वीना कपूर व दिव्या उमा

वे बहुत नन्हीं तो होती हैं लेकिन मकड़ियों का जीवन भी हमारी तरह अत्यन्त नाटकीय होता है। मकड़ियों को यह तय करना होता है कि वे अपने जाले कहाँ बनाएँ और भोजन कहाँ खोजें। कैसे अपने शत्रुओं से बचें, सम्भावित जोड़ीदार को कैसे ढूँढ़ें और कैसे अपने शिशुओं का ख्याल रखें। है न दिलचस्प? आइए, हमारे साथ मकड़ियों के दिलचस्प संसार को खोजिए।


मकड़ियाँ हमारी अनेक अनुभूतियाँ जागृत करती हैं। बालों से आच्छादित, लोमहर्षित करने वाली, आठ पैरों वाली टेरेनट्यूलस का भय, घर के घृणास्पद जाले जिन्हें समय-समय पर साफ करना पड़ता है, या कॉमिक हीरो स्पाइडरमैन जो अपनी कलाई से रेशम निकालता है और अनेक ज़िन्दगियाँ बचा लेता है।
मकड़ियाँ जन्तुओं के एक विशाल समूह में आती हैं जिसे ऑर्थोपोडा में वर्गीकृत किया गया है। (ग्रीक: ऑर्थो = संधियुक्त; पोडा = पैर) आठ पैरों वाली एवं दो विषदन्त वाली जो अपने शिकार को विष से अचेत कर दे। उनके कुछ नज़दीकी रिश्तेदारों में बिच्छू, व्हिप स्कॉर्पियन्स, माइट्स, टिक्स तथा हारवेस्टमेन सम्मिलित हैं।

बॉक्स-1: मकड़ियों का रेशम कितना मज़बूत?

मकड़ियों का रेशम बहुत मज़बूत होता है - आपने शायद इससे सम्बन्धित एक लोकोक्ति सुनी भी होगी – ‘मकड़ी के रेशम जैसा मज़बूत’। कुछ प्रकार की मकड़ियों के जाले तोड़ने में तो उसके बराबर लिए गए केबतार (स्टील के समान कृत्रिम रेशा) की तुलना में पाँच गुना ज़्यादा ताकत की आवश्यकता होती है। मकड़ियों के रेशम को इसकी तन्यता तथा खिंच सकने का गुण इतना मज़बूत बनाता है। पिछले दशक में मकड़ी रेशम के जैव-चिकित्सा में उपयोग पर बहुत काम हुआ है।
जेनेटिक इंजिनियरिंग तकनीकों के माध्यम से शोधकर्ताओं ने रेशम उत्पादन करने वाले मकड़ी के जीन को पृथक करके और उसका उपयोग बैक्टीरिया तथा स्तनधारियों की कोशिकाओं में रेशम उत्पादन के लिए किया है। वैज्ञानिक अब मकड़ियों के रेशम की नकल करके कृत्रिम रेशम बनाने के लिए प्रयासरत हैं। मकड़ियों के रेशम को आधुनिक चिकित्सा में प्राकृतिक बहुलक के रूप में तंत्रिका कोशिकाओं एवं उपास्थि को पुन:विकसित करने के काम में लाया जाता है।

अपनी प्रजातियों की अत्यधिक विविधता के लिए विख्यात मकड़ियाँ विश्व में लगभग हर जगह (एंटार्टिका को छोड़कर) और हर प्रकार के आवास में पाई जाती हैं। अब तक वैज्ञानिक दुनियाभर में मकड़ियों की 45,000 से अधिक प्रजातियाँ खोज पाए हैं। इनमें से 59 कुलों की 14,000 प्रजातियाँ भारत में ही पाई जाती हैं।
हालाँकि, ये संख्या बड़ी लग सकती है पर अधिकांश प्रकृतिविद और मकड़ी वर्गीकृतकर्ता ऐसा सोचते हैं कि मकड़ियाँ इससे भी ज़्यादा प्रकार की हैं जिनके बारे में हम अभी भी नहीं जानते। वास्तव में, दुनिया के अनेक क्षेत्रों में अभी भी मकड़ियों के नमूने इकट्ठा करना शेष है और इन इलाकों में हम कुछ ही हैं जो अनखोजी मकड़ियों की तलाश कर रहे हैं। यह स्थिति आश्चर्यजनक ही लगेगी यह जानते हुए कि विश्व के विभिन्न भागों से मकड़ियों की नई प्रजातियाँ निरन्तर खोजी जा रही हैं। एक बार खोज लेने के बाद, इन मकड़ियों का विभिन्न प्रजातियों में वर्गीकरण भी काफी चुनौतीपूर्ण काम है। मज़े की बात यह है कि अरेकनोलॉजिस्ट (मकड़ियों के अध्ययनकर्ता) उनकी पहचान तथा समूहीकरण जननांगों के परीक्षण के आधार पर करते हैं।

जाले और रेशमी धागे
सभी मकड़ियाँ रेशम उत्पन्न करती हैं, किन्तु केवल ये ही ऐसा जन्तु नहीं है जो रेशम उत्पन्न करने में सक्षम हो। रेशम कीट सहित कई कीटों में ऐसा करने की योग्यता होती है। हालाँकि, मकड़ियों के समान शायद ही कोई अन्य कीट रेशम का उपयोग इतने विभिन्न कार्यों के लिए करता हो। मकड़ियाँ रेशम का उपयोग केवल जाले बनाने के लिए ही नहीं करती हैं, किन्तु सुरक्षा के लिए तथा एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की पटरी के बतौर भी करती हैं। शिकारियों से बचने, अपने रेशम से सुरक्षात्मक आरामदायक आश्रय स्थल बनाने, लिंग-विशिष्ट रासायनिक संकेतों से नर-मादा को भाँपने तथा अण्डे की थैली को बचाने में भी ये अपने रेशम का उपयोग करती हैं।

मकड़ियों का रेशम विभिन्न प्रोटीन का जटिल मिश्रण होता है जिसे स्पाइड्रोइन कहते हैं। साथ ही, इसमें कुछ अतिरिक्त वसा, शर्करा एवं रंजक भी मौजूद होते हैं (बॉक्स-1)। यह मकड़ी के पेट के पिछले सिरे पर स्थित रेशम की ग्रन्थियों में तरल रूप में संग्रहित रहता है। रेशम ग्रन्थी एक ऐसे गुब्बारे के समान दिखती और कार्य करती है जिसमें एक लम्बी नली लगी हो। यह नली एक सूक्ष्म नोज़ल पर समाप्त होती है जिसे स्पिनरेट कहा जाता है। स्रावित होने के बाद तरल रेशम हवा के सम्पर्क में आते ही जम जाता है। मकड़ियाँ अपनी विभिन्न जोड़ी टांगों से स्पिनरेट से स्रावित रेशम को निकालकर, खींचकर जाला बुनती हैं। तो अब आप देख सकते हैं कि स्पाइडरमैन का अपनी कलाई से रेशम को निकालकर जाल फेंकना वास्तव में सत्य नहीं है। मकड़ियों के रेशम का एक और रोचक गुण है - इनका
pH अम्लीय होता है जो इसे फंगस तथा जीवाणु आक्रमण से प्रतिरक्षी बनाता है!

मकड़ियों के रेशम की मोटाई और मज़बूती जिस उद्देश्य से इसका उपयोग करना है, के अनुसार बदलती है। इस कारण, मकड़ियों में कम-से-कम छह विभिन्न प्रकार के रेशम (तथा रेशम ग्रन्थियाँ) पाए जाते हैं, प्रत्येक का उपयोग पहले बताए अनेक कार्यों में से एक के लिए होता है।

बुनकर और शिकारी
अपने शिकार पकड़ने के तरीकों के आधार पर हम मकड़ियों को दो बड़े समूहों में वर्गीकृत कर सकते हैं - वे जो भोजन का शिकार करने के लिए जाले बनाती हैं और जो शिकार करने के लिए जाले नहीं बनातीं। वे मकड़ियाँ जो जाले नहीं बनाती हैं, वे अन्य तरीकों का उपयोग करती हैं जैसे सक्रियता से पीछा करना या चुपचाप बैठना तथा छद्मावरण से शिकार को पकड़ना। इसी प्रकार की मकड़ियों में से एक तो गोंद जैसे पदार्थ को थूककर शिकार को अचेत करके पकड़ती है।
(क) बुनकरः वे जिस समूह या कुल से सम्बन्ध रखती हैं, उसके आधार पर जाला बनाने वाली मकड़ियाँ अपने शिकार को पकड़ने के लिए विविध प्रकार के जाले बनाती हैं (बॉक्स-2)। कुछ पहिए के समान जाले बनाती हैं जिन्हें ऑर्ब जाले भी कहते हैं या जाले जो छोटे शामियाने से मिलते-जुलते हों जो टेंट जाले कहलाते हैं, जबकि कुछ अन्य नाज़ुक चादर जैसे जाले बनाती हैं जो खास तौर से ओस भरी सुबह, सुस्पष्ट दिखते हैं (चित्र-1)। और कुछ मकड़ियाँ अस्त-व्यस्त रेखाओं के समूह (जैसे हमारे घर पर पाए जाने वाले कॉब जाले) जिनमें कोई स्पष्ट पैटर्न नहीं दिखता, जैसे जाले बनाती हैं।
अक्सर, केवल उन्हें देखकर आप एक तरफ बुनियादी और सरल जालों को तथा दूसरी तरफ बहुत जटिल और विस्तृत संरचनाओं वाले जालों में विभेद कर सकते हैं (बॉक्स-3)। साधारण जाले (बुनियादी ऑर्ब जालों के समान) हर दिन ताज़े बनाए जाते हैं या कभी-कभी कुछ दिनों के अन्तराल पर। कुछ मामलों में पुराने जालों की मरम्मत की जाती है या उन्हें फिर से बनाया जाता है जो इस पर निर्भर करता है कि कितनी टूट-फूट हुई है। इसके विपरीत अधिक परिष्कृत जाले जैसे टेन्ट और शीट जाले जिनमें नया बनाने में बहुत ऊर्जा और संसाधन लगते हैं, को नया बनाने की बजाय प्रायः उनकी मरम्मत की जाती है।
(ख) शिकारीः वे मकड़ियाँ जो शिकार को पकड़ने के लिए जाले का इस्तेमाल नहीं करतीं, उन्हें शिकारी मकड़ियाँ कहते हैं (चित्र-3)। अनेक शिकारी मकड़ियाँ सक्रियता से शिकार को खोजती हुई दिख जाती हैं। इसके विपरीत एकान्त में रहने वाली मकड़ियाँ शिकार करने के लिए छिपकर छद्मावरण की तकनीक अपनाती हैं (क्रेब मकड़ी के समान)। चूँकि इस समूह की मकड़ियाँ कीटों को पकड़ने में जाले का इस्तेमाल नहीं करती हैं इसलिए वे खोजने और शिकार के लिए दृश्य और कम्पन संकेतों पर निर्भर रहती हैं। परिणामतः सक्रियता से शिकार करने वाली मकड़ियों (जैसे फुदकने वाली मकड़ियाँ और वुल्फ मकड़ियाँ) की दृष्टि उनके एकान्तवासी, जाला बनाने वाले मकड़ी रिश्तेदारों
की अपेक्षा ज़्यादा बेहतर होती है (बॉक्स-4)।

बॉक्स-3: मकड़ी के हस्ताक्षर

सिग्नेचर या क्रॉस स्पाइडर वृत-जाल मकड़ियाँ होती हैं। ये कभी-कभी अपने जाले में श्वेत ज़िगज़ेग रेशम जैसी आकृतियाँ बनाती हैं। बहुत पहले से ही अमान्य सिद्धान्त कि ये संरचना जाले को स्थाईत्व देती है, के आधार पर इसे स्टेबिलिमेंटा कहते हैं। एक अन्य परिकल्पना के अनुसार इस संरचना का उपयोग अल्ट्रा वायोलेट लाइट (UV) को परावर्तित करने में किया जाता है (जो मनुष्य को नहीं दिखाई देती) जो कई प्रजातियों के कीटों को जाले की ओर आकर्षित करती है। एक परिकल्पना यह भी सुझाती है कि स्टेबिलिमेंटा का उपयोग बड़ा दिखाकर या शिकारियों (जैसे पक्षी) को डराकर मकड़ियों को बचाने के लिए होता है।
कुछ अधिक आधुनिक सिद्धान्त सुझाते हैं कि ये सिग्नेचर मादा के द्वारा नर को यह दर्शाने के लिए है कि वह प्रणय के लिए तैयार है, संकेत के रूप में उपयोग में लाए जा सकते हैं; अथवा ये केवल सुन्दर सजावट ही होती हैं।


मैं तुमसे बड़ी हूँ
नर मकड़ियाँ अधिकतर मादा मकड़ियों से छोटी होती हैं (चित्र-4)। कुछ प्रजातियों में जैसे ज्वाइन्ट वुड मकड़ी में मादा नर के आकार से 3-5 गुना तक हो सकती है! आकार में अन्तर के अलावा, वयस्क नर को मादा से, उनमें उपस्थित बड़े बल्ब के समान दिखने वाले शुक्राणु भण्डारक पाल्प से पहचाना जा सकता है।
एक बार जब नर मकड़ी वयस्क हो जाती है तो वह या तो एक अस्थाई आश्रय बनाती है या एक सम्भावित साथी की तलाश में भटकती है। जब भी उसका अपनी ही प्रजाति की मादा से सामना होता है, तब मादा का ध्यान खींचने के लिए उसे बड़ी सावधानीपूर्वक योजना बनानी पड़ती है। अगर मादा भूलवश उसे शिकार समझ ले तो सम्भव है कि उसे दबोच ले और वैसे ही लपेट ले जैसे वह एक कीट को लपेटती है। अगर नर जाला बनाने वाली मकड़ियों के कुल का हो तो वह सबसे पहले अपने आने की घोषणा विशेष प्रकार की खींचने की क्रिया करके जाले को झनझना कर करता है। यदि यह झंकार ज़रा भी गलत होती है तो वह अपना जीवन मादा का अगला निवाला बनकर खत्म कर सकता है। शिकारी मकड़ी कुलों के नरों के पास झंकार उत्पन्न करने के लिए चाहे जाले न हों, पर उन्होंने प्रणय लीला के अनेक प्रकार के अनुष्ठान विकसित कर लिए हैं जो एक फिल्मी नायक को भी ईर्ष्यालु बना दें। इसमें वे सभी तरीके शामिल हैं जैसे पैरों को फैलाकर हिलाना और नृत्य जैसी लय में हिलना-डुलना या मादा को रेशम लिपटे कीट को उपहार में देकर उसका ध्यान भटकाना जब वह सम्भोग कर रहा हो। साथ ही, ऐसी मकड़ी प्रजाति के नर अक्सर बहुत रंगीन होते हैं, क्योंकि वे एक सम्भावित प्रजनन साथी को आकर्षित करने के लिए बहुत सारे दृश्य संकेतों का उपयोग करते हैं।

बॉक्स-4: शिकारी मकड़ियों की दृष्टि, जाला बनाने वाली मकड़ियों से बेहतर क्यों होती है?

अपने विद्यार्थियों से यह प्रश्न पूछिए तथा सम्भावित कारणों पर उनसे विचार-विमर्श करिए। उसके बाद उन्हें नेत्र की व्यवस्था वाली 4 प्रकार की मकड़ियों पर ध्यान केन्द्रित करने वाली छवियाँ दिखाइए। उनसे पूछिए कि ये नेत्र जाला बनाने वाली मकड़ियों के हैं या शिकारी मकड़ियों के?

यहाँ एक नेत्र, वहाँ एक नेत्र - सभी जगह नेत्र ही नेत्र!
कुछ मकड़ी विशेषज्ञ मकड़ियों को सिर पर उपस्थित नेत्रों की संख्या एवं विन्यास के आधार पर समूहीकृत और वर्गीकृत करते हैं। अधिकतर मकड़ियों में आठ नेत्र होते हैं किन्तु कुछ में छह या उससे कम नेत्र होते हैं। हालाँकि, कीटों के संयुक्त नेत्रों के विपरीत मकड़ियों के नेत्र सरल और हमारे समान या अन्य स्तनधारियों जैसे होते हैं।
अधिकांश जाला बनाने वाली मकड़ियाँ जाले पर उत्पन्न कम्पन से दिशा ज्ञात कर शिकार को पकड़ती हैं, उनके नेत्र केवल प्रकाश-अन्धकार की तीव्रता में परिवर्तन तथा हलचल का ही पता लगा पाते हैं। इसके विपरीत अधिक सक्रिय शिकारी, जैसे फुदकने वाली, वुल्फ, जाल फेंकने वाली तथा क्रेब मकड़ियों में शिकार करने, प्रजनन साथी तलाशने तथा शिकारियों में अन्तर करने के लिए बहुत अच्छी दृष्टि होती है।

शिकार करने वाली मकड़ी के एक समूह जिसे ‘जम्पिंग स्पाइडर’ कहते हैं, की दृष्टि पर विस्तृत अध्ययन किया गया है। हमारे घरों के आसपास भी पाई जाने वाली इन काफी सामान्य, छोटी और प्रायः रंगीन मकड़ियों का नाम उनके चलने तथा शिकार का पीछा करने के तरीके पर रखा गया है। यदि आपको ऐसी मकड़ी को देखने का अवसर मिले तो इन्हें शिकार करते हुए निहारना काफी रोमांचक लगेगा। जम्पिंग स्पाइडर अपने सिर पर स्थित आठ में से छः अपेक्षाकृत छोटे पार्श्व में स्थित नेत्रों के ज़रिए थोड़ी दूर से भी हलचल का पता लगा लेती हैं। एक बार हलचल का पता चलने पर वे शिकार की ओर घूम जाती हैं और उनके सामने वाले काफी बड़े मध्य नेत्रों से शिकार का सामना करती हैं जबकि उनके शेष नेत्र शिकार के आकार, रंग तथा शिकार की दूरी के बारे में जानकारी देते हैं। फिर, वे बिल्ली की चाल से शिकार का पीछा करती हैं। जब अपने शिकार से केवल कुछ ही सेंटीमीटर दूर होती हैं, तब वे झुककर और अचानक छलांग लगाकर शिकार को झपट लेती हैं।

क्या खाती हैं मकड़ियाँ?
मकड़ियाँ मुख्यतः मांसाहारी होती हैं, विभिन्न प्रकार के कीटों के साथ ही वे अन्य मकड़ियों को भी खाती हैं। जाला बनाने वाली मकड़ियाँ अपने मज़बूत जाले से स्वयं से भी बड़े शिकार जिनमें उड़ने वाले कीट जैसे मक्खियाँ, तितलियाँ, शलभ, बीटल्स तथा मधुमक्खियाँ सम्मिलित हैं, को पकड़ती हैं (चित्र-5)। मकड़ियाँ जो जाला नहीं बनातीं, वे विविध प्रकार के कीटों जैसे मेन्टिड्स, क्रिकेट्स, चींटियों और तिलचट्टों का शिकार घात लगाकर, छुपकर या चतुराई से छद्मावरण करके करती हैं। पर बस इतना ही नहीं होता। मकड़ियों के बारे में यह रिपोर्ट भी है कि ये मिलीपीड़, टैडपोल, छोटे मेंढ़क, मछलियाँ, छिपकलियाँ और कभी-कभी दुर्घटनावश बड़े जालों में फँसे पक्षी का शिकार भी करती हैं।

मकड़ियाँ अपना भोजन पूरा नहीं निगलतीं। वे विष इंजेक्ट करके शिकार को चबाती हैं। इस विष में एंज़ाइम होते हैं जो शिकार को अन्दर से गला देते हैं, फिर उसे मकड़ी चूस लेती है। जब वे कोई बहुत बड़ा शिकार पकड़ती हैं तो उसे रेशम में लपेटकर बचाकर भी रखती हैं। जाला बनाने वाली मकड़ियों को कई बार ऐसा तेज़ी-से करना होता है जिससे शिकार की मुक्त होने के लिए की गई छटपटाहट से जाले को अधिक नुकसान न पहुँच पाए (चित्र-6)। यदि कोई शिकार न मिले तो भूखी मकड़ियाँ कभी-कभी स्वजाति भक्षण भी करती हैं (स्वयं की प्रजाति को खा जाना) या किसी अन्य प्रजाति की मकड़ी जो भी उनके समीप हो, को मारकर खा जाती हैं।

लेकिन मकड़ियों का एक समूह जिन्हें पोर्शिया मकड़ियाँ (चित्र-7) कहते हैं, बहुत कुछ किंग कोबरा की तरह होती हैं क्योंकि वे खाने के लिए केवल अन्य मकड़ियों को ही खोजती हैं! ये मकड़ियाँ प्रायः सूखे हुए कचरे के ढेर के समान दिखती हैं जो जाले बनाने वाली (कमज़ोर दृष्टि वाली) मकड़ियों से मेल खाती हैं, जिनका शिकार ये करती हैं। अनुसंधानों से पता चला है कि पोर्शिया मकड़ियाँ उल्लेखनीय बुद्धिमतापूर्ण शिकारी व्यवहार प्रदर्शित करती हैं और खाने के लिए अक्सर छल-कपट तथा फरेब के सहारे मकड़ियों को पकड़ती हैं। उदाहरण के लिए जब एक पोर्शिया मकड़ी अपने शिकार के जाले में पहुँच जाती है तब यह छटपटाते कीट या सम्भावित प्रणय साथी के नकली कम्पन या हलचल उत्पन्न करती है। जब जाला बनाने वाली मकड़ी जाँच के लिए जाल के उस हिस्से में पहुँचती है तो वह पोर्शिया द्वारा तुरन्त पकड़ ली जाती है। क्या डरावनी फिल्म के एक दृश्य जैसा नहीं लगता है यह सब कुछ?
वैज्ञानिकों के लिए यह बहुत ही दिलचस्प है कि अब हम बघीरा किपलिंगी नामक एक जम्पिंग मकड़ी की प्रजाति के बारे में जानते हैं जो प्रमुख रूप से शाकाहारी है। मध्य अमेरिका से हाल ही में खोजी गई इस मकड़ी का आहार कुछ पौधों की पत्तियों में उपस्थित शर्करा, लिपिड और प्रोटीन होता है।

बॉक्स-5: सामाजिक मकड़ियाँ

अधिकतर मकड़ियाँ अकेले शिकार करने वाली होती हैं। यदि आप दो मकड़ियों को एक डिब्बे में साथ-साथ रख दें तो बहुधा दिन समाप्त होते-होते उनमें से एक ही बचेगी। यह इस बात पर निर्भर है कि वे कितनी भूखी हैं। किन्तु कुछ मकड़ियों के परिवारों में पाया गया है कि एक ही प्रजाति की मकड़ियाँ समूह या कॉलोनी में रहती हैं और अपने साथियों के प्रति बहुत हद तक सहनशील होती हैं। इन मकड़ियों को सामुदायिक या सामाजिक मकड़ियाँ कहा जाता है।
सामाजिक मकड़ियाँ विशेष तौर पर दिलचस्प होती हैं क्योंकि वे दस से सौ सदस्यों वाली पर्याप्त बड़ी कॉलोनी में रहती हैं। वे शिकार में, जाले के निर्माण में और शिशुओं की देखभाल में सहयोग करती हैं। उनमें से कई मकड़ियाँ विशिष्ट शख्सियत वाली भी होती हैं जबकि सभी सदस्य सभी कामों को करने में सक्षम होते हैं, जैसे शिकार करना या जाले का निर्माण। कुछ सदस्य अन्य की तुलना में प्रायः कुछ विशेष कार्यों का ही निर्वहन करते हैं।

मकड़ियों को कौन खाए?
यह अजीब लग सकता है लेकिन मकड़ियों की मुख्य दुश्मन अन्य मकड़ियाँ ही हैं। बड़ी  मकड़ियाँ आम तौर पर छोटी मकड़ियों को खाती हैं तथा विभिन्न प्रजाति की मकड़ियाँ एक-दूसरे को खाती हैं। मकड़ियों के अन्य शिकारी और दुश्मनों में पक्षी, छिपकली, ततैया और प्रेइंगमेंटिस जैसे कीट सम्मिलित हैं।
वास्तव में अकेले रहने वाली ततैया की कुछ प्रजातियाँ तो विविध प्रकार की मकड़ियों, जैसे जाले बनाने वाली छोटी या शिकारी मकड़ियों से लेकर बड़ी, विशाल टेरेन्ट्यूला तक का शिकार करने में विशेषज्ञ होती हैं। शोध सुझाते हैं कि इस तरह की ततैया देखकर और रसायनिक संकेतों से मकड़ियों का पता लगा लेती हैं। एक बार पता लगने के बाद ततैया अपने शिकार को बेसुध करने वाले न्यूरोटॉक्सिन का डंक चुभाती हैं और मकड़ी के निष्क्रिय शरीर को अपने घोंसले में ले जाती हैं। जब वे एक या ऐसी और बेसुध हुई मकड़ियों को एकत्रित कर लेती हैं, तो उसके बाद किसी एक पर ततैया अण्डे दे देती हैं। जब अण्डे फूटते हैं तो मरणासन्न मकड़ियाँ ततैया के लार्वा का ताज़ा भोजन बन जाती हैं (चित्र-8)। यह सुनने में जितना वीभत्स लगता है, देखने में उतना ही मोहक होता है जब एक ततैया जैसी शिकारी, मकड़ी जैसे दूसरे शिकारी को मार गिराती है।*

शिकार होने से बचने के लिए मकड़ियाँ अनेक प्रकार से विकसित हुई हैं। कई जाले बनाने वाली मकड़ियाँ जाले के कोने में या भोंगली-नुमा पत्ती में छुप जाती हैं। अन्य, जैसे कचरे वाली ऑर्ब बुनकर मकड़ियाँ जाले में सजावट करके शिकारी को भटकाती और भ्रमित करती हैं (चित्र-9)। कुछ मकड़ियाँ जैसे गेस्टेराकेन्था (स्पाइनी ऑर्ब वीवर भी कहलाती है) में बाह्य कंकाल कँटीला एवं नुकीला होता है जिससे पक्षी जैसे शिकारियों के लिए इसे पकड़ना मुश्किल हो जाता है। ऐसा समझा जाता है कि कठोर काँटे इनके परजीवी दुश्मन ततैया को भी दूर रखते हैं।

उठो, उठो और हवा के साथ बहो!
मकड़ियों में अधूरा कायान्तरण होता है। इसका मतलब यह है कि मकड़ियाँ विकास की विभिन्न अवस्थाओं (अण्डे से लार्वा, प्यूपा, से वयस्क अवस्था) से नहीं गुज़रती हैं जैसा कि तितली करती हैं। इसकी बजाय स्पाइडर-लिंग्ज़, मकड़ी के शिशु जो वयस्क के लघु प्रतिरूप की तरह दिखते हैं, अपने अण्डे से सीधे बाहर निकलते हैं। उनके पोषण का पहला स्रोत उनके अण्डे की थैलियों का सूख चुका योक होता है। इसके तुरन्त बाद वे एक प्रक्रिया से जिसे बलूनिंग कहते हैं, के द्वारा दूर-दूर तक बिखर कर अदृश्य हो जाते हैं (बॉक्स-6)।
मकड़ियों के बच्चे नियतकालीन निर्मोचन से (अपनी पुरानी बाह्य त्वचा त्यागकर) वृद्धि करते हैं जब तक कि वे परिपक्व वयस्क नहीं बन जाते। कई कीट एवं मकड़ियों में शरीर के बाहर कायटिन की एक सख्त सुरक्षात्मक परत होती है जिसे बाह्य कंकाल कहा जाता है। साँपों की तरह, मकड़ियाँ तब तक नहीं बढ़ सकतीं जब तक कि वे इस बाह्य कंकाल को निर्मोचन (चित्र-10) के द्वारा निकाल न दें। निर्मोचन एक जोखिम भरी प्रक्रिया है, क्योंकि इस दौर एवं अवस्था में मकड़ियाँ लगभग गतिहीन रहती हैं और इसलिए शिकारियों के लिए आसान शिकार बन सकती हैं।

मैं अपने बच्चों का खयाल रखती हूँ
मकड़ियों की अनेक प्रजातियाँ किसी-न-किसी प्रकार के मातृ-रक्षण के लिए जानी जाती हैं - मादाएँ जो कई हफ्तों तक अपने मुँह में अण्डों की थैली उठाए घूमती हैं (जैसे लम्बी टाँगों वाली हाऊस स्पाइडर) और इसलिए इस अवधि के दौरान वे कुछ भी नहीं खा पाती हैं, से लेकर वे मादाएँ जिनके अण्डे की थैली स्पिनरेट या उदर पर चिपकी रहती है। मादा का एक समूह जिसे नर्सरी वेब मकड़ियों के नाम से जाना जाता है, नर्सरी के समान बड़ी रेशमी संरचनाएँ शिशुओं और अण्डे की थैली रखने के लिए बनाती हैं। मादा वूल्फ मकड़ी बच्चे निकलने तक न केवल स्पिनरेट से जुड़ी अण्डों की थैली अपने साथ लेकर घूमती है बल्कि अपने छोटे शिशुओं (बेबी स्पाइडर्स) को भी अपनी पीठ पर एक साथ सवारी कराती है। हवा द्वारा उड़ाए जाने तथा स्वतंत्र जीवन प्रारम्भ करने के पूर्व शिशु माँ के पेट के बालों को पकड़कर हफ्तों तक बैठे रहते हैं (चित्र-11)। क्या आप मकड़ियों के किसी करीबी रिश्तेदार को जानते हैं जिसकी प्रजाति की मादा अपने नवजातों को पीठ पर रखती हो?

मकड़ी मुझे छूकर निकल गई!
कुछ साँपों की तरह क्या मकड़ियाँ भी ज़हरीली या विषैली होती हैं? मकड़ियाँ विषैली होती हैं लेकिन प्रायः उनका विष केवल उनके प्राकृतिक शिकार पर ही प्रभावशील होता है। अभी तक भारत की कोई भी मकड़ी की प्रजाति को मानव के लिए विषैला नहीं पाया गया है। तब भी नंगे हाथों से मकड़ियों को सम्भालने से बचना ही बेहतर है। भयभीत मकड़ियाँ आपको चिमटी काट सकती हैं या शरीर के छोटे बालों से खुजली या खरोंच दे सकती हैं।

मकड़ियों की चिन्ता क्यों?
मकड़ियाँ न केवल हमारे तथा अन्य जीवित जन्तुओं के साथ अद्भुत विविध दुनिया को साझा करती हैं, बल्कि कई आवश्यक जैविक कार्य भी करती हैं। उदाहरण के लिए, शिकारी के रूप में मकड़ियाँ कीट आबादी पर नियंत्रण रखती हैं। वैज्ञानिकों ने कुछ प्रकार की मकड़ियों की उपस्थिति या अनुपस्थिति को क्षेत्र में बदलाव के सूचक के रूप में उपयोग किया है। मकड़ियों द्वारा उत्पन्न रेशम के अद्वितीय गुणों और मज़बूती के कारण इसका उपयोग जैव चिकित्सा अभियांत्रिकी और पदार्थ विज्ञान में किया जाता है।

बॉक्स-6: मकड़ियों में बलूनिंग
मकड़ियों में पंख नहीं होते किन्तु तब भी वे पूरे विश्व में पाई जाती हैं और द्वीपों सहित विभिन्न आवासों में। तो मकड़ियाँ इन क्षेत्रों में निवास कैसे बना लेती हैं? मकड़ी-शिशु बलूनिंग नामक तकनीक से ऐसा करते हैं। मकड़ी-शिशु एक ऊँचे स्थान जैसे एक टहनी या पत्तों के सिरे पर पहुँच जाते हैं, अपने उदर को ऊँचा उठाते हैं और हवा के बहने की उल्टी दिशा में रेशम का धागा छोड़ते हैं। साधारणतः एक हल्की बयार इन नन्हें कोमल मकड़ी-शिशुओं को दूरस्थ स्थानों तक बहा ले जाने के लिए पर्याप्त होती है, जहाँ वे अपना और अपने परिवारों का स्वतंत्र जीवन प्रारम्भ करते हैं। जितनी अधिक दूरी तक वे बलूनिंग करते हैं, उतने ही कम संसाधन उनके बच्चों को साझा करने की आवश्यकता होती है।

निष्कर्ष
इस लेख के माध्यम से आशा करते हैं कि हमने आपको मकड़ियों की दिलचस्प और कुछ अनोखी दुनिया की एक झलक प्रस्तुत की है - एक ऐसी दुनिया जिसका अवलोकन कर सकते हैं और उससे सीख सकते हैं। यदि आप ध्यानपूर्वक चारों ओर देखें तो आपको सब जगह मकड़ियाँ मिलेंगी - घरों के पर्दों के पीछे, स्कूल की दीवारों पर, एस्बेस्टस की चद्दरों पर, पेड़ों की छालों पर, पत्तों के नीचे और बीच में, छत के कोनों में और कभी-कभी ठीक आपके सामने गुस्ताखी से फुदकते हुए! इन आकर्षक आठ पैरों वाले जन्तुओं को अभी भी दुनिया भर के विभिन्न आवासों में खोजकर उनका नामकरण किया जा रहा है। क्या आप उन सभी आदतों और व्यवहारों की कल्पना कर सकते हैं जिनके बारे में हमें अभी भी खोजना शेष है? किसी दिन आप भी मकड़ियों की कोई नई प्रजाति खोज सकते हैं या इनके कुछ विशिष्ट व्यवहार वाले लक्षणों का वर्णन कर सकते हैं जो विज्ञान के लिए नए हों। इसलिए अपनी आँखे गड़ाकर रखें, एक आवर्धक लेंस साथ में रखें और मकड़ियों की अद्भुत दुनिया को खोजने के लिए निकल पड़ें।


वीना कपूर: नेचर कंज़र्वेशन फाउंडेशन, बैंगलोर के साथ काम करती हैं। जब से उन्होंने एक टेंट मकड़ी का वास्तुकला की दृष्टि से परिपूर्ण जाला देखा है तब से वे इन प्राणियों से जुड़ी हुई हैं।
दिव्या उमा: स्कूल ऑफ लिबरल स्टडीज़, अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, बैंगलोर में काम करती हैं। स्नातक छात्रों को जीव विज्ञान पढ़ाती हैं, और शिकारियों-शिकार की अन्त:क्रिया के साथ-साथ मकड़ियों और कीड़ों में मिमिक्री पर काम करती हैं।
अनुवाद: विपुल कीर्ति शर्मा: शासकीय होल्कर विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर में प्राणिशास्त्र के वरिष्ठ प्रोफेसर। इन्होंने ‘बाघ बेड्स’ के जीवाश्म का गहन अध्ययन किया है तथा जीवाश्मित सीअर्चिन की एक नई प्रजाति की खोज की है। नेचुरल म्यूज़ियम, लंदन ने सम्मान में इस प्रजाति का नाम उनके नाम पर स्टीरियोसिडेरिस कीर्ति रखा है। वर्तमान में वे अपने विद्यार्थियों के साथ मकड़ियों पर शोध कार्य कर रहे हैं।
यह लेख आई वन्डर पत्रिका के अंक जनवरी 2018 से साभार।

सन्दर्भ:
Blackledge T. A. (2013). Spider silk: molecular structure and function in webs. Nentwig, W. Spider Ecophysiology Springer pp. 267-281.
Foelix R.F. (2011). Biology of spiders. Oxford University Press. 3rd edition.
Koh J.K.H. (1989). A guide to common Singapore spiders. Singapore Science Center. URL: http://habitatnews.nus.edu.sg/guidebooks/spiders/text/a-home.htm.
Levi H.W. and Levi L.R. (1968) Spiders and their kin. A golden guide from St. Martin’s Press. 1st edition.
The authors’ research and field observations over many years!