कहानी

रघुवीर सहाय

नुक्कड़ के मकान में बढ़ई लगा हुआ था; उसने अभी-अभी एक कुन्दे में से एक तख्ता निकाला था; एक ज़रा-सा टुकड़ा लकड़ी का जो फालतू बच रहा था, किसी तरह छिटककर बरामदे से बाहर बजरी पर आ रहा।
वह काफी देर से बढ़ई की कारीगरी देख रहा था। किसी भी तरह का कौशल मोहक होता है, फिर यह कौशल तो बच्चे को पसन्द आता ही, क्योंकि वह देखता आ रहा था कि किस तरह एक बेडौल खुरदरी लकड़ी को बढ़ई की आरी ने बीच से दो कर दिया; फिर उस पर रन्दा चला। खर्र-खर्र करके देवदार के खुशबूदार लच्छे निकलते आए और चिकना-सा तख्ता निकल आया — उस पर लकड़ी के रेशे, गोल-गोल भँवरदार छल्ले, लम्बी लहरियोंदार लकीरें -- बीच में एक गाँठ - जैसे छपी हुई-सी -- उसकी तबीयत होती थी इसी तरह का काम वह खुद करे - ठोंक-पीट, मरम्मत का काम -- कोई चीज़ औज़ारों से तैयार करना।

इस टुकड़े ने उसे फौरन खींचा। वह बढ़ई के काम का न था: बच्चा उसका कुछ-न-कुछ बना लेता; उसके पास एक बच्चे की कल्पना थी जो किसी भी वस्तु में किसी भी वस्तु की प्रतिष्ठा कर सकती है।
वह पहले हिचका, फिर उसने लकड़ी का वह टुकड़ा उठा लिया और उसको उलट-पुलटकर देखते-देखते अनायास ही मैदान तक आ गया। उस चौकोर मैदान में धूप छिटकी हुई थी। धूप तक आते-आते उसका ध्यान बँट गया। बहुत-से और बच्चे मिलकर कोई खेल खेल रहे थे, उसके प्रभाव में वह भूल गया कि वह टुकड़े का क्या करने जा रहा था।
उसने लकड़ी के टुकड़े को ऊपर उछाला; चकरघिन्नी की तरह घूमता हुआ वह ऊपर गया और जब नीचे आया तो बच्चे ने उसे गोच लिया। वाह, यह भी तो एक खेल है! अब हर मर्तबा वह टुकड़े को और ऊपर उछालता और उसके उतरते वक्त डरता कि शायद इस बार रह जाऊँ, पर हर बार उसे गोच लेता।
धीरे-धीरे वह इस खेल से ऊबता जा रहा था। इस बार टुकड़ा बहुत ऊपर गया था — अपनी चौकोर शक्ल को तेज़ी-से घूमकर गोल दिखलाता हुआ और बच्चे ने सोच लिया था कि इस बार न गोच सका तो कोई हर्ज नहीं -- कि वह लकड़ी का टुकड़ा आकर उसके सिर पर खट से बोला।

खेल में नया लुत्फ आ गया -- हालाँकि, चोट ज़रूर आई होगी। वाह, यह भी तो एक खेल है! इसलिए कई बार उसने टुकड़े को अपने सर पर झेलने की कोशिश की -- इसमें होशियारी की बात यह थी कि टुकड़ा इतने ऊँचे भी न जाए कि लौटकर बहुत ज़ोर-से लगे और इतने नीचे भी न रह जाए कि अपनी चालाकी पर स्वयं ग्लानि हो।
मैं यह सोच रहा था कि इससे भी यह बच्चा ऊबा तो क्या खेल ईजाद करेगा - कहीं टुकड़े को फेंक न दे और बाकी लड़कों के साथ कोई पिटा हुआ साधारण-सा खेल खेलने न लग जाए जैसे चोर-चोर : तब तो मुझे उस बच्चे से बड़ी निराशा हो जाएगी। इतने में उसने कुछ किया जिसे देखकर तबीयत खुश हो गई।
किसी क्वार्टर में कोई मेहमान कार पर आए थे। कार वहीं खड़ी थी। वह कार के सामने खड़ा हुआ और लकड़ी को उसने निशाना साधकर कार के पार फेंका। बहुत सन्तुलन की आवश्यकता थी, इतने ही ज़ोर-से फेंकना था कि लकड़ी कार के ठीक पिछाड़ी ज़मीन पर गिरे — यह नहीं कि बहुत दूर निकल जाए। उसे इस हाथ तौलने में मज़ा आने लगा। मज़े का खेल था ही। इधर से वह फेंकता फिर दौड़कर उधर से उठा लाता।

अचानक उसे ध्यान आया कि आगे से पीछे फेंकने के अलावा टुकड़े को कार की चौड़ाई के पार भी फेंका जा सकता है -- यानी जिधर दरवाज़े होते हैं उधर से दूसरी तरफ जहाँ दरवाज़े होते हैं।
इसलिए अब यह होने लगा। मैं बोर हो रहा था — हालाँकि, होना मुझे नहीं चाहिए था -- क्योंकि खेल के इस नए सुधार में बच्चा एक नई दूरी के लिए नए सिरे से हाथ साध रहा था। पर एक बार ऐसा हुआ कि इधर से फेंककर जो वह उधर उठाने गया तो लकड़ी का टुकड़ा गायब था।
उसने आसपास सब जगह खोजा। बजरी पर। घास में। कार के नीचे झाँककर देखा। पास से गुज़रने वाले बच्चों को ताड़ा...पर लड़का तेज़ था, अचानक उसे जाने क्या समझ में आया कि वह कार के सामने आया और बफर पर पैर रखकर ऊपर चढ़ने लगा।

बफर से हेडलाइट पर और हेडलाइट से वह हुड पर आ गया। हुड पर खड़े होकर उसने ताली बजाई और थोड़ा-सा कूदा भी, सम्हालकर। लकड़ी का टुकड़ा कार की छत पर निश्चिन्त रखा हुआ था।
उसने हाथ बढ़ाकर देखा, हाथ छोटा रह जाता था। अब आगे चढ़ने में हिम्मत की ज़रूरत थी - मगर हिम्मत उसमें थी, सो वह ढलुवाँ विण्डस्क्रीन पर से छत पर चढ़ गया। मुझे उसकी गोरी-गोरी टाँगों और कत्थई जूतों को विण्डस्क्रीन पर फिसलते देखकर खूब हँसी आई। बच्चे ने अपना खिलौना उठाया और फिर हुड पर वापस आ गया।
धूप बड़ी प्यारी थी। हल्की-हल्की हवा थी जैसे धूप को उड़ा ले जाएगी। हर चीज़ चमक रही थी और हरियाली खास तौर से। वह बिना धारियों वाला लाल ऊनी निकरवाकर पहने हुए उस बड़ी-भारी ऊँची मशीन पर खड़ा था और धूप में उसका गोरा रंग, भूरे बाल और भोली आँखें तस्वीर जैसी लग रही थीं। मुझे तो वह दूर से यों प्यारा लग रहा था, पता नहीं उसे क्या इतना अच्छा लगा कि वह हुड पर से उतरा ही नहीं, ऊँचे पर से मैदान को देखता रहा जहाँ और बच्चे खेल रहे थे। लकड़ी का टुकड़ा और उसके सीधे-सादे खेल उसे भूल गए थे।


रघुवीर सहाय (1929-1990): समकालीन हिन्दी कविता के संवेदनशील कवि रहे हैं। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर में हुआ था। लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. अँग्रेज़ी की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके पश्चात वे पत्रकारिता क्षेत्र में कार्य करने लगे और ‘प्रतीक’, ‘वाक’ और ‘कल्पना’ पत्रिकाओं के सम्पादक मण्डल के सदस्य रहे। सन् 1971 से 1982 तक प्रसिद्ध पत्रिका ‘दिनमान’ के सम्पादक रहे। कुछ समय तक आकाशवाणी में ऑल इंडिया रेडियो के हिन्दी समाचार विभाग से भी सम्बद्ध रहे। इनको कवि के रूप में ‘दूसरा सप्तक’ से विशेष ख्याति प्राप्त हुई। साथ ही, ‘साहित्य अकादमी सम्मान’ से सम्मानित।
सभी चित्र: शैलेश गुप्ता: आर्किटेक्ट और चित्रकार जो आज भी बचपन को संजोए रखना चाहते हैं। एमआईटीएस, ग्वालियर से आर्किटेक्चर की पढ़ाई। कहानियाँ सुनने और सुनाने का शौक है। भोपाल में रहते हैं।