कमल दत्ता

नाभिकीय ऊर्जा के रहस्यों को जानने के साथ-साथ बोहर इस खोज के सामाजिक व राजनीतिक परिणामों को लेकर परेशान थे। यकीनी तौर पर बोहर में वह दूरदृष्टि थी जिसका तत्कालीन राजनितिज्ञों में अभाव था।

18 नवंबर 1962 के दिन महान डेनिश भौतिक शास्त्री नील्स बोहर दिवंगत हुए। वैज्ञानिकों और प्रकृति की हमारी परिकल्पना से संबंधित विचारों के विकास में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए आधुनिक ज्ञान-मीमांसा पर उनके काम से पड़े प्रभाव पर एक नजर डालना दिलचस्प होगा।

समाज वैज्ञानिकों की रुचि शायद यह समझने में हो कि डेनमार्क जैसे देश में, जहां विज्ञान की कोई खास परंपरा नहीं थी, कैसे बोहर एक आधुनिक शोध केंद्र स्थापित कर पाए जिसने आने वाले कई दशकों तक एक प्रभावी भूमिका निभाई। जिसके प्रभाव की तुलना अक्सर अरस्तू के लाइसीयम से की जाती है।

आज हम जिस तरह के नाभिकीय विनाश के खतरे के साए में जी रहे हैं, उसमें यह सोचना दिलचस्प होगा कि बोहर ने परमाणु शस्त्रों की होड़ को रोकने की जो पुरज़ोर कोशिश की वह वैज्ञानिकों की विवशता को दर्शाती है है या राजनीतिज्ञों में दूरदर्शिता के अभाव को।

शिक्षा की परंपरा
बोहर का जन्म कोपनहेगन के एक ऐसे परिवार में हुआ था जिसमें शिक्षा की जबर्दस्त परंपरा थी। उनके दादा एक व्याकरण शाला में बहुत सम्मानित प्रधान अध्यापक थे। बोहर के पिता मेडिकल कॉलेज में भर्ती हुए और प्रायोगिक शरीर क्रिया विज्ञान में जा पहुंचे, और आगे चलकर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हो गए। उन्होंने अपने विषय के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसके अलावा उनकी बौद्धिक रुचियों के व्यापक दायरे के चलते उनके पुत्र नील्स और हैरल्ड (जो आगे चलकर अव्वल दर्जे का गणितज्ञ बना) का संपर्क प्रचलित वैज्ञानिक व दार्शनिक विचारों से हुआ। उतनी ही महत्वपूर्ण बात यह थी कि उनके परिवार में अच्छे गुणों का आदर होता थाः स्कूल में नील्स के सहपाठी, उन्हें उनकी बौद्धिक उपलब्धियों के अलावा एक आत्मविश्वासी, मिलनसार और मददगार व्यक्ति के रूप जानते थेउनकी यह अच्छाइयां जीवनपर्यंत उनके साथ रहीं। परंतु जब वे राजनीतिज्ञों और राजनेताओं पर परमाणु अस्त्रों की होड़ रोकने के लिए अपने अच्छे गुणों का प्रभाव डालने की कोशिश में नाकामयाब रहे तो बोहर को इन गुणों पर शक हुआ।

रदरफोर्ड का साथ
बोहर का शैक्षिक जीवन शुरूआत में पारंपरिक और सपाट ढर्रे पर चला। 1911 में धातुओं में इलेक्ट्रॉनों के व्यवहार से संबंधित शोध-प्रबंध प्रकाशित करने के बाद उन्होंने केम्ब्रिज की केवेंडिश प्रयोगशला में काम किया। उस समय केवेंडिश प्रयोगशाला के निदेशक, इलेक्ट्रॉन के खोजकर्ता, सर जे. जे. थॉमसन थे। यहां उनकी मुलाकात एक ऐसे शख्स से हुई जिससे उनका भविष्य तय हो गया। उन दिनों अर्नेस्ट रदरफोर्ड, जिन्होंने यह खोज की कि परमाणु में एक नाभिक होता है, केम्ब्रिज में व्याख्यान देने आए थेबोहर ने तुरंत निर्णय लिया कि उनका भविष्य रदरफोर्ड से जुड़ा है। रदरफोर्ड भी इंसानों के बारे में पैनी नज़र रखते थे। इस तरह बोहर मेनचेस्टर आ गए। यहां दो साल के भीतर उन्होंने उन विचारों का विकास किया जो आधुनिक परमाणु सिद्धांत का आधार बने। उनके काम की बारीकियां आज सिर्फ ऐतिहासिक महत्व की हैं, हालांकि उनकी बातें स्नातक कक्षा की पाठ्य पुस्तकों में शामिल की जाती हैं। उनके विचारों का महत्व यह है कि उन्होंने प्लांक द्वारा ताप विकिरण सिद्धांत के संबंध में प्रतिपादित 'क्वांटम मेकेनिक्स' का कल्पनाशील उपयोग किया। आगे चलकर आइंस्टाइन ने भी इसका उपयोग प्रकाश डालने पर धातुओं में से निकलने वाले इलेक्ट्रॉनों के अध्ययन में किया। बोहर ने दावा किया कि संपूर्ण गतिविज्ञान पर क्वांटम मेकेनिक्स लागू होगा। एक परमाणु के इलेक्ट्रॉनों पर इसे इस्तेमाल करके उन्होंने एक टिकाऊ रचना बनाने की कोशिश की, जो सौर तंत्र से बहुत भिन्न न थी। इस रचना की कई बातें तो आज भी प्रायोगिक आंकड़ों पर खरी उतरती हैं।

इस काम से बोहर को विश्वस्तर पर ख्याति और मान्यता मिली। कोपनहेगन विश्वविद्यालय में स्थापित सैद्धांतिक भौतिकी पीठ (Chair For Thoretical Physics) के लिए उन्हें वापस बुलाया गया। इस मायने में, रदरफोर्ड के साथ उनका रहना सार्थक साबित हुआ। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि उनका संपर्क एक व्यापक सर्वदर्शीय समुदाय से हुआ जिसमें प्रतिभाशाली गणितज्ञ, भौतिकशास्त्री व रसायनशास्त्री तत्कालीन महत्व के विषयों पर मिलकर काम करते थेऔर इन सबको साथ लाने, जोश दिलाने और धकेलने वाले थे रदरफोर्ड।

कापनहेगन माडल
बोहर इस मेनचेस्टर वाले अनुभव को डेनमार्क में साकार करना चाहते थे। अपनी प्रतिष्ठा का इस्तेमाल करके वे कोपनहेगन शहर, विश्वविद्यालय व अन्य परोपकारियों से काफी धन जुटा पाने में सफल हुए और 1921 में इंस्टिट्यूट ऑफ थ्योरेटिकल फिज़िक्स

जॉन जे हॉपकिन्स प्रयोगशाला में 1959 में, नील्स बोहर (बाएं) सहयोगियों के साथ एक प्रयोग का अवलोकन करते हुए।

(सैद्धांतिक भौतिकी संस्थान) की स्थापना की। यह संस्थान आजीवन उनकी गतिविधियों का केंद्र बना रहा।

स्थापना के कुछ वर्षों के अंदर ही यह संस्थान भौतिकी की गतिविधियों को महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। इसके प्रभाव की तुलना केम्ब्रिज और बर्लिन के स्थापित संस्थानों से की जाने लगी। आखिर यह सब हुआ कैसे? इसका कुछ श्रेय तो बोहर द्वारा युवा व प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों को आमंत्रित करने के रिवाज़ को जाता है। इस मामले में उनकी छठी इंद्रिय रदरफोर्ड जैसी ही तेज़ थी। बोहर एक बार व्याख्यान देने गॉटिंगन गए। वहां एक युवक ने उनके निष्कर्षों को चुनौती दी। युवक अभी बीस साल का भी नहीं हुआ था। उस युवक को दरकिनार करने के बजाय, बोहर उसे अपने साथ भ्रमण पर ले गए और नतीजा यह हुआ कि उस युवक को कोपनहेगन में आमंत्रित किया गया। वह युवक वर्नर हाइजनबर्ग था। परंतु ऐसी बिरली घटनाओं से हमारे प्रश्न का आंशिक जवाब ही मिलता है कि आखिर यह सब हुआ कैसे। इस सवाल का शेष हिस्सा बोहर के व्यक्तित्व, बुनियादी प्रश्नों को लेकर उनके नज़रिए, और काम के तरीके में निहित है। उनके काम का तरीका काफी खुलापन लिए हुए था और आमतौर पर किसी युवा विद्यार्थी या सहकर्मी के साथ अंतहीन चर्चाएं, इसमें शामिल होती थीं। बुनियादी मुद्दों पर चर्चाओं के लिए वे हमेशा तैयार रहते थे।

1920 का दशक भौतिकी में उथल-पुथल का समय था। ब्रह्मांड और उसमें अपने स्थान को लेकर हमारे विचारों के आसमान पर छाए गैलिलियो और न्यूटन के यांत्रिकी 'सिद्धांत धराशायी हो रहे थे। लेकिन यह क्रांति बोहर का काम नहीं था। अपेक्षाकृत युवा वैज्ञानिक पेरिस में डी ब्रोग्ली, गॉटिंगन में हाइजनबर्ग, विएना में श्रोडिंगर और केम्ब्रिज में डिराक इस क्रांति के रचयिता थे। परंतु बोहर और उनके संस्थान ने इस क्रांति को आगे बढ़ाने के लिए बहुत कुछ किया। हर बार किसी बड़े कदम के बाद बोहर से चर्चाएं होती थीं। कभी-कभी, मसलन हाइजनबर्ग के मामले में, इन चर्चाओं में किसी महत्वपूर्ण कदम की बुनियाद छिपी होती थी। प्रायः ये चर्चाएं उग्र होती थीं। ऐसी ही एक चर्चा से थककर श्रोडिंगर बीमार पड़ गए और कामना की कि अच्छा होता यदि उन्होंने यह खोज की ही न होती। परंतु इन चर्चाओं का केंद्रीय व्यक्तित्व बेहद भला और नेकनीयत था। इस जमाने के सारे इतिहासकार क्वांटम यांत्रिकी की वैचारिक बुनियाद के विकास में बोहर के साथ हुई इन चर्चाओं को महत्वपूर्ण मानते हैं। इन चर्चाओं में से क्वांटम यांत्रिकी की व्याख्या का 'कोपनहेगन मॉडल' उभरा, जिसने आधुनिक भौतिकी को कामकाजी औजारों का दार्शनिक आधार प्रदान किया। क्वांटम सिद्धांत में वर्णित प्रकृति की समझ में निहित अंतर्विरोध को इसमें सीधा सामना किया गया है। इसमें यह दावा किया गया है कि हालांकि यह सही है कि रोज़मर्रा की भौतिक घटनाओं को समझने के लिए प्रयुक्त अवधारणाओं का उपयोग परमाणु स्तर की घटनाओं को समझने के लिए नहीं किया जा सकता परंतु फिर भी इन अवधारणाओं को दरकिनार नहीं किया जा सकता। हमें इन तरीकों का उपयोग जारी रखना चाहिए, जो इसके लिए ठीक हैं; क्योंकि प्रकृति की वर्णित करने की हमारी सामर्थ्य सीमित है और अवलोकन की किसी भी क्रिया में अवलोकनकर्ता की भूमिका को पूरी तरह हटाना संभव नहीं है। इसीलिए अवलोकन से होने वाली गड़बड़ी को दूर करना भी संभव नहीं है। इस दृष्टि से कोई भी अवलोकन पूरी तरह वस्तुनिष्ठ नहीं है, यद्यपि पूर्णतः व्यक्तिनिष्ठ कारकों की भी इसमें कोई भूमिका नहीं होती। अवलोकन आधारित वर्णन भी इसी कारण से सांख्यिकीय आधारित ही होता है, इसलिए कार्यकारण के तहत नहीं आता।

बोहर-आइंस्टाइन की चर्चाएं
इस मॉडल की इस बात को मान लेना कि किसी प्राकृतिक प्रक्रिया का वस्तुनिष्ठ, कार्यकारण युक्त वर्णन करना बुनियादी स्तर पर निहित रूप में असंभव है, यह बात कई वैज्ञानिकों व दार्शनिकों को असंगत लगी थी और आज भी लगती है। और विरोधियों के साथ एक जबर्दस्त प्रवक्ता थे - क्वांटम यांत्रिकी के जनक और न्यूटन

बोहर का मॉडल 

बोहर ने परमाणु की एक सूक्ष्म सौरमंडल के रूप में कल्पना की। इस तंत्र में इलेक्ट्रॉन नाभिक का चक्कर लगाते हैं। आर्नल्ड समरफील्ड ने सुझाया कि इलेक्ट्रॉनों के कक्ष अंडाकार होते हैं। आज हम जानते हैं कि परमाणु की संरचना इतनी सरल नहीं होती है, फिर भी उसे समझने के लिए बोहर-सम्मरफील्ड की यह परिकल्पना आज भी उपयोगी है।

के काम के वारिस -- अल्बर्ट आइंस्टाइन। सन् 1927 से लेकर 1955 में अपनी मृत्यु तक आइंस्टाइन ने बोहर और उनके इस दावे से मित्रतापूर्ण किंतु अथक युद्ध किया कि क्वांटम यांत्रिकी प्रकृति का पूरा चित्र प्रस्तुत करती है। अक्टूबर 1927 की पांचवीं सॉल्वे कांग्रेस में और बाद में 1930 की एक बैठक में आइंस्टाइन ने अपनी आपत्तियां पेश की। इसके लिए उन्होंने कुछ ऐसे प्रयोग विकसित किए जिनसे ‘कोपेनहेगन मॉडल' के संभावित अंतर्विरोध उजागर होते थे। ऐसे मौकों पर, सारी रात जागकर काटने के बाद, बोहर ने विश्वसनीय प्रतिकार किया। 1930 की बैठक में तो बोहर ने आइंस्टाइन के खुद के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत - सापेक्षता के सीमित सिद्धात - का उपयोग करके आइंस्टाइन की दलीलों में खामियां दिखाई। यह मुकाबला तो आइंस्टाइन हार गए पर युद्ध अभी शेष था। आइंस्टाइन के साथ हुए शास्त्रार्थों को बोहर द्वारा दिया गया विवरण उन सबके लिए अमूल्य रहेगा जो हमारे विश्वदर्शन के आधारभूत वैज्ञानिक विचारों में दिलचस्पी रखते हैं।

नाभिक का अध्ययन
1930 के दशक में भौतिक शास्त्रियों का ध्यान नाभिक के अध्ययन की तरफ आकृष्ट हुआ। बोहर और उनके सहकर्मी ही इस क्षेत्र के अग्रिम मोर्चे पर थे। रोम में फर्मी, पेरिस में जोलियट-क्यूरी, और बर्लिन में हॉन और माइट्रन द्वारा महत्वपूर्ण खोजें की जा रही थीं। बोहर और उनके सहकर्मियों ने इन बातों को समझने में अहम योगदान दिया। धीमे न्यूट्रॉन की चोट से यूरेनियम के भारी नाभिक के टूटने व साथ ही ऊर्जा निकलने की बात सबसे पहले माइट्नर (जो कि 1938 में जर्मनी से स्वीडन पलायन कर गए थे) और फ्रिश ने ढूंढ निकाली। फ्रिश उस समय कोपनहेगन में बोहर के साथ काम कर रहे थे। बोहर ने, अपने प्रिंस्टन प्रवास के दौरान, इन विचारों को अटलांटिक पार पहुंचाया और यह भी बताया कि प्रेक्षित टूटन विरल यूरेनियम-235 की है, न कि आम यूरेनियम-238 की। इस सुझाव का अर्थ यह निकला कि यदि यूरेनियम 235 को इसके साथी यूरेनियम-238 से अलग किया जा सके, तो ऊर्जा की विशाल मात्रा निकाली जा सकती है। परमाणु युग शुरू हो चुका था।

बोहर का नज़रिया
यद्यपि बोहर, प्रिंस्टन के जॉन व्हीलर के सहयोग से नाभिकीय संरचना संबंधी अपने काम में लगे रहे परंतु इस खोज के सामाजिक व राजनैतिक परिणामों ने उन्हें परेशान कर दिया। जर्मनी में राजनैतिक स्थिति बिगड़ने के कारण, 1930 के दशक में कोपनहेगन का संस्थान यहूदी वैज्ञानिकों के लिए स्वर्ग बन गया था। बोहर ने उन लोगों की सक्रिय रूप से तलाश की जिन्हें मदद की जरूरत थी। इस समय तक उन्हें लगने लगा था कि नाभिकीय विखंडन के जिन परिणामों को वे महसूस कर पा रहे हैं, वे वास्तव में समाज के लिए खतरनाक हैं। दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो चुका था। पहले तो बोहर ने कोपनहेगन में ही टिककर जितना कुछ कर सकते थे किया। जब उन्हें देश निकाला स्पष्ट दिखने लगा, तो मित्र देशों ने उन्हें पहले तटस्थ स्वीडन और फिर इंग्लैंड भेज दिया। इंग्लैंड में बोहर को परमाणु बम संबंधी ब्रिटिश कामकाज की जानकारी मिली।

अपने मन में बोहर परमाणु हथियार की संभावना को लेकर स्पष्ट थे। उन्हें पता था कि इससे जुड़ी तकनीकी दिक्कतों से पार पा लिया जाएगा, हालांकि इसमें कितना समय लगेगा यह अनिश्चित था। उन्होंने इन हथियारों के नियंत्रण के महत्व को तुरंत पहचाना। उन्होंने ब्रिटिश युद्ध मंत्रालय में परमाणु हथियार विकास के लिए जिम्मेदार अधिकारी सर जॉन एंडरसन से सहायता मांगी। उनकी बात बहुत सीधी थी - कि विनाश की क्षमता में एकाएक विकास के चलते रूसियों से सहयोग का एक अभूतपूर्व मौका मिला है, चाहे हमारे सामाजिक नज़रिए और राजनैतिक उद्देश्यों में कितना भी अंतर क्यों न हो। आगे कई वर्षों तक चलने वाली बहस में वे इसी बात पर टिके रहे; लेकिन अंततः असफल और हताश हुए। उनका कहना था कि चूंकि नाभिकीय हथियार बनाने संबंधी बुनियादी तथ्य सर्वविदित हैं, इसलिए इस क्षेत्र में थोड़े समय तक ही अग्रणी बने रहा जा सकता है। परमाणु हथियारों की एक अंतहीन होड़ को रोकने का एकमात्र तरीका, रूसियों के साथ संबंधित ज्ञान का बंटवारा करना ही हो सकता है।

चर्चिल और रूज़वेल्ट से बातचीत
अगले तीन सालों में बोहर ने परमाणु हथियार दौड़ को शुरू होने से पहले ही रोकने की अटूट कोशिशें कीं। वे अब संयुक्त राज्य अमेरिका चले गए। यहां वे 'मैनहटन प्रॉजेक्ट' में भागीदार बने पर साथ ही उन्होंने ब्रिटिश राजदूत, हैलिफेक्स के अर्ल और न्यायाधीश फेलिक्स फेंकफर्टर की मदद से राष्ट्रपति रूज़वेल्ट से मुलाकात की कोशिश की और सफल भी हो गए। अमरीकी राष्ट्रपति का इस मुद्दे पर रवैया सहानुभूतिपूर्ण था पर वे चाहते थे कि बोहर अपने विचार इंग्लैंड के प्रधानमंत्री चर्चिल को बताएं। रूज़वेल्ट के व्यवहार से बोहर आशान्वित हुए। वे ब्रिटेन गए और सरकार में उच्च स्तर पर यह समझाने की कोशिश की कि रूसियों से परमाणु हथियारों का ज्ञान बांटना कितना ज़रूरी है। लेकिन बोहर को पूर्ण पराजय का सामना करना पड़ा। चर्चिल से मिलना मुश्किल था। बोहर और चर्चिल के बीच 1944 में हुई यह नाज़ुक मुलाकात उन घटनाओं में से है जिनमें विश्व इतिहास करवट लेता है। जब वे मिले तब वातावरण शंकाओं से भरा और वैमनस्यपूर्ण था। चर्चिल बोहर की बातों के एकदम खिलाफ थे। वह राज्य के मामलों में किसी डेनिश प्रोफेसर की सलाह लेने के लिए कतई तैयार न थे और उन्होंने यहां तक कहा कि रूस की वकालत करने के मामले में बोहर की जांच की जानी चाहिए। चर्चिल के व्यवहार ने रूज़वेल्ट का रूख भी पलट दिया। जल्दी ही, रूस को विश्वास में लिए बगैर, हिरोशिमा और नागासाकी पर बम गिराए जाने से नाभिकीय हथियारों की दौड़ शुरू हो चुकी थी।

बोहर की सारी शंकाएं सच साबित हुई हैं। परमाणु हथियारों के क्षेत्र में सारी बढ़त क्षणिक ही रही। ऐसा लगने लगा जैसे राष्ट्र और परमाणु हथियार एक लगातार ऊपर उठती लिफ्ट पर सवार हो गए हों, और ऐसी कोई जगह नहीं है जहां हम इसे लिफ्ट से उतर सकें। यकीनी तौर पर बोहर ही वो अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने इस लिफ्ट को चालू होने से रोकने की कोशिश की थी। उन्होंने सोचा था कि मेनचेस्टर में जो अंतरराष्ट्रीय सहयोग देखा था और जिसका उन्होंने कोपनहेगन में अनुसरण किया था, वह राजनेताओं को भी भाएगा। वे अपनी कोशिशों में नाकाम रहे।

परंतु उनके प्रयासों से एक बात तो उजागर होती है कि वैज्ञानिक और मानवीय सरोकार एक-दूसरे के विपरीत नहीं हैं। प्रकृति अपने सारे रहस्य उस व्यक्ति के सामने खोल देती है, जो उसे आदर के साथ हाथ लगाता है। मानवीयता का सरोकार इसी आदर की एक और अभिव्यक्ति है।


कमल दत्ता - दिल्ली विश्वविद्यालय में भौतिक शास्त्र पढ़ाते हैं।
यह लेख ‘स्रोत' के नवंबर 1989 अंक से लिया गया है।