लेखक: लेव तोलस्ताय
किताब: शिक्षाशास्त्रीय रचनाएं

... जो कुछ उन्होंने सीखा था, उसे वे भूल गए थे ... एक भी विद्यार्थी मुझे नहीं बता सका कि सीमा क्या होती है, रूस और रूसी क्या है, कानून किसे कहते हैं ...

तोलस्तोय का गांव - यास्नाया पोल्यानी 1859 में तोलस्तोय ने वहां एक स्कूल चलाया। स्कूल में जो व्यवस्था कायम थी वह उनके अपने कार्यक्रम के मुताबिक थी, विद्यार्थी तीन आयु वर्ग में बंटे थे - छोटे, मंझले और बड़े। हर अध्यापक दिन में पांच या छह पाठ पढ़ाता था। पढ़ाई को मुख्य तरीका अध्यापक और विद्यार्थियों के बीच उन्मुक्त बातचीत था।

तोलस्तोय बड़े आयु वर्ग के बच्चों को गणित, भौतिकी, इतिहास और कुछ अन्य विषय पढ़ाते थे। जो पढ़ाना होता था, उसे वे प्रायः किस्से कहानी या ऐसा ही कोई अन्य रूप दे देते थेउनके पाठों में पढ़े या सुने हुए का अपने शब्दों में वर्णन करने का - जो बच्चों को बहुत पसंद था - और मनपसंद विषय पर निबंध लिखने का अभ्यास भी कराया जाता था।

बाहरी आदमी को, विशेषतः सरकारी स्कूलों के अध्यापकों को, ऐसा लग सकता था कि उस स्कूल में व्यवस्था नाम की कोई चीज़ नहीं है। विद्यार्थियों के बैठने की कोई निश्चित जगह नहीं थी - सज़ा देने की सख्त मनाही थी। होमवर्क नहीं दिया जाता था।

तोलस्तोय स्कूल में ऐसे अध्यापक रखते थे जो शिक्षण व्यवस्था के बारे में उनके विचारों से सहमत थे। अध्यापक नियमित रूप से मिल कर अपने काम के तरीकों, और सफलताओं व असफलताओं के । कारणों पर विचार-विनिमय करते थे। इस स्कूल के अनुभवों की कुछ झलकें इस लेख में हैं।

इतिहास समझाने की जुगत...
ओल्ड टेस्टामेंट* खत्म करने के बाद स्वाभाविकतः मैंने सोचा कि इतिहास और भूगोल पढ़ाए जाएं - इसलिए भी कि इन्हें समस्त स्कूलों में पढ़ाया जाता है तथा खुद मैंने भी उन्हें पढ़ा था।

और इसलिए भी कि मुझे लगता था कि ओल्ड टेस्टामेंट की यहूदियों की कहानी स्वाभाविकतः बच्चों के मन में जिज्ञासाएं पैदा करती है कि जिन घटनाओं के बारे में उन्होंने बाइबिल में पढ़ा है, वे कहां, कब और किन परिस्थितियों में घटी थीं? मिस्र, फराऊन और असीरियाई राजा क्या हैं? वगैरह।

इतिहास को जैसे हमेशा शुरू करते हैं, मैंने भी उसी तरह प्राचीन काल के इतिहास से शुरू किया। मगर सभी कोशिशों के बावजूद मैं उसे रोचक नहीं बना पाया। बच्चों को सेज़ोस्त्रिस, मिस्री पिरामिडों और फीनिशियाइयों से कोई मतलब नहीं था। कभी कहीं रहते किन्हीं राजाओं, फराऊनों. फिलिस्तीनियों, आदि के बारे में जानने में उन्हें कोई मज़ा नहीं आता था...

विश्व इतिहास के बाद मुझे अपने देश रूस का इतिहास पढ़ाकर देखना था, और मैंने भी वैसे ही वर्णन से रूसी इतिहास शुरू किया, जो न कलात्मक है, न शिक्षाप्रद। मैंने उसे दो बार शुरू किया - पहली बार सारी


*ओल्ड टेस्टामेंट्रः बाइबिल का पहला हिस्सा जो ईसामसीह के पहले के मसीहाओं की बातों को बताता है।


बाइबिल को खत्म करने से पहले और दूसरी बार बाइबिल को खत्म करने के बाद।

बाइबिल को खत्म करने से पहले जब पढ़ा रहा था, तो विद्यार्थियों ने ईगोर और ओलेग के अस्तित्व को याद रखने से ही इंकार कर दिया। वही बात अब छोटे विद्यार्थियों के साथ हो रही है, जिन्होंने बताए जा रहे को समझना और फिर अपने शब्दों में दोहराना बाइबिल के आधार पर नहीं सीखा है। वे पांच-पांच बार सुनकर भी रूसी इतिहास से कुछ याद नहीं रख पाते। बड़े विद्यार्थी अब रूसी इतिहास को याद कर लेते हैं और लिख भी लेते हैं, पर बाइबिल जितनी अच्छी तरह से बिल्कुल भी नहीं, और इसलिए प्रायः दोहराने की मांग करते हैं।

एक अध्यापक तो अपनी रौ में इतना बह गया कि स्वतंत्र रियासतों के काल को छोड़ देने की मेरी सलाह को उसने नहीं माना और म्स्तीस्लावों, ब्रियाचिस्लावों और बोलेस्लावों से संबंधित सारी बकवास और अनर्गल बातों को दोहराने लगा। उसकी कक्षा में मेरा जाना ऐसे समय पर हुआ, जब विद्यार्थियों को अध्यापक के मुंह से सुना हुआ अपने शब्दों में दोहराना था। मैं बयान नहीं कर सकता कि क्या हुआ। बहुत समय तक सब चुप रहे। आखिरकार अध्यापक द्वारा बुलाए गए लड़कों में जो ज़्यादा साहसी और ज़्यादा तेज़ याददाश्त वाले थे, वे बोलने लगे। सारी बौद्धिक शक्तियां इस पर केन्द्रित थीं कि ‘अजीबोगरीब' नाम याद रखें – पर किसने क्या किया था, यह उनके लिए कोई महत्व नहीं रखता था।... जो सबसे तेज़ याददाश्त वाले थे, वे आगे भी कोशिश करते और शायद ठीक ही जवाब देते. अगर उन्हें बीच-बीच में याद दिलाया जाता रहता।

मगर यह सब इतना घिनौना था और इन बच्चों को देखकर ऐसी दया आती थी कि हमने, यानी इतिहास पढ़ाने वाले अध्यापक और मैंने तय किया कि ऐसी गलतियां और नहीं की जाएंगी।

कल मैं अपनी कक्षा से निकलकर इतिहास की कक्षा में गया। मैं जानना चाहता था कि बगल के कमरे से सुनाई दे रहे शोर-शराबे को क्या कारण है। पता चला कि कुलिकोवो की लड़ाई के बारे में पढ़ाया जा रहा था। सब अत्यंत उत्तेजित थे।“यह हुई न बात कैसी होशियारी दिखाई!", "मुझे सुना


* यह लड़ाई दोन नदी के तट पर कुलिकोवो के मैदान में 1 380 में रूसियों और मंगोल-तातारों के बीच हुई थी। उसमे विजय रूसियों की हुई।


दो!", "नहीं, मुझे!'' दूसरी आवाजें चिल्लाईं। "कैसे खून की नदियां बही थीं!'' लगभग सभी सुनाने-बताने को उतावले थे और सभी बेहद खुश थेलेकिन अगर जातीय भावना को ही तुष्ट किया जाए, तो सारे इतिहास में से क्या बचेगा? जातीय भावना को प्रधानता देकर नहीं पढ़ाया जा सकता। मुझे लगता है कि बच्चों में हमेशा पाई जाने वाली कलात्मक रुचि के विकास तथा तुष्टि के लिए ऐतिहासिक परंपरा को इस्तेमाल किया जा सकता है, पर यह इतिहास नहीं होगा। इतिहास के अध्यापक के लिए पहले बच्चों में इतिहास के प्रति रुचि पैदा करना आवश्यक है। मगर यह कैसे किया जाए?

प्रायः मुझे सुनने को मिलता है कि इतिहास की पढ़ाई शुरू से नहीं, बल्कि आखिर से, यानी प्राचीन इतिहास से नहीं, बल्कि समकालीन इतिहास से आरंभ की जानी चाहिए। यह विचार बिल्कुल युक्तिसंगत है। बच्चे को रूसी राज्य के आरंभ के बारे में कैसे बताया जाए और इसमें उसकी दिलचस्पी कैसे पैदा की जाए, अगर वह जानता ही नहीं कि रूसी राज्य क्या है या राज्य क्या बला होती है।

जिसका बच्चों से वास्ता पड़ा है, उसे मालूम होनी चाहिए कि हर रूसी बच्चे का दृढ़ विश्वास है कि जैसी सारी दुनिया वैसा ही रूस है, जैसे रूस में वह रहता है। ठीक ऐसा ही फ्रांसीसी और जर्मन बच्चा भी सोचता. है। बच्चों को, और बच्चों जैसे भोले बड़ों को भी हमेशा यह देखकर आश्चर्य क्यों होता है कि जर्मन बच्चे जर्मन बोलते हैं ?... ऐतिहासिक रुचि अधिकांशत: कलात्मक रुचि के बाद पैदा होती है।

हमारे लिए रोम की स्थापना का इतिहास जानना दिलचस्प इसलिए

होता है कि हम जानते हैं कि अपने उत्कर्ष काल में रोमन साम्राज्य कैसा था। जिसे हमने महान के रूप में जाना है, उसके बाल्यकाल को जानना रोचक ही होता है। ... हम जब रोम के विकास में रुचि लेते हैं, तो अंत में उसका जो हश्र हुआ था, मन-ही-मन हम उसकी कल्पना भी करते हैं। हम मॉस्को राज्य की स्थापना के बारे में जानना चाहते हैं, क्योंकि हमें मालूम है कि रूसी साम्राज्य क्या है। मैं अपने अवलोकनों और प्रयोगों से जानता हूं कि इतिहास में रुचि का पहला अंकुर समकालीन इतिहास को जानने और कभी-कभी उसमें भाग लेने के फलस्वरूप, राजनीतिक रुचि, राजनीतिक विचारों, बहसों और अखबारों को पढ़ने के फलस्वरूप पैदा होता है। और इसलिए इतिहास को वर्तमान से आरंभ करने का विचार स्वाभाविकतः हर सोचने वाले पाठक को तर्कसंगत लगना चाहिए।

पहला पाठ
मैं पहले पाठ में बताना चाहता था कि रूस अन्य देशों से किन बातों से भिन्न है, उसकी सीमाएं क्या हैं, उसकी शासन पद्धति कैसी है, वगैरह।

अध्यापक - हम कहां, किस धरती पर रहते हैं?
एक विद्यार्थी - यास्नाया पोल्याना में।
दूसरा विद्यार्थी - खेत में।
अध्यापक - नहीं, यास्नाया पोल्याना. और तुला गुबेर्निया किस धरती पर है?
एक विद्यार्थी - तुला गुबेनिया हमारे यहां से 17 वर्स्ट* की दूरी पर है...
अध्यापक -- नहीं, वह तो गुबेर्नियाई शहर है, जबकि गुबेर्निया दूसरी ही चीज़ को कहते हैं। हां, तो कौन धरती?

एक विद्यार्थी (जिसने पहले भूगोल : पाठ पढ़ा था) - धरती गोल है, ये जैसी है।

इस तरह के सवालों के जरिए फिर उनका परिचित आदमी पहले कि धरती पर, किस देश में रहता थ और अगर सीधे एक ही दिशा में चल दूरी नापने की रूसी इकाई। जाएं, तो कहां पहुंचेंगे, विद्यार्थियों को यह उत्तर देने को प्रेरित किया गया कि वे रूस में रहते हैं। कुछ ने फिर भी इस सवाल के जवाब में कि अगर सीधे एक ही दिशा में चलते जाएं, तो कहां पहुंचेंगे, कहा कि कहीं नहीं पहुंचेंगे। कुछ औरों का कहना था कि दुनिया के छोर पर पहुंचेंगे...

अध्यापक रूस और अन्य राज्यों के बीच मौजूद भौगोलिक अंतरों को समझाने की कोशिश करता हैवह बताता है कि सारी पृथ्वी विभिन्न राज्यों में बंटी हुई है। रूसियों, फ्रांसीसियों, जर्मनों ने सारी पृथ्वी को बांट लिया है और कहा है: यहां तक मेरा है और यहां तक तेरा है। इसलिए दूसरे देशों की तरह रूस की भी अपनी सीमाएं हैं।

अध्यापक - तो, समझे कि सीमा किसे कहते हैं? कोई सीमा की मिसाल दे सकता है?

एक विद्यार्थी (एक अक्लमंद लड़का) - वहां तुर्किन टीले के पीछे सीमा है। (उसका मतलब उस पत्थर के खंभे से है, जहां से तुला उयेज़्द शुरू होता है।)

सभी विद्यार्थी इस परिभाषा से सहमत हैं।

अध्यापक महसूस करता है कि परिचित जगह की मिसाल देकर सीमाएं दिखाना जरूरी है। वह दो कमरों का नक्शा बनाता है और उन्हें विभाजित करने वाली सीमा दिखाता है। फिर वह गांव का नक्शा खींचता है और विद्यार्थी खुद ही कई सीमाओं को पहचान जाते हैं। अध्यापक समझाता है, बल्कि कहें, तो उसे लगता है कि वह समझा रहा है कि जैसे ‘यास्नाया पोल्याना' की सीमाएं हैं, वैसे ही रूस की भी सीमाएं हैं। वह सोचता है कि सभी उसे समझ गए हैं। मगर जब वह पूछता है कि कैसे मालूम करें कि हमारे यहां से रूस की सीमा कितनी दूर है, तो विद्यार्थी छूटते ही जवाब देते हैं। कि यह बड़ी आसानी से मालूम किया जा सकता है। जरूरत सिर्फ इसकी है। कि गज लेकर नाप लिया जाए

अध्यापक - मगर किस दिशा में?

एक विद्यार्थी -- यहां से सीधे सीमा की दिशा में, और माप जितना निकले, उसे लिख लिया जाए।

पुनः खाके, नक्शे, मानचित्र बनाए जाने लगते हैं। मगर पैमाने की संकल्पना भी आवश्यक है, जो अभी तक नहीं थी। अध्यापक सड़क के किनारे-किनारे बसे गांव का नक्शा बनाने का सुझाव रखता है। उसे श्यामपट्ट पर बनाया जाने लगता है। पर सारा गांव नहीं आ पाता, क्योंकि पैमाना बड़ा चुना गया है। नक्शा मिटाया जाता है और छोटे पैमाने पर स्लेट पर बनाना शुरू करते हैं। पैमाना, नक्शा और सीमाएं थोड़ा-थोड़ा करके स्पष्ट होने लगती हैं। अध्यापक पहले बताए हुए को फिर से दोहराता है और पूछता है कि रूस क्या है और उसका छोर कहां है...

पाठ दो घंटे जारी रहता है। अध्यापक को विश्वास है कि जो कुछ उसने बताया है, उसमें से बहुत सारा बच्चों को याद रह गया है, और इसलिए उसी ढंग से वह अगले पाठों में भी पढ़ाता है। लेकिन सिर्फ आगे चलकर ही उसे मालूम हो पाता है कि उसकी ये सभी युक्तियां गलत थीं और जो कुछ भी उसने किया था, वह सब बिल्कुल बेकार था।

मैं इन पाठों में विद्यार्थियों को किन्हीं भी नई संकल्पनाओं से परिचित नहीं कराता था, क्योंकि सोचता था कि यह मैं कर चुका हूं। और केवल अपने नैतिक प्रभाव के ज़रिए ही बच्चों को वैसा उत्तर देने को विवश करता था, जैसा उत्तर मैं सुनना चाहता था ... कोई छह महीने पहले मैंने ये प्रयोग किए थे और आरंभ में मैं उनसे अत्यंत संतुष्ट था और उन पर मुझे गर्व भी था।

जिन लोगों को मैं उनसे अवगत कराता, वे कहते कि यह सब बहुत अच्छा और दिलचस्प है। मगर तीन सप्ताह बाद, जिनके दौरान मैं अध्यापन में हिस्सा नहीं ले सका था, मैंने शुरू किए गए प्रयोग को जारी रखने की कोशिश की। मैंने पाया कि पहले का सब कुछ बेकार और अपने आपको धोखा देना था। एक भी विद्यार्थी मुझे नहीं बता सका कि सीमा क्या होती है, रूस और रूसी क्या हैं, कानून किसे कहते हैं और क्रापीब्ना उयेज़्द की सीमाएं क्या हैं। जो कुछ उन्होंने सीखा था, उसे वे भूल गए थे, लेकिन दूसरी ओर यह सब वे अपने ढंग से जानते थे।

मुझे यकीन हो गया कि मुझसे गलती हुई है। सिर्फ जिसके बारे में मैं पक्के तौर पर कुछ नहीं कह सकता, वह यह है कि कमज़ोरी अध्यापन में थी या उस तरीके में ही।

हो सकता है कि बच्चे के सामान्य विकास के एक निश्चित स्तर पर पहुंचने तक, अखबारों की मदद और यात्राओं के बिना उसमें ऐतिहासिक और भौगोलिक रुचि जागृत नहीं की जा सकती।

हो सकता है कि वह तरीका पा लिया जाएगा (मैं उसे लगातार खोज रहा हूं), जिसकी मदद से ऐसा करना संभव हो जाएगा। मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि इस तरीके में किताबों से पढ़ाने के लिए कोई स्थान नहीं होगा, क्योंकि वह इन रुचियों को जागृत करने के बजाए खत्म ही करता है।

मैंने समकालीन इतिहास पढ़ाने के अन्य प्रयोग भी किए और कुछ प्रयोग अत्यंत सफल रहे। मैंने बच्चों को क्रीमियाई अभियान के बारे में, ज़ार निकोलाई प्रथम के शासन के बारे में और 1812 के इतिहास** के बारे में बताया। बताने का ढंग ऐसा था कि जैसे परीकथाएं सुना रहा होऊं और घटनाएं भी अधिकांशतः ऐतिहासिक दृष्टि से कपोल-कल्पित और किसी एक व्यक्ति के गिर्द केन्द्रित थीं। जैसी कि उम्मीद की जाती थी, नेपोलियन के साथ लड़ाई की कहानी को सबसे अधिक पसंद किया गया।

यह पाठ हमारे जीवन की एक सदा याद रहने वाली घटना थी। मैं उसे कभी नहीं भूल पाऊंगा। बच्चों से बहुत पहले से वायदा किया हुआ था कि मैं उन्हें अंत से बताऊंगा और दूसरा अध्यापक आरंभ से, और इस तरह बीच में हम मिल जाएंगे। मेरी कक्षा शाम को होती थी और मैंने पाया कि विद्यार्थी बिखर गए हैं, जब मैं रूसी इतिहास की कक्षा में पहुंचा, तो स्व्यातोस्लाव के बारे में बताया जा रहा था। विद्यार्थियों को कोई मज़ा नहीं आ रहा था। हमेशा की तरह एक ऊंची बेंच पर तीन किसान लड़कियां पास-पास बैठी हुई थीं। एक सो गई थी। मीश्का ने मुझे टोका, “देखो, हमारी कोयले बैठी हुई हैं। एक तो सो भी गई है।'' और सचमुच, वे बिल्कुल कोयलों जैसी थीं। "बेहतर है, अंत से बताओ!'' किसी ने कहा और सब चौकन्ने हो गए।

मैं बैठ गया और बताने लगा। हमेशा की तरह दो-एक मिनट तक ऊधम, एक दूसरे को धकियाना, वगैरह जारी रहा और फिर एकदम खामोशी छा गई। मैंने अलेक्सांद्र प्रथम से शुरू किया, फ्रांसीसी क्रांति के बारे में, नेपोलियन की सफलताओं के बारे में, उसके सत्ता पर अधिकार के बारे में, तिलसिट की संधि के साथ खत्म हुए युद्ध के बारे में बताया। ज्यों ही बात हम तक आई, सभी ओर से सक्रिय सहभागिता की सूचक आवाजें और शब्द सुनाई देने लग गए. .. बाद में मैंने जारी रखते हुए बताया कि हमने फ्रांसीसियों को कैसे खदेड़ा, कैसे हमने नेपोलियन को पेरिस तक पहुंचाया, वास्तविक राजा को गद्दी पर बिठाया और विजय की खुशियां और जश्न मनाए। सिर्फ क्रीमियाई युद्ध की यादों ने सारा मज़ा किरकिरा कर डाला। "ठहरना," हवा में मुक्का तानते हुए


*यहां आशय 1853-1 856 के क्रीमियाई युद्ध से है, जिसमें रूसियों की हार हुई थी।
** यहां आशय 1812 के देशभक्तिपूर्ण युद्ध से है, जो नेपोलियन के नेतृत्व में फ्रांस द्वारा रूस पर आक्रमण के साथ शुरू और रूस की विजय के साथ खत्म हुआ था।


पेत्का कह ही बैठा। "मैं बड़ा हो लें। तब ऐसा मज़ा चखाऊंगा कि..."

जब मैंने खत्म किया, काफी देर हो चुकी थी। आमतौर पर इस समय तक बच्चे सो जाते हैं। पर उस रोज़ कोई नहीं सोया। उल्टे, आंखें दहक ही रही थींमैं खड़ा हुआ ही था कि मुझे घोर अश्चर्य में डालते हुए तरास्का मेरी आरामकुर्सी के नीचे से निकला और उसने उत्तेजित तथा साथ ही गंभीर दृष्टि से मुझे देखा। "तुम वहां कैसे घुसे?" "वह शुरू से ही वहां था," किसी ने कहा। पूछना क्या था - मेरा बताया हुआ उसकी समझ में आया या नहीं, यह उसके चेहरे पर ही लिखा हुआ था। “तो तुम क्या बताओगे?'' मैंने पूछा। "मैं?"

उसने कुछ सोचा और फिर आगे कहा, "सब कुछ।'' ''मैं घर पर बताऊंगा। '' "मैं भी।" "और मैं भी।''
मैंने बच्चों को जो बताया था, वह इतिहास नहीं था, बल्कि जन भावना को जगाने वाली परीकथा* थी
इसका मतलब था कि इतिहास के अध्यापन के तौर पर यह प्रयास पहले प्रयासों से भी ज्यादा असफल रहा था।


*यहां आशय इतिहास को कलात्मक शैली में प्रस्तुत करने से है।


लेव तोलस्तोय: प्रसिद्ध रूसी साहित्यकार और शिक्षाशास्त्री। जन्म 1828; मृत्युः 1910 शिक्षाशास्त्रीय रचनाएं प्रगति प्रकाशन, मास्को द्वारा 1987 में प्रकाशित।