भोलेश्वर दुबे,
स्निग्धा मित्रा

गिरते तो हैं वर्तिकाग्र पर ढेर सारे परागकण, लेकिन उनमें से सफल होता है कोई एक ही अंडाणु तक पहुंचने में।

परिपक्व परागकोष के फटने से असंख्य परागकण हवा, पानी, कीट, द्वारा फूल के वर्तिकाग्र पर पहुंचते हैं। एक नए पौधे के निर्माण के लिए यह पहला ज़रूरी कदम होता है। परन्तु इसके बाद की प्रक्रिया के बारे में ज्यादातर लोग एकदम अनजान होते हैं। एक आम मान्यता यह है कि स्त्रीकेसर के ऊपरी हिस्से - वर्तिकाग्र - पर पहुंचा परागकण स्त्रीकेसर की नली - वर्तिका - में से अंदर की तरफ गिरकर अंडाशय तक पहुंच जाता है, क्योंकि वर्तिका अंदर से एकदम पोली होती है।

अक्सर लोगों को यह सुनकर अचंभा होता है कि वर्तिकाग्र पर पहुंचने के बाद परागकण में से परागनली निकलती है जो वर्तिका में से होती हुई अंडाशय तक पहुंचती है और इस नली के जरिए नर कोशिका अंडाशय तक पहुंचती है। फिर यहां नर और मादा जनन कोशिका का मिलन होता है। एक अत्यन्त छोटे परागकण में से निकली हुई नली इतनी दूर जा सकती है. यह शायद आश्चर्य की बात है ही

इस प्रक्रिया का और विस्तार से अध्ययन करने के लिए जरूरी है कि परागकण, वर्तिकाग्र और वर्तिका की बनावट के बारे में कुछ और जानकारी हासिल कर लें।

परागकण की बनावट
आमतौर पर परागकण गोलाकार होता है जैसा कि जासौन या बेशरम में। ( परन्तु कई पौधों में परागकण अंडाकार, अर्धगोल, तिकोने एवं अन्य आकार के भी होते हैं।) ऐसे ही परागकण की बाहरी परत अक्सर खुरदुरी होती है, परन्तु जरूरी नहीं कि हर परागकण की बाहरी भित्ती खुरदुरी नज़र आए

पूर्ण रूप से विकसित परागकण जब परागकोष से अलग होता है, तो वह एक द्विकोशीकीय संरचना होता है। यानी कि हम यह कह सकते हैं कि

बिखरने के लिए तैयार परागकण: चित्र में अधखुली स्थिति में एक परागकोष, उसमें मौजूद परागकण और उसके आगे से जाती हुई पतली डंडी जैसी रचना दिख रही है। जो वर्तिका है।

पुंकेसर पुष्प की नर रचना है जिसमें परागकण मौजूद होते हैं। परिपक्व होने के बाद ये परागकण हवा, कीट, पक्षी या किसी अन्य माध्यम से स्त्रीकेसर के वर्तिकाग्र तक पहुंचते हैं। एक फूल में ही आमतौर पर वर्तिका और परागकण के परिपक्व होने का समय फर्क होता है और अक्सर एक फूल के परागकण दूसरे फूल की वर्तिका पर अंकुरित होते हैं।

आमतौर पर परागकोष से मुक्त होने की अवस्था में परागकण अपने में जीवद्रव्य के साथ एक जनन कोशिका और नाल नाभिक को समाए रखता है।

पूर्ण विकसित पराग कोशिका यानी परागकण के जीवद्रव्य में काफी मात्रा में मंड व थोड़ी मात्रा में वसा और प्रोटीन भी पाए जाते है। परागकण की भित्ति दो परतों से बनी होती है। बाहरी भित्ति ज़्यादातर खुरदुरी होती है और इसमें स्पोरोपॉलेनिन नामक रासायनिक पदार्थ होता हैइस भित्ति के कारण पराग कण को स्थायित्व और सुरक्षा मिलती है। क्योंकि स्पोरोपॉलेनिन के कारण उसे आसानी से नष्ट नहीं किया जा सकता।* इस भित्ति में कुछ प्रोटीन पदार्थ भी होते हैं। इस बाहरी भित्ति को एक्ज़ाइन कहा जाता है। इसी भित्ति पर होती हैं कुछ छिद्रनुमा रचनाएं। कहीं तो साफ छिद्र होते हैं, तो कहीं

बाहर की तरफ निकली हुई टोपीनुमा रचनाएं, जिनके ऊपर बाहरी भित्ति काफी कमजोर होती है। इन्हीं संरचनाओं से अंदर की भित्ति, इन्टाइन, नलिका के रूप में निकलती है। इस अंदरूनी दीवार में कार्बोहाइड्रेट**, प्रोटीन और वसा पाए जाते हैं। जहां-जहां बाहरी दीवार में छिद्र होते हैं वहां अंदरूनी भित्ति बहुत मोटी होती है और वहां काफी मात्रा में प्रोटीन पाए जाते हैं।

वर्तिका की बनावट
अब वर्तिका तथा वर्तिकाग्र की संरचना के बारे में भी कुछ जरूरी बातों का ज़िक्र कर लें।

वर्तिकाग्र की बाहरी सतह साधा रणतः खुरदुरी और चिपचिपी होती है। अगर बहुत बारीकी से देखें तो स्पष्ट होता है कि वहां पर मौजूद कोशिकाएं अत्यंत सूक्ष्म बालनुमा रचनाएं बनाती हैं। ताकि जब परागकण आए तो पकड़ मजबूत तो हो, और एक बार परागकण फंस जाए तो हवा या अन्य कारक परागकण को उड़ाकर न ले जाएं। इन संरचनाओं की बाहरी भित्ति मुख्यत: कुछ प्रोटीन


* कुछ एक बीज पत्री पौधों में बाहरी भित्ति काफी कमज़ोर होती है जैसे कि केले की समस्त प्रजातियों में।
** पेक्टीन और सेल्यूलोज़।


एक ही परागकण की दो स्थितियां; जिसमें प्रोटीन मिलने की जगह दिखाई गई है
a. इन्टाइन -- अंदरूनी भित्ती -- पर प्रोटीन की स्थिति एक्ज़ाइन - बाहरी भित्ती पर प्रोटीन की स्थिति। c. परागकण के ऊपर की ओर टोपीनुमा रचना दिख रही है।

पदार्थों से बनी होती है। इनके नीचे कुछ ऐसी ग्रंथीनुमा कोशिकाएं होती है जिनमें से शर्करा जैसे पदार्थ स्रावित होते हैं। अक्सर वर्तिका ठोस होती है। जिसके बीच के हिस्से में कुछ विशेष ऊतक होते हैं जिनकी कोशिकाओं की बाहरी भित्ती मोटी और रेशेदार होती है।इस भित्ती में कुछ पुटक (Vesicle) भी होते हैं।* पराग नली इसी परत में होकर आगे बढ़ती है। इन कोशिकाओं के बीच की जगह में कुछ रासायनिक पदार्थ ( केल्शियम पेक्टेट ) तथा प्रोटीन परे रहते हैं।

कुछ पौधों में वर्तिका खोखली होती है, परन्तु उनमें भी इस खोखली संरचना पर ग्रंथिनुमा कोशिकाएं होती हैं जो पोषक पदार्थ स्रावित करती हैं।

कई किताबों में पढ़ने को मिलता है कि अंडाशय के उस सिरे से जहां से बाद में अंकुरण होता है . कुछ रासायनिक पदार्थ भी स्रावित होते हैं। इन रसायनों के प्रति संवेदनशील होने के कारण पराग नली उसी तरफ बढ़ती है। इसके बारे में अभी तक कोई ठोस सबूत नहीं मिला है, मगर यह कहा जाता है कि केल्शियम आयनों की सांद्रता की वजह से शायद यह तय होता होगा। इन सब संरचनाओं को इतनी गहराई से समझना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि पराग नली को निकलना और फिर आगे बढ़कर अंडाणु तक पहुंचना इन्हीं पर आधारित है।


इस संदर्भ में पुटक छोटी गेंदनुमा रचनाएं हैं जिनमें बारीक झिल्ली के अंदर पोषक पदार्थ भरा रहता है।


वर्तिका पर टिका परागकणः बालनुमा रचनाएं - जो मूल आकार से काफी बड़ा करके देखने पर उंगलीनुमा लग रही हैं - परागकण को वर्तिकाग्र पर रोके रखने का काम करती हैं। ताकि हवा या अन्य कारक उसे उड़ाकर कहीं और न ले जाएं।

सफर की शुरुआत
जब वर्तिकाग्र पर परागकण गिरता है तो वह वर्तिकाग्र की उंगलीनुमा रचनाओं में फंस जाता है। फिर शुरू होती है पहचानने की प्रक्रिया, जो परागकण की बाहरी भित्ति पर पाए जाने वाले प्रोटीन तथा वर्तिकाग्र की उंगलिनुमा आकृतियों की दीवार पर स्थित प्रोटीन के आपसी तालमेल से तय होती है।

अगर पहचान का यह पहला कदम सफल रहा तो ग्रंथीनुमा कोशिकाओं से पानी और शर्करा जैसे पदार्थ स्रावित होने लगते हैं। इससे परागकण पानी सोखने लगता है और उसके जीवद्रव्य में पानी की मात्रा बढ़ने से परागकण की अंदरूनी दीवार पर दबाव पड़ता है। स्वाभाविक है कि परागकण की बाहरी भित्ति पर भी दबाव पड़ता होगा। इससे जहां कहीं बाहर वाली भित्ति में कमज़ोर जगह या छिद्र थे वहां से अंदरूनी भित्ति बाहर निकल आती हैअक्सर यह अंदरूनी भित्ति एक साथ कई जगह से बाहर निकल आती है, परन्तु उनमें से केवल किसी एक छेद में से जनन कोशिका और नली केन्द्रक भी बाहर निकल जाते हैं। जिस तरफ के छिद्र में से अंदरूनी

पत्ति के साथ-साथ ये दोनों भी निकल जाएं उसी छेद में से निकली हुई अंदरूनी भित्ति परागनली के रूप में आगे बढ़ती है।*

शुरुआत में परागनली को आगे बढ़ने (वृद्धि) के लिए कुछ पोषण तो वर्तिकाग्र के शर्करा जैसे पदार्थ से ही प्राप्त होता है और कुछ परागकण के उवद्रव्य में मौजूद मंड में से मिल जाता है। परागनली जब आगे बढ़ती है तो उसे वर्तिका से पोषक पदार्थ मिलने लगते हैं, और नली की वृद्धि होती चली जाती है।

वर्तिकाग्र से जब परागनली वर्तिका में पहुंचती है तो यहां भी परागकण की पहचान की प्रक्रिया चलती है। वर्तिका के अन्तर्कोशिकीय जगह में पाए जाने वाले प्रोटीन परागनली से क्रिया करके फिर से पता करते हैं कि सही परागकण की नली ही है न। यह पहचान अगर सफल हुई तो परागनली वर्तिका में मौजूद ऊतकों को गलाते

एक परागकण का कई गुना बड़ा चित्र। इसमें कई छिद्र दिख रहे हैं। इन्हीं में से किसी से निकलेगी परागनली।

कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं जिनमें नली केन्द्रक परागकण में ही रह जाता है, परागनली के साथ आगे नहीं बढ़ता। और दूसरी ध्यान देने योग्य बात है कि परागनली के साथ आगे बढ़ने वाला नली केन्द्रक, जनन कोशिका के आगे भी हो सकता है और पीछे भी।

a.  परागकण के छिद्रों में से किसी से भी परागनली निकल सकती है, लेकिन बढ़ेगी आगे वही जिसके साथ जनन कोशिका व नली केंद्रक होगा।

कीट, हवा, पक्षी आदि अपने साथ विभिन्न प्रजातियों के परागकण वर्तिकाग्र पर पहुंचा देते हैं। इसलिए सबसे पहले तो इसी बात की पहचान होती है कि क्या यह सही परागकण है। अगर परागकण अपनी ही प्रजाति का है तो ही बात आगे बढ़ती है।

b.  वतिकाग्र पर गिरे परागकणों की अलग अलग स्थितियां : 1. सबसे पहली पहचान वर्तिकाग्र पर; अगर दूसरी प्रजाति का परागकण है। तो पहचाना नहीं जाता और वैसा ही पड़ा रहता है। 2. अगर अपनी ही प्रजाति का है तो उसे वर्तिकाग्र मे पानी व अन्य पदार्थ लेने की छूट मिल जाती है और वो फूल जाता है। 3. दबाव के कारण इन्टाइन छिद्रों से बाहर निकल आती है, और परागनली का स्वरूप ले लेती है। लेकिन हर कदम पर पहचान का सिलसिला चल रहा है। यहां नली थोड़ा आगे बढ़कर ही रुक गई है। 4. नली और आगे बढ़ी और उसने वर्तिकाग्र के भीतर प्रवेश कर लिया लेकिन वो यहां से आगे नहीं बढ़ पाई। 5. नली वर्तिका के काफी भीतर पहुंचकर भी रुक गई। 6. इस परागकण से निकली नली अंडाशय तक पहुंच गई।

परागनली - एक प्रयोग

एक टेस्ट ट्यूब में करीब 10 मि. ली. पानी लेकर उसमें एक चम्मच शक्कर डालिए और हिला कर घोल बना लीजिए। एक स्लाइड पर किसी भी फूल के परागकणों को खंखेर लीजिए और शक्कर के घोल की एक-दो बूंदें उस पर टपकाइए। इस स्लाइड को करीब आधा घंटा रखे रहने दीजिए।

अब आप इस स्लाइड को साधारण माइक्रोस्कोप से देखेंगे तो कुछेक परागकणों से आपको नलीनुमा रचना निकलती दिखेगी। अगर स्लाइड का घोल सूखे नहीं तो थोड़ी देर बाद ये रचनाएं और लंबी हो जाएंगी। यही है वो परागनली जो बीजांड तक पहुंचती है।

हुए आगे बढ़ती जाती है। पराग नली की दीवार में से कुछ एंज़ाइम स्रावित होते हैं जिनसे ऊतक आसानी से गल जाते हैं। वैसे भी वर्तिका में मौजूद इन ऊतकों की बुनावट काफी ढीली व कमजोर होती है। परागनली को आगे बढ़ने के लिए ऊर्जा और पोषक पदार्थ भी वर्तिका के इन विशेष ऊतकों ( ‘ट्रांसमिटिंग टिश्यूज़' ) से ही मिलते हैं और इससे पराग नली और आगे बढ़ती जाती है।

अगर वर्तिका खोखली हो तो परागनली वर्तिका की दीवार के सहारे आगे बढ़ती है।

मगर अभी भी रोक लगाने की प्रक्रिया खत्म नहीं हुई है। ठीक अंडाशय की दीवार पर परागकण को एक बार फिर परखा जाता है। इस बार यह काम अंडाशय की दीवार के प्रोटीन करते हैं। अगर परागनली इस परीक्षा में भी सफल रही तो अंडाशय की दीवार से स्रावित होने वाले किसी कारक से परागनली में उपस्थित जनन कोशिका दो भागों में विभाजित हो जाती है। कुछ प्रजातियों में सफर के शुरुआती चरणों में ही विभाजन की यह क्रिया हो जाती है।

तत्पश्चात, अंडाशय के उस हिस्से के ऊतकों में से जहां से बाद में अंकुरण होने वाला है, पानी परागनली में अवशोषित हो जाता है जिससे कि इस जगह पर परागनली फूलकर फट जाती है, और नर जनन कोशिकाएं अंडाशय में मुक्त हो जाती हैं। इस दौरान नली केंद्रक भी नष्ट हो जाता है। दोनों नर कोशिकाओं में से एक जाकर मादा जनन कोष को निषेचित करती है और भ्रूण बन जाता है। दूसरी नर जनन कोशिका भ्रूणपोष बनाने के लिए अंडाशय की एक अन्य कोशिका

भुट्टे की मूंछ

मक्का के भुट्टे से निकलते रेशमी बाल असल में मक्का के मादा पुष्पों की वर्तिकाएं हैं। इनकी लंबाई लगभग 50 से. मी. तक होती है। इस पर पहुंचने वाले परागकणों से निकली पराग नलिका को अंडाणु से मिलने के लिए इस वर्तिका से गुज़रना होता है। है न लंबा सफर!

से जाकर मिल जाती है

आखिर इस तरह तय होता है यह लम्बा सफर। मगर अभी भी इस सफर के कुछ पहलुओं के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है जैसे कि अंडाशय में ठीक कौन-सा कारक है और वह किस तरह पराग नली के अन्तिम चरण में विभिन्न बदलावों का कारण बनता है।

प्रजनन की इस प्रक्रिया में और भी बहुत-सी बारीकियां हैं कि परागकण आखिर बनता कैसे है, या फिर अंडाशय में मादा जनन कोशिका का निर्माण कैसे होता है, आदि जिनके बारे में फिर कभी बात करेंगे।


भोलेश्वर दुवे : के. पी. कॉलेज, देवास में बनस्पति विज्ञान पढ़ाते हैं।
स्निग्धा मित्रा : एकलव्य के होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से संबद्ध।


सवालीराम से पूछा सवाल...

सवाल: माचिस की डिब्बियों से बने फोन में आवाज़ धागे के द्वारा कैसे एक डिब्बी से दूसरी डिब्बी तक पहुंचती है?

राजेश कुमार सोनी, सराफा बाजार,
आठवीं लाईन, मशीन वाले,
इटारसी, मध्य प्रदेश ने