क्या बदलाव होता है, उनके बारे में कुछ नहीं बताते। इसकी जाँच के लिए पाठक कुछ और प्रयोग सुझा सकें तो अन्य सब को भी इस सम्बन्ध में कुछ सुझाव और विचार मिलेंगे।
इस विषय पर संदर्भ के अंक-89 में प्रकाशित लेख क्या रात में पेड़ के नीचे सोना ठीक है? और अंक 117 में लेख गाय, पीपल और तुलसी में श्वसन भी देखें।


- सम्पादक मण्डल


गीता जोशी: रसायन विज्ञान में स्नातकोत्तर। वर्तमान में अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, उधमसिंह नगर में विज्ञान विषय पर काम करती हैं।
सभी फोटो: गीता जोशी।